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प्रमुख साधन होता है जबकि ( श्रमिकों की तरह) श्रम न करने वाला कारखाने का मालिक पूंजी, बुद्धि आदि के साधनों से सशक्त होता है। इस आर्थिक प्रणाली में आसानी से ऐसी व्यवस्था की जा सकती है कि प्रत्येक को उसके श्रम का पूरा लाभ न दिया जाय या दूसरे शब्दों में यह कहें कि उसके श्रम के लाभ का काफी अंश मालिक अपने पास रखले । तो नैतिक धर्म इसे चौर्य कहता है और आज का अर्थ जगत् उसे शोषण का नाम देता है। यह चौर्य अथवा शोषण ही आज कुछ हाथों में हो रहे धन संचय का मूल है।
मुझे आश्चर्य होता है कि इस प्रकार का मह संचय तो चौर्यपूर्ण होगा लेकिन चौर्य कर्म समाप्त कहां होता है ? यदि प्राप्त सामग्री का ठीक से वितरण कर दिया जाय और संविभागी हो जाय, तब तो उस चौर्य कर्म का प्रायश्चित हो जायगा । लेकिन आज के भौतिक वैभव सम्पन्न क्या ऐसा करते हैं ? वे तो चौर्य से प्राप्त सामग्री को अपने ही लिये संचित करते हैं व संचित धन का अधिक शोषण के लिये अधिक नियोजन करते हैं । फलस्वरूप चौर्य या शोषण का क्षेत्र विस्तृत होता जाता है तो संचय का परिमाण भी बढ़ता जाता है। संचय वृद्धि और संविभाग का अभाव जो निरन्तर चलता रहे तो क्या वह उसे एक मानव से मानवेतर तो नहीं बना देगा ? चोरी के धन से आदमी देव तो बन ही नहीं सकता, लेकिन क्या वह अपनी मनुष्यता को भी बचा सकता है ? धन-सामग्री मिल जाने के बावजूद मनुष्य की मनुष्यता को बचाने के लक्ष्य से ही वीतराग देवों ने संविभाग की आज्ञा दी है ।
मैं इस अर्थ विन्यास को स्पष्ट करता हूं तो लगता है कि दूसरे के द्वारा न दी गई वस्तु को लेना तो चोरी है ही, किन्तु यह चोरी का उससे भी अधिक घृणित रूप होगा कि किसी का लाभांश इस तरह छीन लिया जाय जिससे छीनने वाला तो बिना श्रम अधिक अर्थोपार्जन करे और जिनका लाभांश छीना जाय वे अपने निर्वाह के आवश्यक साधनों से भी वंचित हो जाय । संविभाग वृत्ति का अर्थ-विन्यास सामाजिक संदर्भ में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तथा व्यापक प्रभाव वाला है। जब व्यक्ति समाज में एक साथ रहते हैं तो उनके बीच में अधिकाधिक समता-भरा वातावरण भी होना चाहिये । आर्थिक समता मूल में दूसरी प्रकार की समताओं का विकास करती है । इसी से अहिंसामय आचरण
विस्तार हो सकता है। इसके विपरीत विषमताएँ हिंसा और कटुता को जन्म देती हैं। आर्थिक हो या अन्य प्रकार की – विषमता सामाजिकता के पृष्ठ बल के ही तोड़ती है । इसी विषमता को समाज में न आने देने के लिये तथा अधिक अर्थोपार्जन करने वाले सदस्यों के मन में व कर्म में समता को जागृत बनाये रखने के लिये ही संविभाग का निर्देश दिया गया है। संविभागी को ही अस्तेय व्रत का सम्यक् आराधक इसीलिये कहा गया है कि अधिक अर्थोपार्जन करने वाला केवल अपने लिये धन सामग्री का संचय करने से डरे और अपने माथे पर चोरी का कलंक न लगने दे। व्रती साधक के लिये चौर्यकर्म त्याज्य माना गया है और इसी त्याग के प्रेरक रूप संविभाग का प्रावधान किया गया है। अतः संविभाग का अर्थ-विन्यास सामाजिक समता की दृष्टि से बहुत व्यापक भी है।
मैं इस परिप्रेक्ष्य में जब अस्तेय की ओजस्विता पर चिन्तन करता तो मैं स्तब्ध रह जाता हूं क्योंकि अस्तेय व्रत आर्थिक संविभाग के माध्यम से सामाजिक समता का धरातल तैयार करता है तथा व्यक्ति को समाज के हित में त्याग करने की प्रेरणा देता है । चौर्य कर्म को उकसाने वाला होता है लोभ और लोभ व्यक्ति को पतित बनाता है तो व्यक्ति की लोभ वृत्ति के दुष्परिणाम
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