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तरह ही मेरी चैतन्य धारा भी कभी सबल हो जाती है तो कभी दुर्बल बन जाती है। कभी-कभी तो ज्ञान दृष्टि से देखने वालों को मेरी पतनावस्था पर ऐसी अनुभूति होने लगती है कि जैसे मेरी चेतना एकदम विलुप्त हो गई हो, किन्तु वास्तव में ऐसा कभी होता नहीं । (भाव - सरणियों के उत्थान के समय ऐसे क्षण भी प्रदीप्त हो उठते हैं जब मेरी चेतना शक्ति का प्रवाह अपने विकास की महायात्रा में अग्रगामी ही नहीं बन जाता है, अपितु अन्य कई जीवात्माओं को भी अपने प्रवाह का सम्बल प्रदान करके उन्हें भी प्रगतिशील बना देता है ।
आह्वान अपनी चेतना का
मेरी चेतना शक्ति के प्रवाह की ऐसी गति, विगति अथवा प्रगति का क्रम क्या मेरे भीतर में भी निरन्तर चलता हुआ मेरे अनुभव में नहीं आता है ? क्या भावनाओं की ऊर्जा कभी मेरे अन्तरतम को भी आन्दोलित नहीं बना देती है ? मैं ऐसे कुसमय का भी अनुभव करता हूँ, जब मैं शून्य - सा हो जाता हूँ — हताशा जैसे मेरी जीवनी शक्ति को निगल -सी जाती है। तो इस प्रकार कभी मन्द तो कभी तीव्र कभी निम्न तो कभी ऊर्ध्व – मेरी चेतना का प्रवाह अटूट रूप से चलता ही रहता है । मेरा अमिट विश्वास है कि यह प्रवाह कभी न कभी नदी का रूप भी ग्रहण करेगा और एक न एक दिन अनन्त चेतना के महासागर सिद्ध स्वरूप में एकीभूत हो जायगा ।
किन्तु इस प्रक्रिया की सफलता के लिये मुझे अपनी चेतना को आह्वान करना होगा – उसे सुषुप्ति से जगाकर सुजागृतिमय और अनुभूतिमय बनानी होगी । यही विकास की महायात्रा का शुभारंभ होगा।
जब मैं अपने इस मानव जीवन में गर्भावस्था से बाहर दुनिया के उजाले में आया, नाना भांति के रंग मेरी आंखों के आगे तैरने लगे। प्रकृति के विशाल वक्ष पर खिलते मैं उन रंगों को देखता, पल-पल फूटती हुई विविध ध्वनियों को मैं सुनता, भांति-भांति के स्वादों का मैं आस्वादन करता और नाना प्रकार की गंधों को मैं ग्रहण करता तो लगता है कि जैसे मेरे बाल्यकाल की संज्ञा बड़ी पैनी थी। बहुत कुछ जान लेने की उस में एक प्रखर उत्सुकता थी । बाहर के दृश्य भीतर में उभरते रहते थे । इन्द्रियों और मन की सक्रियता बढ़ती जाती थी । संसार का यह फैला हुआ क्षेत्र एवं आकाश का अपार अन्तराल मेरी चेतना को जागृत बनाते थे कि यहाँ जानने को बहुत है और उस ज्ञान को भीतर में उतार कर प्रकाश की किरणें खोज लेने की असीम गहराइयाँ भी यहाँ मौजूद हैं। तथ्यात्मक जगत् का ज्ञान एक सीढ़ी बनी तो उससे उपजने वाली भावनाओं ने मेरी चेतना को जो नया मोड़ दिया, वह मोड़ मुझे ऊपर की सीढ़ियों पर चढ़ते रहने की प्रेरणा देने लगा ।
मैं देखता हूँ कि मुझे मेरे शारीरिक निर्वाह के लिये अमुक पदार्थों की आवश्यकता होती है। जिन्हें मैं प्राप्त करने के लिये तत्पर बनता हूँ। किन्तु यह भी मैं देखता हूँ कि मेरे जैसे अन्य मनुष्यों तथा प्राणियों को भी अपने - अपने शारीरिक निर्वाह के लिये वैसे ही पदार्थों की आवश्यकता होती है । और जब उन पदार्थों को प्राप्त करने के लिये मनुष्य- मनुष्य के बीच में विचित्र अवस्थाओं को मैं देखता हूं तो कई प्रकार के दृश्य सामने आते हैं। कई बार और कई स्थानों पर मनुष्य समूह के पारस्परिक सहयोग के दर्शन होते हैं कि एक दूसरे को आवश्यक पदार्थों की पूर्ति में वह सहायता कर रहा है तो अनेक बार और अनेक स्थानों पर इस सम्बन्ध में हृदयहीन दृश्य भी दिखाई देते हैं । शक्तिशाली मनुष्य अपने से दुर्बल लोगों का दमन करते हैं तथा उनसे आवश्यक पदार्थ छीन कर
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