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भी नहीं करना चाहिये क्योंकि पूर्व रति एवं क्रीड़ा का स्मरण करने से कामाग्नि दीप्त होती है जो ब्रह्मचर्य के लिये घातक है।
(५) परिग्रह विरमण महाव्रत - अल्प, बहु, अणु, स्थूल, सचित्त, अचित्त आदि समस्त द्रव्य विषयक परिग्रह का तीन करण तीन योग से त्याग करना परिग्रह विरमण रूप पंचम महाव्रत है। मूर्च्छा-ममत्व होना भाव परिग्रह है और वह त्याज्य है । मूर्च्छा भाव का कारण होने से बाह्य सकल वस्तुएँ द्रव्य परिग्रह है और वे भी त्याज्य हैं। भाव परिग्रह मुख्य है और द्रव्य परिग्रह गौण । इसलिये यह कहा गया है कि यदि धर्मोपकरण एवं शरीर पर साधु के मूर्च्छा ममता भाव जनित राग-भाव न हो तो वह उन्हें धारण करता हुआ भी अपरिग्रही ही है।
परिग्रह विरमण रूप पंचम महाव्रत की पांचों भावनाएं पांचों इन्द्रियों से सम्बन्धित हैं। पांचों इन्द्रियों के विषय - शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श के इन्द्रिय गोचर होने पर मनोज्ञ विषयों पर साधु मूर्च्छा - गृहि भाव न लावे और अमनोज्ञ पर द्वेष न करे । यों तो विषयों के गोचर होने पर इन्द्रियां उसमें लगती ही हैं, परन्तु साधु को मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ विषयों पर राग द्वेष नहीं करना चाहिये। पंचम महाव्रत में मूर्च्छा रूप भाव परिग्रह का त्याग किया जाता है, इसलिये मूर्च्छा-ममत्व करने से यह महाव्रत खंडित हो जाता है ।
साधु प्राणातिपात निवृत होने के लिये यतनापूर्वक जो सम्यक् प्रवृति करता है, वह समिति कहलाती है । प्रशस्त एकाग्र परिणाम पूर्वक की जाने वाली समिति के पांच भेद बताये गये हैं (१) ईर्या समिति - ज्ञान, दर्शन और चारित्र के निमित्त युग परिमाण भूमि को एकाग्र चित्त से देखते हुए राजमार्ग आदि में यतनापूर्वक गमनागमन करना, (२) भाषा समिति – यतनापूर्वक भाषण में प्रवृति करना अर्थात् आवश्यकता होने पर भाषा के दोषों का परिहार करते हुए सत्य, हित, मित और असंदिग्ध वचन कहना, (३) ऐषणा समिति - गवैषणा, ग्रहण और ग्रास, सम्बन्धी ऐषणा के दोषों से अदूषित अतएव विशुद्ध आहार, पानी, रजोहरण, मुखवाधिका आदि औधिक उपधि और शय्या, पाट, पाटलादि औपग्रहिक उपधि का ग्रहण करना । (४) आदान, मंड मात्र निक्षेपणा समिति – आसन, संस्तारक, पाट, पाटला, वस्त्र, पात्र, दंडादि उपकरणों को उपयोगपूर्वक देखकर एवं रजोहरणादि से पूंजकर लेना एवं उपयोगपूर्वक देखी और पूंजी हुई भूमि पर रखना, तथा (५) उच्चार प्रस्रवण खेल सिंघाण जल्ल परिस्थापनिका समिति - स्थंडिल के दोषों का वर्जन करते हुए परिठवने योग्य लघुनीत, बड़ीनीत, थूक, कफ, नासिका मल, और मैल आदि को निर्जीव स्थंडिल में उपयोगपूर्वक वोसिराना ।
मोक्ष के लिये किये जाने वाले ज्ञानादि आसेवन रूप अनुष्ठान विशेष आचार कहलाते हैं, जो पांच हैं (१) ज्ञानाचार – सम्यक् तत्त्व का ज्ञान कराने के कारण भूत श्रुतज्ञान की आराधना करना, (२) दर्शनाचार - दर्शन अर्थात् सम्यक्त्व की निःशंकितादि रूप से शुद्ध आराधना करना, (३) चारित्राचार - ज्ञान एवं श्रद्धापूर्वक सर्व सावध योगों का त्याग करना चारित्र है और उसका सेवन करना चारित्राचार, (४) तपाचार – इच्छा निरोध रूप अनशनादि तप का सेवन करना एवं ( ५ ) वीर्याचार — अपनी शक्ति का गोपन न करते हुए धर्म कार्यों में यथा शक्ति मन, वचन, काया द्वारा प्रवृत्ति करना ।
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