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उड़ी मिट्टी और उछले मैल से ढक गया। यह मैल और मिट्टी कर्मों की मलिनता थी। मुझसे भांति भांति के अकार्य होते गये और आठों कर्मों के बंधन कसते गये। पूरा आत्मस्वरूप कर्मपुद्गलों के विभिन्न आवरणों से आच्छादित हो गया। भीतर ही जब जड़ पुद्गलों का शासन स्थापित हो गया तो बाहर उन जड़ पुद्गलों के शासन का निरोध करने वाला बचा ही कौन था ? बाह्य जगत् के लुभावने पदार्थों की प्राप्ति ही मेरी समूचा लक्ष्य बन गया। मैं अपने ही मन और अपनी ही इन्द्रियों का दास बन गया जो जड़ पदार्थों की मनोज्ञता में ही रमण करने लगे। सर्व प्रकार से मैं सत्ता और सम्पत्ति के मोह में ऐसा भान भूला कि भूल गया सब कुछ जिसे सुज्ञता और संवेदनशीलता कहते हैं।
__ वस्तुतः यह मेरी जड़ग्रस्तता का संकट है। जिस चेतना को सतत ज्ञान एवं जागृतिमय रहना चाहिये, वही चेतना जब स्वयं जड़ जैसी बन गई और जड़ग्रस्त हो गई। जड़ता भी ऐसी गहरी कि जिसके घनत्व को हटाने के लिये कठिन पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है। यह जड़ता या जडग्रस्तता ही मेरी समस्त तच्छता एवं हीन भावना की जड है। जब तक मैं उस जड को नहीं उखाड़ पाऊंगा-जड़ता को मिटा नहीं पाऊंगा, तब तक मैं मेरे मानस, मेरी वाणी तथ की तुच्छता को भी हटा नहीं पाऊंगा।
तुच्छता से स्वरूप विकृति जब मैं अपने सुख की खोज भीतर नहीं करके बाहर ही बाहर करता हूँ तो मुझे इन्द्रियों के विषय-सुख ही दिखाई देते हैं और उन सुखों की सामग्री अपने लिये अर्जित करने में मैं अपनी सारी शक्तियाँ लगा देता हूँ। तब मेरी दृष्टि उच्च वर्ग की तरफ लगी रहती हैं, जिनके पास ऐसी सुख सामग्री विपुलता में उपलब्ध रहती है। उसे मैं देखता हूँ और मेरी इच्छाएँ बढ़ती रहती हैं। एक इच्छा को पूरी करने के लिये श्रम करता हूँ तो दूसरी इच्छा अतृप्ति की प्यास लिये मेरे सामने आकर खड़ी हो जाती है—अकेली नहीं, उसके पीछे इच्छाओं की कतार लग जाती है। मैं तब भ्रम में पड़ जाता हूँ और सोचता हूँ कि किस प्रकार अपनी सारी इच्छाओं की पूर्ति जल्दी से जल्दी कर डालूं। तभी मुझे समझ में आता है कि ऐसा मैं नैतिकतापूर्वक किये गये अपने श्रम से कभी भी नहीं कर पाऊंगा और पदार्थों का मोह ऐसा प्रगाढ़ हो जाता है कि मैं सुखकारी और मनोज्ञ पदार्थों को पाने के लिये दूसरे अवांछित रास्तों पर बढ़ जाता हूँ। उन पदार्थों को येन-केन प्रकारेण प्राप्त कर लेने का ही मेरा ध्येय बन जाता है। मैं तब अनीति का कोई कार्य त्याज्य नहीं मानता, बल्कि वैसे कार्य करके भी सत्ता और सम्पत्ति जमा करने का निश्चय कर लेता हूँ।
यहीं से मेरे अधःपतन का मार्ग आरंभ होता है। समाज विरोधी प्रवृत्तियों में मैं बेभान बन कर जुट जाता हूँ तब न हिंसा का ध्यान रहता है न झूठ का, न विचारों की हीनता और न वचनों की विद्रूपता तथा कार्यों की कुत्सितता का। सब पर कालिख पोतता हुआ मैं काले धंधों में व्यस्त हो जाता हूँ। यह जड़ग्रस्तता की मेरी अंधकारपूर्ण मनोदशा होती है। ऐसी ही मनोदशा में कभी-कभी सत्संसर्ग के कारण कुछ प्रकाश की रेखाएं प्रकट होती हैं।
तब मैं सोचता हूँ कि मन, वाणी और कर्म की मेरी उच्चता कैसी थी और अब उन्हीं की तुच्छता कितनी जघन्य और निकृष्ट हो गई है ? मेरी सुज्ञता और संवेदनशीलता में हल्का-सा ज्वार आता है और मेरा चिन्तन चलता है—अहिंसा को परम धर्म मानते हुए मैं अपनी सुख सुविधा पर कम और अन्य प्राणियों की सुख-सुविधा पर अधिक ध्यान देता था, किन्तु अब मुझे यह क्या हो
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