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अतः वास्तविकता यह है कि असली संचालक और कर्ता मैं हूँ और अजीव तत्त्व को मैं अपनी सेवा में धर्माराधना के निमित्त से लगाता हूँ। यदि मैं स्वस्थ रहकर अपने नियंत्रण को प्रभावी बनाये रखता हूँ तब तो सारी व्यवस्थायें सुचारू रूप से चलती है। उस अवस्था में वर्तमान में प्राप्त इस मानव तन का भी आत्म विकास की महायात्रा में भलीभांति सदुपयोग कर सकता हूँ। किन्तु यदि मैं ही मोह की मदिरा पीकर उन्मत्त बन जाता हूँ और अपने मन व अपनी इन्द्रियों को बाहर बहक जाने से काबू में नहीं कर पाता हूँ तो मैं हकीकत में दोष अपना ही मानता हूँ, अपने इन सेवकों का नहीं। स्वामी ही सावधान नहीं रहेगा तो सेवक भला क्योंकर सावधानी रखेंगे?
संसार के समस्त गति चक्र एवं कार्य-कलापों में जीव तत्त्व ही प्रधान होता है किन्तु इस जीव (संसारी) तत्त्व की गति, स्थिति आदि सब अजीव से सम्बन्धित होती है अतः जीव और अजीव दोनों तत्त्वों की प्रधानता स्वीकार करनी होगी। जीव (संसारी) है किन्तु उसकी प्रत्येक प्रवृत्ति का प्रकटीकरण अजीव के माध्यम से ही होता है। अतः सम्पूर्ण दृश्य जगत् न किसी एक ईश्वर की
। अन्य किसी विशिष्ट शक्ति की रचना है बल्कि जीव एवं अजीव तत्त्वो के संयोग का ही प्रतिफल है।
मैं इस संसार का केन्द्र हूँ अजीव तत्त्व के संयोग से किन्तु यह संयोग मेरे लिये एक बंधन है जो मुझे दुःख भरे इस संसार में ही रोक रखना चाहता हैं जबकि मेरा यह पुनीत कर्तव्य है कि मैं इस बंधन को तोड़कर अपने आत्मस्वरूप को परम निर्मलता की ओर ले जाऊँ। इसका अर्थ यह हुआ कि मैं अपने जीव-अजीव संयोग को कमजोर बनाऊँ और अपने संयम व तप से सम्पूर्ण संयोग विच्छेद का पुरुषार्थ करूं। मैं जब अपना सम्पूर्ण अजीव-संयोग समाप्त कर दूंगा तो मैं अपना चरम लक्ष्य प्राप्त कर लूंगा। मेरी आत्म-विकास की महायात्रा तब सम्पन्न हो जायेगी।
कर्म-बंध का विश्लेषण किन्तु जब तक मैं संसार में ही परिभ्रमण करता रहता हूँ एवं विभिन्न जीवनों में विविध शरीरों में स्थित होता रहता हूँ तब तक सम्पूर्ण पर्यायों का निर्माता यह कर्म बन्ध ही बनता है अतः कर्म बंध की प्रक्रिया को अच्छी तरह समझना आत्म स्वरूप को समझने की पहली सीढ़ी होगी।
__मैं जीव होता हूँ और मेरा शरीर अजीव, किन्तु दोनों के संयोग से नाना प्रकार की वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ जन्म लेती हैं तथा उनसे विविध क्रियाएँ फूटती हैं। ये समस्त क्रियाएँ शुभता अथवा अशुभता या मिश्रित रूप में अपना प्रभाव आत्मा पर अवश्य छोड़ती हैं। जब एक ईश्वर जैसी कोई शक्ति संसार की रचना करने वाली अथवा सांसारिक जीवों को सुख-दुःख का भोग देने वाली नहीं होती है तो निश्चय ही कोई दूसरी व्यवस्था होगी जो जीव को उसके शुभ अथवा अशुभ कार्यों का प्रतिफल देती होगी। यह जिज्ञासा सही है और मेरा कहना है कि वह व्यवस्था ही कर्म सिद्धान्त की व्यवस्था है। फिर पूछा जा सकता है कि इस व्यवस्था का संचालन कौन करता है? इसके उत्तर में मैं कहना चाहूंगा कि यह व्यवस्था इस प्रकार स्वयं संचालित है कि उस के मर्म को समझने पर सब कुछ स्पष्ट हो जाता है।
____ मैं जीव हूँ सो मैं ही कर्मों का कर्ता तथा मैं ही उनके फलाफल का भोक्ता भी हूँ। यह करने और भोगने का क्रम इतना व्यवस्थित है कि करने पर उसका फल भोगना ही पड़ता है, चाहकर भी कोई जीव उससे छूट नहीं सकता। एक दृष्टान्त लेलें। कोई व्यक्ति अपने बदन पर अच्छी
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