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माना जाता है। दिव्य फलादि के आहार रूप पुद्गल परिणाम से भी जीव उच्च गौत्र कर्म का भोग करता है। इसी प्रकार स्वाभाविक पुद्गल परिणाम के निमित्त से भी जीव उच्च गौत्र कर्म का अनुभव करता है । जैसे किसी ने अकस्मात् बादलों के आने की बात कही और संयोगवश बादलों के आ जाने से बात मिल गई। यह परतः अनुभाव हुआ । उच्च गौत्र कर्म के उदय से विशिष्ट जाति कुल आदि का भोग करना - यह स्वतः अनुभाव है ।
नीच गौत्र कर्म का वेदन जीव नीच कर्म का आचरण, नीच पुरुष की संगति इत्यादि रूप एक या अनेक पुद्गलों का सम्बन्ध पाकर करता है। जातिवन्त और कुलीन पुरुष भी अधम जीविका चला कर या दूसरा नीच कार्य करके निन्दनीय हो जाता है। पुदगल परिणाम तथा स्वाभाविक पुद्गल परिणाम भी नीच गौत्र कर्म का परतः अनुभाव प्राप्त होता है । नीच गौत्र कर्म के उदय से जातिहीन कुलहीन आदि होना स्वतः अनुभाव है।
अवरोधी अन्तराय
मेरा अनुभव है कि अन्तराय कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य आदि शक्तियों को अवरुद्ध बनाकर उनकी घात करता है। मेरे दान, लाभ आदि कार्यों में जो बाधाएं तथा रुकावटें आती हैं, वे इसी कर्मोदय के कारण आती हैं। इस कर्म को भंडारी के समान माना गया है कि राजा कोई पुरस्कार देने की आज्ञा दे दे किन्तु भंडारी के विरुद्ध होने से वह आज्ञा कार्यान्वित न हो सके और याचक को खाली हाथ लौटना पड़े । राजा की इच्छा को भी भंडारी सफल नहीं होने देता। इसी प्रकार जीव राजा है, दान देने की उसकी इच्छा है, साधन भी उसके पास है किन्तु भंडारी के समान यह अन्तराय कर्म उसमें रुकावट डाल देता है। और जीव विवशतावश होकर कुछ भी नहीं कर पाता है ।
अन्तराय कर्म के पांच भेद बताये गये हैं
(१) दानान्तराय—दान की सामग्री तैयार है, गुणवान पात्र आया हुआ है, दाता दान का फल भी जानता है फिर भी इस कर्म के उदय से जीव को दान करने का उत्साह नहीं होता या दान के बीच में कोई अवरोध खड़ा हो जाता है। यह दानान्तराय का कुप्रभाव होता है ।
(२) लाभान्तराय - - योग्य सामग्री के रहते हुए भी जिस कर्म के उदय से अभीष्ट वस्तु की प्राप्ति नहीं होती, वह लाभान्तराय कर्म है। लाभ पाने के बीच में रुकावट आ जाती है और लाभ नहीं मिलता।
(३) भोगान्तराय—त्याग, प्रत्याख्यान के न होते हुए तथा भोगने की इच्छा रहते हुए भी जिस कर्म के उदय से जीव विद्यमान स्वाधीन भोग सामग्री का कृपणतावश या अन्य बाधा से भोग न कर सके, वह भोगान्तराय कर्म है ।
(४) उपभोगान्तराय — जिस कर्म के उदय से जीव त्याग प्रत्याख्यान न होते हुए तथा उपभोग की इच्छा रहते हुए भी विद्यमान स्वाधीन उपभोग सामग्री का कृपणतावश या अन्य बाधा से उपभोग न कर सके, वह उपभोगान्तराय कर्म है।
(५) वीर्यान्तराय - शरीर निरोग हो, तरुण अवस्था हो, बल का भी संयोग हो फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव प्राणशक्ति रहित होता है तथा सत्त्वहीन की तरह प्रवृत्ति करता है, वह
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