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ऐसा सोचना इस कारण से भी आवश्यक है कि मैं इस पड़ाव का महत्त्व जान सकूँ और यह समझ सकूँ कि यहाँ के अपने कार्य-कलापों के माध्यम से पकड़ी गई मेरी अपनी गति मुझे साध्य की ओर ले जायेगी या नहीं और ले जायेगी तो उसके बीच की दूरी कितनी जल्दी कम की जा सकेगी? इस समझ से मेरे भीतर यह सतर्कता भी पैदा होगी कि कहीं मैं आत्म-विस्मृत बनकर उद्देश्यहीनता के जंगल में तो नहीं भटक जाऊंगा?
जब मैं इस पड़ाव पर याने कि अपने वर्तमान जीवन में पूरी तरह से सतर्क रहूंगा तो मैं साध्य प्राप्ति की पटरी से नीचे नहीं उतरूंगा, बल्कि उस पटरी पर अपनी चाल को तेज बनाने का भी कठिन प्रयत्न करूंगा। मैं अपने कार्य कलापों का निरन्तर लेखा-जोखा लेते हुए अपने साध्य को सदैव समक्ष रखेंगा ताकि उहें साध्य प्राप्ति के अनुकूल बनाये रख सकू। फिर पड़ाव मात्र पड़ाव ही नहीं होता, बल्कि एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक पहुँचने का गतिक्रम भी होता है। अतः आज मैं यह सोचना चाहता हूँ कि मझे जो यह मानव-तन मिला है- पहली बात तो यह कि वह महायात्रा को सफल बनाने के उद्देश्य से दुर्लभ क्यों है और दूसरे, यदि वह दुर्लभ है तो उसका मैं अधिकतम रूप से सदुपयोग कैसे कर सकता हूँ?
मैं जानता हूँ कि मेरी आत्मा अनादिकाल से इस संसार में परिभ्रमण कर रही है जहाँ उसने चार गतियों, चौरासी लाख योनियों तथा असंख्य उप जातियों में बार-बार जन्म लेकर भांति-भांति के अनुभव लिये हैं। मेरी आत्मा आज मानव तन में आई है और वह चिन्तन मनन की धनी बनी है। इस जीवन में मैं जो कुछ देखता हूँ, सुनता हूँ और जानता हूँ, उस पर चिन्तन-मनन करके उसके मूल एवं विस्तार को पकड़ पाने की मुझ में क्षमता विद्यमान है। मैं विभिन्न योनियों में उत्पन्न जीवों की स्थिति को देखता हूँ उनके हलन-चलन को समझता हूं तो स्पष्ट प्रतीत होता है कि कोई भी अन्य योनि इतनी शक्तियों से सम्पन्न नहीं है जितनी कि मुझे प्राप्त यह मानव गति और योनि है। स्वयं मनुष्य जाति के कष्टों का भी जब मैं आकलन करता हूँ तो लगता है कि उनमें भी मेरी स्थिति श्रेष्ठतर है।
__इस समीक्षण से मुझे यह विश्वास हो जाता है कि वास्तव में यह मानव-तन दुर्लभ है, क्योंकि अन्य कोई ऐसा तन नहीं, जिसमें महायात्रा को सफल बनाने हेतु इस तन से अधिक सामर्थ्य रहा हुआ हो। सामर्थ्य का अर्थ शारीरिक शक्ति से भी ऊपर वह आध्यात्मिक शक्ति है जिसकी साधना किसी भी अन्य आत्मा को ऊर्ध्वगामी बना सकती है। मुझे देव-योनि का खयाल आता है, जिसमें उत्पन्न देवताओं का वैक्रिय शरीर, भौतिक ऐश्वर्य, दिव्य ऐन्द्रिक सुखों का अनुभव अथवा रोग एवं वृद्धावस्था के कष्टों के अभाव में सदाबहार यौवन मुझे प्राप्त मनुष्य-तन के लिये ईर्ष्या के विषय हो सकते हैं किन्तु देव-तन से मुझे कोई ईर्ष्या नहीं है क्योंकि मुझे इस तथ्य का सुनिश्चित ज्ञान है कि आत्म-विकास के साधक कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पादित करने का देव योनि में भी कोई सामर्थ्य नहीं होता है और इसी कारण देवलोक के देव भी मनुष्य तन को प्राप्त करने की वांछा करते हैं।
जब ऐसा मनुष्य तन मुझे प्राप्त हुआ है तो निश्चय ही वह दुर्लभ है। यदि यह मनुष्य-तन इतना दुर्लभ है तो निश्चय ही ऐसी दुर्लभ समुपलब्धि के सदुपयोग के विषय में मुझे अत्यधिक सतर्क भी हो जाना चाहिये। ऐसा मनुष्य जन्म व्यर्थ में ही व्यतीत न हो जाय या कि संसार की मायावी
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