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उसी परिपुष्ट अनुभूति एवं नवागत आनन्द को लेकर मेरे मन में तब महत्त्वाकांक्षाओं का ज्वार भी जागा है। अपने ही स्वार्थों को पूरा करने हेतु दूसरों को कुचल डालने की दुष्कल्पनाएँ भी मैंने की थी तथा सांसारिक 'ऊँचापन' पाने की घृणित लालसाओं ने मेरे मन, वचन एवं कर्म को भी भटकाव की राह पर धकेला था, किन्तु यह मेरी चेतना के आह्वान तथा 'मैं' पन की आनन्दानुभूति का ही सुफल था कि मैं उन अंधेरी गलियों से कुछ बाहर निकल सका, जहाँ से मुझे थोड़ा खुला आकाश और खुली रोशनी दिखाई देने लगी। तब मैं अंधकार से ज्योति की ओर बढ़ने लगा।
इस प्रकार मैं अपने वर्तमान जीवन में ही सोया हूँ, गिरा हूँभटका हूँ। तब मेरी चेतना का प्रवाह अदृश्य भले हो गया हो किन्तु विलुप्त कभी नहीं हुआ। तभी तो वह पुनः पुनः प्रकट होता रहा है। मेरी चेतना पुनः पुनः जागती रही है और अपनी निरन्तरता का आभास देती रही है। सतत रूप से सतर्क रखने वाली ऐसी निरन्तर जागृति ही मुझे अपने सांसारिक स्वार्थों में फंसने से दूर खींचती रही है और सबके हितों को संवारने की नवानन्दमय प्रेरणा देती रही है। इसी जागृति ने मेरे अन्तःकरण को सद्विवेक के ऐसे सांचे में ढाला है कि वह सबके हित में ही अपने हित को जांचने-परखने लगा है।
यह सच है कि यदि ऐसी सर्वप्राणहिताकांक्षा मेरे मन में बलवती बन जाय एवं क्रियाशील हो जाय तो मेरा अटल विश्वास है कि मेरी आत्म विकास की लम्बी यात्रा भाव-सरणियों में ऊपर से ऊपर उत्थान पाती हुई अल्प समय में भी सम्पन्नता एवं पूर्णता को प्राप्त हो सकती है।
यह भटकाव अनादिकालीन है वर्तमान जीवन में मेरी आत्मा जो सांसारिकता में इधर उधर भटकती रहती है, वह भटकाव मात्र इसी जीवन का नहीं है, अपितु अनादिकालीन है।
यह 'मैं' वह मात्र ही नहीं हूँ, जो अभी बाहर से दिखाई दे रहा हूँ। बाह्य दृष्टि से वह तो मेरा वर्तमान शरीर मात्र है। अनादिकाल से मेरी आत्मा इस संसार में अनेकानेक शरीर धारण करती रही है एवं भव-भवान्तर में भ्रमण करती रही है। यह मानव शरीर मेरी आत्मा का वर्तमान निवास है। यह शरीर-निवास ही मेरी आत्मा की वास्तविकता का प्रतीक है।)
आत्म-विकास का चरम स्थल मोक्ष होता है अतः जब तक मेरी आत्मा अपने चरम को नहीं पा लेती है तब तक आगे भी संसार में परिभ्रमण करती रहेगी। संसार का यह परिभ्रमण ही मेरी आत्मा का भटकाव है जो अनादिकाल से चल रहा है और मोक्ष प्राप्ति तक चलता रहेगा। जिस दिन मेरी आत्मा अपने समस्त कर्म बंधनों को सम्पूर्णतः विनष्ट कर लेगी और अपनी चेतना के प्रवाह को महासागर में एकीभूति करने की दिशा में तीव्र गति से मोड़ देगी, तब वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त बन जायगी। फिर न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी । न भटकाव रहेगा, न जन्म-जन्मान्तर और न संसार-परिभ्रमण । मेरी आत्मा तब अनन्त ज्योतिर्मय रूप से अनन्त ज्ञान, दर्शन, वीर्य एवं सुख में अजर-अमर हो जायगी।
इस चरम लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में अग्रगामी बनने के लिये मुझे इस सांसारिक भटकाव को गहराई से समझना होगा ताकि कारणों के सम्यक् ज्ञान के द्वारा उनका निदान कर मैं अपना समाधान पा सकू।
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