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सर्वाधिक महत्त्व का बिन्दु मुझे यह महसूस होता है कि जीवन को समतामय बनाने के लिये यथा समय यथोचित रीति से सही और सम्यक निर्णय लिया जाय । ज्ञान हम प्राप्त कर लें, सिद्धान्त को भी समझ लें, किन्तु उसको विधिपूर्वक जीवन के आचरण में उतारने का यदि हम समय पर निर्णय नहीं ले सकें तो उस ज्ञान और सिद्धान्त का हमें विशेष लाभ नहीं मिल सकता है । अतः सही निर्णय के बिन्दु को ही हमें सर्वाधिक महत्त्व देना होगा ।
जीवन क्या है ? इसके उत्तर में इस रूप से सूत्र रूप व्याख्या तैयार की जा सकती है कि
'सम्यक् निर्णायकं समतामयंच यत् तत् तज्जीवनम्' अर्थात् जीवन वही जो सम्यक् निर्णायक हो तथा समतामय । इस रूप में जीवन के दोनों छोर पकड़ लिये गये हैं । जीवन का अन्तिम लक्ष्य है कि उसकी सभी वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ सभी प्रकार से समतामय बन जाय । यह जीवन का अन्तिम छोर है तो प्रारम्भ का छोर समुचित विधि से पकड़ में आ जाय, उसके लिये हमारा 'सम्यक् निर्णायक' होना आवश्यक है । प्रत्येक परिस्थिति में एवं प्रत्येक स्तर पर यदि सही निर्णय लेकर धर्माराधन या गुणाचरण किया जाता है तो कोई आशंका नहीं माननी चाहिये कि आत्म विकास की महायात्रा में कही भी पथ से पग डगमगा जाय या भटक जाय । सम्यक निर्णय-शक्ति से प्रारंभ हुआ जीवन अपना पुरुषार्थ प्रक्रिया में रागद्वेष, प्रमाद, अज्ञान, आसक्ति आदि दोषों से परिपूर्ण ममता का समूल निवारण कर सकेगा — ऐसी आशा रखी जानी चाहिये । समता साधना का श्रेष्ठतम विकास भी सम्यक् निर्णायक जीवन द्वारा संभव हो सकेगा ।
मेरा मानना है कि अपने मन की ममता मिटे तो समता के सहज विस्तार को कोई नहीं रोक पायेगा। मन की समता मिटेगी तो फिर वस्तु में परिग्रह नहीं रहेगा । वस्तु में परिग्रह की मूर्च्छा नहीं होगी तो वस्तुओं को प्राप्त करने की हिंसक होड़ समाप्त हो जायेगी । तब वस्तुओं के पूरे समाज में सम-वितरण होने में कोई कठिनाई शेष नहीं रह जायेगी। ममता मिटेगी तो पदार्थों की संग्रह वृत्ति मिट जायेगी। मैं सोचता हूँ कि 'पर द्रव्यं लोष्ठवत्' जो कहा गया है वह तभी हो सकता है जब द्रव्य के प्रति ही आसक्ति ममत्व भाव न रहे। ऐसा हो जाता है तो परद्रव्य क्या स्वद्रव्य भी लीष्ठवत् हो जायेगा, सिर्फ उसका उपयोग जीवन की मूल आवश्यकताओं को पूरी करने मात्र में ही किया जाय ।
मेरी आत्मा कहती है कि वर्तमान युग में जीवन के मूल्य जिस गलत आधार पर ढल गये हैं, उन्हें परिवर्तित किये जाने की नितान्त आवश्यकता है। सारे वातावरण को आज जो अर्थप्रधान बना दिया गया है तथा सामाजिक प्रतिष्ठा का मापदंड भी अर्थ को बना दिया गया है—यही सबसे बड़ी भूल है । यही कारण है कि आज का अर्थ परक समाज जड़ मूल्यों वाला बन गया है जिसमें अर्थ को ही पहली महत्ता मिल रही है। इस कारण सारी धार्मिकता और नैतिकता को ताक में रखकर अधिकांश व्यक्ति अर्थोपार्जन की दौड़ में ही बुरी तरह से भाग रहे हैं । सामाजिक क्षेत्र में मानवीय मूल्यों का निरादर करके आर्थिक मूल्यों को जिस कदर बढ़ावा मिला है और मिलता जा रहा है— प्रबुद्ध जनों के लिये यह गंभीर चिन्ता का विषय है । चिन्ता का सबसे बड़ा कारण यह है कि नित प्रति समाज में विषमता की खाई ज्यादा से ज्यादा चौड़ी होती जा रही है। आर्थिक सम्पन्नता और विपन्नता के भेद की दृष्टि से जितनी विषमता बढ़ती जाती है, उतनी ही सामाजिक क्षेत्र में अर्थ की महत्ता और उसकी प्राप्ति के लिये आपाधापी बढ़ती जाती है। फलस्वरूप धार्मिक, नैतिक तथा सांस्कृतिक दुरावस्था भी जटिल होती जाती है। इस सारी स्थिति का सबसे बढ़कर
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