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अज्ञान सामर्थ्य घातक होता है। अज्ञानवश हम भूल जाते हैं कि आयु बीत रही है, यौवन समाप्त हो रहा है, फिर भी कामभोगों की आसक्ति में और सांसारिक सम्बन्धों व पदार्थों के ममत्व में फंसे रहते हैं। बुढ़ापे के असह्य कष्ट हमें चारों ओर से घेर लेते हैं, मौत आ जाती है तब हम हतप्रभ से रह जाते हैं कि हमने यह क्या कर दिया ? महान् पुण्योदय से जो दुर्लभ मानव जीवन एवं अन्य दुर्लभ प्राप्तियाँ मिली थी, उन्हें हमने निरर्थक ही खो दी हैं । मृत्यु के मुख में किये हुए उस पश्चात्ताप मानव जीवन पुनः नहीं लौट पाता और हम एक महान् अवसर को खो देते हैं ।
मेरी धारणा बन गई है कि स्व-स्वरूप एवं स्व-अस्तित्व के प्रति उपजा हुआ अज्ञान ही मनुष्य को आसक्ति के विकार की ओर धकेलता है। संसार के कामभोगों में लिप्त हो जाने का नाम ही आसक्ति है। यह आसक्ति आत्मगुणों का विनाश करने वाली होती है । रूप में तीव्र आसक्ति रखने वाला मनुष्य उसी प्रकार असमय में ही विनाश को प्राप्त होता है जिस प्रकार रागातुर पतंगा दीपक की लौ में मूर्च्छित होकर अपने प्राणों से हाथ धो बैठता है । संगीत में मुग्ध होकर अतृप्ति के साथ मारे गये हिरण के समान शब्दों में अत्यन्त आसक्त बना मनुष्य अकाल में ही विनष्ट हो जाता है । गंध में रखी जाने वाली तीव्र आसक्ति मनुष्य को नागदमनी की सुगंध में गुड़ होकर बिल से बाहर निकल आने पर मारे गये सर्प के समान मृत्यु का मुख देखना पड़ता है। रागवश मांस के स्वाद में मूर्च्छित हुई मछली जैसे कांटे में फंसकर मारी जाती है उसी प्रकार रसों के आस्वादन में गहरी आसक्ति रखने वाला मनुष्य अपनी मौत खुद बुलाता है । मनोहर स्पर्शो में तीव्र आसक्ति रखने वाला मनुष्य रागवश शीतल जल में सुख से बैठे हुए भैंसे का मगर द्वारा मारे जाने के समान अपने प्राणों को खो देता है। काम-वासना गृध्र बन कर हथिनी का पीछा करने वाला रागाकुल हाथी जिस दयनीय दशा रणस्थल पर मारा जाता है, उससे भी अधिक दयनीय दशा में विषयातुर मनुष्य अपनी जीवन लीला समाप्त करता है। इस प्रकार इस लोक में जो मनुष्य सांसारिक सुखों के पीछे पड़े रहते हैं, परिग्रह, संग्रह, रसास्वादन एवं स्पर्श सुखों में तीव्र आसक्ति रखते हैं तथा काम-भोगों में मूर्च्छित बन जाते हैं, वे कायर और धृष्ट कहलाते हैं। ऐसे मनुष्य धर्म ध्यान रूपी समाधि को नहीं समझते, श्रेष्ठ अनुष्ठानों का सेवन नहीं करते और गहरी आसक्ति की तेज मदिरा से मूर्च्छित बने रहते
हैं ।
मैं श्रद्धापूर्वक आप्त वचनों का स्मरण करता हूँ जहाँ कहा गया है कि यह मूर्च्छा ही संसार है। यहाँ पर मूर्च्छित मनुष्य है, वह दुष्चरित्रता का स्वाद लेने वाला तथा कुटिल आचरण करने वाला है। साथ ही यह भी कहा गया है कि मूर्च्छा ही परिग्रह है अर्थात् धन सम्पदा के प्रति जो ममत्व भाव होता है-भाव परिग्रह वही है पदार्थ परिग्रह गौण होता है। इन दोनों ही परिग्रह से मुक्त होना आवश्यक है ।
मैंने अज्ञान से आसक्ति तथा आसक्ति से ममत्व की प्रक्रिया देखी है । सम्यक् ज्ञान के अभाव में मनुष्य की क्रियाएँ समुचित रूप ग्रहण न करके विपरीत हो जाती है और वह विपरीतता ही आसक्ति को पनपाती है । मन और इन्द्रियों द्वारा भोगी जाने वाली विषयवस्तुओं में वृद्धि को ही आसक्ति कहते हैं अतः आसक्तिवश उपजने वाली लालसाओं की पूर्ति के लिये सम्पत्ति और सत्ता की आवश्यकता होती है । इसकी पूर्ति के लिये मनुष्य धन सम्पत्ति प्राप्त करने की दौड़ भाग करता है। उसके मन में ममत्त्व भाव बड़ा गहरा हो जाता है। आसक्ति की मूर्च्छा ममत्व की मूर्च्छा के साथ
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