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उसकी बेपरवाही की। वह संसार में दुःख पाने लगा। दूसरे साधु ने संयम रूपी महल की अच्छी तरह साल-सम्हाल की रोज उसे बार-बार देखता रहता और जरा-सी भी तरेड़ वगेरा दीखती तो तरन्त मरम्मत कर लेता। वह मोक्ष रूपी सख का भागी हो गया। (३) परिहरणा-सब प्रकार से छोड़ना अर्थात् वीतराग रूपी कुलपुत्र मनुष्य भव रूपी गोकुल से निर्दोष चारित्र रूपी दूध लाने की आज्ञा देते है। उस के दो मार्ग है—जिनकल्प और स्थविर कल्प। जिनकल्प का मार्ग सीधा पर अति कठिन होता है जिस पर उत्तम संहनन वाले महापुरुष ही चल सकते हैं। स्थविरकल्प का मार्ग उपसर्ग, अपवाद आदि के कारण लम्बा होता है। जो जिनकल्प के मार्ग का सामर्थ्य नहीं रखता फिर भी उस पर चलता है, वह संयम रूपी दूध के घड़े को रास्ते में ही फोड़ देता है —चारित्र्यपतित हो जाता है। लेकिन जो समझदारी से द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव को जानकर अपनी शक्ति के अनुसार संयम की रक्षा करते हुए धीरे-धीरे चलता है और स्थविरकल्प के मार्ग को अपनाता है, वह अन्त में सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। (४) वारणा —इसका अर्थ होता है निषेध। जिसका भाव रूप है कि वीतराग रूपी राजा विषय भोगों को विष मिले पानी और अन्न को समान बताकर लोगों को उनसे दूर रहने की शिक्षा देते हैं। जो उनकी शिक्षा नहीं मानते, वे भवचक्र में भटकते रहते हैं किन्तु जो उस निषेध को मान लेते हैं, वे भव चक्र से छूट जाते हैं। (५) निवृत्ति- किसी काम से हट जाना। इसका भाव रूप है कि संयम भी एक प्रकार का युद्ध है। यदि उससे कोई भाग खड़ा होता है तो उसे लोगों की अवहेलना मिलती है किन्तु वह युद्ध में लौट आता है और आलोचना व प्रतिक्रमण करके गुरु की आज्ञानुसार चलने लगता है तो वह संयम में स्थित हो जाता है। (६) निन्दा-आत्मा की साक्षी से पूर्वकृत अशुभ कर्मों को बुरा समझना निन्दा है। आत्म-निन्दा द्वारा एक साधक प्रतिदिन अपने से कहे- हे आत्मन्, नरक तिर्यंच आदि गतियों में घूमते हुए अब तूने मनुष्य भव प्राप्त किया है। सम्यक् दर्शन, ज्ञान और चारित्र भी तुझे मिला है। इन्हीं के कारण तू माननीय भी हुआ है। अब घमंड मत करो कि मैं बहुश्रुत या उत्तम चारित्र वाला हूं। (७) गर्दा-गुरु की साक्षी से अपने किये हुए पापों की निन्दा करना गर्दा है। अपने दुष्चरित्र की निन्दा करने से पापकर्म ढीले पड़ जाते हैं
और पाप हल्का हो जाता है। पाप के हल्के होने से साधना की सुदृढ़ता बढ़ जाती है। (८) शुद्धि तपस्या आदि से पाप कर्मों को धो डालना शुद्धि है। साधक को भी काल का उल्लंघन किये बिना आचार्य के पास अपने पापों की आलोचना कर लेनी चाहिये । यही भाव शुद्धि है। आत्मनिन्दा रूपी औषधि से अतिचार रूपी विष दूर हो जाता है।
मेरा दृढ़ विश्वास है कि प्रतिक्रमण रूप आत्मालोचना का क्रम निरन्तर नियमित रूप से चलता रहे तो मेरी आत्मा पाप-कार्यों में उलझ-उलझ कर भी सुलझती जायगी और शनैः शनैः पाप के बोझे को हल्का बनाती जायगी।
__ आत्म समीक्षण से स्वरूप दर्शन नियमित रूप से निरन्तर की जाने वाली आत्मालोचना से मुझे यह सुफल प्राप्त होगा कि मैं प्रतिक्षण अपने आत्म-स्वरूप के प्रति सावधान हो जाऊंगा। इससे मेरी आत्म-समीक्षण की प्रवृत्ति बन जायगी। मैं प्रतिक्षण सावधानी पूर्वक जब अपनी आत्मा की समस्त वृत्तियों एवं प्रवृत्तियों को देखता रहूंगा, जांचता एवं परखता रहूंगा तो प्रतिक्षण अपने आत्मस्वरूप को देखता भी रहूंगा और यह देखना ही मेरा आत्म-समीक्षण का रूप ले लेगा। सम्यक् प्रकार से अर्थात् समतापूर्वक देखना
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