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श्रावकत्व की सफलता ही उसको ऊपर के साधुत्व के सोपान पर आरूढ करायेगी, जिस प्रकार सम्यक्त्व जागरण ने उसको श्रावकत्व के ऊपर के सोपान पर उठाया था। मेरी यही मनोकामना रहती है कि मेरे आत्मविकास की महायात्रा सतत रूप से चलती रहे तथा प्रगति के नये-नये आयाम खोजती और प्राप्त करती रहे ।
ज्ञान बिन क्रिया, क्रिया बिन ज्ञान
मुझे यह सत्य सुविदित है कि ज्ञान एवं क्रिया के सार्थक संयोग से ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। दोनों में से एक का अभाव दूसरे को भी निरर्थक बना देगा। मुझे लंगड़े और अंधे का रूपक याद है। ज्ञान को लंगड़ा समझिये तो क्रिया को अंधी। लंगड़ा चल नहीं सकेगा क्योंकि उसके पांव नहीं होते और क्रिया भी अच्छी तरह चल नहीं सकेगी क्योंकि उसके आंखें नहीं होती। लेकिन दोनों मिल जाय तो चले भी जाय । क्रिया के कंधों पर ज्ञान बैठ जाय और उसे रास्ता सुझाता रहे तो क्रिया भली-भांति चलती रहेगी तथा गंतव्य तक पहुंचा देगी।
मैं सोचता हूं कि ज्ञान बिना क्रिया का हो तो वह क्या होगा ? कल्पना करें कि मैं रोगी हूं, अपने रोग की रामबाण औषधि जानता भी हूं परन्तु औषधि लेने की क्रिया नहीं करता तो मेरे रोग का क्या होगा ? क्या मेरे मात्र औषधि ज्ञान से मेरा रोग चला जायगा ? क्रिया बिना मेरा वह ज्ञान निरर्थक रहेगा। अतः मैं आध्यात्मिक विषयों को जानूं- यह पहली आवश्यकता है ही किन्तु जो मैं जानता जाऊं, उसे मैं मानता जाऊं और उसे क्रियान्वित करता जाऊं तभी कार्य सम्पादन का क्रम बना रह सकता है। बिना क्रिया भी ज्ञान तो रहेगा, लेकिन वह निष्प्रयोजन तथा निरूपयोगी होगा। फिर मैं सोचता हूं कि उस क्रिया की क्या दशा होगी जो ज्ञानपूर्ण न हो ? कल्पना करें कि मैं रोगी हूं और औषधि लेने को आतुर व सक्रिय भी, लेकिन औषधि का ज्ञान नहीं है । यह अज्ञान मुझे विष भी खिला सकता है। इस कारण बिना ज्ञान की क्रिया तो भयावह परिणाम वाली हो सकती
है ।
मेरी मान्यता बन गई है कि चारित्र रहित पुरुष को बहुत से शास्त्रों का अध्ययन भी क्या लाभ दे सकता है ? क्या लाखों दीपकों का जलाना भी कहीं अँधे को देखने में सहायक हो सकता है ? जैसे चन्दन का भार ढोने वाला गधा केवल भार ही का भागी है । चन्दन की शीतलता उसे नहीं मिलती है। इस प्रकार चारित्र्य रहित ज्ञानी का ज्ञान केवल भार रूप है। वह सुगति का अधिकारी नहीं होता । क्रियाशून्य ज्ञान निष्फल है। अज्ञानपूर्वक की गई क्रिया भी फलवती नहीं होती है। आग लग जाने पर पंगु पुरुष का देखना उसे आग से नहीं बचा सकता और न अंधे पुरुष का पराक्रम ही उसे निरापद स्थान पर पहुंचा सकता है। किन्तु निरपेक्ष ज्ञान क्रिया वाले दोनों ही आग में जल जाते
हैं।
मैं आप्त वचनों का पुण्य स्मरण करता हूं तो स्पष्ट हो जाता है कि पहले ज्ञान होना चाहिये और फिर तदनुसार दया अर्थात् क्रिया या आचरण । अज्ञानी आत्मा क्या करेगी ? वह पुण्य और पाप को कैसे जान पायेगी ? जो श्रेय हितकर हो उसी का आचरण करना चाहिये। जो न जीव (चेतन) को जानता है, न अजीव (जड़) को, वह संयम को कैसे जान पायेगा ?
इस बिन्दु पर मैं चिन्तन करता हूं कि मैं संयम को कैसे जान, मान और धार पाऊंगा ? उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर मेरा ध्यान केन्द्रित होता है कि ज्ञान और क्रिया के डग साथ-साथ
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