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ध्यान करो और अपने को कुशील सेवन से बचालो । सब रमणियाँ तुम्हें अपनी माता और बहिनों के समान दिखाई देगी। जब तुम्हें परिग्रह की मूर्छा सताने लगे और सोने-चांदी या सत्ता - सम्पत्ति की विपुलता ललचाने लगे तो तुम मूर्छा को त्याग दो, अपनी आवश्यकताओं की न्यूनतम मर्यादाएं बांध लो और परिग्रह को मिट्टी के ढेले की तरह मान लो, तब मूर्छा और मोह तुम्हारा साथ छोड़ देंगे, तुम निस्पृह बन जाओगे ।
दूसरा 'मैं' कहता जा रहा था और पहला 'मैं' भावाभिभूत बना उस प्रबोधन को तन्मयतापूर्वक सुन रहा था— जब तुम्हें क्रोध आवे, शान्त हो जाओ और उसे बाहर प्रकट मत होने दो, क्षमा के शीतल जल से क्रोध की अग्नि को तत्क्षण बुझा दो । जब मान तुम्हारी गर्दन और तुम्हारे तन को तनाव दे दे तो तुम विनम्र बन जाओ और नम्रता से मान को जीत लो। माया जब तुम्हें प्रपंच रचने की कुटिल सलाह दे तब तुम उसे ठुकरा दो और अपने हितों को सरलता से सुलझा लो। लोभ के तो तुम पास में भी मत फटको और लाभ के जंजाल में मत पड़ो अपनी सन्तोष वृत्ति से इस जंजाल का एक-एक ताना बाना तोड़ दो। अपने सम्बन्धो या पदार्थों पर जब राग वृत्ति उमड़ने लगे तो वैराग्य भाव लाकर सोचो कि यह राग मेरा नहीं है, मेरा तो वैराग्य और वीतराग भाव है जिसकी आराधना से ही मेरे विकास का मार्ग निष्कंटक बन सकेगा । द्वेष को भी तुरन्त दबा दो क्योंकि द्वेष प्रतिशोध के लिये उतारू बनाता है । द्वेष की जगह सब पर अपने स्नेह की छाया तान दो । किसी भी कारण से किसी के भी साथ कलह मत करो - उसके स्थान पर सम्प और एकता बनाओ। तब सबके स्नेह से तुम आप्लावित हो जाओगे। किसी पर झूठा कलंक मत लगाओ, किसी की चुगली मत खाओ और किसी की निन्दा मत करो । अन्दर-बाहर को दोगला मत रखो । एक वृत्ति बना लो ताकि कपट सहित झूठ बोलना भी छोड़ दो। और सबसे बड़ी बात है कि कुदेव पर श्रद्धा मत करो, कुगुरु के कहने पर मत चलो एवं कुधर्म की प्रवृत्तियाँ मत अपनाओ । देव के गुणों को समझो, परीक्षा करो और सुदेव को अपनी श्रद्धा का केन्द्र बनाओ। गुरु के आत्म-विकास को परखो और सुगुरु की आज्ञा में चलो। धर्म के लक्षणों का अध्ययन करो, सुधर्म के सिद्धान्तों के मर्म को हृदयंगम करो तथा उसके निर्देशों का पालन करो। इस प्रकार सुदेव, सुगुरु एवं सुधर्म पर श्रद्धा करते हुए मिथ्यात्व के अंधकार से बाहर निकलो तथा सम्यक्त्व के प्रकाश में पग धरो मेरे भाई !
इतना कहकर दूसरा 'मैं' चुप हो गया और पहले 'मैं' पर अपने कहने की प्रतिक्रिया देखने लगा। तब तक पहले 'मैं' का कदम आगे उठ चुका था और उसने दूसरे 'मैं' की तरफ चलना शुरू कर दिया था। थोड़ी ही देर में दोनों 'मैं' गले मिल गये और सम्यक्त्व के प्रकाश में एकमेक बन गये ।
यह 'मैं' एकीभूत हो गया था, विचारों के द्वन्द्व से उबर कर समझ गया था कि मिथ्या श्रद्धा, मिथ्या ज्ञान तथा मिथ्या आचरण मेरा नहीं है। ये तो पर पदार्थों के प्रति मोह के कारण और पाप कार्यों के आचरण के कारण मेरे स्वरूप के साथ लिपट गये थे। अब मैंने अलग हो जाने के लिये कदम बढ़ा लिया है तो मैं मिथ्यात्व को पूरी तरह त्याग कर सम्यक्त्व के आलोक में आगे बदूंगा ।
मेरे मन का एक तथ्य और बता दूं कि एक ही संघर्ष में मैं मिथ्यात्व पर पूर्ण विजय नहीं पा सका था। बार-बार यह द्वन्द्व मेरे भीतर उठता है किन्तु मेरा दूसरा 'मैं' बल पकड़ता जा रहा है, इस कारण पहले 'मैं' के बहक जाने पर वह पुनः पुनः उसे समझाता है और अपने में मिलाकर साधना के पथ पर प्रगति करता रहता है ।
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