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मोक्ष के सुखों की अभिलाषा रखने का नाम संवेग है, (३) निर्वेद संसार से उदासीनता रूप वैराग्य-भाव का होना निर्वेद कहलाता है, (४) अनुकम्पा निष्पक्ष होकर दुःखी प्राणियों के दुःखों को मिटाने की भावप्रवणता का नाम अनुकम्पा है। यह द्रव्य और भाव रूप होती है। शक्ति होने पर दुःखी जीवों के दुःख दूर करना द्रव्य अनुकम्पा है तो दुःखी जीवों के दुःख देखकर दया से हृदय का कोमल हो जाना भाव अनुकम्पा है (५) आस्तिक्य—वीतराग देवों द्वारा उपदेशित तत्त्वों पर श्रद्धा रखने का नाम आस्तिक्य है।
सम्यक्त्व से सम्बन्धित इस शास्त्रीय विवेचन से यह मुझे स्पष्ट हो गया है कि नवतत्त्व एवं षड् द्रव्यों के स्वरूप में अर्थात् संसारी जीव को सिद्ध स्वरूप बनाने की प्रक्रिया में दृढ़ आस्था हो जाने का नाम सम्यक्त्व है। सम्यक्त्व के मूलाधार रूपी आस्था के ये छः स्थान कहे गये हैं (१) चेतना लक्षण जीव का अस्तित्व है, (२) जीव शाश्वत अर्थात् उत्पत्ति और विनाश रहित है, (३) जीव कर्मों का कर्ता है, (४) अपने किये हुए कर्मों का जीव स्वयं भोक्ता है, (५) राग, द्वेष, मद, मोह, जन्म, जरा, रोगादि का अत्यन्त क्षय हो जाना मोक्ष है तथा (६) सम्यक् ज्ञान, दर्शन और चारित्र तीनों मिल कर मोक्ष का मार्ग है।
मेरा विचार है कि सम्यक्त्व के उल्लिखित सड़सठ बोलों के माध्यम से सम्यक्त्व का चहुंमुखी स्वरूप सुबोध हो जाता है, वे भेद इस प्रकार है श्रद्धा ४ (परम अर्थ परिचय, परम अर्थ सेवा, मिथ्या की संगत नहीं, पाखंडी की संगत नहीं), लिंग ३ (तरुण की रागरंग रुचि से अधिक धर्म रुचि, भूखे को खीर की इच्छा से भी अधिक धर्माभिलाषा, वैयावृत्य), विनय १० (अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, स्थविर, कुल, गण, संघ, स्वधर्मी, क्रियावन्त का यथायोग्य सभान), शुद्धि ३ (वीतराग देव, वीतराग धर्म तथा वीतराग आज्ञा में चलने वाले साधु को ही लोक में सारभूत मानना), लक्षण ५ (सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा, आस्था), दूषण ५ (शंका, कांक्षा, वितिगिच्छा, पर पाखंडी प्रशंसा, पर पाखंडी परिचय), भूषण-५ (धीरजवन्त, दिपावनहार, भक्ति-भावी, चतुर, संघ सेवक), प्रभावक ८ (सूत्र ज्ञान, प्रबोध, यथार्थ वाद-विवाद, त्रिकाल ज्ञान, तपश्चर्या, विधा ज्ञान, प्रसिद्ध व्रत, शास्त्र प्रयोग), आगार ६ (देवता, राजा, माता-पिता, पंच, बलवन्त, अटवी में भय) जयणा ६ (आलाप, संलाप, दान, प्रदान, वन्दना, गुणग्राम), स्थानक ६ (नगर में द्वार समान, वृक्ष में बीज समान, दुकान में वस्तु समान, मंजूषा में रत्न समान, थाल में भोजन समान, किले में कोट समान), भावना ६ (चेतना लक्षण, द्रव्य शाश्वत, आत्मा कर्ता, भोक्ता, भवि को मोक्ष, मोक्ष मार्ग) सार रूप में सम्पत्व की संक्षिप्त परिभाषा यह है कि वीतराग देवों द्वारा प्ररूपित पारमार्थिक जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना।
सम्यक्त्व की ईंट पर मोक्ष का महल मिथ्यात्व का स्वरूप एवं नौ तत्त्वों का विश्लेषण समझ लेने के बाद मेरे सामने समत्त्व का स्वरूप स्पष्टतर हो गया है। एक महल बनाया जाता है किन्तु उसके अनुसार ही उसकी नींव भी होनी चाहिये। नींव अगर कमजोर हो और महल बड़ा व सुन्दर भी बना लिया जाय तब भी क्या वह टिका रहेगा? उसकी मजबूती नहीं मान सकते हैं। नींव की ईंटें जितनी पुख्ता होगी, महल की मजबूती भी उतनी ही पक्की बनेगी। इस दृष्टि से यह मानने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि सम्यक्त्व रूपी नींव की ईंटों के आधार पर ही मोक्ष का महल बनता है।
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