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बन जाती है। पुरुष के लिये स्त्री संसर्ग और स्त्री के लिये पुरुष संसर्ग वासना के बांध को तोड़ देता है, बल्कि यहां तक कहा गया है कि वैतरणी दुःस्तर नहीं, नर-नारी का परस्पर संग दुःस्तर है समस् विषय भोग अस्थिर होते हैं तथा विषयग्रस्त व्यक्ति अस्वस्थ और संत्रस्त रहता है । वासना तो तालपुट विष रूप मानी गई हैं। तीन बातें जिसमें पहली देहविभूषा, दूसरा स्त्री संसर्ग और तीसरा सरसप्रणीत भोजन है। इन तीनों से आत्मगवेषी ब्रह्मचारी बच कर चलता है। उसके चित्त में से कामेच्छा निकल जाती है, नैनों में से राग निकल जाता है और स्त्री के प्रति हृदय में वैराग्य जाग जाता है । उसे स्त्रियों के रूप की चर्चा करने का अवकाश ही नहीं मिलता है क्योंकि वह अपना सारा समय निर्मल ज्ञानाभ्यास में लगा देता है। वह पूर्वकृत काम क्रीड़ाओं को भी यदि नहीं करता, क्योंकि वह जानता है कि उस याद से भी उन्माद पैदा हो सकता है। एक ब्रह्मव्रती को कंप, स्वेद या मूर्छा की आशंका नहीं रहती तो शक्ति क्षय की ग्लानि भी नहीं। वह तो आत्म-रमणमय बन जाता है क्योंकि वह देह तृप्ति से दूर हट कर आत्म सन्तुष्टि में लीन हो जाता है। जिसके मन पर काम की सूक्ष्म छाप भी नहीं रह जाती, वह मुक्तात्मा बनने लगता है । वह आत्मानन्द का रसास्वादन करने लग जाता है ।
'स्व' स्थ जीवन के लिये ब्रह्मव्रत की आराधना अपरिहार्य है—ऐसा मेरा अनुभव है । जैसे ब्रह्मचर्य को मुक्ति का प्रतीक माना है, वैसे ही काम-भोग संसार के प्रतीक माने गये हैं । आत्मा का अन्तिम लक्ष्य मुक्ति है अतः ब्रह्मचर्य की साधना की दिशा में आगे बढ़ते रहना अनिवार्य है । सर्वांशतः ब्रह्मचारी नहीं बन सकते हैं तब तक भी इन्द्रिय संयम में आचरण का अभ्यास चलता रहना चाहिये । जब जब किसी भी वर्ग में ऐसा अभ्यास टूटा है और मुक्त मैथुन का समर्थन किया गया है, तब तब उस वर्ग में विषय वासना की ऐसी आंधियाँ चली हैं, जिनमें क्षत-विक्षत होने से कोई नहीं बचा होगा । यह ठीक है कि संसार में कामेच्छा अपनी जगह पर होती है तथा प्रजनन भी संसार के संसरण का एक प्रमुख साधन है, तब भी विकसित संस्कृतियों ने काम को सदा ही सुसंस्कारित तथा नियमित बनाने का प्रयास किया है। विवाह संस्था की स्थापना ऐसे ही प्रयासों का परिणाम है । छुट्टे सांड की तरह आदमी भोग लिप्त बन कर अपनी ही रचनाओं को उजाड़ने न लग जाय - इस उद्देश्य से विवाह प्रथा प्रारंभ हुई कि कामेच्छा - पूर्ति की दृष्टि से एक पुरुष और एक स्त्री परस्पर प्रतिबंधित हो जायं । इसे दुष्चरित्र माना गया कि ऐसे प्रतिबंधित स्त्री-पुरुष अपने प्रतिबंध को तोड़कर अन्य स्त्री अथवा पुरुष के साथ गमन करें। गुप्त रूप से भी ऐसा करना पाप माना गया। ऐसी संस्कृति के फलस्वरूप काम भोगों के विकराल दुष्परिणामों से भारतीय समाज बचा हुआ रहा है ।
वर्तमान विश्व में काम भोगों की लिप्ता के जघन्य रूप को जब मैं देखता हूं, तो पश्चिम के देशों का ध्यान आता है, जहां काम-पूर्ति के लिये मुक्त वातावरण चुना गया, किन्तु आज उन देशों में सामाजिक व्यवस्था यौन अपराधों के अंधेरे में छिन्न-भिन्न हो गई है तो काम भोगों में सम्पूर्ण सुख मानने वाले उन देशो के नागरिक आज अपनी ही मानसिकता से अत्यधिक अशान्त एवं विक्षुब्ध हैं । अभी भी वे लोग अपनी अशान्ति को घोर नशीले पदार्थों डुबो देने की कुचेष्टा ही कर रहे हैं । इसके विपरीत जब वे इन्द्रिय संयम तथा ब्रह्मचर्य को सर्वाधिक महत्त्व देंगे, तभी वे अपनी वर्तमान दुरावस्था को सुधार सकेंगे ।
मेरा अनुभव है कि भारत में भी जब से ब्रह्मचर्य - साधना का महत्त्व किन्हीं वर्गों ने कम करके देखा है तो वे वर्ग यौन अपराधों से संत्रस्त बने हैं तथा उनकी सामाजिकता अति अस्त-व्यस्त
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