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गुणस्थानवर्ती आत्मा को होता है। तीसरे, जो मिथ्या दृष्टि आत्मा स्वयं तत्त्व श्रद्धान से शून्य होते हुए दूसरों में उपदेशादि द्वारा तत्त्व के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करवाती है उस आत्मा के सम्यक्त्व का स्वरूप दीपक रूप होता है। दीपक सम्यक्त्वधारी स्वयं तो मिथ्यात्वी होता है किन्तु उपदेश आदि रूप परिणाम द्वारा दूसरों में सम्यक्तुत्व उत्पन्न करने में वह कारण रूप बनता है, इसी दृष्टि से उसे भी सम्यक्तूची कहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक रूप भी होते हैं । अनन्तानुबन्धी कषायचतुष्टय दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों उपशम से होने वाला आत्मा का परिणाम औपशमिक सम्यक्त्व होता है। अनन्तानुबन्धी चार कषायों के तथा दर्शन मोहनीय की तीनों प्रकृतियों के क्षय होने पर जो परिणाम- विशेष प्रकट होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है । उदय प्राप्त मिथ्यात्व के क्षय से और अनुदय प्राप्त मिथ्यात्व के उपशम से एवं समकित मोहनीय के उदय से होने वाला आत्मा का परिणाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व होता है ।
मैंने सम्यक्त्व के तीन लिंगों (चिह्नों) की पहिचान की है जो इस प्रकार हैं- (१) श्रुत धर्म में राग—जितना तरुण पुरुष रंग-राग में अनुरक्त रहता है, उससे भी अधिक शास्त्र-श्रवण में अनुरक्त रहना, (२) चारित्र धर्म में राग - जिस प्रकार तीन दिन का भूखा मनुष्य खीर आदि का आहार रुचिपूर्वक करना चाहता है, उससे भी अधिक चारित्र धर्म पालने की इच्छा रखना, तथा (३) देव गुरु की वैयावृत्य का नियम — देव और गुरु में पूज्य भाव रखना और उनका मान-सम्मान रूप वैयावृत्य का नियम करना । सम्यक्त्व की तीन शुद्धियाँ भी इस दृष्टि से बताई गई है कि वीतराग देव, वीतराग देव द्वारा प्रतिपादित धर्म एवं वीतराग देव की आज्ञानुसार विचरने वाले साधु ही विश्व में सारभूत है ऐसा विचार करना ।
मैंने सम्यक्त्व के पाँच भेदों पर भी विचार किया है जो सम्यक्त्व के सभी पहलुओं पर रौशनी डालते हैं - ( १ ) उपशम सम्यक्त्व अनन्तानुबन्धी चार कषाय और दर्शन मोहनीय की तीन प्रकृतियों— कुल सात प्रकृतियों के उपशम से प्रकट होने वाला तत्त्व- रुचि रूप आत्म परिणाम उपशम सम्यक्त्व कहलाता है जिसकी स्थिति अन्तर्मुहुर्त की होती है । (२) सास्वादान सम्यक्त्व - उपशम सम्यक्त्व से गिर कर मिथ्यात्व की ओर आते हुए जीव के, मिध्यात्व में पहुँचने से पहले जो परिणाम रहते हैं, वही सास्वादान सम्यक्त्व है। इस समय कषायों का उदय रहने से परिणाम निर्मल नहीं रहते (३) क्षायोपशमिक सम्यक्त्व - कषायों के उदय से प्राप्त मिथ्यात्व को क्षय करके अनुदय प्राप्त मिथ्यात्व का उपशम करते हुए जीव के परिणाम - विशेष को क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं । (४) वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व वाला जीव सम्यक्त्व मोहनीय के पुंज का अधिकांश क्षय करने वाला जीव जब समकित मोहनीय के आखिरी पुद्गलों को वेदता है, तब होने वाले आत्म-परिणाम को वेदक सम्यक्त्व कहते हैं। तथा (५) क्षायिक सम्यक्त्व - कषाय व दर्शन मोहनीय की सातों प्रकृतियों के क्षय होने से होने वाला जीव का तत्त्व रुचि रूप परिणाम क्षायिक सम्यक्त्व कहलाता है । यह सम्यक्त्व सादि किन्तु अनन्त होता है ।
मुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई है या नहीं—इसकी पहिचान सम्यक्त्व के लक्षणों के आधार पर ही की जा सकती है, अतः सम्यक्त्व के लक्षणों को भलीभांति हृदयंगम कर लेना मैं अपना कर्त्तव्य मानता हूँ जो इस प्रकार हैं (१) सम - तीव्रतम कषाय के उदय में नहीं आने से जो शान्ति भाव उत्पन्न होता है उसे सम कहते हैं, (२) संवेग - मनुष्य एवं देवता जातियों के सुखों का परिहार करके
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