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प्रकार वीतराग धर्म सर्व प्राणी हितकारी अर्थात् सम्पूर्ण जग हितकारी होता है। ऐसी वीतरागी आत्माओं ने जो धर्म बताया है, वही सच्चा ज्ञान है । और मुझे इस धर्म को सुनने तथा तदनुसार आचरण करने का सुअवसर प्राप्त है—यह श्रुति नाम की मेरी दुर्लभ प्राप्ति है ।
सामर्थ्य हो, ज्ञान हो किन्तु दोनों पर यदि अपने अन्तःकरण की गूढ़ श्रद्धा न हो तो क्या वैसा सामर्थ्य सक्रिय बन सकेगा और ज्ञान मार्गदर्शक ? श्रद्धा के अभाव में दोनों दुर्लभ प्राप्तियाँ भी आत्म-विकास हेतु उपयोगी नहीं बन सकेगी। वह श्रद्धा भी सम्यक् होनी चाहिये। यह मेरे लिये शुभ संयोग है कि मुझे मेरा अन्तस्तल टटोलने पर वहाँ श्रद्धा की – आस्था की झलक दिखाई देती है ।
मानव तन, श्रुति एवं श्रद्धा के साथ आचरण की सुदृढ़ पृष्ठभूमि का स्वतः ही निर्माण हो जाता है क्योंकि उन अनुकूल परिस्थितियों में स्वाभाविक हो जाता है कि आचार धर्म सक्रिय बन जाय। सामर्थ्य, ज्ञान और आस्था के सम्बल के साथ यह मेरा विश्वास है कि आचरण की उत्कृष्टता सहज ही में बन सकती है। आचरण की कर्मठता ही संयम साधना में नये-नये पराक्रमों का उद्घाटन करती है । यह अन्तिम और ऐसी दुर्लभ प्राप्ति है जिसके लिये मैं सोचता हूँ कि यदि मैं दृढ़ निश्चय बनाऊं तो यह दुर्लभ प्राप्ति भी मेरी पहुँच से बाहर नहीं है। मानव तन का सदुपयोग वीतराग धर्म की आराधना में सम्यक् श्रद्धा एवं संयमीय पराक्रम के साथ किया जाता है तो निश्चय मानिये कि साध्य की समीपता बढ़ती ही चली जायेगी। इन चारों दुर्लभ प्राप्तियों का शुभ संयोग एवं श्रेष्ठ नियोजन सोने में सुहागा बन जाता है।
इन दुर्लभ प्राप्तियों के संदर्भ में मुझे अपने भीतर में झांकना है और कड़ाई से परखना है। कि क्या मैंने अपनी इन सभी प्राप्तियों की दुर्लभता की पहिचान कर ली है और इनकी दुर्लभता का अपने आत्म-विकास के परिप्रेक्ष्य में वास्तविक आकलन करके इन प्राप्तियों को पूरी सावधानी से सहेजने का संकल्प कर लिया है ? क्या यह भी मैंने सोचा है कि मेरे किस पुण्योदय के प्रतिफलस्वरूप ये दुर्लभ प्राप्तियाँ मुझे सुलभ हुई हैं ? कारण, इन प्रश्नों का सही विश्लेषण कर लेने के बाद ही मैं अपना भावी कार्यक्रम निर्धारित कर पाऊंगा कि अब मुझे कितनी अधिक लगन और जीवट से शुभ कार्यों में लगना चाहिये ताकि ये दुर्लभ प्राप्तियाँ अपने आत्म विकास को उच्चतर श्रेणियों में ले जाने की दृष्टि से अधिकाधिक सहायक बनें।
मैं कल्पना कर रहा हूँ कि मेरा कोई स्नेही एक अमूल्य हीरा मेरे हाथ पर रखकर चुपचाप वहाँ से चला जाय और उस हीरे को मैं आश्चर्य से निरखता ही रहूं तो उस समय मेरी क्रियाशीलता क्या होगी ? यह क्रियाशीलता मेरे अपने स्वभाव तथा उस समय मेरी जानकारी के अनुसार ही प्रकट होगी। अगर मुझे हीरे के मूल्य या महत्त्व के बारे में सामान्य जानकारी भी नहीं होगी तो मैं झुंझला कर उसे फेंक दूंगा यह समझकर कि मेरे स्नेही ने फालतू की चीज पकड़ा कर व्यर्थ ही में मेरा उपहास किया है। यदि मुझे सामान्य जानकारी भी होगी तो मैं उसे निरख कर अपने हिसाब से ही सही - परखने की चेष्टा करूंगा । परखने में मन के विश्वास ने मदद की तो मैं उस हीरे की बहुमूल्यता समझ जाऊंगा और अपने उस स्नेही के प्रति अपना आभार प्रकट करूंगा। उसके बाद अवश्य ही मैं उस हीरे की सहायता से अपनी आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ बना लूंगा ।
इसी क्रमिकता को मैं जब मनुष्य तन के साथ जोड़कर देखता हूँ तो अनुभूति जागती है कि जो लोग अमूल्य हीरे जैसे इस मनुष्य जीवन को कांच के टुकड़े जैसा मान कर संसार की
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