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तैल मालिश करके रेत में लेट जाय तो उसके बदन पर रेत के कण चिपक जायेंगे अथवा नहीं। वैसे ही रेत के कण चिपकेंगे जैसी रेत में वह लेटेगा। कण भूरे होंगे, लाल होंगे या काले होंगे तो उसी रंग के कण उसके बदन पर चिपकेंगे। फिर वे कण गरम होंगे तो उसे ऊष्णता का अनुभव देंगे। ठंडे होंगे तो शीत का और तीक्ष्ण होंगे तो चुभन का। एक बार वे कण शरीर के चिपक जायेंगे तो उन्हें जल आदि से धोने पर ही शरीर से अलग कर सकेंगे। तो यह सारी चिपकने की और ऊष्णता, शीत या चुभन का अनुभव देने की क्रिया किसने की ? साफ है कि रेत के कणों ने। तो क्या रेत के कण जीव होते हैं? यह भी साफ है कि जीव नहीं होते अजीव होते हैं किन्तु तैल के संसर्ग से अजीव रेत के कण सक्रिय हुए। तो बताइये कि इस सारी क्रिया का संचालन किसने किया? क्या इसमें किसी परमात्मा का कार्य है? नहीं।
ऐसी ही व्यवस्था कर्म सिद्धान्त की है। मैं इसका संक्षिप्त विश्लेषण अपने ही उदाहरण से करता हूँ। मैं सशरीरी हूँ अतः जीव-अजीव संयोग रूप हूँ और उसी कारण नाना प्रकार की क्रियाएँ करने में समर्थ हूँ। समझिये कि मैंने अपनी एक क्रिया से किसी जीव को सताया तो इसमें जो तत्फलस्वरूप मुझे पाप कर्म का बंध होगा। यह बंध कैसे होगा? मैं बता चुका हूँ कि मेरे औदारिक शरीर के साथ तैजस और कार्माण शरीर भी जुड़े हुए हैं। यह कार्माण शरीर ही मेरे आत्म प्रदेशों से सम्बद्ध कर्म समूह का पिंड है। कर्म परमाणु स्कंध स्वयं अजीव होते हैं जो आकाश में फैले हुए होते हैं। जिस तरह का मैंने कार्य किया है, वैसे ही कर्म पुद्गल क्रिया होने के साथ ही मेरे आत्म प्रदेशों के साथ बंध जाते हैं। कर्मयोग्य पुद्गल, मेरी आत्मा के साथ संबद्ध होकर कर्म रूपता की संज्ञा पा जाते है। मैंने हिंसा रूप पाप कार्य किया है तो पाप कर्म बंधेगे और यदि दयापूर्वक किसी प्राणी की रक्षा का शुभ कार्य किया है तो सम्यक् दृष्टि के सकाम निर्जरा एवं पुण्य बन्ध प्रसंग भी उपस्थित हो सकेगा जिस प्रकार तैल मालिश किये हुए बदन पर उपलब्ध रेत के कण स्वयमेव ही चिपक जाते हैं। ये कर्म समूह कार्य की सघनता-जन्य भावों के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकृति, स्थिति, रस अथवा प्रदेश की तारतम्यता से बंधते हैं। गाढ़ा तैल लगा हुआ होगा तो ज्यादा रेत के कण मजबूती से चिपकेंगे और मामूली तैल होगा तो चिप कर जल्दी छूट भी जायेंगे। ऐसी ही तारतम्यता इन कर्मों की होती है, जितनी कालावधि के लिये इनका बंध होता है, उसके पूर्ण होने पर ये बंधे हुए कर्म उदय में आते हैं और अपना शुभ अथवा अशुभ फल जीवात्मा को देते हैं। कर्मों की यह व्यवस्था इतनी सुघड़ है कि ये महान् से महान् आत्मा को भी नहीं बख्शते। वीतरागता और उसके बाद आत्मा जब क्रिया करना ही छोड़ देती है, तभी ये कर्म पिंड छोड़ते हैं। किन्तु जब तक संसार में भटकाव है, जीव की प्रत्येक क्रिया तदनुरूप कर्म से आत्मा को आबद्ध करती ही है। कर्म बंध से कोई भी संसारी जीव बच नहीं सकता है, बल्कि अपने कर्मानुसार वह भिन्न-भिन्न गतियों में भ्रमण करता है तथा भिन्न-भिन्न परिस्थितियों का अनुभव लेता है। यद्यपि जीव ही अपने कर्मों का कर्त्ता होता है फिर भी अपने कर्म योग पर उसका कोई वश नहीं होता। अपने कर्मों के फल उसे अपने बांधे हुए कर्मों के अनुसार ही भोगना होगा। निकाचित कर्मों में तो तनिक भी परिवर्तन नहीं कर सकता है। किन्तु कर्मों का कर्ता होने से जीव ही स्वयं अपने भाग्य का निर्माता भी है।
मैं कर्मों का कर्ता हूं क्योंकि मेरे द्वारा की जाने वाली क्रियाओं पर मेरा वश होता है। जैसी मेरी विचारणा होती है, वैसी ही क्रिया होती है अथवा मैं अपनी विचारणा को शुभ रूप भी दे सकता हूँ तो अशुभ रूप भी। यदि मैं चाहूँ तो शुभ क्रियाएं करूं और पुण्य कर्म बांधू जो मुझे शुभ १०२