________________
सर्वांशतः सिद्धान्तनिष्ठ जीवन मैं चिन्तवन करता हूं कि मैं इसी जीवन में सर्वांशतः सिद्धान्तनिष्ठ जीवन जीऊँ तथा आत्मविकास की महायात्रा को सार्थक बनाऊँ। मूल में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह के पांचों सिद्धान्त संयमी जीवन के आधारभूत हैं। सबसे पहले मैं मिथ्यात्व के अंधकार से बाहर निकलता हूं तो सम्यक्त्व का प्रकाश मिलता है। इसी प्रकाश से त्याग करने और व्रत लेने की निष्ठा उत्पन्न होती है। तब इन्हीं आधारभूत सिद्धान्तों का अंशतः पालन शुरू करता हूं जो देशविरति होता है। वहाँ से इन्हीं सिद्धान्तों के सर्वांशतः पालन का मार्ग आरंभ होता है। यह संयमी जीवन, दुधारी तलवार पर चलने जैसा कठिन जीवन होता है। इस जीवन में सिद्धान्त-निष्ठा जितनी प्रबल होती जाती है, आत्म-स्वरूप की अनुभूति भी प्रखर बनती जाती है।
मुझे यह ज्ञात है कि मेरी आत्मा का याने मेरा सर्वोच्च लक्ष्य इस जड़ संसार से सभी सम्बन्ध समाप्त कर देना है अर्थात् मेरा मार्ग संसार से निवृत्ति का मार्ग है- प्रवृत्ति का नहीं। जो निवृत्ति व्रत प्रत्याख्यान की धारणा के साथ शुरू होती है, त्याग-तप की कठिन आराधना के साथ ज्यों-ज्यों वह निवृत्ति गहरी होती चली जाती है, त्यों-त्यों सम्पूर्ण सांसारिकता के प्रति मेरी अरुचि भी बढ़ती जाती है। मैं पदार्थ-मोह को त्यागता हूं किन्तु उसके बाद अपने शरीर के प्रति भी अपने ममत्व को घटा देता है। इस शरीर को मात्र धाराधना का साधन मान कर चलाता हूँ इसके सख के सारे ख्याल मिटा देता हूं। इतना ही नहीं, इच्छापूर्वक इसको सविवेक ऐसे कष्ट भी देता हूं कि इसकी कष्ट-सहिष्णुता सुदृढ़ बन जाय । मैं रल त्रय की साधना में निमग्न हो जाता हूँ क्योंकि प्रतिपल मुझे अपने सर्वोच्च लक्ष्य का ध्यान रहता है।
मैं सर्वांशतः सिद्धान्तनिष्ठ साधु जीवन या अणगार चारित्र धर्म में अपनी समस्त आत्म शक्तियों को नियोजित कर देता हूं। मैं जानता हूं कि सर्व विरति रूप यह धर्म मुझे तीन करण तीन योग अर्थात् मन, वचन व काया से न करने, न करवाने तथा न अनुमोदना करने के त्याग की प्रेरणा देता है। मेरी सर्वांशतः सिद्धान्त-निष्ठा महाव्रतों का रूप लेती है जो सर्वविरति रूप होते हैं। उपरोक्त सिद्धान्तों के अनुसार ही मेरे महाव्रत पांच होते हैं
(१) प्राणातिपात विरमण महाव्रत-प्रमादपूर्वक सूक्ष्म और बादर (स्थूल), त्रस और स्थावर रूप समस्त जीवों के पांच इन्द्रिय, मन, वचन, काया, श्वासोश्वास और आयु रूप दस प्राणों में से किसी का अतिपात (नाश) करना प्राणातिपात है। सम्यक् ज्ञान एवं श्रद्धापूर्वक जीवनपर्यन्त प्राणातिपात से तीन करण तीन योग से निवृत्त होना प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत है। यह महाव्रत सर्वप्राणातिपात से निवृत्ति रूप है। अर्थात् सर्व जीव को अभय दान देने रूप विधायक रूप भी है।
प्राणातिपात विरमण रूप प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएं इस रूप में हैं –(१) साधु ईर्या समिति में उपयोग रखने वाला हो, क्योंकि ईर्या समिति रहित साधु प्राण, भूत, जीव, सत्त्व की हिंसा करने वाला होता है। यतना पूर्वक गमनागमन करने को ईर्या समिति कहते हैं। (२) साधु सदा उपयोगपूर्वक देखकर चौड़े मुख वाले पात्र में आहार, पानी ग्रहण करे एवं प्रकाश वाले स्थान में देखकर भोजन करे। अनुपयोग पूर्वक बिना देखे आहारादि ग्रहण करने वाले एवं भोगने वाले साधु के प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की हिंसा की संभावना रहती है। (३) अयतना से पात्रादि
१५६