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अजीव तत्त्व चेतना रहित व सुख-दुःख पर्याप्ति, प्राण, योग, उपयोग आदि से भी सर्वथा रहित होता है। वह जड़ स्वरूप होकर विनाशी स्वभाव का होता है। इस संसार के सभी दृश्यों में जीव तत्त्व के हाथों घड़ा जाकर यह अजीव तत्त्व ही दिखाई देता है तथा यही जीव-तत्त्व एवं संसार के संसरण का सम्बल बना हुआ रहता है। अजीव तत्त्व के चौदह प्रकार इस रूप में माने गये हैं—धर्मास्तिकाय (गति) के तीन भेद स्कंध, देश और प्रदेश, अधर्मास्तिकाय (स्थिति) व आकाशास्तिकाय (अवकाश) के भी ये ही तीन-तीन भेद—इस प्रकार नौ तथा दसवां काल (समय-व्यतीति)- ये अरूपी अजीव के दस भेद तथा रूपी अजीव के चार भेद स्कंध, देश, प्रदेश, एवं परमाणु पुद्गल मिलाकर कुल चौदह भेद हुए।
पुण्य कर्म का बंध कठिनता पूर्वक साधे गये सत्कार्यों से होता है किन्तु इसका उपभोग करना बड़ा ही सुखकारी रहता है क्योंकि पुण्य का उदय होने पर अनुकूल परिस्थितियां तथा मनोज्ञ वस्तुएँ प्राप्त होती हैं। पुण्य-धर्म का सहायक भी होता है तो पक्ष्य रूप भी होता है। पुण्य नौ प्रकार का कहा गया है। जो निस्वार्थ भाव के आचरण से संपादित होता है। जैसे भोजन के लिये अन्न देने से होने वाला अन्न पुण्य, पीने के लिये पानी देने से होने वाला पान-पुण्य, स्थान और आश्रय देने से होने वाला लयन पुण्य, शय्या, पाटपाटला आदि साधन देने से होने वाला शयन पुण्य, वस्त्र देने से होने वाला वस्त्र पुण्य, दान, शील, तप, भाव, विनय और दया आदि की शुभता से होने वाला मन पुण्य, मुख से शुभ वचन बोलने से होने वाला वचन पुण्य, सेवा सुश्रूषा, विनय वैयावृत्य के शुभाचरण से होने वाला काय पुण्य तथा अधिक गुणवान को नमस्कार करने से होने वाला नमस्कार पुण्य।
पाप तत्त्व कर्म के रूप में आत्मा को मलीन बनाने वाला, अशुभ योग से बांधने वाला एवं दुःखों में पटकने वाला होता है। इस कर्म को आत्मा सांसारिकता में डूबी रह कर सुखपूर्वक बांधती है लेकिन इसे भोगना कठिन दुःख के साथ पड़ता है क्योंकि यह अशुभ प्रकृति रूप होता है तथा इसका फल भोग होता है अत्यन्त कटुक, कठोर और अप्रिय । आत्म स्वरूप को मलिन करने वाला यह पाप तत्त्व अट्ठारह प्रकार का बताया गया है—(१) प्राणातिपात -प्राणों को आघात पहुंचाकर जीवों की हिंसा करना, (२) मृषावाद-असत्य भाषण करना, (३) अदत्तादान- बिना दी हुई वस्तु लेना, चोरी करना, (४) मैथुन–कुशील का सेवन करना, (५) परिग्रह -ममत्व भाव से द्रव्य आदि रखना. (६) क्रोध -खद तपना. दुसरों को तपाना तथा कोपायमान होना, (७) मान -घमंड करना, (८) माया- कपटाई और ठगाई करना, (E) लोभ-तृष्णा बढ़ाना और मूर्छा भाव रखना, (१०) राग-प्रिय व्यक्ति या वस्तु पर मोह व आसक्ति रखना, (११) द्वेष—अप्रिय व्यक्ति या अमनोज्ञ वस्तु पर विरोध का भाव रखना, (१२) कलह-क्लेश करना, (१३) अभ्याख्यान -झूठा कलंक लगाना, (१४) पैशून्य -दूसरे की चुगली करना, (१५) पर-परिवाद दूसरे का अवर्णवाद बोलना, और निन्दा करना, (१६) रति-अरति—पांच इन्द्रियों के तेवीस विषयों में से मनोज्ञ वस्तु पर प्रसन्न होना
और अमनोज्ञ वस्तु पर क्रोधित होना तथा धर्म में अरुचि रखना, (१७) माया मृषावाद -कपट सहित झूठ बोलना एवं (१८) मिथ्यादर्शन शल्य-कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर श्रद्धा रखना ।
आश्रव तत्त्व वह है जिसके द्वारा आत्मा में कर्म आते हैं उसी प्रकार जिस प्रकार एक तालाब में उसके नालों द्वारा पानी आकर भरता है। आश्रव को नालों की संज्ञा दी जा सकती है जो बीस प्रकार के बताये गये हैं—(१) मिथ्यात्व—मिथ्या श्रद्धा, मिथ्या ज्ञान एवं मिथ्या आचरण का
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