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अपने 'मैं' का यह विकास मुझे भीतर ही भीतर बहुत भाता है। मेरे मूल्य जब उपजते हैं और समाज में साकार रूप लेते हैं तो मेरा अन्तर्हृदय खिल उठता है। इससे मेरा मस्तिष्क तनावमुक्त हो जाता है और आन्तरिकता की अतल गहराइयों में एक असाधारण अनुभूति जन्म लेती है। यही अनुभूति मेरे भीतर तथा भीतर से बाहर संसार में एक नव क्रान्ति जगाने में समर्थ हो जाती है।
___मैं कहता हूँ कि पदार्थों के मोह से ऊपर उठकर मानवीय मूल्यों की समाज में सर्वत्र स्थापना करना इस संसार की सबसे बड़ी क्रान्ति है। इसी कारण सभी मानते हैं कि 'मनुष्य खाने के लिये नहीं जीता, बल्कि जीने के लिये खाता है' और उसका यह जीना सोद्देश्य होना चाहिये। मेरे
और मेरे साथियों के ऐसे उद्देश्यपूर्ण तथा सार्थक जीवन से मूल्यात्मक चेतना की अभिव्यक्ति सर्वतोमुखी बनती है। मेरा 'मैं' तब पदार्थों के ममत्व से हटकर मूल्यों के संसार में जीने लगता है और भावनाओं की भूमिका का सूत्रधार बन जाता है। मूल्यों के संसार में जिया जाने वाला जीवन ज्यों-ज्यों गहराई में उतरता जाता है, त्यों-त्यों नये मानव-मूल्यों की खोज आरंभ हो जाती है। वह खोज ऐसे दिव्य मोती निकाल लाने में सफल होती जाती है जो मानवों से भी आगे देवत्व के मूल्यों के मोती होते हैं। ऐसे मूल्यों के आधार पर आत्म-विसर्जन का धरातल तैयार होता है। उसे ही नवक्रान्ति की सफलता का नाम दे सकते हैं।
नव क्रान्ति किसे कहें? नव क्रान्ति वही जो अपने 'मैं' को गहराई में भीतर तक झकझोर दे, मूल्यात्मक चेतना को उभार दे और आत्मा को विसर्जन के द्वार पर खड़ी कर दे। विसर्जन होगा, अपने स्वार्थों का अपने राग और द्वेष के संकुचित परिणामों का और यह विसर्जन होगा अपने मूल स्वरूप के परिमार्जन के लिये समाज में मानव-मूल्यों पर आधारित आचरण के प्रसार के लिये। एक 'मैं' ऐसा करेगा तो उसके साथ कई 'मैं' उसी आस्था और निष्ठा से उस के साथ चल देंगे। तब वे सब 'मैं' मिलकर आत्मीयता के भावों से ओत-प्रोत हो एक नये समाज का निर्माण करेंगे—एक ऐसे समाज का जो अपने समग्र जीवन में अहिंसा को साधन बना कर सत्य रूपी साध्य को प्राप्त करने की सबकी तत्परता को सम्पूर्णतः सहयोग देगा। काश, मूल्यात्मक पृष्ठभूमि पर खड़ा किया गया ऐसा समाज सम्पूर्ण संसार के संसरण में एक नया ही मोड़ ला दे।
मैं मानता हूँ कि मूल्यात्मक चेतना के अस्तित्व में मनुष्य अपनी पशुता का त्याग कर मनुष्यता के सुघड़ शृंगार से सज्जित होता है। केवल पदार्थों के संसार में ही जीने वाला मनुष्य एक पशु से अधिक कुछ नहीं होता। उस दशा में वह अंधा जड़ग्रस्त हो जाता है। जड़ता जितनी छूटती है -चेतना जितनी जागती है, आत्म-विकास की यात्रा उतनी ही प्रखर बनती है। बारीक नजर से देखें तो जड़ग्रस्तता से सम्पूर्ण मुक्ति ही आत्मा का मोक्ष होता है।
इसलिये मैं देखता हूँ कि जड़-चेतन संयोग ही जब जड़-चेतन संघर्ष का रूप ले लेता है, तब मेरी चेतना जागरण की अंगड़ाइयाँ लेती है वह चेतना जो अब तक पदार्थों के मोह में, उनसे सुख पाने की आशाओं व लालसाओं में संज्ञाहीन, मूर्खाग्रस्त तथा किंकर्तव्यविमूढ़ बनी हुई थी। इस जड़-चेतन संघर्ष में मेरी चेतना ज्यों-ज्यों जड़ तत्त्व की निरर्थकता, बंधन एवं पतनकारकता को समझती जाती है, त्यों-त्यों वह जड़ को अपने इच्छा क्षेत्र से दूर धकेल देने के लिये उद्यत होती जाती है अथवा यों कहें कि मेरी चेतना तब वास्तविक अर्थों में जड़ को बंधन मानकर तथा महसूस कर उससे मुक्त हो जाने का प्रयास प्रारंभ कर देती है। इसे ही मैं मूल्यात्मक चेतना का विकास मानता हूँ।
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