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मेरे पास चले आओ। तुम को और कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा होगा किन्तु मैं अवश्य दिखाई दे रहा होऊंगा क्योंकि मैं सम्यक्त्व के प्रकाश से आवृत्त हूँ। नजर उठाओ मेरी तरफ और चलना शुरू कर दो। उस जिनवाणी से विपरीत होने से अन्धकार में है। और मैं जिनवाणी के अनुकूल श्रद्धा आदि वाला होने से प्रकाश में हूँ।
अब पहले 'मैं' के चुप हो जाने की बारी आ गई थी। वह सोच में पड़ गया कि क्या वह सही है या दूसरा 'मैं' सही कह रहा है ? उसने महसूस किया कि वह अंधेरे में खड़ा है। हकीकत में उसको कुछ भी नहीं दिखाई दे रहा है, लेकिन वह इस दूसरे 'मैं' को देख पा रहा है ऐसा क्यों है? क्या प्रकाश उसके पास है और वह सिर्फ अंधेरा भोग रहा है ? उसने महसूस किया कि उसके पांच लड़खड़ाने लगे हैं और उसका सारा शरीर कांपने लगा है। वह लज्जा के मारे जमीन में गड़ने लगा लेकिन यह सोचकर कुछ राहत पाने लगा कि अंधेरे के कारण उसकी लज्जा दूसरे 'मैं' से छिपी हुई है। उसका मुंह खुल नहीं पाया और वह चुपचाप ही खड़ा रहा।
तब दूसरे 'मैं' ने उत्साहित होकर–कहा इसमें लज्जा की कोई बात नहीं है, यदि तुम अंधकारपूर्ण मिथ्याव को पहिचान लो। देखो, मेरी आवाज सुनो और जागृति की अंगड़ाई लो। तुम अपने चेतन स्वरूप को भूल गये हो और जड़ तत्त्व को अपना मान बैठे हो, इसी कारण संसार के झूठे सुखों की खोखली पैरवी कर रहे हो। तुम नहीं देख रहे हो कि पदार्थ-मोह से जड़ग्रस्त होकर पापों के पंक में गहराई तक डूब जाने की तुम तैयारी कर रहे हो। सुनो, मैं तुम्हें तुम्हारी विकृति का भान कराता हूँ जिससे तुम अपने निज के सुख तथा जड़ पदार्थों के सुख में भेद कर सको और पापों के क्षेत्र से बाहर निकल कर बहुमुखी शुभता से अपने स्वरूप को उज्ज्वल बना सको।
पहला 'मैं' स्तब्ध था और था हतप्रभ । वह बोला कुछ नहीं, मगर उसने आंखों ही आंखों संकेत दिया कि वह पापों को त्याग कर मिथ्यात्व के अंधेरे से वाकई बाहर निकल जाना चाहता है
और सम्यक्त्व का प्रकाश आत्मसात् कर लेने को उत्सुक है। दूसरे 'मैं' ने तब घोर गंभीर वाणी में उद्बोधन दिया—मेरे भाई, ये पापपूर्ण क्रियाएँ पाप-कर्मों का बंध कराती हैं और फल, बंध व उदय के चक्र में पाप से पाप बढ़ता जाता है। इस कारण पापों के क्षेत्र को छोड़ो, अठारह पापों से क्रमशः कठिन संघर्ष करो और अपने मूल गुणों को अपनाकर अपना वास्तविक विकास साधो।
___ दूसरे 'मैं' का उद्बोधन प्रेरणा के प्रवाह में बहने लगा—अपने झूठे सांसारिक सुखों के लोभ में अथवा उनकी प्राप्ति या रखवाली में जब भी तुम्हारी वृत्ति हिंसा की तरफ आगे बढ़े तो तुम अपने आपको रोको, प्रमादवश किसी भी प्राणी के प्राणों को कष्टित बनाने के लिये आगे मत बढ़ो और हिंसा का सामना अपनी अहिंसा वृत्ति से करो। अहिंसा का अस्त्र तब हिंसा को दूर भगा देगा और तुम अन्य प्राणियों के प्रति करुणा, सहानुभूति एवं सहयोगिता से भर उठोगे। जब झूठ किसी भी स्वार्थ या कारण से तुम्हारे मन में उतरने लगे और जीवन पर चढ़ने लगे तो उसको दूर धक्का दे दो। उस समय
य का स्मरण करो और सत्य को अपनी वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में रमा लो। मृषावाद दूर भाग जायगा। जब तम अपनी अनन्त इच्छाओं के कप्रभाव से दसरों की प्राप्तियों को चराना या छीनना चाहो तो अचौर्य की भावना से अभिभूत बन जाओ और विचारो कि मुझे किसी भी दूसरे प्राणी को गुलाम नहीं बनाना है, किसी के भव्य हितों को आघात नहीं पहुंचाना है बल्कि दूसरों की पीड़ाओं को दूर करने के लिये मुझे कार्यरत होना है। तब तुम शोषण या अकार्य नहीं करोगे। जब तुम्हारे सामने सुन्दर कामातुर रमणियां आवे और काम भोगों का न्यौता देने लगे तब तुम फिसलो मत, ब्रह्मचर्य का १२६