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गांठ बांध लूंगा कि जिस प्रकार दुःख मुझे अप्रिय लगता है, उसी प्रकार से संसार के सभी जीवों को भी दुःख अप्रिय लगता है अतः सभी प्राणियों पर मैं आदर एवं उपयोग के साथ दया करूंगा। जब किसी भी प्राणी को हनन, आज्ञापन, परिताप, परिग्रह या विनाश के योग्य समझंगा तो सबसे पहले यह विचार करूंगा कि जिसके साथ तुम हिंसा का आचरण करना चाह रहे हो, वह कोई अन्य प्राणी नहीं, तुम स्वयं हो, क्योंकि मेरी और उसकी आत्मा एक समान होती है। मैं मानता हूं कि यह जीव हिंसा ही ग्रंथि (आठ कर्मों का बंध) है, यही मोह है, यही मृत्यु है और यही नरक है । मुझे अनुभव है कि जो पुरुष स्वयं प्राणियों की हिंसा करता है, दूसरे से हिंसा करवाता है और हिंसा करने वाले का अनुमोदन करता है, वह अपने लिये वैर ही वैर बढ़ाता है ।
मैं अहिंसा के इस मूलमंत्र को हृदयंगम करना चाहता हूं कि जीवन पर्यन्त संसार के सभी प्राणियों पर – फिर भले ही वे शत्रु हो या मित्र - समभाव रखूं और सभी प्रकार की हिंसा का त्याग करूं जो अपने आप में एक अति दुष्कर कार्य है। जीव की हिंसा करना अपनी आत्मा की हिंसा करना है और जीवों की रक्षा करना अपनी आत्मा की रक्षा करना है। मैं यह भी जानता हूं कि संसार में जो कुछ भी उदार सुख, प्रभुत्व, प्रकृति की सुन्दरता, आरोग्य एवं सौभाग्य दिखाई देता है, वह सब अहिंसा का ही फल है। जगत् में सुमेरू पर्वत से ऊंचा तथा आकाश से विशाल कोई नहीं है, उससे भी अधिक निश्चय पूर्वक मैं समझता हूं कि अखिल विश्व में अहिंसा जैसा दूसरा धर्म नहीं है ।
मैंने किन्हीं अज्ञानियों के आरोप सुने हैं कि अहिंसा कायरता सिखाती है। यह एकदम गलत है। अहिंसा का सिद्धान्त सम्पूर्ण वीरता का परिचायक है। कायरता अथवा दुर्बलता के लिये उसमें कोई स्थान नहीं है । एक हिंसक से अहिंसक बनने की आशा की जा सकती है । किन्तु कायर कभी अहिंसक नहीं बन सकता है। यह अहिंसा आत्म-बल पर आधारित होती है। इसी तरह इस आरोप को भी मैं सही नहीं मानता कि अहिंसा जीवन में अव्यावहारिक है। अहिंसा का व्यवहार तो एक नागरिक या सामाजिक सदस्य के लिये व्यावहारिक ही नहीं, अनिवार्य भी है। अहिंसा को अपनाने से एक ओर काम क्रोध आदि विकारों को हटा कर क्षमा, शान्ति आदि सद्गुणों को ग्रहण कर सकते हैं तो दूसरी ओर आवश्यकताओं को निरन्तर कम करते हुए और सादगी को बढ़ाते हुए श्रेष्ठ व्यावहारिक जीवन का निर्माण भी कर सकते हैं।
मैं इन आप्तवचनों का स्मरण करके सावधान हो जाता हूं कि कुछ लोग प्रयोजन से हिंसा करते हैं, कुछ लोग बिना प्रयोजन भी हिंसा करते हैं । कुछ लोग क्रोध से हिंसा करते हैं, कुछ लोग लोभ से हिंसा करते हैं और कुछ लोग अज्ञान से हिंसा करते हैं । किन्तु हिंसा के कटुफल को भोगे बिना छुटकारा नहीं है । प्राणवध चंड है, रौद्र है, क्षुद्र है, अनार्य है, करुणा रहित है, क्रूर है और महा भयंकर है। इसलिये मैं निष्प्रयोजन या क्रोध, लोभ व अज्ञान से हिंसा नहीं करने का निश्चय करूंगा बल्कि प्रयोजन पूर्ण हिंसा को भी विवशता व दुर्बलता मानूंगा तथा उससे छूटते रहने का यत्न करूंगा । प्राणवध को मैं सर्वथा हेय समझंगा और अपनी क्रियाओं में हिंसा के प्रति पूरी सावधानी रखूंगा। इस प्रकार का चिन्तन प्रत्येक पुरुष के लिए आवश्यक है ।
सत्य भगवान् होता है
यह आप्तवचन मेरे हृदय में जमा हुआ है कि सत्य वास्तव में भगवान् होता है। यह जो आत्म-साक्षात्कार है, वहीं तो सत्य का साक्षात्कार होता है । इस दृष्टि से सत्य ही साध्य है और उसकी साधिका है अहिंसा । अहिंसामय आचरण ही मुझे सत्य की ओर ले जायगा । सत्य ही शिव
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