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उलझनों में उलझाकर मैं इसे निरर्थक न कर दूं- इसकी पूरी सावधानी प्रतिपल मेरे मन-मानस में उभरी हुई रहनी चाहिये ।
संसार की रीति को मैं देखता हूँ कि सुन्दर से काँच के टुकड़े को भी एक सामान्य जन सहेज कर रखना चाहता है और यदि उसे बहुमूल्य रत्न मिल जाय तो वह उसे बहुत ही सार-सम्हाल के साथ रखता है। फिर क्या यह नादानी नहीं होगी कि श्रेष्ठतम रत्नों से भी अनन्त गुना श्रेष्ठ इस मानव-जीवन के प्रति सम्पूर्ण सावधानी न रखी जाय ? एक अज्ञानी ही इस दुर्लभ जीवन की उपेक्षा कर सकता है, वरन् इस जीवन का एक-एक पल इतना अमूल्य माना जाना चाहिये कि उसका आत्म विकास के अलावा किसी भी दूसरी बात में अपव्यय न हो। ऐसा सोचकर एक कठिन सावधानी मेरे मन में जाग उठती है। और यही मनुष्यता कहलाती है ।
अन्य दुर्लभ प्राप्तियाँ
यह कठिन सावधानी ही मुझे और आगे देखने तथा सोचने को प्रेरित करती है । मुझे मनुष्य तन मिला है और निश्चय ही यह दुर्लभ तन मुझे मेरे असीम पुण्योदय से ही प्राप्त हुआ है। मैं सोच रहा हूँ कि पहले मैंने ऐसा क्या पुण्य कर्म उपार्जित किया था जिससे यह तन तो मिला किन्तु अन्य दुर्लभ प्राप्तियाँ भी मुझे इसके साथ प्राप्त हुई है जो यदि नहीं मिलती तो इस मनुष्य तन की विशिष्ट सार्थकता को प्रकट करने में मैं सक्षम नहीं बन पाता। अब इन दुर्लभ प्राप्तियों सहित यदि मैं इस मानव तन का पूर्ण सदुपयोग करूं तो अवश्य ही मैं आत्म विकास की इस महायात्रा में नये-नये आयाम सम्पादित कर सकता हूँ।
क्या हैं वे अन्य दुर्लभ प्राप्तियाँ, जिन्हें सहज संवार कर मुझे अपनी सफलता के चरण आगे
बढ़ा हैं ?
आत्म विकास की कठिन साधना करने का मानव तन के रूप में पहला सामर्थ्य मुझे अवश्य ही प्राप्त हुआ है किन्तु अन्य दुर्लभ प्राप्तियों के अभाव में यह पहला सामर्थ्य पूर्णता प्राप्त नहीं कर सकता है। मानव तन के सामर्थ्य को क्रियाशील बनाने के लिये सबसे पहली आवश्यकता होती है ज्ञान के प्रकाश की। अगर अंधेरा ही छाया रहे तो यह समर्थ मानव तन भी सांसारिक प्रलोभनों में भटक जायगा तथा अपने को क्षत-विक्षत बनाकर शक्तिहीन कर लेगा । अतः मुझे ऐसा प्रकाश चाहिये जो अज्ञान के अंधकार को दूर करके तथा मेरे प्रगति पथ को आलोकित बना दे। मैं अपनी आंखें खोलूं ही नहीं या बन्द कर दूं यह दूसरी बात है, लेकिन ज्ञान का ऐसा प्रकाश भी मुझे मिला है और वह प्रकाश मार्ग है वीतराग धर्म का श्रवण । इस दुर्लभ प्राप्ति को हम श्रुति कहते हैं ।
यहाँ यह समझ लेने की जरूरत है कि वीतराग धर्म क्या होता है ? यह धर्म कोई मत मतान्तर वाली बात नहीं है । यह तो शाश्वतता, सार्वभौमिकता तथा सार्वकालिकता का प्रतीक होता है क्योंकि यह किसी एक विशिष्ट पुरुष द्वारा उपदेशित विधि-विधान नहीं होता है। राग और द्वेष सांसारिकता के ये दो ही मुख्य बंधन होते हैं । द्वेष को त्याग देना अपेक्षा से फिर भी सरल होता है किन्तु राग-भाव छोड़ कर तटस्थ हो जाना अति कठिन है । अतः द्वेष के बाद राग को भी व्यतीत कर देने वाले महापुरुष वीतराग कहलाते हैं जो समभावी एवं समदर्शी हो जाने के कारण उनकी दृष्टि में संसार के समस्त प्राणी समान होते हैं और वे अपनी साधना के समुच्चय अनुभवों को समस्त प्राणी हित में ढालकर जो उपदेश देते हैं, वे ही वीतराग धर्म के रूप में संकलित माने जाते हैं। इस
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