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आधार पर ही उसके चिन्तन का मूल्यांकन किया जायगा। प्रगति का सही मार्ग खोज लेने पर ये केन्द्र मानवीय नव-चिन्तन के मोड़ बन जाते हैं।
सामाजिकता के प्रारंभ से देखें अथवा अपने स्वयं के जीवनारंभ से देखें और सभी तरह के विचारों के द्वन्द्वों का विश्लेषण करें तो सरलता से समझ में आ जायेगा कि जब-जब आसक्ति और ममत्व की मूर्छा हमारे मन-मस्तिष्क को घेरती है, तब-तब हम अपने निजत्व को भूलकर जड़ तत्त्वों एवं सांसारिक उपलब्धियों को पा लेने में तथा व्यक्ति-मोह को पुष्ट बनाने में अपनी समस्त शक्तियों को नियोजित कर देते हैं। तब हमारी क्रियाएँ आत्म-विकास के विपरीत बन जाती हैं और हमारी आन्तरिकता राग-द्वेष तथा प्रमाद के कलुष से कालिमामय हो उठती है। तब हम स्वार्थ के ममत्त्व पक्ष में गिरकर पर के प्रति अन्याय एवं अत्याचार की भावना से आक्रान्त हो जाते हैं। ऐसी दशा हमारी आत्म विस्मृति होती है। यह दशा हमें चिन्तनहीन जड़ग्रस्तता की ओर ले जाती है। इस दशा में चिन्तन की विपरीतता अथवा विगति उभर कर ऊपर आ जाती है और विपरीतता या विगति में मानवीय मूल्य दृष्टि से ओझल हो जाते हैं। ऐसी मनःस्थिति में दोराहे, तिराहे या चौराहे पर सही मार्ग की खोज प्रायः असफल ही रहती है।
किन्तु मेरा चिन्तन चलता है कि यदि मैं मानव जीवन के दुर्लभ महत्त्व को भली-भांति आंक लूं एवं अन्य दुर्लभ प्राप्तियों की भी पूरी सहायता ले लूं तो निश्चय ही मेरी दृष्टि सम्यक् बन जायगी और सही मार्ग की खोज भी सफल होगी क्योंकि मेरी दृष्टि एवं विचारणा पर आसक्ति या ममत्व की धुंध जमी हुई नहीं होगी। उस( उन्नत मन-मानस के साथ मैं अपनी प्रत्येक समस्या का समाधान बाहर से भीतर प्रवेश करके खोजूंगा और आन्तरिकता की गहराइयों में उतर कर सुन्दर समाधान के मोती बाहर निकाल लाऊंगा। वह चिन्तन और खोज मेरे लिये आनन्द के विषय बन जायेंगे। मेरी आस्था है कि तब मेरा चिन्तन भी विकास की ऊँची से ऊँची सीढ़ियों पर चढ़ता जायेगा और समग्र जीवन को समर्पित दृष्टिकोण वाला बना देगा। फिर मैं अपने प्रत्येक कार्य के माध्यम से मानवता की कसौटी पर खरा उतरना चाहूंगा और सबको एक में तथा एक को सबमें देखने का अभ्यास करूंगा। मुझे इसी चिन्तन के नये-नये मोड़ों से विश्व-कल्याण के नये-नये आयाम दृष्टिगत होंगे।
इस दृष्टि से मैं अपना अन्तरावलोकन करता हूँ तो देखता हूँ कि अनुकूलताओं तथा प्रतिकूलताओं के हिंडोले में मैंने बहुत चक्कर काटे हैं, तृप्ति तथा अतृप्ति की काफी कुंठाएँ सहन की हैं
और अपनी क्रियाओं की विपरीतता के कारण मैं बाह्य जगत् की अंधेरी गलियों में बेहद भटका भी हूँ। परिणामस्वरूप मैं अज्ञान, आसक्ति एवं मूर्छा के घेरों में पड़ा छटपटाता रहा हूँ। वह छटपटाहट कब मिटी, कैसे मिटी, किसने मिटाई, यह सब कुछ मैं नहीं जानता, किन्तु सत्संयोगों ने मेरी भावनाओं की दबी हुई चिनगारी को उघाड़ा है और उसे वीतराग धर्म की हवा दी है। तब वही चिनगारी तेजोमय बन कर मुझे सम्यक् श्रद्धा का मार्ग दिखाती है तो संयमाभिमुख भी बनाती है।
मैंने अनुभव किया है कि चिन्तन के भिन्न-भिन्न मोड़ ही आत्म-जागरण की ओर ले जाते हैं और उनका अभाव ही आत्म-विस्मृति के गर्त में पटक कर मुझे शून्य सा बनाता आया है। परन्तु मानवीय चिन्तन के ये स्वाभाविक मोड़ माने गये हैं कि मनुष्य पहले अपने जीवन-निर्वाह हेतु पदार्थों को प्राप्त करने का प्रयास करता है और उस प्रयास में जब पारस्परिक टकराव गहरे और घातक
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