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प्रमाद की प्रमत्तता मुझे यह तथ्य ज्ञात है कि जब काम-भोगों की इच्छाएँ मन-मानस को आच्छादित कर देती हैं और जीवन की वृत्तियों तथा प्रवृत्तियों में एक उन्माद सा छा जाता है तब वह मनुष्य की विशेष प्रमादपूर्ण अवस्था होती है। प्रमाद की प्रमत्तता उसे आत्मीय चेतना की शुभ संज्ञा से शून्य बनाये रखती है। इसी कारण वीतराग देव की चेतावनी प्रकट हुई कि तू समय मात्र के लिये भी प्रमाद मत करो समय कालखंड का सबसे छोटा घटक माना गया है अतः प्रमाद के अस्तित्व को एक समय के लिये भी आत्म-घातक बताया है। मद्य, विषय, कषाय, निद्रा और विकथा रूप प्रमाद पांच प्रकार का कहा गया है तथा प्रमाद को ही कर्म माना गया है। इन पांच प्रकार के प्रमाद के अभाव को पांच प्रकार का अप्रमाद बताया है। प्रमादी व्यक्ति को चारों ओर से भय ही भय सताता है किन्तु अप्रमत्त पुरुष को कहीं से भी भय नहीं होता है। विषय-कषाय सेवन से उत्पन्न प्रमाद को धर्म के क्षेत्र से बाहर समझा गया है। अप्रमादी होकर ही मनुष्य धर्म के क्षेत्र में आत्मिक उद्यम विशेष रूप से कर सकता है।
___ मैंने जाना है कि प्रमाद की प्रमत्तता के वशीभूत होकर मैं आत्म विकास की महायात्रा के तथ्य को ही भूल गया था और उसे ही क्या-अपने स्वरूप व अस्तित्व तक को भी भल गया था। मैं यह भी भूल गया था कि मुझे मनुष्यत्व, वीतराग धर्म श्रवण, सम्यक् श्रद्धा एवं संयम में पराक्रम की जो दर्लभ प्राप्तियाँ प्राप्त हई हैं. उन्हें अपने व संसार के दःखों को घटाने व मिटाने में नियोजित करनी चाहिये। यह प्रमाद की प्रबलता ही थी कि मैंने इस समर्थ मानव जीवन को भी एक बार तो प्रमाद के भेंट चढ़ा दिया और अपने आपको विषय-कषाय के दलपल में आकंठ डुबो दिया।
_ फिर मेरे अन्तःकरण में ये ध्वनियाँ गूंजने लगी कि अति दुर्लभ एवं विद्युत के समान चंचल इस मनुष्य भव को पाकर जो प्रमाद का आचरण करता है, वह कापुरुष होता है -सत्पुरुष नहीं हो सकता। यह जानकर धीर पुरुष समय मात्र के लिये भी प्रमाद नहीं करते हैं क्योंकि यह जीवन, यह यौवन प्रति पल व्यतीत होता जाता है। अतः जब तक इस शरीर की शक्तियाँ क्षीण नहीं हो जाती, उसमें पहले ही धीर पुरुष प्रमाद को त्याग कर धर्माराधन में प्रवृत्त हो जाता है। वीतराग देव ने यह भी फरमाया कि जो लोग प्रमादवश सोये हुए रहते हैं, वे अमुनि कहलाते हैं और मुनि वे ही हैं जो सदा जागते रहते हैं। अप्रमादी सोते हुए भी जागता रहता है—मोह निद्रा से सोये हुए प्राणियों के बीच रहकर भी उसकी जागरूकता कभी शिथिल नहीं होती। वह यह जानता है कि मृत्यु किसी भी समय सामने आ सकती है क्योंकि काल बड़ा निर्दयी होता है एवं शरीर बड़ा निर्बल होता है अतः प्रमादाचरण में कभी भी रत नहीं होना चाहिये। पहले प्रमादवश जो कुछ भी किया हो, उसके लिये भी संकल्प लिया जाना चाहिये कि वह भविष्य में वैसा पुनः नहीं करेगा। कारण, प्रमादयुक्त प्रवृत्तियाँ कर्मबंधन कराने वाली होती हैं तथा जो प्रवृत्तियाँ प्रमाद से रहित होती हैं, वे कर्मबंधन नहीं कराती हैं। प्रमाद के होने और न होने से ही मनुष्य क्रमशः मूर्ख और पंडित कहलाता है।
इन प्रेरणादायी ध्वनियों ने मेरे अन्तःकरण को जगाया, तब मैंने प्रमाद के उन्मादकारी स्वरूप को समझा और उस उन्माद को दूर करने का पुरुषार्थ प्रारंभ किया। प्रमाद का यह उन्माद पांच प्रकार से हमारी चेतना को आवृत्त कर लेता है—(१) मद्य-शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन मद्य प्रमाद है, जिससे शुभ परिणाम नष्ट होते हैं। शराब में जीवों की उत्पत्ति होने से जीवहिंसा का भी महापाप लगता है। लज्जा, लक्ष्मी, बुद्धि, विवेक आदि का नाश तथा जीव हिंसा आदि के मद्यपान के दोष तो
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