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आत्म-पुरुषार्थ की दिशा में अपने चरण बढ़ा सके इस विचार से सारा विवेचन उत्तम पुरुष में दिया गया है। साधक उसे पढ़ते हुए एकात्मता का अनुभव करेगा और आत्म चिन्तन की आनन्द-धारा में अपने आपको तन्मय बना सकेगा।
नव-सूत्रों की विशेषता इन नव सूत्रों का निरूपण यह ध्यान में रखकर किया गया है कि समीक्षण की ध्यान साधना सम्पूर्ण बन सके। आत्मस्वरूप की पूर्ण अभिव्यक्ति से सम्बन्धित सभी विषयों को इन नव सूत्रों में समाहित कर लेने का यल किया गया है। एक प्रकार से जैन दर्शन की समूची सिद्धान्त-धारा का सार इन नव-सूत्रों में समावेश करने का ध्यान रखा गया है, क्योंकि जैन दर्शन प्रधानतः निवृत्ति मार्ग है और सांसारिकता से निवृत्ति में ही आत्मा का मोक्ष समाया हुआ है। संपूर्ण कर्मों की निवृति के लिये की जाने वाले सम्यक् प्रवृत्ति से ही मोक्ष की निस्पति अवाप्ति होती है।
निवत्ति का दृष्टिकोण अकस्मात भी कोई प्रभावकारी निमित्त पाकर उभर सकता है. किन्त सामान्यतया इसे उभारने के लिये सबसे पहले वैचारिक परिवर्तन की आवश्यकता होती है। इसे परिवर्तन की संज्ञा इसलिये दी जा रही है कि इस जड़ संसार में रहते हुए, जड़ शरीर को धारण करते हुए तथा जड़ कर्मों से बंधे हुए होने के कारण मनुष्य के विचार सामान्यतः सांसारिक व्यवहार से ही सम्बद्ध होते हैं। वह इस विषय पर कम सोचता है कि जिन सांसारिक सुख सुविधाओं के पीछे वह भाग रहा है, वे उसे विकृत बनाती है, विशुद्ध नहीं। वह यह तो मुश्किल से ही सोचता है कि शुद्ध आत्मदृष्टि से यह शरीर भी उसका अपना नहीं है। वह तो शुद्ध रूप में केवल आत्मस्वरूपी है। अतः उसके वर्तमान विचारों में परिवर्तन आवश्यक है। यह आवश्यक है कि वह अपने आत्म-स्वरूप को मुख्यता दे तथा उसी को जांचने, परखने व सुधारने में अपनी प्राप्त शक्ति को नियोजित करे ताकि एक ओर वह अपने जीवन में उदात्त गुणों का विकास कर सके तो दूसरी ओर अपने श्रेष्ठ जीवन के माध्यम से अन्य प्राणियों के दुःखों को दूर करके तथा उन्हें भी अपनी वास्तविक उन्नति का मार्ग सुझा करके लोकोपकार में निजत्त्व को विसर्जित कर सके अतः पहले के विचार छूटे और स्वभाव के विचार आगे पकड़ें - यही समीक्षण ध्यान का प्रारंभिक लक्ष्य है।
यह विचार-परिवर्तन आसान नहीं है। सम्यक् श्रद्धा के जागृत होने पर ही मिथ्या ज्ञान, सम्यक ज्ञान के रूप में रूपान्तरित होता है। अज्ञान के स्थान पर सम्यक ज्ञान तो उपजे ही. किन्त. भावना का गहरा पुट भी वहाँ लगे ताकि सम्यक् श्रद्धा भी जागृत हो, क्योंकि सम्यक् ज्ञान एवं श्रद्धा के सद्भाव में सम्यक् चारित्र का पुरुषार्थ दिखाने में फिर यह पुरुष पीछे नहीं रहेगा। चिन्तन की दृष्टि से आज के पुरुष में पुरुषार्थ का सत्संकल्प बल पकड़े—यही इन नव-सूत्रों का मूल लक्ष्य है।
इन नव सूत्रों की यथार्थ विशेषता तो समीक्षण ध्यान साधक ही इन्हें अपने गहन चिन्तन के विषय बनाकर जान सकेंगे किन्तु परिचयात्मक दृष्टि से यह कह सकते हैं कि जड़ चेतन संयोग के संदर्भ में संसार एवं आत्मा की गतिविधियों का अध्ययन करते हुए जड़-चेतन संघर्ष के जितने बिन्दु हैं, वे इन नव सूत्रों में संकलित कर लिये गये हैं, ताकि यह चेतना अपनी जड़ग्रस्तता को बंधन रूप समझे तथा इस बंधन को शीघ्रातिशीघ्र समाप्त करने का कठिन संकल्प ले। नव तत्त्वों की पृष्ठभूमि में चेतना-शक्ति इस रूप में भी अनुप्रेरित की गई है कि वह समता के सरल सद्भाव से न केवल अपने आत्मस्वरूप को ही ओतप्रोत बनाले, अपितु समता की ऐसी रसधारा प्रवाहित करे कि संसार की