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प्राणी को मत मारो—उसके प्राणों को चोट मत पहुँचाओ। इसका भी बड़ा गूढ़ आशय है। इस प्राणों—पांचों इन्द्रियों, मन, वचन, काया, श्वासोधास तथा आयुष्य में से किसी भी प्राण पर आघात मत करो। किसी का जीवन समाप्त कर देना तो हिंसा है ही, लेकिन किसी की किसी भी इन्द्रिय, मन, वचन या काया अथवा उसके वासोश्वास तक को चोट पहुंचाना भी हिंसा के अंग माने गये हैं।
मुझे पूरी एकाग्रता से प्रत्येक समय में अपना यह कर्त्तव्य ध्यान में रखना है कि मैं किसी भी अन्य प्राणी के प्राणों में से किसी एक प्राण को भी किसी भी रूप में किसी भी प्रकार का आघात नहीं पहुँचाऊं। दूसरे, इन प्राणों से सम्बन्धित किसी भी प्राणी की उसकी अपनी स्वतन्त्रता को भी किसी भी कारण प्रतिबाधित न करूं। मैं सभी प्राणियों की सभी प्रकार की स्वतन्त्रताओं का पूरी तरह सम्मान करूं, बल्कि खोई हुई उनकी स्वतन्त्रताओं को उन्हें प्राप्त कराऊं। अन्य प्राणियों की स्वतन्त्रताओं को स्थायी बनाने का मैं यह अर्थ मानूं कि किसी भी प्राणी पर मैं अपना शासन करने की चेष्टा न करूं किसी भी रूप में उसे अपना गुलाम न बनाऊं क्योंकि किसी भी प्राणी को सताने से उसके मन में अशान्ति का ज्वार उठता है तथा अशान्त मन ही हिंसा की राह पर मुड़कर सारे समाज में हिंसा के चलन को बढ़ाता है। एक व्यक्ति की हिंसा सामाजिक हिंसा का रूप लेती हुई सर्वत्र फैलने लगती है तब सारा समाज अशान्त हो उठता है। सामाजिक अशान्ति का परिणाम होता है, सामाजिक दुःख याने कि सबका दुःख । जब हिंसा के वातावरण में सभी दुःखी होंगे तो किसी को भी सुख कहाँ से मिलेगा?
. इसलिये मैं यह मानकर चलता हूँ कि अपने या पूरे समाज के दुःख के लिये हम ही जिम्मेदार हैं या यों कहें कि इस दुःख और सुख के नियन्ता हम हैं। कर्मोपार्जित दुःख भी शान्तिपूर्वक सहन कर लिया जाय तो वह भी भावी सुख का कारण बन जाता है। इस दृष्टि से चाहे व्यक्ति के लिये हो या व्यक्ति-व्यक्ति के माध्यम से सम्पूर्ण समाज के लिये हो, समतामय व्यवहार ही सुखानुभव की पहली और अनिवार्य शर्त है। अपने स्वयं के मानसिक सन्तुलन के लिये अथवा अन्य सभी प्राणियों के प्रति आचरित किये जाने वाले समता-भाव में ही धर्म का स्वरूप माना गया है।
इस आधार पर मेरा संकल्प बनता है कि सभी प्राणियों के बीच सभी स्तरों पर विकास का विशिष्ट अन्तर होते हुए भी मैं सभी प्राणियों के अस्तित्व को स्वीकार करूं क्योंकि यदि ऐसा मैं नहीं करूंगा तो मैं अपने अस्तित्व को भी नकारूंगा। आस्तित्व को स्वीकार करने का सीधा-सा अर्थ है कि उसको किसी भी रूप में मैं नहीं सताऊं तथा उसको जैसी भी स्वतन्त्रता की अपेक्षा है उसे मैं बरकरार रखू या बहाल करूं। वैसी अवस्था में अपने लिये किसी भी प्राणी का हनन कभी भी संभव नहीं होगा। सभी प्राणियों को उस रूप में दुःख नहीं दूंगा और सुख देने का यत्न करूंगा जिस रूप में मैं दुःख नहीं चाहता हूँ और अपने लिये सुख प्राप्त करना चाहता हूँ।
सुख जो मैं चाहता हूँ और जो सभी प्राणी चाहते हैं, उसका विश्लेषण दस भेद के रूप में है-(१) आरोग्य (पहला सुख निरोगी काया) (२) दीर्घायु जो शुभ रूप हो, (३) आढ्यत्व -विपुल धन सम्पत्ति का होना, (४) काम –इन्द्रियों के शुभ विषयों की प्राप्ति, (५) भोग -शुभ गंध, शुभ रस तथा शुभ स्पर्श का ग्रहण, (६) सन्तोष—अल्प इच्छाओं के साथ चित्त की शान्ति, (७) आस्ति सुख-आवश्यकता के समय पदार्थ की प्राप्ति, (८) शुभ भोग–अनिन्दित (प्रशान्त) भोग, (६) निष्क्रमण –सांसारिक झंझटों की फंसावट से निकल कर सदा सुखकारी संयम स्वीकार