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फल देवें। इसके विपरीत यदि मैं अशुभ क्रियाएँ करूँ तो उनसे पाप कर्मों का बंध अवश्य होगा । तो जहाँ तक विचारणा बनाने और क्रियाएँ करने का सम्बन्ध है, मैं ही अपने भाग्य का निर्माता होता हूँ। जैसी क्रियाएँ मैं करूँगा, वैसे की कर्म बंधेंगे। जैसे कर्मों का बंधन होगा, वैसा ही फल आगे मुझे भोगना पड़ेगा । फल भोग में मैं स्वतंत्र नहीं हूँ किन्तु क्रियाएँ करने में स्वतंत्र हूँ । इस कारण आज जब मुझे सुख के साधन और धर्माराधन की अनुकूलताएँ प्राप्त होती हैं तो मुझे यही अनुभव होना चाहिये कि पहले शुभ कार्य करके मैंने अपने भाग्य का शुभ निर्माण किया जिसका शुभ फल आज मुझे मिल रहा है। इसके स्थान पर आज यदि मुझे दुःखों का सामना करना पड़ रहा है तो उसके पीछे का तथ्य भी अपने पहले बांधे हुए कर्म ही होंगे, अतः ये दुःख भी मेरे अपने ही बनाये हुए हैं। सभी स्थितियाँ पूर्व कर्म फल के परिणाम स्वरूप ही हो—ऐसी भी बात नहीं है। हम अपनी नवीन क्रियाओं से भी नये कर्मों की बंध करते रहते हैं ।
कर्म बंध की प्रक्रिया के इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाना चाहिये कि जीव व अजीव के संयोग से जीव की जो क्रियाएँ होती हैं वे क्रियाएँ ही कर्म बंध का कारण बनती हैं। कर्म बंध के अनुरूप ही जीव को उसका फल भोगना होता है । क्रियाएँ करने तक जीव की अपनी स्वतंत्रता होने के कारण वह चाहे जैसा अपना भाग्य बना सकता है। बाद में फल भोग के समय उसको चौंकना नहीं चाहिये, बल्कि उसे धैर्य और शान्ति से सहन करना चाहिये ताकि इस शुभ क्रिया से पूर्वबद्ध कर्मों की निर्जरा होने के साथ नवीन कर्मों का बंधन हो और अगर बन्ध हो भी तो शुभ योग कारण के रहने से पुण्य कर्म का ही बन्धन होवे ।]
(कर्मों की यह सारी व्यवस्था इतनी सुघड़, सम्प्रभावी तथा वैज्ञानिक है कि इसका गहराई से अनुभव करते हुए आत्मा- विकास की महायात्रा को सफल बनाया जा सकता है। बशर्ते कि हम इस सिद्धान्त के मर्म को हृदयंगम करें।
कर्मों का आगमन, अवरोध एवं क्षय
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जीव अजीव संयोग से कर्म बंध की प्रक्रिया का कुछ विश्लेषण मैंने किया तो मैं इस तथ्य को भी स्पष्ट करूं कि कर्म बंध को हटाने में भी जीव का पुरुषार्थ सफल हो सकता है। मैं कर्मों का कर्त्ता हूँ और कर्त्ता बनने तक मेरी स्वतंत्रता है, पर भोक्ता होना लगभग कर्मानुसार होगा ही । मैं कर्म भार से दबा हुआ हूँ किन्तु यह नहीं है कि मैं एकदम परवश ही हो गया हूँ। उस भार को अपने पुरुषार्थ से मैं हटाने में भी समर्थ हूँ। या यों कहूँ कि अगर मेरा संकल्प, साहस और पुरुषार्थ सक्रिय है तो मैं किसी भी स्तर पर पराधीन याने कि कर्मों के अधीन नहीं हूँ। मैं अपने कर्म बंध को उनके उदय होने से पहले भी क्षय भी कर सकता हूँ। पुरुषार्थ की कुछ कमी रहे तो उसे दबा सकता हूँ—उपशायित कर सकता हूँ। और यह तो है ही कि मैं आने वाले कर्मों को पहले ही अवरुद्ध भी कर सकता हूँ ।
अतः वस्तुतः मैं सजग आत्म स्वरूप के नाते हर समय स्वतंत्र हूँ – परतंत्र कभी भी नहीं, कहीं भी नहीं । मैं प्रबुद्ध हूँ सदा जागृत हूँ तो सदा स्वतंत्र हूँ परन्तु यदि मैं प्रबुद्ध भी नहीं हूँ और सदा जागृत भी नही हूं तो प्रति क्षण कर्मों की मार से पराधीन एवं पीड़ित भी रहूंगा ही । कारण पाप कर्मों को बेमानी में हंसते-हंसते बांध लूंगा लेकिन जब उनका अशुभ फल भोगूंगा तब फिर बेमानी में दुःख सहते हुए हाय - विलाप करूंगा जिससे फिर नये अशुभ कर्मों का बंध कर लूंगा। मेरा
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