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कहे गये हैं जिनके लिये यदि मैं यथास्थान यथासमय एवं यथाशक्ति अपनी कर्मण्यता का अर्पण करूँ तो मेरे पुण्य कर्मों का बंध संभव बनता है ।
मैं यह भी जान गया हूँ कि यदि मेरे शुभ पुण्य कर्मों का बंध हो जाता है उनकी तारतम्यता के अनुसार इस प्रकार से उनका शुभ फल भी मुझे प्राप्त हो सकता है कि मैं साता वेदनीय का अनुभव करूँ याने कि मुझे सुख प्रदायक साधन सामग्री मिले। मुझे गति अनुपूर्वी तथा आयु में मनुष्य या देव जन्म मिल सकता है तथा उच्च गौत्र भी। पांचों प्रकार के शरीर पंचेन्द्रिय जाति के साथ श्रेष्ठ अंगोपांग, संहनन व संस्थान युक्त भी मुझे मिल सकते हैं। वर्ण, गंध, रस, स्पर्श शुभ रूप तो अगुरू- लघु, पराघात, श्वासोश्वास, आतप और उद्योत भी पूर्ण शुभता से मुझे प्राप्त हो सकते हैं। नाम की दृष्टि से त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुभग, सुखद, आदेय और यशः कीर्ति नाम भी सुलभ हो सकते हैं। और तो और पुण्य कर्म के बंध की उच्च स्थिति बने तो तीर्थंकरत्व भी प्राप्त हो सकता है ।
मैं ऊपर यह बताने का प्रयास कर रहा था कि संसार रूपी इस महासागर में जटिल कर्म बंध से बंधी हुई मेरी आत्मा अपने बचाव का कोई उपाय नहीं कर सकती है जब तक कि वह पहले जटिल बंधनों को ढीले करने की कोशिशें न करे। कर्म बंधनों को ढीला करने का, धीरे-धीरे काटने का और अन्त में उनका सम्पूर्ण रूप से क्षय कर देने का यही उपाय है कि पाप कार्यों में निरन्तर होती हुई अपनी प्रवृति का निरोध किया जाय एवं उनके स्थान पर शुभ कार्यों का ऐसा क्रम चलाया जाय कि शुभ पुण्य कर्मों का बंध हो । इसके फलस्वरूप मेरे कर्मों के वे जटिल बंधन ढीले पड़ने लगेंगे। जब बंधन ढीले पड़ने लगेंगे तो हाथ-पांव अपनी ताकत दिखाने के लिये कुछ-कुछ आजादी पाने लगेंगे। हाथ पांवों को योग्य रीति से चला चलाकर मैं एक ओर अपने को डूबने से बचाने की कोशिश करने लगूंगा तो दूसरी ओर अपने अंगों के लिये अधिक आजादी पाते रहने की चेष्टा में लगूंगा। इस बीच मेरे पुण्योदय से मुझे ऐसे अनुकूल साधनों की प्राप्ति भी हो सकेगी कि जिनकी सहायता से मैं इस महासागर के पार जा सकूं। अर्थात् मैं पानी में न डूबूं और अपना तैरना जारी रख सकूं ऐसा उपकरण मिल जाय या मजबूत नौका ही प्राप्त हो जाय ताकि मैं महासागर में मुझे डुबोने की चेष्टा करने वाली लहरों और आँधियों का कामयाब मुकाबला कर सकूं। अधिक पुण्योदय हो तो मुझे सुविधा सम्पन्न बड़ा जहाज भी मिल सकता है जिसके कारण महासागर में मेरे डूबने का खतरा ही न रहे और उसे पार कर लेने की सुनिश्चितता पैदा हो जाय। ये सब उपलब्धियाँ पूर्व कृत पुण्य कार्यों के फलोदय में मिल सकती है। पाप कर्मों के बंध समय-समय पर प्रतिकूलताएं पैदा करते हैं। जिनके कारण धर्माराधना में नित नई बाधाएँ खड़ी होती हैं तो आत्म विकास में स्वस्थ अभिरुचि का ही अभाव बन जाता है। दूसरी ओर पुण्य कर्मों के बंध से फलोदय के समय ऐसी अनुकूलताएँ और उत्साहवर्धक परिस्थितियाँ पैदा होती रहती है कि आत्म-विकास की महायात्रा में आगे बढ़ते हुए हर तरह के शुभ संयोग सुलभ होते हैं। धर्म में रुचि, धर्म में आस्था तथा धर्म में पराक्रम दिखाने की प्रवृत्ति इसी पुण्य कर्म तथा उसके फल से प्राप्त अनुकूलताओं के आधार पर सफलता के सूत्र प्रकट करती है। पाप कर्मों का फलोदय मुझे सांसारिक दुःखों के इस महासागर में गहरे डुबोता है तो पुण्य कर्मों का फलोदय इस महासागर को तैर कर पार करने की अच्छी से अच्छी क्षमताएँ मुझे प्रदान करता है । पाप पुण्य की मीमांसा में मैं इस सत्य को भी ध्यान में ले लेना चाहता हूं कि चरम लक्ष्य के रूप में पाप कर्मों के साथ पुण्य कर्मों का भी क्षय करना पड़ता है
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