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जीव और अजीव की प्रमुखता मैं जीव तत्त्व हूँ, इस कारण मैं देखता हूँ, सुनता हूं तथा अन्य क्रियाएँ करता हूँ और देखकर, सुनकर तथा अनुभव लेकर जानने, उसका विश्लेषण करने तथा निरूपित सिद्धान्तों को समझने अथवा अपनी अनुभूतियों के बल पर नये सिद्धान्तों का निरूपण करने की क्षमता रखता हूँ।
मैं जीव हूँ इसीलिये अजीव नहीं हूँ और कभी अजीव बनूंगा भी नहीं। जीव कभी अजीव नहीं बनता और अजीव कभी भी जीव नहीं बन सकता है। किन्तु मैंने अजीव के साथ अपना सम्बन्ध जोड़ा है और यह सम्बन्ध ऐसा दिखाई देता है कि जैसे मैं अजीव के साथ एकमेक हो गया होऊ। संसार के अन्यान्य अजीव द्रव्यों से तो अहर्निश का सम्पर्क होता ही है किन्तु अजीव पुद्गलों से बने हुए शरीरों को भी मैं धारण किये हुए रहता हूँ। अनादिकाल से मैं संसार में परिभ्रमण कर रहा हैं और अनादिकाल से ही शरीरों को धारण करता हआ आ रहा हैं अतः जब तक मैं पर्णतया अजीव पुद्गलों से अपने सभी सम्बन्ध समाप्त नहीं कर लूंगा तब तक विभिन्न शरीर धारण करता रहूंगा।
___ मैं एक नहीं पुद्गल-निर्मित सभी प्रकार के शरीर धारण करता रहा हूँ। आज मैं मनुष्य जन्म में हूँ तो मैंने मनुष्य जाति को प्राप्त होने वाले औदारिक शरीर को धारण कर रखा है। औदारिक नाम इस कारण कि इस शरीर के पुद्गल उदार प्रधान होते हैं। इस शरीर के अलावा दो अदृश्य शरीर तैजस एवं कार्माण शरीर भी मैंने धारण कर रखे हैं। ये दोनों शरीर आपस में सम्बद्ध होते हैं जिनका निर्माण तैजस एवं कार्माण पुद्गलों से होता है। कार्माण पुद्गल जो विभिन्न क्रियाओं के माध्यम से आत्म प्रदेशों के साथ जुड़ते हैं, उन्हें ही कर्म कहा जाता है। औदारिक शरीर तिर्यंच और मनुष्य जाति के जीवों को प्राप्त होता है तो देवों व नारकीयों को प्राप्त शरीर वैक्रिय कहलाता है। आहारक पुदगलों से निर्मित शरीर को आहारक कहते हैं। औदारिक वैक्रिय तथा आहारिक शरीरों की नई उत्पत्ति होती है। जैसे मनुष्य जाति में औदारिक शरीर मिला हुआ है और यहाँ से मृत्यु पाकर आत्मा देव गति में पहुँचती है तो उसे वैक्रिय शरीर प्राप्त होता है—यह उस शरीर की नई उत्पत्ति हुई। किन्तु दो शरीर—तैजस और कार्माण सदा इन तीनों शरीरों के साथ में भी रहते हैं तो एक शरीर छोड कर प्रयाण कर रही आत्मा दसरे शरीर को ग्रहण रे उस बीच के समय में भी आत्म प्रदेशों के साथ जडे हए रहते हैं। इसका अर्थ यह हआ कि इस समय में भी मैं तीन शरीर-औदारिक, तैजस एवं कार्माण धारण किये हुए हूँ। मेरे इस वर्णन का आशय यह है कि जीव और अजीव का सम्बन्ध इस संसार में प्रगाढ़ रूप से बना हुआ है।
इस बंधन से मैं जब कभी मुक्त होऊंगा तब अपने शुद्ध स्वरूप में मैं सिद्ध शिला से ऊपर सिद्धात्माओं की ज्योति में ज्योति रूप एकाकार होकर सदा काल के लिये अवस्थित हो जाऊँगा। .
मेरे जीव तथा अन्य जीवों के विशिष्ट हेतुओं, स्वभावों तथा भावों की दृष्टि से भिन्न-भिन्न वर्गीकरण किये जाते हैं। एक वर्गीकरण के अनुसार जीव दो तरह के संसारी और सिद्ध होते हैं तो संसारी जीव अपने आत्म विकास के विभिन्न स्तरों के अनुसार तीन प्रकार के होते हैं -(१) संयत जो सर्व प्रकार के सावध-हिंसापूर्ण व्यापार से निवृत्त हो गये हैं एवं संयम धारण किये हुए होते हैं, (२) असंयत—जो अविरति भाव धारण किये होते हैं तथा संयम-विहीन रहते हैं एवं (३) संयतासंयत—जो देश से व्रती होता है ऐसे व्यक्ति के अव्रत की क्रिया नहीं आती। एक दूसरे