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अनादिकाल से अन्य सभी सांसारिक आत्माओं की तरह मेरी आत्मा भी संसार की चार गतियों एवं चौरासी लाख योनियों में चक्कर लगाती हुई भटक रही है। मैंने इन सब गतियों तथा योनियों में बारम्बार जन्म लिये हैं, वहाँ की यातनाएँ तथा मूर्छाएं भोगी हैं तथा कई बार चेतना जागृति के फलस्वरूप आत्म विकास की ऊँचाइयाँ भी साधी हैं।
"मैं' ने यानि कि मेरी आत्मा ने वर्तमान जीवन से पहले नारकीय जीवन की लोमहर्षक यातनाएँ झेली हैं, तिर्यंच जीवन के क्रूर कष्टों को सहा है तो देवलोकों के ऐश्वर्यमय जीवन के आनन्द भी उठाये हैं । किन्तु मैं अपने लिये सन्तोष का विषय यही मानता हूँ कि इस ऊँचे-नीचे परिभ्रमण के दौरान मेरी चेतना का दीपक बराबर जलता रहा जो घटाटोप अंधकार के समय में भी '
मुझे रोशनी की राह दिखाता रहा।
मैं अपनी स्मृति को पीछे लौटाता हूं तो देखता हूं कि मैंने बहतु प्राणियों की हिंसा हो इस प्रकार तीव्र परिणामों से कषायपूर्वक महारंभ की प्रवृत्ति की वस्तुओं पर अत्यन्त मूर्छा रखकर महापरिग्रह सेवन किया, पंचेन्द्रिय प्राणियों की हिंसा करते हुए पंचेन्द्रिय वध किया तथा मांसाहार करने में रस लिया, जिसके कुफल में मुझे नरकायु का बंध हुआ। ऐसा बंध कई बार हुआ और मैंने धम्मा, बंशा, सीला, अंजना, रिट्ठा मघा और माघवई - इन सातों नरकों की भीषण यातनाएँ सहन
की ।
मेरा रोम रोम आज भी खड़ा हो जाता है जब मुझे अपने अज्ञानतायुक्त नारकीय जीवन में मिले अपार कष्ट याद आते हैं । हम नारकीयों का वैक्रिय शरीर होता था जो भीषण प्रहारों का दुःख तो महसूस करता था किन्तु फिर से यथावत् हो जाता था। अधिकांशतः हम नारकी के जीव ही भयंकर रूप बना कर एक दूसरे को त्रास देते थे— गदा, मुद्गर वगैरह शस्त्र बना कर एक दूसरे पर आक्रमण करते थे। बिच्छू, सांप आदि बन कर एक दूसरे को काटते थे और नुकीले कीड़े बनकर एक दूसरे के शरीर में घुस कर उसे क्षत-विक्षत कर डालते थे । अत्यन्त ऊष्ण अथवा अत्यन्त शीत होने के कारण क्षेत्रजन्य वेदना अलग होती थी तो पहली तीन नरकों में परमाधार्मिक देवता भी कठिन यातनाएँ देते थे ।
नारकीय यातनाओं का वर्णन करते हुए मेरी वाचा में प्रकम्पन पैदा होता है। क्षेत्रजन्य ऊष्णता एवं शीतलता की वेदना क्रमशः एक से आगे की नरकों में तीव्र, तीव्रतर और तीव्रतम होती जाती थी। मध्य लोक में ग्रीष्म ऋतु में मध्याह्न के समय जब आकाश में कोई बादल न हो, वायु बिल्कुल बन्द हो और सूर्य प्रचंड रूप से तप रहा हो, उस समय पित्त प्रकृति वाला व्यक्ति जैसी ऊष्ण वेदना का अनुभव करता है, ऊष्ण वेदना वाले नरकों में उससे भी अनन्तगुणी वेदना होती थी उस वेदना की महसूसगिरी यह है कि अगर मुझे नरक से निकाल कर मर्त्यलोक में बड़ी तेजी से जलते हुए खैर की लकड़ी के अंगारों में डाल दिया जाता तो मैं शीतल जल से स्नान करने के समान अत्यन्त ही सुख का अनुभव करता और उन अंगारों पर मुझे नींद भी आ जाती। इसी प्रकार शीत के प्रकोप की महसूसगिरी भी ऐसी थी कि जैसे मध्य लोक में पौष या माघ की मध्यरात्रि में आकाश के मेघशून्य होने पर जिस समय शरीर को बुरी तरह से कम्पायमान करने वाली शीत वायु चल रही हो, हिमालय गिरि के बर्फीले शिखर पर बैठा हुआ अग्नि, मकान और वस्त्रादि शीत निवारण के सभी साधनों से हीन व्यक्ति जैसी भीषण शीत वेदना का अनुभव करता है उससे भी
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