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अनर्थदंड है। इन्हें आत्मा से भिन्न समझकर इनसे व इनके कारणों से आत्मा को बचाना निश्चय अनर्थदंड विरमण व्रत है। पांच अतिचार (अ) कन्दर्य-काम उत्पन्न करने वाले वचन का प्रयोग करना, राग के आवेश में हास्य मिश्रित मोहोद्दीपक मजाक करना। (ब) कौत्कुच्य–भांडों की तरह अंगों को विकृत बनाकर दूसरों को हंसाने की चेष्टा करना। (स) मोखर्य —ढिठाई के साथ असत्यऊटपटांग वचन बोलना। (द) संयुक्ताधिकरण कार्य करने के योग्य ऐसे ऊखल-मूसल, शिला-लोढा, धनुष-बाण आदि अधिकरणों को जो साथ साथ में काम आते हैं, एक साथ रखना। (य) उपभोग परिभोगतिरिक्त उबटन, तैल, वस्त्राभूषण आदि उपभोग-परिभोग की वस्तुओं को अपने व अपने आत्मीयजनों के उपयोग में अधिक रखना।
पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रत-ये कुल मिलाकर बारह अणुव्रत श्रावक के होते हैं। चार शिक्षाव्रत निम्न हैं
(६) सामायिक व्रत—मन, वचन, काया को पाप व आरंभ से हटाना और पापारंभ न हो इस प्रकार उनकी प्रवृत्ति करना व्यवहार सामायिक है। जीव के ज्ञान, दर्शन, चारित्र गुणों का विचार करना और आत्म गुणों की अपेक्षा सर्व जीवों को समान समझ कर समता भाव धारण करना निश्चय सामायिक है। पांच अतिचार—(अ) मनोदुष्पणिधान—मन का दुष्ट प्रयोग करना याने मन को बुरे योग-व्यापार में लगाना । जैसे सामायिक करके घर सम्बन्धी अच्छे-बुरे कार्यों का विचार करना । (ब) वाग्दुष्पणिधान—वचन का दुष्ट प्रयोग करना जैसे असभ्य, कठोर एवं सावध वचन बोलना । (स) काय दुष्पणिधान—बिना देखी, बिना पूंजी जमीन पर हाथ, पैर आदि अवयव रखना। (द) सामायिक का स्मत्यकरण सामायिक की स्मृति नहीं रखना अर्थात् उपयोग नहीं रखना। प्रमादवश भूल जाना। (य) अनवस्थित सामायिक करण–अव्यवस्थित रीति से सामायिक करना जैसे अनियत अल्पकाल तक ही बैठना या अस्थिरता से अनादरपूर्वक करना। पहले तीन अतिचार अनुपयोग तो बाद के दो अतिचार प्रमाद से अधिक सम्बन्धित हैं।
(१०) देशावकाशिक व्रत-मन, वचन, काया के योगों को स्थिर करना और एक जगह बैठकर धर्मध्यान करना व मर्यादित दिशाओं से बाहर आश्रवों का सेवन नहीं करना। ज्ञान स्वरूप जीव द्रव्य का ध्यान करना एवं इसी में रमण करना। पांच अतिचार -(अ) आनयन प्रयोग—मर्यादा किये हुए क्षेत्र से बाहर स्वयं न जा सकने से दूसरे से संदेश आदि देकर सचितादि द्रव्य मंगाना। (ब) प्रेष्य प्रयोग-मर्यादित क्षेत्र से बाहर मर्यादा अतिक्रम के भय से स्वयं न जाकर नौकर-चाकर आदि को भेजकर द्रव्य मंगाना या कार्य कराना। (स) शब्दानुपात –मर्यादा अतिक्रम के भय से बाहर के निकटवर्ती लोगों को छींक, खांसी आदि शब्द द्वारा ज्ञान कराना। इसमें व्रत भंग का भय भी रहता है। (द) रूपानुपात–नियमित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन होने पर दूसरों को अपने पास बुलाने के लिये अपना या पदार्थ विशेष का रूप दिखाना। (य) बहिर्पुद्गल प्रक्षेप–नियमित क्षेत्र से बाहर प्रयोजन होने पर दूसरों को जताने के लिये ढेला, कंकर आदि फैंकना।
(११) पौषध व्रत–चार प्रहर से लेकर आठ प्रहर तक सावध व्यापार का त्याग कर समता परिणाम को धारण करना और स्वाध्याय तथा ध्यान में प्रवृत्ति करना व्यवहार पौषध व्रत है। अपनी आत्मा को ज्ञान-ध्यान द्वारा पुष्ट करना निश्चय पौषध व्रत है। पांच अतिचार-(अ) अप्रत्युपेक्षित दुष्प्रत्युपेक्षित शय्या संस्तारक शय्या, संस्तारक का आंखों से निरीक्षण न करना या अन्यमनस्क होकर
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