________________
भंडोपकरण लेने और रखने का आगम में निषेध है। इस लिये साधु आगमानुसार देखकर और पूंज कर यतनापूर्वक भंडोपकरण लेवे और रखे, अन्यथा प्राणियों की हिंसा संभव है। (४) संयम में सावधान साधु मन को शुभ प्रवृत्तियों में लगावे । मन को दुष्ट रूप से प्रवर्ताने वाला साधु प्राणियों की हिंसा करता है। काया का गोपन होते हुए भी मन की दुष्ट प्रवृत्ति कर्मबंध का कारण होती है। (५) संयम में सावधान साधु अदुष्ट अर्थात् शुभ वचन में प्रवृत्ति करे। दुष्ट वचन में प्रवृत्ति करने वाले के प्राणियों की हिंसा संभव है।
(२) मृषावाद विरमण महाव्रत-प्रियकारी, पथ्यकारी एवं सत्य वचनों को छोड़कर कषाय, भय, हास्य आदि के वश असत्य, अप्रिय, अहितकारी वचन कहना मृषावाद है। सूक्ष्म व बादर के भेद से असत्य वचन दो प्रकार का है। सद्भाव प्रतिषेध, असद्भावोद्भावन, अर्थान्तर और गर्दा के भेद से असत्य वचन चार प्रकार का भी है। अप्रिय वचन क्या? चोर को चोर कहना, कोढ़ी को कोढ़ी कहना या काने को काना कहना आदि अप्रिय वचन है। अहित वचन क्या ? शिकारियों के पूछने पर मृग देखने वाले पुरुष का उन्हें विधि रूप में उत्तर देना अहित वचन है। ये अप्रिय एवं अहित वचन व्यवहार में सत्य होने पर भी पर-पीडाकारी होने से एवं प्राणियों की हिंसा के पाप-हेतु होने से सावध है। अतः हिंसायुक्त होने से वास्तव में असत्य ही हैं। ऐसे मृषावाद से सर्वथा जीवन पर्यन्त तीन करण योग से निवृत्त होना मृषावाद विरमण रूप द्वितीय महाव्रत है।
मृषावाद विरमण रूप द्वितीय महाव्रत की पांच भावनाएं इस प्रकार हैं -(१) सत्यवादी साधु को हास्य का त्याग करना चाहिये, क्योंकि हास्यवश मृषा-भाषण हो सकता है। (२) साधु को सम्यक् ज्ञानपूर्वक विचार करके बोलना चाहिये, क्योंकि बिना विचारे बोलने वाला कभी झूठ भी कह सकता है। (३) क्रोध के कुफल को जानकर साधु को उसे त्यागना चाहिये । एक क्रोधान्ध व्यक्ति का चित्त अशान्त हो जाता है, वह स्व-पर का भान भूल जाता है और जो मन में आता है, वही कह देता है। इस कारण उसके झूठ बोलने की बहुत संभावना रहती है। (४) साधु को लोभ का त्याग करना चाहिये, क्योंकि लोभी व्यक्ति धनादि की इच्छा से झूठी साक्षी आदि से झूठ बोल सकता है। (५) साधु को भय का भी परिहार करना चाहिये। भयभीत व्यक्ति प्राणादि को बचाने की इच्छा से सत्य व्रत को दूषित कर असत्य में प्रवृत्ति कर सकता है।
(३) अदत्तादान विरमण महाव्रत—कहीं पर भी ग्राम, नगर, अरण्य आदि में सचित्त, अचित्त, अल्प, बहु, अणु, स्थूल आदि वस्तु को उसके स्वामी की बिना आज्ञा लेना अदत्तादान है। यह अदत्तादान स्वामी, जीव, तीर्थ एवं गुरु के भेद से चार प्रकार का होता है- स्वामी से बिना दी हुई तृण, काष्ठ आदि वस्तु लेना स्वामी अदत्तादान है, (ब) कोई सचित्त वस्तु स्वामी ने दे दी हो, परन्तु उस वस्तु के अधिष्ठाता जीव की आज्ञा बिना उसे लेना जीव अदत्तादान है। जैसे माता-पिता या संरक्षक द्वारा पुत्रादि को शिष्य भिक्षा रूप में दिये जाने पर भी उन्हें उनकी इच्छा पूर्वक दीक्षा लेने का परिणाम न होने पर भी उनकी सहमति के बिना उन्हें दीक्षा देना जीव अदत्तादान है। इसी प्रकार सचित्त पृथ्वी आदि पदार्थ स्वामी द्वारा दिये जाने पर भी पृथ्वी शरीर के स्वामी जीव की आज्ञा नहीं होने से उसे भोगना जीव अदत्तादान है। इस रूप में सचित्त वस्तु के भोगने से प्रथम महाव्रत के साथ साथ तृतीय महाव्रत भी भंग होता है। (स) वीतराग देवों व तीर्थंकर देवों द्वारा प्रतिषेध किये हुए आधा कर्मादि आहार ग्रहण करना तीर्थंकर अदत्तादान है। (द) स्वामी द्वारा निर्दोष
१६०