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सेवन करना, (२) अव्रत - व्रत नहीं लेना और किसी तरह का प्रत्याख्यान नहीं करना, (३) प्रमाद - पांच प्रकार के प्रमाद का सेवन करना, (४) पच्चीस प्रकार की कषाय का आचरण करना, (५) अशुभ योग — अशुभ योग में प्रवर्तित होना, (६) प्राणातिपात — जीवों की हिंसा करना, (७) मृषावाद – झूठ बोलना, (८) अदत्तादान — चोरी करना, (६) मैथुन – कुशील का सेवन करना, (१०) परिग्रह — द्रव्यादि रखना, (११) श्रोतेन्द्रिय — श्रवण विषयों को वश में नहीं रखना, (१२) चक्षुरिन्द्रिय–दृश्य विषयों को वश में नहीं रखना, (१३) घ्राणेन्द्रिय-सूंघने के विषयों को वश में नहीं रखना, (१४) रसनेन्द्रिय – रसास्वादन के विषयों को वश में नहीं रखना, (१५) स्पर्शेन्द्रिय — स्पर्श के विषयों को वश में नहीं रखना, (१६) मन- विचार के विषयों को वश में नहीं रखना, (१७) वचन — भाषण के विषयों को वश में नहीं रखना, (१८) काया - शरीर के विषयों को वश में नहीं रखना - अर्थात् इनसे उत्पन्न राग द्वेषादि भावों से अपनी आत्मा को वश में नहीं रखना । (१६) भंड- उपकरण – पात्रादि को अयतना से लेना व अयतना से रखना एवं (२०) सुई - कुशाग्र वस्तु मात्र को अयतना से लेना तथा अयतना से रखना ।
संवर तत्त्व आश्रव याने कि कर्मों के आने का निरोध करता है । जीव रूपी तालाब में आश्रव रूपी नालों के द्वारा कर्म रूपी आते हुए पानी को रोकने हेतु संवर रूपी पाल बांधकर पानी उसे आने से पहले ही रोक दे, उसे संवर तत्त्व कहा गया है। उस के बीस बोल होते हैं - ( १ ) सम्यक्त्व-सम्यक् श्रद्धा, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् आचरण, (२) व्रत - प्रत्याख्यान - विभिन्न व्रत ग्रहण करना तथा त्याग करना, (३) अप्रमाद - प्रमाद का सेवन नहीं करना, (४) अकषाय – कषायपूर्ण आचरण नहीं करना, (५) शुभयोग-शुभ योगों में प्रवर्तित होना, (६) प्राणातिपात - विरमण जीवों की हिंसा नहीं करना, (७) मृषावाद - विरमण सत्य भाषण करना, (८) अदत्तादान - त्याग — चोरी नहीं करना, (६) अमैथुन – कुशील का सेवन नहीं करना, (१०) परिग्रह — परिमाण द्रव्यादि पर ममत्व भाव नहीं रखना (११) श्रोतेन्द्रिय- श्रवण विषयों पर अनाशक्ति (१२) चक्षुरिन्द्रिय – दृश्य विषयों पर आशक्त नहीं होना (१३) घ्राणेन्द्रिय – सूंघने के विषयों में अनाशक्ति (१४) रसनेन्द्रिय - रसास्वादन के विषयों में अनाशक्ति भाव, (१५) स्पर्शेन्द्रिय – स्पर्श विषयों पर आशक्त नहीं होना, (१६) मनविचारों को वश में रखना (१७) वचन को वश रखना, (१८) काया - शरीर को वश में रखना, (१६) भंड- उपकरण - पात्रादि को यतना से लेना व यतना से रखना, एवं (२०) सुई कुशाग्र-वस्तु मात्र को यतना से लेना तथा यतना से रखना ।
आत्मा से कर्म वर्गणा का देशतः दूर होना निर्जरा तत्त्व कहलाता है। जीव रूपी वस्त्र के कर्म रूपी मैल, ज्ञान रूपी पानी, तप तथा संयम रूपी साबुन से धोकर मैल को दूर करे – उसे निर्जरा तत्त्व कहते हैं। संवर से आते हुए पानी को रोककर तालाब में भरे हुए पानी को बाहर निकालने का काम निर्जरा तत्त्व करता है । कर्मों की निर्जरा बारह प्रकार सम्यक् तपाराधन से की जाती है। (१) अनशन – उपवास आदि, (२) ऊणोदरी - भूख से कम भोजन करना, (३) भिक्षा चर्या (वृति संक्षेप) अनेक घरों से ऐषणीय भिक्षा लाना व आहार करना, (४) रस परित्याग – रस (विगय) पूर्ण भोजन का त्याग करना, (५) कायाक्लेश – वीर आसन आदि शरीर की कष्टकर क्रियाएं करना, (६) प्रतिसंलीनता—इन्द्रियों, कषायों व योगों को वश में रखना, (७) प्रायश्चित - लगे हुए दोषों की आलोचना करना तथा प्रायश्चित लेकर आत्म स्वरूप को शुद्ध बनाना, (८) विनय - गुरु आदि का भक्ति पूर्वक अभ्युत्थानादि से आदर सत्कार करना, (६) वैयावृत्य - आचार्य आदि की सेवा सुश्रूषा
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