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आन्तरिक समाधि प्राप्त होती है। आत्म समाधि के इस मार्ग पर चलने तथा लक्ष्य तक पहुँच जाने के लिये आत्मानुभवियों तथा समदर्शियों की आज्ञा का पालन अनिवार्य ही नहीं साधक का एक पावन कर्तव्य भी है। वीतराग देवों की आज्ञाओं का पालन करके ही आध्यात्मिक रहस्यों को जानने का मार्ग प्रशस्त किया जा सकता है और इन आज्ञाओं के साथ साधक की आस्था एकात्म रूप से जुड़ी हुई होनी ही चाहिये।
वीतराग देवों द्वारा दर्शित आध्यात्मिक साधना कोई सामान्य साधना नहीं. मल्यों की साधना होती है और मूल्यों की साधना में मूल्यों के प्रति अमिट आस्था होनी चाहिये। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि संसार के व्यवहार में मनुष्य कोई सत्कार्य भी प्रशंसा या यश प्राप्त करने के लिये अधिकांशतः करता है परन्तु उसकी इस भावना का दुष्परिणाम यह होता है कि यदि उसे वांछित प्रशंसा या कीर्ति नहीं मिलती है तो वह निराश होकर अपने सत्कार्यों को ही छोड़ देता है अथवा उसके सत्कार्य अपने 'सत्' गुण को त्याग देते हैं क्योंकि वह कैसा भी जोड़ तोड़ करके प्रशंसा या कीर्ति प्राप्त करने में प्रयलशील रहता है। इस कारण मूल्यों के साधक के लिये प्रशंसा या कीर्ति की चाह करना निषिद्ध है। एक तो उसके इस असाधारण कार्य को सामान्य जन समझ नहीं पायेंगे तो दूसरे, प्रशंसा या कीर्ति की लालसा उसके कार्य की शुद्धता को बनाये नहीं रखेगी। इस कारण मूल्यों के साधक के लिये आस्था ही नौका हो और आस्था ही खिवैया। एक आस्थावान् साधक अपनी आस्था के सम्बल के साथ अपने को सर्वाधिक सुरक्षित मानता है। वैसा साधक तो अपने व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में भी मूल्यों की साधना से अमिट आस्था के साथ जुड़ा हुआ रहता है।
मैं जान गया हूं कि मुझे भी यदि आत्मविकास की इस महायात्रा में विज्ञाता और दृष्टा बनना है तो आस्था का सम्बल लेना ही होगा। वह आस्था सम्यक् हो याने कि सम्यक् प्रतिमानों के प्रति हो। सम्यक् श्रद्धा होगी, तभी ज्ञान भी सम्यक् बनेगा और आचरण भी सम्यक्त्व स्वरूपी होगा।
मैं यह भी जान गया हूँ कि आत्मा के ज्ञाता और द्रष्टा-भाव का सम्यक विकास भी वीतराग देवों की आज्ञाओं का सम्यक् श्रद्धा के साथ पालन करने से ही होगा। जो आत्मस्वरूप का ज्ञाता होता है, वही दृष्टा बनता है तथा जो आत्म-दृष्टा हो जाता है, वह अप्रमादी, जागृत, अनासक्त और कुशल वीर भी हो जाता है क्योंकि आत्म-दृष्टा के लिये फिर किसी उपदेश की आवश्यकता शेष नहीं रह जाती है। आत्म-दृष्टा के ज्ञान चक्षु इतने विस्तृत हो जाते हैं कि वे सम्पूर्ण लोक को प्रत्यक्ष देख लेते हैं। आत्म-दृष्टा बंधन और मुक्ति के विकल्पों से परे होने लग जाता है तो शुभ और अशुभ के द्वन्द्व से. दूर होकर द्वन्द्वातीत भी बन जाता है। आत्म-दृष्टा आध्यात्मिकता में ही जागता है और सदा अनुपम प्रसन्नता में रहता है। मैं इस दृष्टा-भाव को आस्था के आधार पर ही जागृत बना सकूँगा -यह मैं जान गया हूँ।
विश्वसनीयता के प्रतिमान मैं मान चुका हूं कि आत्मविकास की मेरी महायात्रा में आस्था का अवलम्बन अपरिहार्य है। वहाँ तर्क की उपयोगिता समाप्त हो जाती है यह जानने के बाद कि इस महायात्रा में हमारी विश्वसनीयता के सच्चे प्रतिमान कौन सिद्ध हो सकते हैं ?
विश्वसनीयता के सच्चे प्रतिमानों का निर्धारण करने के लिये अवश्य ही मैं अपनी तार्किक बुद्धि का उपयोग करता हूँ। मुझे मेरी इस महायात्रा में वे प्रतिमान चाहिये जो इस महायात्रा का
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