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आग्रह के स्थान पर दुराग्रह होता है या कि बुद्धि–विवेक शून्यता होती है अथवा संदेहशीलता होती है। विचार के सम्बन्ध में जब ऐसी दुर्दशा एवं सत्य की विपरीतता बन जाय तो उसके भावी विकास की बात करना ही व्यर्थ होगा।
मेरा मानना है कि जहां मिथ्यात्व होता है, वहाँ र.त्य नहीं होता–सम्यक्त्व नहीं होता। जहाँ सम्यक्त्व तक नही होता, वहाँ आत्म-विकास का एक चरण भी आगे नहीं बढ़ता। इसके विपरीत कर्म बंधन के कारणों में मिथ्यात्व को एक मुख्य कारण माना गया है कि मोहवश तत्त्वार्थ में श्रद्धा न रखने या विपरीत श्रद्धा रखने से एक मिथ्यात्वी आत्मा में आठों प्रकार के कर्मों का प्रवेश एवं उनकी संलग्नता चालू रहती है। यही नहीं, मिथ्यात्व की जड़ें कभी इतनी जम जाती है कि बार-बार उखाड़ लेने पर भी फिर-फिर हरी हो जाती है तथा साधे गये उच्च विकास को पुनः धूलिधूसरित कर देती है। इस कारण मिथ्यात्व का पूर्णतः मूलोच्छेदन अनिवार्य माना गया है।
मैं अपनी ही आत्मालोचना करूं कि सावधानी रखते हुए भी मिथ्यात्व का मन-मानस पर ऐसा आक्रमण होता है कि श्रेष्ठ तत्वों के प्रति मेरी श्रद्धा डगमगा जाती है, ज्ञान विभंग हो जाता है तथा आचरण की धारा उल्टी बहने लगती है या यों कहूं कि दुनिया की बहती हवा में मैं संज्ञाशून्य-सा होकर बहने लग जाता हूं। किसी झटके से ही मेरी सावधानी वापस लौटती है तब जाकर मुझे अपने मिथ्यात्व का ख्याल होता है। बहुरूपी मिथ्यात्व का दैत्य ऐसा ही होता है जो एक साधक को बार-बार सताता है और डोलायमान करना चाहता है अतः मैं मानता हूं कि मिथ्यात्व के प्रति पूर्ण सावधानी रखनी एक साधक की कड़ी कसौटी होती है। यह सावधानी किस रूप में रखी जाय? मिथ्यात्व को हटाकर सम्यक्त्व का वरण करें तथा सम्यक्त्व के प्रति अपनी निष्ठा को अमिट बनावे।
मोह ही मिथ्यात्व का मूल कारण यह तथ्य मेरा अनुभव जन्य है कि यह मिथ्यात्व सांसारिक पदार्थों में उपजे व गाढ़े बने मोह के कारण ही पैदा होता और पसरता है। तभी तो मैं जीव को अजीव मान लेता था और अजीव मेरे लिये जीव से भी ज्यादा प्रिय हो जाता था। मन को मनोज्ञ लगने वाले अथवा पांचों इन्द्रियों को सुहावने प्रतीत होने वाले जड़ पदार्थ मुझे अपने महसूस होते थे जबकि मैं निज गुणों को भुला देता था। तो मिथ्यात्व की यह विपरीत वृत्ति एवं प्रवृत्ति पदार्थों के प्रति प्रगाढ़ मोह के गर्भ से ही जन्म लेती है।
और मोह मदिरारूप होता है जो मेरा भान भुला देता था। उन्मत्तता की दशा में मेरे कदम उल्टे ही पड़ते थे—क्या तो जानने के मामलों में और क्या मानने एवं करने के मामलों में। इस सम्बन्ध में एक शराबी की दुर्दशा हम अपनी आंखों के सामने प्रत्यक्ष रूप से देख सकते हैं। शराब का नशा ही नहीं, उस नशे की खुमारी भी जब तक नहीं उतरती है, तब तक उसके साथ कोई अक्ल की बात करना आसान नहीं होता है। इसी प्रकार मोहग्रस्तता की याद भी मैं कैसे रख सकता हूं? मोह के गाढ़े नशे में मैं क्या सोचता था, क्या मानता था और क्या करता था यह मैं कुछ नहीं जानता। ज्ञानी जन ही जानते होंगे अपितु ज्ञानी जन तो बता चुके है कि प्रगाढ़ मोह दशा में मन मानस पर मिथ्यात्व हावी रहता है, इस कारण उस दशा में सम्यक्त्व का वरण कठिन ही होता है। जब विचारों की दिशा सर्वथा बदलती है तब जाकर सम्यक्त्व का श्रीगणेश होता है।
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