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बना सकते हैं ? मैं तो तब मनुष्य से भी पशु और पशु से भी राक्षस बनता जा रहा था, क्योंकि मेरी अधिकांश वृत्तियाँ और प्रवृत्तियाँ सांसारिक पदार्थों के आसक्ति भाव में डूबकर मूर्खाग्रस्त हो रही थी। मुझे ज्ञान ही नहीं रह गया था, यह ज्ञान करने का कि जिस राह पर मैं चलने लगा हूँ, वह मुझे कौनसे महाविनाश के गर्त में पहुँचा कर जन्म-जन्मान्तरों के चक्र में तिरोहित कर देगी?
मेरी यह ज्ञान चेतना विलुप्त सी हो गई थी कि स्व-स्वरूप का विस्मरण ही मूर्छा है। मूर्छितावस्था में मैं यह नहीं जान सका कि मुझे संसार में अपनी आत्म विकास की महायात्रा चलाते हुए मात्र जल पीना चाहिये, किन्तु मैं तो मोह मदिरा पीकर मतवाला हो गया था। उस मतवालेपन में मैंने कितने प्राणियों के हितों को कुचला, कितनों का अनिष्ट किया, कितनों के प्राणों का हनन किया, मुझ को कुछ भी याद नहीं है। मैं स्व-स्वरूप को ही विस्मृत कर गया तो भला मुझे अपना वह राक्षसी रूप याद भी कैसे रहता?
मैंने अपनी विपरीत क्रियाओं से अपने स्व-स्वरूप पर कर्मबंधनों के काले लेप चढ़ाये, सम्पूर्ण सामाजिक वातावरण में विषमता का विष घोला और नारकीय परिस्थितियों का निर्माण कर दिया। मैं अपनी अशुभता के ऐसे दलदल में फंस गया था कि इस गंदे कीचड़ के छींटे सब ओर फैल रहे थे। मेरी निकृष्ट व्यक्तिगत अवस्था ने सामाजिक परिस्थितियों में भी दुःखों के द्वन्द्व खड़े कर दिये थे। मैं परिग्रह के संग्रह में अंधा बना हुआ था तो परिग्रह के मोह को मैं चारों ओर भी फैला रहा था। मैं अपने आत्मिक अस्तित्व तक को भी भुला चुका था और समझ बैठा था कि यह संसार ही मेरे लिये सब कुछ है, अतः अपने शरीर का ही पोषण करूं, अपना ही आधिपत्य बढ़ाऊं और अपने को ही सम्पत्ति तथा सत्ता के शिखर पर चढ़ा दूं।
वास्तविक रूप में स्व-स्वरूप तथा स्व-अस्तित्व का विस्मरण ही मूर्छा है - यह सत्य मैं बहुत बाद में जान पाया, जब उस मूर्छा के कुप्रभाव से प्राप्त दुःखों के अपार बीहड़ को ठोकरें खाते, लहूलुहान होते और सांघातिक आघातों से खोई हुई चेतना के कुछ-कुछ जागते हुए पार कर पाया। तब मैंने महसूस की थी अशान्ति की घोर पीड़ा, जागरूकता की अस्तित्वहीनता और समता भाव की दरिद्रता, क्योंकि तब मेरी चेतना जागृति की करवट लेने लगी थी।
जागृति की उस धीमी सी करवट में ही मुझे अनुभूति हुई थी तथा मैं अपने विकृत अतीत पर एक नजर फेंक सका था। मुझे तब प्रतीत हुआ था कि मैं अपने आप से छिटक कर कितना दूर मूर्छितावस्था में गिरा हुआ था। मैं स्व-स्वरूप के विस्मरण के साथ ही अहिंसा पर आधारित मूल्यों तथा अध्यात्म के ज्ञान को भूल चुका था और इन्द्रियों व मन के घृणित विषयों में ग्रस्त हो गया था। काम भोगों की लालसाओं में मेरी आसक्ति बहुत गहरी थी और मैं अपनी लालसाओं को पूरी करने के लिये कुटिल आचरण में रत रहता था।
___ तब मैं यह सोच-सोच कर ग्लानि से भर उठता था कि मैं वीतराग देवों की आज्ञा के विरुद्ध चला तथा स्व-अस्तित्व को विसार गया। अपनी विपरीत वृत्ति के कारण मैं दुःख देने वाले तत्त्वों को सुख देने वाले तथा सुख देने वाले तत्त्वों को दुःख देने वाले समझने लगा था और अज्ञानवश शुभ को अशुभ तथा अशुभ को शुभ मानने लगा था। मेरी विषयों में लोलुपता तथा पदार्थों में आसक्ति इस कदर बढ़ गई थी कि मैं हिंसामय आचरण, राग-द्वेष, वैर-विरोध और मोह-ममत्व की अंधी गलियों में बुरी तरह भटक गया। मूर्छा से अंधा बनकर मैं अपनी वासनामय
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