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में किस शरीर में स्थित होकर क्या रूप ग्रहण करेगी तो ऐसे ज्ञान से मैं अपने आत्म तत्त्व में पूर्ण मान्यता एवं आस्था रखने वाला बन जाता हूँ और मैं जब अपनी आत्मा को मानने वाला बन जाता हूँ याने कि जीव तत्त्व के अस्तित्व को मान लेता हूँ तब स्वाभाविक रूप से अजीव तत्त्व याने कि पुद्गल के अस्तित्व को भी मान लेता हूँ और कर्म बंधन के सिद्धान्त तथा प्रक्रिया को भी मानता हुआ मन, वचन एवं काया के योग–व्यापार को भी मानने वाला बन जाता हूँ।
सचमुच ही ऐसा मनुष्य जो मन, वचन, काया के योग व्यापार तथा उनकी क्रियाओं को नहीं समझ पाता है, वह सभी दिशाओं अथवा अनुदिशाओं से आकर संसार की विभिन्न गतियों तथा योनियों में परिभ्रमण करता रहता है। वह सभी दिशाओं से दुःखों को भोगता है, अनेक प्रकार की योनियों से जुड़ता है एवं अनेक रूपों में वेदनाओं तथा पीड़ाओं का अनुभव करता है। उस मनुष्य के लिये ही आप्त पुरुषों ने ज्ञान दिया है। उसी ज्ञान के प्रकाश में कोई भी मनुष्य अपने मन, वचन, काया की विविध क्रियाओं को भली-भांति समझ सकता है।
मैं आप्त पुरुषों द्वारा प्रदत्त इस ज्ञान से अथवा स्वकीय स्मृति से जब जुड़ता हूँ तब मुझे समझ में आने लगता है कि मैं कहाँ से आया हूँ। वर्तमान जीवन में मैं सुख एवं दुःख का जो अनुभव ले रहा हूँ, उससे मुझे मेरे पूर्व जन्म का अनुमान लग जाता है और अब जो कुछ मैं कर रहा हूँ उसके आधार पर ही मैं यह भी समझ सकता हूँ कि मेरा पुनर्जन्म कैसा होगा।
पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म में अपने अस्तित्व की निरन्तरता को पहचान कर मैं आश्वस्त होता हूँ कि मैं जो कुछ भी कृत्य इस जीवन में करूं, उसे स्थिर मन से करूं क्योंकि उसका शुभाशुभ प्रभाव जहाँ दूसरों पर पड़ेगा, वहाँ उसका शुभाशुभ फल मुझे भी अभी या बाद में अवश्यमेव मिलेगा। मेरे मन में इस धारणा की सम्यक् पुष्टि हो जाने के बाद मेरे कार्यकलापों में स्थायित्व की भावना आ जाती है। इसके साथ ही स्वहित एवं परहित के कार्यों की भी मुझे भली प्रकार से पहिचान हो जाती है। तब मैं पक्के तौर पर समझ जाता हूँ कि परहित में स्वहित भी समाया हुआ रहता है क्योंकि परहित तभी सम्पादित किया जा सकता है जब अधिकांश रूप से स्वहित सम्पादित कर लिया होता है। और स्वहित का सम्पादन स्व की श्रेष्ठता को साध लेने के बाद ही संभव बनता है।)
यह सब समझ लेने के बाद मैं स्व के स्वरूप को उत्कृष्ट बनाता हुआ परहित के कार्यों में संलग्न होता हूँ। तब परहित की मेरी निष्ठा का इतना विकास होने लग जाता है कि परहित के पवित्र कार्य में यदि मुझे अपने जीवन का भोग देने का अवसर भी उपस्थित हो तो मैं उससे पीछे नहीं हटूंगा। मैं अपना पूरा जीवन भी समर्पित कर देने के लिये तब तत्पर हो जाता हूँ, क्योंकि वह 5 समर्पित जीवन मेरी भवभवान्तरों से निरन्तर चल रही अपनी आत्म विकास की महायात्रा को । अग्रगामी बनायेगा—इस सत्य से मैं आश्वस्त हो जाता हूँ। यही आश्वस्ति मुझे मुक्ति के मार्ग पर अविचल गति से आगे बढ़ते रहने की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी।
यह दुर्लभ मानव-तन ऐसी प्रेरणा के साथ मेरे मन-मस्तिष्क में यह बात समा जाती है कि वर्तमान जीवन सम्पूर्ण आत्म विकास की महायात्रा का एक पड़ाव मात्र है। पड़ाव वह बिन्दु होता है जहाँ ठहर कर यह सोचा जा सके कि मैं कहाँ से आया हूँ और किसलिये आया हूँ ? आगे के लिये मुझे इस पड़ाव पर किस प्रकार के कार्य करने हैं ताकि महायात्रा अबाध रूप से चलती रहे ?