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की प्राप्ति की दिशा में अत्यन्त मोह-ग्रस्त बनकर प्रवृति करता हूँ तब मेरे मन-मानस पर प्रमाद की प्रमत्ता छा जाती है। मैं बेभान हो जाता हूं और इतना तक नहीं देख पाता हूँ कि मैं अपनी किस क्रिया से कितने अन्य प्राणियों का वध कर रहा हूँ उनका छेदन-भेदन कर रहा हूँ –उनके प्राणों (दस प्राण) को कष्ट पहुँचा रहा हूँ उन पर शासन करके उनको अपने अधिकार में ले रहा हूं अथवा उनको हैरान और परेशान कर रहा हूँ। प्रमाद का ऐसा ही घातक प्रभाव होता है जिसमें मेरी चेतना शून्य सी बन कर इन्द्रियों के विषय-विकारों में रत बन जाती है। ऐसी मन-स्थिति में मैं जीव कर्म बंध का मादक भार एकत्रित कर लेता हूँ।
___ मैं जानता हूँ कि हिंसा का जन्म और विस्तार मेरे प्रमाद-योग से होता है। हिंसा के जितने निकृष्ट रूपों को मैं समझता हूँ तभी मेरे जागरूक ध्यान में अहिंसा के उत्कृष्ट रूप भी तैरने लगते हैं। मैं जब किसी प्राणी की किसी भी इन्द्रिय ,मन, वचन, काया, श्वासोश्वास या आयुष्य पर आघात करता हूँ और उसकी उससे पैदा होने वाली तड़पन को देखता हूँ तो मेरे अन्तःकरण में करुणा की लहरें भी उठने लगती हैं। किन्तु जब तक प्रमाद योग का मेरे मन मानस में प्रचंड रूप बना हुआ रहता है तब तक मैं उन प्राणियों की तड़पन में सुखानुभव भी करता हूँ और अट्टहास करता हुआ यह घमंड करता हूँ कि मैं कितना महाबली हूँ। यह मेरा सुखाभास घृणित ग्लानि में बदलने लगता है जब मैं कुछ सचेतन होकर करुणा-भाव की प्रतीति लेता हूँ। किन्तु मेरी ऐसी परिणति तभी उभर सकती है जब मैं मिथ्यात्व के अंधकार से निकल कर सम्यक्त्व के आलोक में गमन करने का संकल्प लेता हूँ।
___सामान्यतया जब मैं अठारहों पापों में रचापचा रहता हूं तब हिंसा के क्रूर कार्य मुझे दूसरे पापों के पंक में घसीटते रहते हैं। मैं हिंसक होता हूं तो असत्यभाषी भी बन जाता हूँ। निःशंक होकर झूठ बोलता हूँ और झूठा आचरण करता हूँ जैसे कि मुझे अपनी इन दुष्प्रवृत्तियों का कोई कुफल भोगना ही नहीं पड़ेगा। हिंसा और झूठ से लैस होकर तब मैं चौर्य कर्म में प्रवृत्ति करता हूं। दूसरों द्वारा न दी हुई वस्तु को लेने की बात तो छोड़िये, मैं जोर-जबरदस्ती से दूसरे प्राणियों को प्राप्त वस्तुओं को छीन लेता हूँ और उनको वस्तुओं के अभाव में पटक कर दुःखित व पीड़ित बना देता हूँ। आज की जटिल आर्थिक व्यवस्था में तो मैं अपना वैभव और ऐश्वर्य अशक्त प्राणियों का शोषण करके प्राप्त करता हूँ क्योंकि यह प्रकृति का नियम है कि यदि सबको अपने निर्वाह के लिये नीतिपूर्ण श्रम करना हो तो उससे निर्वाह तो हो सकता है लेकिन संचय संभव नहीं। आज कुछ हाथों में अपार परिग्रह सत्ता और सम्पदा का जो संचय दिखाई दे रहा है, वह अधिकांश रूप शोषण के क्रूर कर्म से - अपने लाखों करोड़ों साथियों के उत्पीड़न से किया जाता है। यह सब अदत्तादान अथवा चौर्य कर्म का पाप है। मेरा दुष्टतापूर्ण अनभव है कि जब-जब मैं हिंसक. झठा और चोर बना हं और मोह-प्रमत्त बनकर परिग्रह का संचय जटा सका हँ तब-तब मैं सांसारिक सखों के पीछे पागल होकर भागा हूँ और सबसे पहले इन्द्रियों के तेतीस विषयों में लिप्त हुआ हूँ, जिसका मोहित कर देने वाला सबसे बड़ा रूप रहा है मैथुन । तब मैने ब्रह्मचर्य को कुछ भी नहीं समझा तथा अपनी प्राप्त शक्तियों को कुशील सेवन में लगाने लगा। काम भोगों को ही मैंने सुख माना और बार-बार दुःखी होते हुए भी इसी सुख के लिये दौड़धूप की। मैथुन के साथ परिग्रह के संचय में मैंने अपार आसक्ति भी अपने मन में जमा करली। इस प्रकार इन पांच महापापों का मैं पुतला बन गया।
महापापी बनकर मैं पाप पंक में गहरे से गहरा घंसता ही चला गया। प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन और परिग्रह के विकार मुझे क्रोध, मान, माया और लोभ के विकार-क्षेत्र
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