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मिथ्यात्व से सम्यक्त्व की ओर गति करने अथवा अपनी मिथ्या श्रद्धा एवं अपने मिथ्या आचरण को सम्यक्त्वपूर्ण बनाने के पहले इस व्यापक चक्र को मैं समझ लूं कि संसार से मोक्ष तक पहुँचने के लिये इस आत्मा को किस प्रक्रिया से होकर गुजरना पड़ता है तो उस ज्ञान के कारण सम्यक्त्व के क्षेत्र में सक्रियता हेतु विशिष्ट दृढ़ता मुझे प्राप्त हो सकेगी। यही ज्ञान मुझे पदार्थ मोह से पृथक करेगा तो मेरी निष्ठा को मूल्यों के केन्द्र में संस्थापित कर देगा । मुझे श्रद्धा, ज्ञान और आचरण की एक बार शुभता प्राप्त हो—यह एक बात, किन्तु पदार्थों के प्रति प्रगाढ़ मोह के थपेड़ों से मैं अपने सम्यक्त्व की सुरक्षा करने में समर्थ बन सकू तथा उस शुभता को बनाये रखू व बढ़ाता रहूँ यह दूसरी बात है। एक के बाद दूसरी स्थिति आवश्यक है, वरना मोह और मिथ्यात्व का दैत्य कभी भी मेरी शुभता का सहज ही में अपहरण कर सकता है।)
___एक दृष्टि संसार से मोक्ष तक मेरी भव्य आत्मा इन दोनों प्रक्रियाओं की कर्ता है कि वह इस संसार में कर्मों के भार से दबी हुई रहे अथवा हलुकर्मी बनकर ऊर्ध्वमुखी हो जाय । इस प्रक्रिया के ही अंग हैं कि आत्मा कर्मों का भार कैसे बढ़ाती है और अपने मन, वचन, कर्म को क्या अपरूप देती है अथवा इसके विपरीत वह अपने कर्म भार से हल्की कैसे हो सकती है और कैसे अपने मन, वचन, कर्म की शुभता साधकर सदा-सदा के लिये अपने मूल स्वरूप में स्थित हो जाने हेतु मोक्ष के पावन प्रांगण में प्रवेश कर सकती
___पहले इस प्रक्रिया के प्रधान तत्त्वों को समझलें। तत्त्व होता है वस्तु का सद्भाव एवं उसका यथार्थ स्वरूप। ये तत्त्व संख्या में नौ माने गये हैं (१) जीव - जिसे सुख-दुःख का ज्ञान होता है तथा जिसका उपयोग लक्षण है, (२) अजीव - जड़ पदार्थ अथवा सुख-दुःख के ज्ञान एवं उपयोग से रहित पदार्थ, (३) पुण्य - कर्मों की शुभ प्रकृतियाँ, (४) पाप - कर्मों की अशुभ प्रकृतियाँ, (५) आश्रव - शुभ तथा अशुभ कर्मों के आने का कारण, (६) संवर - समिति गुप्ति वगेरा से कर्मों के आगमन को रोकना, (७) (निर्जरा-फल-भोग या तपस्या के द्वारा कर्मों को एक देश से क्षय करना,) () बंध-आश्रव के द्वारा आये हुए कर्मों का आत्मा के साथ सम्बन्धित होना तथा (६) मोक्ष सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाने पर आत्मा का निज स्वरूप में लीन हो जाना।
इन नौ तत्त्वों के स्वरूप को कुछ विस्तार से समझें।
जीव तत्त्व ही संसार के रंगमंच का कलाकार होता है और रंगमंच होता है अजीव तत्त्व का। रंगमंच का निर्माण, कला की विधाएँ और कला का प्रदर्शन—यह सब कुछ जीव तत्त्व करता है। क्योंकि जीव ही चेतना, एवं उपयोग लक्षण वाला, सुख-दुःख का वेदक, पर्याप्ति एवं प्राण का धर्ता, आठ कर्मों का कर्ता और भोक्ता, सदा काल शाश्वत रहने वाला तथा कभी भी नष्ट नहीं होने वाला असंख्य प्रदेशी तत्त्व होता है। जीव ही ज्ञान, दर्शन, सुख और आत्म-वीर्य इन चार भाव प्राणों से भूतकाल में जिया, वर्तमान काल में जीता है तथा आगामी काल में इन्हीं चार भाव प्राणों के साथ जियेगा और इसीलिये इसका जीव नाम है। जीव मुख्यतः दो तरह के माने गये हैं—संसारी जो कर्म सहित हैं और सिद्ध जो कर्म खपा कर मुक्त हो गये हैं। संसारी जीव चौदह प्रकार के होते हैं – सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादक एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय, तथा संज्ञी पंचेन्द्रिय- इन सात की पर्याप्त एवं अपर्याप्त दशा की दृष्टि से कुल चौदह प्रकार हो गये। विस्तार की अपेक्षा से जीव तत्त्व के पांच सौ त्रेसठ भेद किये गये हैं।