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अवश्य है किन्तु अनन्त नहीं है, क्योंकि सभी प्रकार के दुःखों के नष्ट हो जाने पर आत्मा परम सुख को प्राप्त होती है—यही उसका मोक्ष है जहाँ पर भी वह अपने अस्तित्व को बनाये रखती है। सभी प्रकार की बाधाओं व आवरणों का नष्ट हो जाना ही परम सुख का हेतु बनता है। कभी यह भी शंका हो कि पाप से दुःख होता है तो पुण्य से सुख–फिर पुण्य कर्म भी नष्ट हो जाने से मोक्ष में सुख कैसे मिलेगा? उसका समाधान है कि पुण्य से होने वाला सुख वास्तविक नहीं होता है क्योंकि वह कर्मों के उदय से होता है। वास्तविक सुख कर्मों के सभी आवरणों के समाप्त हो जाने से ही मिलता है। यही कारण है कि इस संसार में बड़े-बड़े चक्रवर्ती सम्राट भी सुखी नहीं रहे। संसार का सुख मात्र सुखाभास होता है। जैसे कि प्यास लगने पर पानी पिया तो सुख अनुभव हुआ किन्तु थोड़ी देर बाद फिर प्यास का दुःख सताने लग जाता है। संसार का सुख विकारों का सुख होता है जो क्षणिक होता है किन्तु सर्व विकार समाप्ति के पश्चात् मोक्ष का जो सुख मिलता है, वह शाश्वत और अव्याबाध होता है एवं सर्व इच्छाओं से परे परम समाधियुक्त होता है।
मैं मोक्ष के संदर्भ में इस आप्त वचन का पुनः पुनः स्मरण करता हूँ कि सम्यक् ज्ञान द्वारा आत्मा नव तत्त्वों के स्वरूप को जानती है, सम्यक् दर्शन द्वारा उस पर श्रद्धा करती है तथा सम्यक् चारित्र एवं तप की आराधना द्वारा नवीन कर्मों के आगमन को रोकती एवं पुराने कर्मों को नष्ट करके अपने परम शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करती है। यह सत्य मेरे अन्तर्हदय में गहरे पैठा हुआ है और मैं मानता हूँ कि मोक्ष ही आत्म-विकास की महायात्रा का गंतव्य है।
सम्यक्त्व की प्रकाशकिरणें संसार की प्रगाढ़ मोहग्रस्तता से मेरी आन्तरिकता जब पूरी तरह से व्यामोहित रहती थी, तब मैं अज्ञान के अंधकार में ही गोते लगाता था और इस मिथ्याज्ञान को ही सत्य मानता था कि जो कुछ इस संसार के सुख हैं, वे ही सच्चे सुख हैं तथा उन्हें येन केन प्रकारेण प्राप्त कर लेने में ही मुझे अपना सम्पूर्ण श्रम लगा देना चाहिये । इस मिथ्या ज्ञान पर ही मेरी श्रद्धा आधारित रहती थी अतः यह श्रद्धा भी मिथ्या थी। मिथ्या ज्ञान एवं मिथ्या श्रद्धा के आधार पर मेरे सभी कार्य कलाप भी तदनुसार चलते थे जिसके कारण मेरा आचरण भी मिथ्या था। यह सब मेरे आत्म स्वरूप पर छाया हुआ मिथ्यात्व का कलंक था।
किन्तु जब मैंने नव तत्त्वों की जानकारी ली एवं जीव-अजीव के सम्बन्धों की पहिचान की तो मुझे मिथ्यात्व का यथावत् रूप कुछ कुछ समझ में आने लगा। क्या मिथ्यात्व है और क्या सम्यक्त्व है—इसका हल्का-सा आभास होने लगा। जब यह जाना कि जीव किस प्रकार की अपनी क्रियाओं से पाप और पुण्य-दोनों प्रकार के कर्मों का क्षय कर सकता है तथा परम सुख रूप मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है तब अंधकार की परतें मेरे मन-मानस पर से हटने लगी। अंधकार को चीरती हुई तब कुछ प्रकाश-किरणें वस्तु-स्वरूप का यथावत् दर्शन कराने लगी। मैं तब समझ पाया कि ये ही सम्यक्त्व की प्रकाश किरणें थी।
ज्यों-ज्यों मिथ्यात्व के काले बादल छंटने लगे, त्यों-त्यों प्रकाश का घनत्व बढ़ने लगा। मिथ्यात्वपूर्ण धारणाओं, श्रद्धानों तथा क्रियाकलापों में जब शुद्धता एवं वास्तविकता का प्रवेश होने लगा तब मुझे आन्तरिक आनन्द मिला और मेरे अन्तर्मन ने कहा कि यह सम्यक्त्व का प्रवेश हैधारणाओं, श्रद्धानों एवं क्रिया कलापों को विशुद्ध बनाते रहने की प्रक्रिया का प्रारंभ है।
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