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को सर्व प्राणी स्वातंत्र्य से जोड़कर देखूंगा। मैं अपने आत्म पुरुषार्थ को स्व-पर हित में इस संलग्नता से नियोजित कर दूंगा कि स्व-हित भी पर-हित में समाहित हो जाय। क्योंकि पर- हित में अपने सर्वस्व के विसर्जन से स्व-हित की उच्च पराकाष्ठा की प्राप्ति होती है। मैं अविचल भाव से संसार के बीज रूप राग-द्वेष को समाप्त करूंगा, मोह पर विजय पाऊंगा तथा कामना करूंगा कि मैं भी एक दिन वीतराग पद प्राप्त कर लूं।
किन्तु वीतराग पद प्राप्त करने की दिशा में अग्रगामी होने के लिए मनोरथों का निरन्तर चिन्तन करता रहूंगा ताकि उनकी पूर्ति हेतु निष्ठा बनी रहे और अवसर मिलता जाय त्यों-त्यों उन मनोरथों को अपने संयमी जीवन में मैं कार्यान्वित करता रहूं । श्रावकत्व की दृष्टि से मेरे मनोरथ होंगे कि (१) कब वह शुभ समय आवे जब मैं अल्प या अधिक परिग्रह का त्याग करूंगा, (२) कब मैं ग्रहस्थावस्था को छोड़कर मुंडित होकर प्रव्रज्या अंगीकार करूंगा एवं (३) कब मैं अन्तिम समय में संलेखना स्वीकार कर आहार पानी का त्याग कर एवं पादोपगमन मरण अंगीकार कर जीवन-मरण की वांछा न करता हुआ रहूंगा। इसी प्रकार सर्वविरति साधुत्व की दृष्टि से मैं मनोरथों का चिन्तन करूंगा कि (१) कब वह शुभ समय आयेगा जब मैं थोड़ा या अधिक शास्त्र ज्ञान सीखूंगा, (२) कब मैं एकल विहार की भिक्षु प्रतिभा अंगीकार कर विचरूंगा, एवं (३) कब मैं अन्तिम समय में संलेखना स्वीकार कर, आहार पानी का त्याग कर तथा पादोपगमन मरण अंगीकार कर जीवन मरण की वांछा न करता हुआ विचरूंगा ।
गूढ़ हृदयेच्छा है कि इस संसार में सभी प्राणियों का मंगल हो और मेरा भी मंगल हो । मेरे मंगल में सबका मंगल तथा सबके मंगल में मेरा मंगल भी निहित रहता है। मैं दृढ़ संकल्प लेता हूँ कि मैं अपने जीवन को तथा अधिकाधिक रूप में अन्य प्राणियों के जीवन को सम्यक् निर्णायक, समतामय एवं मंगलमय बनाऊंगा ।)
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