Book Title: Terah Dwip Puja Vidhan
Author(s): Mulchand Kisandas Kapadia
Publisher: Digambar Jain Pustakalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तेरहद्वीप पूजा विधान * प्राप्ति स्थान : दिगम्बर जैन पुस्तकालय खपाटिया चकला, गांधीचौक सूरत :- 3 .: (0261) 427621 Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेलूपुर-काशी नि. विद्वच्छिरोमणि कवि श्रीलालजी विरचित श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ( श्री तेरहद्वीपके 458 जिनमंदिर पूजापाठ ) -: संग्रहकर्ता व प्रकाशक :मूलचंद किसनदास कापड़िया दिगम्बर जैन पुस्तकालय कापड़िया भवन, गांधीचौक, सूरत-३. -: टाईपसेटींग एवं ऑफसेट प्रिन्टींग : शैलेश डाह्याभाई कापड़िया जैन विजय लेसर प्रिन्ट्स खपाटिया चकला, गांधीचौक, सूरत-३. टे. नं. (0261) 427621 मूल्य-६०-०० रू. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना और कवि-परिचय करीब 80 वर्ष पहले एक ऐसा समय था जब कि जैन ग्रन्थ हस्तलिखित थे, लेकिन असातनाके डरसे उसे छपानेकी कोई हिम्मत नहीं करता था, लेकिन समय बदल जानेसे जैन ग्रन्थ छपनेकी आवश्यकता आ पडी थी और विरोध बहुत था, तो भी ऐसे निकट समयमें स्व. लाला जैनीलाल जैन देवबन्ध निवासीने बडी हिम्मत करके व प्रबल विरोध सहन करके कई ग्रन्थ छपाये, उनमेंसे श्री तेरहद्वीप पूजन पाठ विधान मुख्य था, जो आपने करीब सन् 1906 में मुरादाबादके लक्ष्मीनारायण प्रेसमें छपाया था, जो बिक जाने पर हमने इसकी दूसरी आवृत्ति वीर सं. 2469 में तीसरी आवृत्ति वीर सं. 2481 में चौथी आवृत्ति वीर सं. 2490 में व पांचमी आवृत्ति 2498 में व षष्ठी आवृत्ति 2506 में, सातमी आवृत्ति 2515 में प्रकट की थी वह भी बिक जानेसे यह अष्टमी आवृत्ति प्रकट की जाती है। कवि परिचय इस तेरहद्वीप पूजन पाठके रचयिता भेलुपूर, काशी निवासी कवि श्रीलालजी या लालजीत या 'लाल' थे। जो १८वीं शताब्दीमें हो गये है। आपका विशेष परिचय तो इस पाठमें नहीं मिलता, लेकिन आपने इसके पहले श्री समवसरण पूजन विधान भी रचा है, जिसके अन्तमें आपका कुछ परिचय मिलता है जिससे जाना जाता है कि - सवाईजयपुरमें पं. टोडरमलजी नामक एक खण्डेलवाल श्रावक रहते थे, जिन्होंने श्री त्रिलोकसार ग्रंथराजकी देश भाषामें वचनिका लिखी थी। उसमें समवसरणका बहुत सुन्दर वर्णन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ डा [3] किया है। इधर श्रावक बनारसीदास जहानाबादसे सकुराबाद आ बसे, जहां गुलाबराय नामक पद्मावती पुरवाल जैनी रहते थे, उनके पांच पुत्र थे जिनमें एकका नाम लालजी था। सबसुखरायका लालजीसे बहुत स्नेह हो गया। फिर एक वार सबसुखरायने जिन मंदिरमें जाकर 'समवशरण' का चित्रपट देखा, और लालजीसे कहा कि समवशरण पूजापाठ बन जाय तो कितना अच्छा हो, तो लालजीने यह रचना करनेका उन्हें वचन दिया बादमें वहीं सकुराबादमें श्री कन्हरदासजी श्रावक रहते थे, उनके दो पुत्रोमेंसे एकका नाम भी 'लालजी' था और हमारे कवि लालजीसे इन लालजीका बहुत स्नेह था। तो एकबार इन्होंने लालजी कविको सबसुखरायके वचनकी याद दिलाई व प्रेरणा की तो उन्होंने समवशरण पाठकी रचना की जो सं. 1834 में माघ वदी अष्टमीको आपने समाप्त की थी। फिर 50 वर्ष बाद श्री लालजी कविराजने श्री तेरहद्वीप पूजा पाठ विधानको रचना भेलूपुर, काशीमें रहकर बडी भारी विद्वताके साथ की, जो सं. 1877 कार्तिक सुदी 12 शुक्रवारको समाप्त हुई व हस्तलिखित थी। कवि श्री लालजी छन्द शास्त्रके बडे भारी विद्वान् थे इससे ही पूजापाठ विधानको आपने एक नहीं लेकिन अनेक छन्दोंमें बनाया है जिसे पढ़कर ही आपकी छन्द शास्त्रकी विद्वताका पता लग जाता है। इस विधानमें श्री तेरहद्वीप 458 जिनालयोंकी कुछ 62 पूजायें अनेक छन्दोंमें ऐसी उत्तम रीतिसे रची गई हैं, कि यह पूजन ग्रन्थ तो क्या एक स्वाध्याय ग्रन्थ भी बन गया है। अतः Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] यह बृहत् पूजा न कर सकनेवाले भी इस विधानका स्वाध्याय / करके श्री तेरहद्वीपोंका पूर्ण परिचय प्राप्त कर सकते है। श्री तेरहद्वीप पूजन विधानको विधि व उसके मांडनेका रूप इस पाठमें पृ. 7 से 13 तक कविश्री द्वारा ही दर्शाया गया है। अतः उसे अलग लिखनेका आवश्यकता नहीं है। तो भी विधानके मांडनेका सामान्य नकशा भी हम इस पाठके साथ प्रकट कर रहें हैं, जो चांवलका मांडना बतानेमें सहायक होगा। यदि चांवलका मांडना न बन सके तो इस प्रकारका कपड़ेका रंग बिरंगी हस्तलिखित मांडना 1 // // 1 // / गजका याने 545 फूटका 750) रुपयेमें हमारे यहांसे मिलता है जो मंगा लेना चाहिये। ___ आशा है इस अष्टमी आवृत्तिका भी शीघ्र ही प्रचार हो जायेगा। सुरत वीर सं. 2526 माघ सुदी पंचमी ता. 10-2-2000 निवेदक : शैलेश डाह्याभाई कापडिया, - प्रकाशक Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [5] पूजन - सूची पूजन 1 | मङ्गलाचरण 2 | मांडनेकी विधि मांडनेका वर्णन 3 | श्री सिद्ध परमेष्ठी पूजन-१ 4 | श्री सुदर्शन मेरु पूजा-२ 5 | चार विदिशामें चार गजदंतपर चार जिनमंदिर पूजा-३ 6 | सुदर्शन मेरुके उत्तर ईशान कोन जंबूवृक्ष और दक्षिण ___नैऋत्य कोन शालमली वृक्षपर जिनमंदिर पूजा-४ 7 पूर्व विदेह संबंधी आठ वक्षारगिरि जिनमंदिर पूजा-५ 8 | पूर्व विदेह संबंधी आठ वक्षारगिरि जिनमंदिर पूजा-६ सुदर्शनमेरुके पूर्वविदेह संबंधीषोडश रुपाचल जिनपूजा-७ 10 | पश्चिमविदेह संबंधी षोडश रूपाचल सिद्ध. जिनपूजा-८ 11 दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर जिनपूजा-९ 12 | सुदर्शनमेरुके उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र संबंधी जिनपूजा-१० | दक्षिण उत्तर षट्कुलाचल पर्वतपर जिनपूजा-११ 14 | धातुकीद्वीप पूर्वदिश विजयमेरु संबंधी 16 जिनपूजा-१२ 15 | धातुकीद्वीप चारों विदिशा मध्ये चार जिन मंदिर पूजा-१३| | विजयमेरुके ईशान नैऋत्यकोन सिद्ध. जिनपूजा-१४ 17 | विजयमेरुके पूर्व विदेह संबंधी 8 वक्षारगिर पूजा-१५ 18 | विजयमेरुके पश्चिमविदेह संबंधी 8 वक्षारगिरि पूजा-१६ 0 0G Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [6] नं. पूजन षोडश रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा-१७ पश्चिमविदेह संबंधी षोडश रूपाचल पर जिनपूजा-१८ | दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबंधी जिनमंदिर पूजा-१९ 22 | विजयमेरुके उत्तर दिश ऐरावतक्षेत्र जिनमंदिर पूजा-२० 23 विजयमेरु उत्तरदक्षिण षट्कुलाचल जिनमंदिर पूजा-२१ 24 | धातुकी द्वीप मध्ये पश्चिमदिश अचलमेरु जिनपूजा-२२ 25 अचलमेरुके चारविदिशा मध्ये सिद्धकूट जिनपूजा-२३ 26 अचलमेरुके ईशान दिश जंबूवृक्ष अर नैऋत्यदिश शाल्मली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा-२४ 134 27 अचलमेरुके पूर्वविदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा-२५ 138 28 | अचलमेरु पश्चिमविदेह आठ वक्षार गिरिपर जिनपूजा-२६ 29 / पूर्वविदेह संबंधी षोडश रूपाचल पर जिनमंदिर-२७ 30 | पश्चिम विदेह संबंधी षोडश रूपाचलपर जिनमंदिर-२८ दक्षिणदिश भरतक्षेत्र रुपाचलपर जिनमंदिर पूजा-२९ 32 उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र रुपाचलपर जिनमंदिर पूजा-३० 33 दक्षिण उत्तरदिश षट्कुलाचलपर जिनमंदिर पूजा-३१।। 34 धातुकी द्वीपमध्ये विजय अचलमेरुके दक्षिणदिश दोनों भरतक्षेत्र बीच इक्ष्वाकारपर जिनमंदिर पूजा-३२ 174 35 धातुकी द्वीपमध्ये विजयमेरुके उत्तरदिश दोनों ऐरावत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकारपर सिद्ध. जिनमंदिर पूजा-३३ 178 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [7] नं. | पूजन पृष्ठ 36 | पुष्करार्ध द्वीप पूर्व दिश मंदिरमेरु षोडश जिनपूजा-३४ 37 मंदिरमेरु चारोंदिश चार गजदंतपर चार जिनपूजा-३५ 38 उत्तर ईशानकोन जम्बूवृक्षपर दक्षिण नैऋत्यकोन शाल्मली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा-३६ 39 मंदिरमे. पूर्वविदेह 8 वक्षारगिरि जिन. पूजा-३७ 40 मंदिरमेरु पश्चिमविदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा-३८ 41 पूर्वविदेह षोडश रुपाचल सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा-३९ 42 पश्चिमविदेह संबंधी षोडशरुपाचल जिनमंदिर पूजा-४० दक्षिणदिश भरतक्षेत्र रुपाचल पर जिन. पूजा-४१ 238 45 दक्षिणउत्तर षट्कुलाचलपर जिनमंदिर पूजा-४३ 46 पुष्करार्द्ध द्वीप मध्ये पश्चिमदिश विद्युन्माली मेरु संबंधी षोडश जिनमंदिर पूजा-४४ 47 विद्युन्माली मेरुके चारों विदिशा मध्ये चार गजदन्त पर सिद्धकूट चार जिनमंदिर पूजा-४५ 4 | उत्तरदिश ईशानकौन संबंधी जंबूवृक्षपर अर दक्षिण दिश नैऋत्यकोण शालमली वृक्षपर जिन. पूजा-४६ 49 पूर्वविदेह संबंधी 8 वक्षारगिरि जिन. पूजा-४७ 50 | पश्चिमविदेह संबंधी 8 वक्षारगिरि जिन. पूजा-४८ | पूर्वविदेह षोडश विजयार्धपर सिद्ध. जिन. पूजा-४९ - Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [8] नं. पूजन 52 | पश्चिमविदेह संबंधी षोडश रुपाचल जिन. पूजा-५० 53 | दक्षिण भरतक्षेत्र रुपाचल सिद्धकूट जिन. पूजा-५१ 54 उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र रुपाचलपर जिन. पूजा-५२ 55 दक्षिणउत्तरदिश षट्कुलाचलपर जिन. पूजा-५३ 56 पुष्करार्घ द्वीप मध्ये जिनमंदिर विद्युन्माली दक्षिण दिश। दोनों भरतक्षेत्र बीच इक्ष्वाकार पूजा-५४ /284 57 पुष्करार्घ द्वीपमध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश ____दोनों ऐरावतक्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार जिन. पूजा-५५ 287 58 मानुषोत्तर पर्वतपर चारोंदिश चार जिन. पूजा-५६ 59 नन्दीश्वर द्वीप संबंधी पूर्वदिश त्रयोदश पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा-५७ ,296 60 नन्दीश्वरद्वीप दक्षिण त्रयोदश पर्वत जिन. पूजा-५८ 301 61 नंदीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश संबंधी त्रयोदश जिनमंदिर सिद्धकूट तिनकी पूजा-५९ 306 62 नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश संबंधी त्रयोदश सिद्धकूट। जिनमंदिर विराजमान ताकी पूजा-६० 312 63 कुण्डल द्वीपके बीच कुण्डलगिरिके चारों दिश चार सिंद्धकूट जिनमंदिर पूजा-६१ 318 64 रूचिक द्वीप मध्ये रुचिक द्वीप मध्ये रुचिकगिरिके चारोंदिशा चार सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा-६२ 323 65 कवि श्री लालजीकी अंतिम प्रशस्ति Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काशी निवासी कविवर श्री लालजीतजी रचित श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 458 जिनमंदिर पूजा पाठ दोहा-श्री अरहन्त प्रणाम कर, पंच परम गुरु ध्याय। तिनके गुण वर्णन करूं, मन वच शीश नवाय॥१॥ सवैया इकतीसा अरहन्त देवको प्रणाम करूं, बार बार सिद्धनको सीस न्याय गुण गाइयतु हैं। सुर उवझाय दोऊ इनके जुगल पाय, __हिरदेमें धार तिहुं काल ध्याइयतु हैं। साधु शिव मारग विशाल दरसावत हैं, पावत परमपद सीस नाइयतु हैं। ये ही पंच परम धरमको स्वरूप कहो, तिनको सु ध्यान धार मोक्ष पाइयतु हैं॥२॥ दोहा-चार घातिया कर्म जे, तिनको किनो नाश। तब केवल परगट भयो, लोकालोक प्रकाश // 3 // ऐसे अरहन्त देवके, गुण छियालीस निहार। तिनका कुछ वर्णन करु, सुनो भव्य चितधार॥४॥ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ននននននននននននននននននន दस जनमत दस ज्ञानके, सुर कृत चौदह जान। चार अनंत चतुष्टगिन, प्रातिहार्य वसु मान // 5 // धरै सुगुण छालीस जे, ते अरहन्त जिनेश। तिनके चरणन शीसनय, पूजत सकल सुरेश॥६॥ पद्धडी छन्द जै स्वेद रहित तिन तन सुजान, ___ मल रहित सु निरमल हिये आन। तन रुधिर सु उज्जल क्षीर वर्न, जग तारण प्रभु सब दुःख हर्न // 7 // समचतुर धरै संस्थान सार, तन व्रजवृषभनाराच धार / मन मोहन सूरत सरस देख, शशी सूर सु छबि धारो विशेख॥८॥ तन मैं जु सुगन्ध लसै अपार, लक्षण एकसो अरु आठ धार। बोलत प्रिय हित मित वचन जान, बल है अनन्त तनसो प्रमान // 9 // दोहा-दस जनमत पूरन भई, अब केवल दस सार। तिनको सुन समझै सुधि, परम शुद्धता धार // 10 // पद्धडि छन्द जोजन सत चार कहो प्रमान, दुर्भिक्ष पडै नहिं जिन वखान। केवल लहि गगन चलैं जिनेश, कोई जीव घात नहिं लहै लेश॥११॥ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [3 === === = == == === == = केवल प्रगटे वर्जित अहार, उपसर्ग रहित प्रभु तन विचार। चतुरानन प्रभुको दरस होय, सब जीव लहैं आनंद सोय॥१२॥ सब विद्याके ईश्वर महान, परमौदारिक तन विमल जान। तन छाया रहित कहो गणेश, लागै न पलक सों पलक लेश॥१३॥ नखकेश बर्दै नहिं जिन शरीर, केवल अतिशय दस भइवीर। / जै जै जिनवर तुम गुण विशाल, गा4 ते शिवपद लहैं हाल // 14 // दोहा-दस अतिशय केवल तनी, पूरण भई सुजान। अब सुरकृत चौदह सरस, भाषी श्री भगवान // 15 // अडिल्ल छन्द सरस मागधी भाषा जिन मुखतै खिरै, समझै सबही जीव पाप तिनके ह। सब जिवनके मैत्री भाव निहारये, सब रितुके फल फूल फलै सुविचारये॥१६॥ . सुन्दरी छन्द सरस दरपण सम सुधरा लसे, सरव जीवनकै आनंद वसै। पवन गंध सुगंध तहा चलै, अघ समूह सबै ही दलमलै॥ धूल कंटक कहुं न देखये, जोजनांतरतांहि न लेखये। होत गन्धोदक वरषा सही, परमपावन शोभित है मही॥ रचत कमल सुदेव सुहावने, पंचदश पंकति मन भावने। भए हैं सौ पच्चिस जानिये, सकल ध्यान फलैं परमानिये॥ सुर सु आह्वानन विधिको करैं गगन निर्मलता धुतिको धरें। धरम चक्रसु आगेको चलै, पाप पुंज समूहनको दलै॥ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 20188888888888888 दोहा-मंगलदर्व तहां लसै, कहे एकसो आठ। पुन्यप्रकृतिके उदयतै बने सु अद्भुत ठाठ॥२१॥ पद्धडी छन्द दश चार सुदेवन कृत अनूप, अतिशयभाषी जिनदेव भूप। अब प्रातिहार्यवसु सुनो वीर,तिनको सुन भवभ्रम मिटैं पीर॥ सुन्दरी छन्द द्रुम अशोक महाछवि देत है, शोक सब जीवन हरलेत हैं। सुर सुफूलनकी वर्षा करें, परमसुन्दरता छबिको धेरै॥ खिरत बानी सुन्दर सोहनी, भव्य जीवनके मन मोहनी। दुरत चौसठ चँवर सुहावने, भक्ति नृत्य करत मन भावने। अति उतंग सुसिंहासन बनों, जडितरतन समूहन सो घनो। मनौं मेर सुदर्शनको हंसे, सरस शोभाकर सुन्दर लसै॥ अडिल्ल छन्द भामण्डलकी क्रांति प्रभूतनतै बनी, ससि सूरज छवि क्षीण होत द्युति है बनी। जीवनके तहां सात भवांतर देखिये, ___वह अतिशय भामण्डल मांही पेखिये॥२६॥ बाजे दुर्दुभि बाजे अधिक सुहावने, सुनै भव्य दे कान सरस मन भावने। . तीन लोकके ईश्वर याते जानिये, तीन छत्र सिर धारै परम प्रमानिये // 27 // Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [5 ANNAasararararaswarSaraswarwa दोहा-ज्ञान अनंतानंत है, दर्श अनन्तानन्त। वीर्य अनन्तानन्त है, सुख अनन्तानन्त // 28 // इति अर्हन्त परमेष्ठी के छयालीस गुण सम्पूर्णम्। ___अथ सिद्ध परमेष्ठी के अष्ट गुण वर्णन दोहा-अब सिद्धनके आठगुण, कहुँ यथारथ जान। जाके सुनत बखानते, होय सरव कल्याण // 29 // चौपाई छन्द क्षायक सम्यक् गुण मन माना, सों समत्तगुण निश्चय जाना। केवलज्ञान ज्ञान परकाशो, लोकालोक सरव प्रतिभासो॥ लोक अलोक सरव दरशायो, सो दर्शन सिद्धनके पायो। शक्ति अनन्त धरै वरनामी, सो अनन्त वीरजके स्वामी॥ एकबार सब ज्ञेय बताये, सो सुहमत देवगुण गाये। एक सिद्ध अवगाहन जामैं, राजै सिद्ध अनन्ते तामैं। जा तनसे जो सिद्धपद रायो,ये ही अगुरुलघु गुन मन मायो। बाधा रहित विराजित ऐसे, यह अद्भुत गुण भाषू कैसे॥ और अनन्ते गुणके धारी, तिन सिद्धनको धोक हमारी। तिनको शीस नाय गुण गाए, हरषर भविजन मन भाए॥ दोहा-कहे सिद्ध महाराजके, यह अद्भुत गुण आठ। तिनको सु मरण भवि करें, कीजे निशदिन पाठ॥३५॥ मद अवलिप्त कपोल छन्द गुण छत्तिसको लिये विराजित श्री आचरज, धरै परम वैराग भाव धारै शुभ आरज। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ EDBAN श्री तेरहद्वीप पूजा विधान សសសសសសសសសសសសសសសសសសស बीस पांच गुण धरै अंग पूरव सुखदाई, सो उवझाय सुजान तिनै हम सीस निवाई // 36 // आठ वीस गुण सहित सर्व जीवन उपकारी, धरै दिगम्बर रूप साधुपदके अधिकारी। इनको सीस निवाय ध्याय उर अन्तर भाई, करो मंगलाचरण सुभविजनको सुखदाई // 37 // श्री आदिनाथजीकी स्तुति दोहा-भए वंश इक्ष्वाकमें, श्री आदीश्वर देव। सुर नर मिल पूजत सदा, कीजे तिनको सेव॥३८॥ पद्धडी छन्द श्री नाभिराय मरुदेवि जान, तिन उर उपजे भगवान आन। इन्द्रादिक सब मिल हरष धार, गर्भादि जन्म उत्सव विचार॥ मनमथ मदमर्दनको सुसूर, सब क्रोध कषाय कियो है दूर। चारों सो घातिया किये नाश, तब केवलज्ञान भयो प्रकाश॥ दरशो सब लोकालोक जान, तिन कहो धरम वर्णन वखान। जनमुखते बानी खिरै सार, सुनकै भवि भवदध भए पार॥ ऐसे श्री रिषभ जिनेशराय, कैलाश शिखरतें मोक्ष पाय। जै जै त्रिभुवनके नाथराय,भुवि लाल' नमत भुवी सीसलाय॥ अन्तिम श्री वीर जिनेश देव, सुरनर नित तनकी करत सेव। तिनको अब वर्णन करूं गाय,संक्षेप मात्र बुद्धि तुच्छ पाय॥ प्रभु नाथवंशके जनम लीन सिद्धारथ नृप बहु दान दीन। ले गये सुदर्शन मेरु इन्द्र, कर जनम महोत्सव सब सुरिंद्र॥ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [7 Nowwwwwwwwwwwwwwwwwww इन्द्रानी श्रीजिन देव लैय, माता त्रिशलाकी गोद देय। पूजे माता अरु तात पांय, निजनिज थानक सब देव जांय॥ चौबीस जिनेश्वर एकबार, तिनके पद प्रणमूं हरष धार। मंगल करता मंगल स्वरूप, तिनको सिर नावत सरव भूप॥ दोहा-जिनवाणी गुण अगम है, कोई न पावै पार। करूं मंगलाचरण मैं, तुच्छ बुद्धि अनुसार // 47 // मद अवलिप्त कलोल छन्द नमूं सारदा माय परन सुन्दर सुखदाई, मोह तिमिरके नाश करनको रविसम गाई। शिव मारग दरशाय करें सब कारज जी के, जो धारें उरमाहिं सु जिनवानी गुण नीके // 48 // दोहा-श्रीगुरुचरण प्रणाम कर, मन वच सीस नवाय। मंगलमइ मंगल करण, जग जीवन सुखदाय॥४९॥ मद अवलिप्त कपोल छन्द धरै दिगम्बर रूप भूप सब पदको परसैं हिये, परम वैराग मोक्षमारगको दरसैं। जे भवि सेवें चरण तिनैं सम्यक् दरसावै, करें आप कल्याण सु बारह भावन भाव॥५०॥ पंच महाव्रत धरै बरै शिव सुन्दर नारो, निज अनुभव रस लीन परम पदके सुविचारी। दस लक्षण जिन धर्म गहैं रत्नत्रय धारी, ऐसे श्री मुनिराज चरणपर जग बलिहारी॥५१॥ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ផលមធមមមមមមមមមមម दोहा-गुरुप्रसादतै पाइये, ज्ञान अधिक जगमाहि। कारजकारी जीवको, मुह समान कोउ नांहि // 52 // इति मंगलाचरण सम्पूर्ण। अथ मांडनेकी विधि प्रारंभ सुन्दरी छन्द दोहा-चार बीस चालीस (64) गज, इतनो क्षेत्र सु जान। तामैं रचो सु मांडनो, गोलाकार प्रमान // 53 // अब सु मांडनेकी विधि जानिये, सरस सुन्दरता परमानिये। बैठके भविजीव विचारकै, बुद्धिवंत हिये अब धारकै॥ दीप अढ़ाई सुन्दा सोहना, सुरसुनर सबके मन मोहना। तासु मध्य विराजै सार जू, पंच मेर परमसुखकार जू॥ एक मेर तनो वर्णन भनो, चार वन-चारों दिशमैं गनो। बन रहे जिन मंदिर सोहने, चार दिश सोलह मन मोहने। सरव शोभाकर सो लसत हैं,भव्यजन मुनिजन मन वसत हैं। देव जै जैकार तहां करें, बजत दुन्दुभि बाजे मन हरैं। दोहा-जिन मंदिर गिर पांचके, भए सु अस्सी जान। अब आगै वर्णन करूं, सो सुनिये उर आन // 58 // मद अवलिप्त कपोल छन्द गजदन्तनके वीस कूट द्रुमके दस जानो, जिनमंदिर गन तीस कुलाचलके परमानो। सौसत्तर बैताढ असी वक्षार बिराजै, इक्ष्वाकार सुचार सरस जिनमंदिर छाजै॥५९॥ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ================== दोहा-नन्दीश्वर बावन गनो, मानुषोत्रके चार। कुण्डलगिर और रुचिकगिरि, चार चार उर धार॥१०॥ एक एक मंदिर विषै, ध्वजा सु गिनिये एक। रत्नदण्डकर सोहनी, धरै अनादि सुटेक॥६१॥ __ अथ अकृत्रिम जिनमंदिर वर्णन (कुसुमलता छन्द) केवलज्ञानी श्री जिनवरने द्वादश वानी कही सु भाय, श्री जिनमंदिर कहे अकृत्रिम तिनकी गिनती सुन मन लाय। भव्यलोकमें तेरह द्वीप लो कहे चारसैठावन गाय, तहां जाय निरजर निरजरनी पूजत श्री जिनवरके पाय॥ श्री जिनमंदिर कहें अकृत्रिम समोशरण रचना सब ठौर, बिम्ब एकसौआठ अनूपम इक इक मंदिरमैं नहि और। धरै पाचसैं धनुष ऊंचाई धारै तीन क्षत्र सिरमौर, इन्द्रादिक तहां पूजन आवे, यज्ञ गदा ले ठाड़े पौर॥ __अथ एकसौ इन्द्र तिनके नाम (कुसुमलता छन्द) भवनपती चालीस बताए, बीस प्रतेन्द्र इन्द्र फुनि बीस, विंतर देवतने जिन भाषे, सरस विभूति धरे बत्तीस। कहे कल्पवासी, सुखरासी, परम महासुन्दर चौबीस, दोय जोतषी दो नर पशुके, सब जिनवरको नावत सीस॥ अथ कितने इन्द्र कहां कहा गमन कर यह वर्णन (कुसुमलता छन्द) जहां जहां जिन भवन विराजत तहां सुर सुरपति पूजन जाय, दीप अढाईमें सब मिलकर नर तिरयंच जजै जिनराय। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ================ = बाकी एक शतक द्वै वर्जित इन्द्र आपनी सनसो लाय, हम पूजत आह्वानन करकैं अपने घरमें मंगल गाय॥ दोहा-देख दरश जिनराजके, होत परम आनन्द। भव्यजीव सम्यक् लहैं, कटैं कर्मके फन्द॥६६॥ ऐसे श्री सर्वज्ञ पद, पूजत इन्द्रसो सर्व। परम हर्ष धारै सुउर, लेले वसु विध दर्व॥६७॥ अथ अष्टप्रकार द्रव्य वर्णन (सवैया इकतीसा) क्षीरोदधि समसार उज्जल वरण नीर, चंदन पवित्र घस केसर मिलायकै। अक्षत मनोज्ञ मानो मोती हैं बिराजमान, फूल नाना भांतिके सुगंधित मंगायकै। नेवज अनेक भांति तुरत बनाय लाय, जगमग जोति होत दीपक जगायकै। खेवत सुगंध दश दिश मांही फैल रही, ___फल ले सुफल पाय देवकू चढायकै॥१८॥ उज्जलसु जल लाय चंदन सुगंध भरो, __ अक्षत मनोज्ञ श्वेत घायकै सुलायकै। सुन्दर सुफूल नाना भांति सुगन्ध भरे, नेवज मनोहर सु तुरत बनायकै। जगमग जोति दीप धूपहु सुगन्ध भरी, लावत हैं फल महामिष्टको मंगायकै। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [11 FararwarshNEPASANNASWANANESANSKNNN ऐसो द्रव्य लाय भव्य पूजत जिनेश पाय, पुन्यके समूह भरें प्रभुको चढायकै // 69 // दोहा-श्री जिन पूजा जो करै, सो नर इन्द्र समान। पुन्यवान ता सम नहीं, सेवत सुरनर आन 70 // अथ सामग्री बनावनेकी विधि (कवित) जल चन्दन अक्षत प्रसून लै, नेवज दीप धूप फल जान, धरती धरी गिरी धरती पर, नाहिं उठावत जे बुधिमान। पगसों लगै दृष्ट कोउ छीवै, बहुत लोग सपरस नहि ठान, प्रानीचाकरकर ले न चलै सो,मलिन वस्त्र नहिं ढकै सुजान। दोहा-यह विचारित बचायकै, सुन्दर द्रव्य सुधोय। ले जिनवर पूजा करे, शिवतिय वल्लभ होय // 72 // ____ अथ पूजाकारक लक्षण (सवैया इकतीसा) सुन्दर स्वरूप लहै देव शास्त्र आन वहै, ___गहै व्रत शील दया हिरदे धरतु है। गुणके समूह धरै चारों विधि दान करै, पुन्यके भण्डार भरै पातिक हरतु है। तीरथ गमन गुरु विनयकी लगन सदा, ध्यानमें मगन रहै नेक ना टरतु है। नर पर्याय पाय सुन्दर सुद्रव्य लाय, जिनजूके थान जाय पूजाको करतु है॥७३॥ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 12] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ន២២២២២២២២២២២២២២២២ अथ कितने जीवनकी पूजा मनै है सो वर्णन (इकतीसा) कानो अन्ध धुन्ध टेर फोलो आंखमें सुजान, कानकटे नाककटी भंग अंग ठानिये। खोड़ो कोढ कुब्ज तोतलो सुर भंग अंगुली न होय, पंगुभेद गांड़ गूंगा खांसी जो प्रमानिये। फोड़ा कोढ़ कक्ष दाद बवेसी अद्दष्ट जान, बहरा भगंदर सु श्वेत दाग जानिये। बिशन जो सात लीन स्वांस रोग नाक वहै, ऐसे नर जीवनको पूजा मनै आनियो॥७४॥ अथ पूजाकारक जैसा होय ताका वर्णन (कुसुमलता छन्द) पढे ग्रन्थ सामायक विधिकर, पाप समूहनको जु हरै। छहो कायके जीव विचारे, तिनपर करुणाभाव धेरै॥ उज्जल चीर पहर आभूषण, भाव भक्तिसों नाहिं टरे। मन वचकायलायचरणन चित्त,पूजा श्रीजिनराज करै।।७५॥ अथ उज्जल चीर वर्णन दोहा-सातहाथ लांबा गिनों चौड़ा साढ़े तीन। सूत बसन उजल अमल, पहरत नर परवीन // 76 // ओढ़े सिखा लगाय पद, सकल देह ढक जाय। नेत्र नासिका कर खुलै, पूजत श्रीजिनराय॥७७॥ धोति स्वेत सुसूतकी, पहिरे मन हरषाय। मन वच तनलौ लायके, पूजत श्री जिनराय॥७८॥ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [13 __ अथ आभूषण लक्षण दोहा-श्री जिनकी पूजा करै, सो नर इन्द्र समान। ___ आभूषण पहिरे इते, सो लीजे पहिचान // 79 // सुन्दरी छन्द धरै सीस सु मुकुट सुहावनो, भुजन बाजूबन्द सु लावनो। करन कुण्डल मणमई सोहनी, रतनजडित कड़े कर मोहनी॥ सरस कंठ विषै कंठी कही, धुकधुकी अरु हार सुलहलही। परम पहुंची पहर सुहावनी, जगमगात सो जोति कहा मनी॥ पहरकै जो जनेऊ सार जू, कनक मणमई अति मनहार जू। रतनमई कट मेखल जानिये, परमछुद्र सुघंटिक मानिये॥ पहर अगुरिनमैं दस मुंदरी, कनक रत्न समूहनसों जरी। कनकसाकर घुघरू पगलसें,झुनझुनात सु भविजन मन बसें॥ और बहु आभर्ण विख्यात हैं, पहिरके सब मन हरषात हैं। कर सुवपु प्रक्षाल सुचावसों, चलत श्री जिनमंदिर भावसों॥ दोहा-आभूषण यह पहर कर, पूजै जिनवर देव। पाप पुंजको दलमलै, सुख पावै स्वयमेव // 85 // अथ पण्डित लक्षण (सवैया इकतीसा) बाल नहिं होय नहिं वृद्ध नहिं हीन अंग, क्रोधी क्रिया हीन नहिं मूरख गनीजिये। दुष्ट नहिं होय नहिं विशन विषै सुरति, पूजापाठ वाचने में बुद्धिसार लीजिये। दयाकर भीज रहा हिरदय कमल जाको, सुन्दर स्वरूप पाय दान सदा दीजिये। Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान मीठे हैं वचन मुख अक्षर सुपुष्ट कहै, गहै विनय गुरुकी सुपण्डित कहीजिये॥८६॥ अथ जिन-पूजा-विधि वर्णन-श्री मण्डप वर्णन (कुसुमलता छन्द श्री जिनमंदिर बने अनुपम रचो मांडना परम विशाल, ताके पश्चिमदिश वेदी गिन तीनपीठ अद्भुत सुविशाल। गंधकुटीपर सिंहासन है सुवरण रतन जडित द्युति लाल, ताके बीच कमल सुन्दर छवि परम मनोहर अति सुखमाल॥ कमल बीचमें बनी कर्णिका जगमग जगमग जोति महान, तापर श्री जिनबिंब विराजित दर्शन करत सचीपति आन। भामण्डल भव सात दिखावत तीन छत्र सो हैं सुखकार, चौसठ चंवर दुरै सिर ऊपर इन्द्र उच्चरत जै जैकार॥ दोहा-श्री जिनमुख पूरव दिशा, लखत दृगन हरषाय। वह सुख जानै सुखधनी, कै जानै जिनराय॥८९॥ अथ पूजाविधिवर्णन (कुसुमलता छन्द) जो नर पूजा करै जिनेश्वर प्रथम काम इम कर बनाय। मांजै वासन सरिताके तट तथा कूपजल लावै जाय॥ दोहरे छन्ना छान नीरकों विछलन देय तहां पहुंचाय। याविधि कर जल झारीभरके श्रीजिन न्हवन करै मन लाय॥ मंगल पाठ पढ़ें जहां भविजन मुख उचरत जै जै धुन गाय। मंगल द्रव्य धेरै तहां सुन्दर बाजे झांझर श्रवण सुहाय॥ वसु विधि द्रव्य मनोहर लेकर प्राशुक जलते धोय बनाय। देव शास्त्र गुरुकी पूजा कर बहुविधि भक्ति करें मन लाय॥ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [15 ធផgggggggggggggs चमर छत्र भामंडल तोरन बहुविध वन्दनवार बन्धाय। झारी धूप दहन चन्द्रोपम सब उपकरण धेरै विहिसाय॥ बाजनकी ध्वन रही छाय तहां सुर खग नाचत मन हरषाय। धन्न भाग उनही जीवनके जो यह कौतुक देखन जाय॥ ____ अथ पूजाकारक नौ तिलक वर्णन (अडिल्ल छन्द) सिखा सीस की जान ललाट सु लीजिये, कंठ हृदय अरू कान भुजा सु गनीजिये। कूख हाथ अरू नाभि सरल शुभ कीजिये, तब जिनवरको जजो तिलक नव कीजिये॥१३॥ अथ पूजाकारक खडा होनेकी विधि वर्णन (अडिल्ल छंद) वेदी दक्षिण ओर उत्तरमुख जानिये, __ अथवा पूवर और सुसन्मुख मानिये। मौन गहै मुख ढाक प्रफुल्लित गात है, पूजत श्री जिनदेव सु मन हरषात है // 14 // अथ पूजा आरम्भ वर्णन (कुसुमलता छंद) वेदी ऊपर कनक रकाबी तामैं करो थापना सार। सुवरण थार धरो ता आगे ता बिच रचो सांथियाकार॥ ताके ऊपर श्री पूजा विधि द्रव्य चढावों अष्टप्रकार। सकल सभाके नरनारी मिल मुखसों बोलो जै जैकार॥१५॥ दोहा-या विधिसों पूजा करें, मन वच तन धर ध्यान। सुरगनके पद भोगिकै, पावै पद निर्वान॥१६॥ इति श्री अकृत्रिम जिनमंदिर पूजनपाठकी पीठिका सम्पूर्णम्। Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान SSSSSSSSSSSSSFarsrarSrNNE अथ तेरहद्वीप संबंधी चारसौ अट्ठावन जिन मंदिरजीकी पूजन प्रथम श्री सिद्धपरमेष्ठीकी पूजन अथ स्थापना (छप्पय छन्द) स्वयं सिद्ध जिनभवन रतनमई बिंब बिराजै। नमत सुरासुर इन्द्र दरश लख रवि शशि लाजै॥ चारशतक पंचासआठ भुविलोक बताए। जिन पद पूजन हेत भाव घर मंगल गाए॥ मंगलमई मंगलकरण शिवपददायक जानके। आह्वानन करके जजू सिद्ध सकल उर आनकै // 1 // ॐ ह्रीं अनंतगुणबिराजमान श्रीसिद्धपरमेष्ठिन् अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरण स्थापनं। अथाष्टकं - चाल। उज्जल जल शीतल लाय, जिनगुण गावत हैं। सब सिद्धनको सु चढाय, पुन्य बढावत हैं। सम्यक् सुक्षायक जान, यह गुण पावत हैं। पूजों श्री सिद्ध महान, बल बल जीवत हैं॥२॥ ॐ ह्रीं सिद्धपरमेष्ठिभ्यो। श्री सुमत्तः ॥१॥णाणः // 2 // दंसणः // 3 // वीर्य // 4 // सुहमत्तहेवः // 5 // अवगाहनः // 6 // अगुरुलघुः // 7 // अव्वाबाधा // 8 // अष्टगुणयुक्तिसिद्धेभ्यो जलं। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [17 चाल छन्द करपूर सुकेसर सार, चन्दन सुखकारी, पूजो श्री गुण निहार, आनंद मन धारी, सब लोकालोक प्रकाश, केवलज्ञान जगो। यह ज्ञान सुगुण मनभाष, निज रस मांहि पगो।ॐ ह्री. चंदनं // मुक्ताफलकी उनमान, अक्षत धोय धरे, अक्षयपद पावत जान, पुन्य भंडार भरे, जगमें सु पदारथ सार, ते सब दरसावै। सो सम्यक्दर्शन धार, यह गुण मन भावै।ॐ ह्रीं. अक्षतं॥ सुन्दर सुगुलाब अनूप, फूल अनेक कहे, श्रीसिद्ध सुपूजत भूप, बहुविधि पुन्यलहे, तहां वीर्य अनंतो सार, यह गुण मन आनो। संसार-समुद्रते पार,कारक, प्रभु जानो।ॐ ह्रीं. पुष्पं // फेनी गोझा पकवान, मोदक सरस बने, पूजो श्री सिद्ध महान, भूखबिथा जु हने, झलकै सब एकहि बार ज्ञेय कहैं जितने। यह सूक्षमता गुण सार, सिद्धनके तितने।ॐ ह्रीं. नैवेद्यं // दीपककी जोत जगाय,सिद्धनको पूजो,करआरति सन्मुख जाय, निमभयपद हुजो, कछु घाट न बाट प्रमाण गुरुलघु गुण राखो। हम सीस नवावत आन, तुम गुण मुख भाखो।ॐ ह्री. दीपं // चरधूपसुदसविधलाय,दशदिशगंध धरै,वसुकर्मलजावत जाय, मानो नृत्य करै, इक सिद्धमें सिद्ध अनन्त सत्ता सब पावै। यह अवगाहन गुण सन्त सिद्धनकै गावै।ॐ ह्रीं. धूपं // Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធនធានធនធានធនធានជលផល ले फल उत्कृष्ट महान्,सिद्धनको पूजो,लहि मोक्षपरमसुख थान, प्रभुसम तुम हुजो, यह गुण बाधाकर हीन, बाधा नाश मई। सुख अव्याबाध सु चीन, शिवसुन्दर सुलई।ॐ ह्रीं. फलं॥ जल फल भर कंचन भर कंचन थाल, अरचत कर जोरी। तुम सुनयो दीन दयाल बिनती है मौरी, कर्मादिक दुष्ट महान, ईनको दूर करो, तुम सिद्ध महा सुखदान, भव भव दुःख हरो॥ॐ ह्रीं. ॥अर्धं // 10 // अथ जयमाला-दोहा। नमो सिद्ध परमात्मा, अद्भुत परम विशाल। तिन गुण अगम अपार है, सरस रची जयमाल॥११॥ पद्धडी छन्द जै जै श्री सिद्धनको प्रणाम, जै शिव सुखसागर केसु धाम। जै बल२ घात सुरेश जान, जै पूजत तन मन हरष आन॥ जै छायक गुण सम्यक्त लीन, जै केवल ज्ञान सुगुण नवीन। जै लोकालोक प्रकाशवान, यह केवल अतिशय हिये आन॥ जै सर्व तत्व दरशै महान, सो दर्शन गुण तीजो सु जान। जै वीर्य अनंतो है अपार, जाकी पटतर दूजो न सार॥ जै सूक्षमता गुण हिय धार सब ज्ञेय लखो एक ही बार। इक सिद्धमें सिद्ध अनंत जान अपनीर सत्ता प्रमान / Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [19 अवगाहनगुण अतिशय विशाल,तिनके पद वंदों नमन भाल। कछु घाट न बाट कहे प्रमान, सो गुरु लघुगुरु धारै महान॥ जै बाधा रहित विराजमान, सो अव्याबाघ कहो बखान। ये वसु गुण हैं व्योहार संत निश्चय जिनवर भाषे अनंत // सब सिद्धनके गुण कहे गाय,इन गुणकर शोभित हैं बनाय। तिनकोभविजन मनवचनकाय,पूजत वसुविधअति हरषलाय॥ सुरपति फनपति चक्री महान, वलहर प्रतिहर मनमथ सुजान। गणपतिमुनिपतिमिलधरतध्यान,जैसिद्धशिरोमणिजगप्रधान॥ घत्ता-सोरठा ऐसे सिद्ध महान, तिन गुण महिमा अगम है। वरणन कहो वखान, तुच्छ बुद्धि भवि लाल जू॥२०॥ दोहा-करतारकी यह विनती, सुनो सिद्ध भगवान। मोह बुलावो आप ढिंग यही अरज उर आन॥२१॥ इति श्री सिद्धपरमेष्ठी पूजा संपूर्ण। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान अथ सुदर्शन मेरु पूजा अथ स्थापना - पद्धडी छन्द प्रथम सुदर्शन मेरु सुजानो, भद्रशाल वन प्रथम प्रधाना। नंदनवन सोमनस वखानो, चौथो पांडुकवन मन माना॥१॥ चैत्यालै सोलह सुः कारी, चारों वन चहुँदिश मन हारी। सुरनर खग मिलपूजन आवे,सो शोभा हम किही मुखगावै॥ आह्वाननको तिनकोहमकीनो, मनवचतन निजभावनवीनो। तिष्ठ२ संवौषट कहिये, जिनपद पूज अभयपद लहिये। ॐ ह्रीं श्रीसुदर्शन मेरुके चार बन चारों दिश षोडश जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अब मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं। अथाष्टकं-मद अवलिप्त कपोल छन्द पद्म द्रहको नीरसु लेकर रतन कटोरी मांहि धरो, श्रीजिन चरण चढावत भविजन जन्म जरा दुख दूर करो। चैत्याले सोलह सुखकारी मेरु सुदर्शन तने सुजान, तिनको पूजत सुरनरखग मिल,परम भगत उर अंतरआन॥४॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी॥पूर्व // 1 // दक्षिण॥२॥ पश्चिम॥३॥ उत्तर॥४॥ नंदनवन संबंधी पूर्व // 5 // दक्षिण // 6 // पश्चिम // 7 // उत्तर // 8 // सोमनस वन संबंधी पूर्व // 9 // दक्षिण // 10 // पश्चिम // 11 // उत्तर // 12 // पांडुकवन सम्बन्धी पूर्व // 13 // दक्षिण // 14 // पश्चिम // 15 // उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 16 // जलं॥ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [21 WIKINIraniaNPNEWwrsaree चंदन अगर कपूर मिलाकर, मलयागिर घसिये मन लाय। भव आताप निवारन कारण, श्रीजिन सम्मुख देत चढाय॥ चैत्याले. ॥५॥ॐ ह्रीं. ॥चन्दनं॥ देवजीर सुखदाससु अक्षत, मुक्ताफल सम उज्जल सार। श्रीजिन चरण कमलतल सन्मुख,पुंज देत अतिहरख अपार॥ चैत्याले. // 6 // ॐ ह्रीं. ॥अक्षतं॥ कमल केतुकी फूल मनोहर, अरु गुलाब सुन्दर महकाय। करुना आदि फूल बहु तरुके, पारजात मन्दार सुलाय॥ चैत्याले. // 7 // ॐ ह्रीं. ॥पुष्पं॥ फेनी घेवर मोदक ताजे, खाजे गोझा धरो बनाय। श्रीजिन सन्मुख रतन थाल भर, जजत जिनेश्वर मन हरषाय॥ चैत्याले. // 8 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // जगमग जोत होत दीपककी, ऐसे रत्न अमोलिक सार। कंचन थार संवार दीपद्युति, जिनचरणन पर लेले वार॥ चैत्याले. ॥९॥ॐ ह्रीं. ॥दीपं॥ कृष्नागर वर धूप सुगंधित, दस विधि वरणी परम विशाल। श्रीजिन सन्मुख अग्निदाह कर, छिनमैं करम जलैं तत्काल॥ चैत्याले. ॥१०॥ॐ ह्रीं. ॥धूपं // श्रीफल लौंग सुपारी भारी, पिस्ता नये सु लीजे सार। श्रीजिन चरणचढावत भविजन,पावत मोक्षसुफल सुखकार॥ चैत्याले. ॥११॥ॐ ह्रीं. // फलं॥ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ===== ==== ======== जल फल आठ दरव ले उत्तम, पूजत भविजन मन हरषाय। अर्घ देत भवि लाल मनोहर, श्री जिनवर पद सीस नवाय॥ चैत्याले. // 12 // ॐ ह्रीं. ॥अर्घ। अथ प्रत्येकाघ-दोहा मेरु सुदर्शन पूर्व दिश, भद्रशाल वन जान। तहां जिन भवन सुहावने, अर्घ जजो धर ध्यान॥१३॥ ___ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी पूर्वदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शनते गिनो दक्षिण दिश सुखदाय। भद्रशालवनके विषै जिन पूजो हरषाय॥१४॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी दक्षिणदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शनते सुले, पश्चिम दिशा अनूप। भद्रशाल वन जिन भवन पूजत सुरगण भूप॥१५॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी पश्चिमदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शनसे गिनो, उत्तरदिश सुखकार। भद्रशालवन जिन भवन, अर्घ जजो भर थार॥१६॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ मद अवलिप्त कपोल छन्द मेरु सुदर्शन पूरवदिशमें, नंदनवन शोभै सुविशाल। तहं जिन भवन अनूपमसो है, सुरपति नरपति नमत त्रिकाल॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [23 188888888881 अष्टद्रव्यसों पूजाकर कर, नाचत थेइ थेइ पग अवधार। जे नर ध्यावत पुन्य बढावत,पावत शिव-संपत सुखकार॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके नन्दनवन सम्बन्धी पूरवदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शन दक्षिणदिशमें नन्दनवन सो है सु विचार। तहां जिनभवन अकीर्तमसुन्दर, सुरगण मोहितरूप निहार॥ केई गावत केइ ताल बजावत,नाचत उर धर हरष अपार। अरघ चढावत पुन्य बढ़ावत, शब्द उचारत जय जयकार॥ ____ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके नन्दनवन सम्बन्धी दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शन पश्चिम दिशमैं नंदनवन मन मोहै सार। जहां जिनबिंब विराजै अद्भुत, जैसे जिनमंदिर सुखकार। तिनको ध्यान देखकर मुनिगण,निज स्वरूपअपनोसुनिहार। करम कलंक पंक नित धोवत,भविजन तिनको अर्घ उतार॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके नन्दनवन सम्बन्धी पश्चिमदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शन उत्तर दिश गिन, नंदनवनमें मंदिर जान। जहां जिनबिंब अनूपम सोहै, इन्द्रादिक पूजत हैं आन॥ सुर सुरांगना अरविद्याधर, सब मिल जिनगुण गावत सार। यह कौतुक बन रहो सुनिशदिन,पूजत जे पावत भवपार॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके नन्दनवन सम्बन्धी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 188488888888888888 सोरठा मेरु सुदर्शन सार ताकी पूरव दिश विषै। वन सोमनस निहार, जिनगृह पूजों अरघसो॥२१॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके सोमनस वन सम्बन्धी पूरवदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ॥ दक्षिण दिशा सुजान, मेरुसुदर्शनकी गिनो। वन सोमनस प्रमान, श्री जिनमंदिर पूजिये॥२२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके सोमनस वन सम्बन्धी दक्षिणदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ पश्चिम दिश सुखकार, मेरुसुदर्शनकी सही। जजो सुजिन अगार, वन सोमनस विषै सदा॥२३॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके सोमनस वन सम्बन्धी पश्चिमदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ॥ उत्तरदिशा जु सार, मेरुसुदर्शन ते कही। जिनपद जजों निहार, मंदिर वन सोमनस मैं॥२४॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके सोमनस वन सम्बन्धी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ॥ चाल छन्द पांडुकवन शोभ सार, महिमा को वरनैं, गिरमेरु सु पूर द्वार, पाप तिमिर हरने। तामैं जिनमंदिर सार, शोभित सुखकारी, मन वच तन अरघ संवार, जिनपद तल धारी॥२५॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पांडुक वन सम्बन्धी पूरवदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [25 2222222222 दक्षिण दिश सरस अनूप, मेरु सुदर्शनते, ___ अति हर्षित सुर खग भूप, श्री जिन पर्शनते। पांडुकवनमें जिन भौन, शोभा को वरने, इन्द्रादिक पूजन तौन, पाप तिमिर हरने // 26 // ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पांडुक वन सम्बन्धी दक्षिणदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ॥ पश्चिमदिश मेरु विशाल पांडुकवन सोहै, जिनमंदिर बनो विशाल, सुरनर मन मोहे। तहां ध्यावत सुर खग जाय, अर्घ लिए करमें, ___ हम जिनपद शीस निवाय, पूजत निज घरमेंसारखा __ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पांडुक वन सम्बन्धी पश्चिमदिर्श सिद्धकूट, जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ॥ है सुमेरु उत्तर भाग, पांडुकवन प्यारो, तामैं जिन भवन सुहाग, सुन्दर मन धारो। तहां सुरनर गावत, गीत तन मन हरष धरै, वसु अरघ चढावत प्रीत, पुन्य भण्डार भरै॥२८॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पांडुक वन सम्बन्धी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा मेरु सुदर्शन जिन भवन, सोलह वरने गाय। तिनकी भवि जय माल सुन, परम हरष उर लाय॥ पद्धडी छन्द जै मेरु सुदर्शन है अनूप, जानो सब गिरिवरको सु भूप। ताको कछु वर्णन करूं गाय, वन भद्रशाल भूपर सुहाय॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान नन्दनवन दूजो सघन रूप, तीजो सोमनस बनो अनूप। चौथोवन पांडुक है विशाल जहां सुरखग मुनिवंदत त्रिकाल॥ जिनराज जन्म अवसर सुपाय, तब इन्द्र महोत्सव करै आय। इस विधि वन चार कहें खन्य,दिस चार सरव सोलहसुधन्य॥ तहां इकर जिनमंदिर सुजान,सत आठ अधिक प्रतिमा प्रमान। उपमा सब समवसरण निहार,सुरपति सिर नावत वार वार॥ जै सिंहासन अद्भुत विशाल, तापर सुकमल सोहै विशाल। ता ऊपर श्री जिन शोभमान, जै तीन छत्रसिर घरें जान॥ जै अमर सुढारत चरम सार, जे तन द्युति छाय रही अपार। तहां देवी देव करें सु गान, जहां नाचत सुर अरु सुरी आन॥ जै साज समाज बनो अनूप, इन्द्रादिक निरखें जिन स्वरूप। शशि सूर्य कोट द्युतउदय जान,ऐसी छबि जिनतनकी प्रमान॥ पूजा कर इन्द्र गये सु थान, जिन भक्ति हिये धारै सुजान। जै स्वयं सिद्ध रचना अपार,कविको पावे गुण अगम सार॥ घत्ता-दोहा मेरु सुदर्शनकी भई, पूजा सरस विशाल। जे भवि पढ़े उत्साहसों, सुख पावैं सोहाल॥३८॥ सोरठा-धरै कंठ यह हार, बहुगुण रचत सुहावनो। ते होवें भव पार, मन वच तन भवि जो पढ़ें // 39 // इति जयमाला। अथाशिर्वाद (कुसुमलता छन्द) मध्यलोक जिन भवन अर्कीतम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [27 ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वाद। इति सुदर्शनमेरु पूजा सम्पूर्ण। अथ सुदर्शनमेरुके चार विदिशामध्ये चार गजदन्तपर सिद्धकूट चार जिनमंदिर पूजा नं. 3 अथ स्थापना (मद अवलिप्तकपोल छन्द) जम्बूद्वीप महान् सर्वदीपनमें जानो। ताके मध्य सुजान सुदर्शन मेरु बखानो॥ जाकी विदिशा मांहि चार गजदंत बताए। तापर श्री जिन भवन सुपूजत मन हर्षाए॥१॥ दोहा-तिनकी आह्वानन सुविधि, करों भविक मन लाय। तिष्ठ तिष्ठ थापन सहित, वसुविधि पूज रचाय॥२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके चारो विदिशामध्ये चार गजदन्त तिनपर चार जिनमंदिर सिद्धकूट बिराजमानेभ्यो अत्रावतर२ संवोषट् आह्वाननं. अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट सन्निधिकरणम्, स्थापनम्। अथाष्टकं (चाल कार्तिकीकी) प्राणी उजल जलसु मंगायकै, धर रतन कटोरी मांहि। प्राणी श्रीजिन चरण चढ़ाईये, सब जन्मजरा दुख जाय। प्राणी श्रीजिनवर पद पूजिये, प्राणी मेरु सुदर्शनके कहे। Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान = = ======= ======= गजदंत सु चारों जान, प्राणी चारों विदिशामें सही। तिनपर जिन भवन वखान, प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये॥३॥ ____ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुकी अग्निदिशामांही सोमनस // 1 // नैऋत्यदिशा विद्युत्प्रभ // 2 // वायव्यदिश मालवान // 3 // ईशानदिशा गंधमादन नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ जलं॥ प्राणी मलयागिर अति सीयरो, करपूर सु केसर लाय। प्राणी भव आताप निवारनै, ले श्रीजिनचरण चढ़ाय॥ प्राणी श्रीजिन. // प्राणी मेरुसु. // 4 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ प्राणी देव जीर सुखदासके, ले अक्षत सरस अनूप। प्राणी श्री जिनचरण चढाइये, हो शिवरमणी वर भूप॥ __प्राणी श्रीजिन. // प्राणी मेरुसु. // 5 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ प्राणी बेल चमेली केवड़ो, मिल फूल अनेक प्रकार। प्राणी श्री जिनचरण चढाइये, मिटजा उर काम विकार॥ प्राणी श्रीजिन. // प्राणी मेरुसु. // 6 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // प्राणी बिंजन नाना भांतिके, सुन्दर नैनेन सुखदाय। प्राणी श्री जिनचरण चढाइये, तब क्षुधारोग सुविलाय॥ ___प्राणी श्रीजिन. // प्राणी मेरुसु. // 7 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ प्राणी दीप अमोलक लीजिये, रतननकी जोति जगाय। प्राणी श्रीजिनचरण चढाइये,सब मोहि तिमिर नश जाय॥ ___प्राणी श्रीजिन. // प्राणी मेरुसु. // 8 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ प्राणी कुश्नागर कपूर ले, बहु भांति सुगन्ध मिलाय। प्राणी श्री जिनचरण चढाइये, दे कर्म समूह जलाय॥ प्राणी श्रीजिन. // प्राणी मेरुसु. // 9 // ॐ ह्रीं. // धूपं // Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [29 = = = = = = = = == = = = = = पाणी लौंग सुपारी लायची, ले पिस्ता दाख मिलाय। गणी श्री जिनवर चढाइये, शिव थान लहै सो जाय॥ प्राणी श्रीजिन. // प्राणी मेरुसु. // 10 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ प्राणी जल फल अरघ बनायके,वसु द्रव्य मिलावो लाय। प्राणी श्री जिन सनमुख जायके,गावत जिन-गुन हरषाय॥ प्राणी श्रीजिन. // प्राणी मेरुसु. // 11 // ॐ ह्री. ॥अर्घ॥ अथ प्रत्यकार्घ (मदअवलिप्तकपोल छन्द) मेरु सुदर्शन तनी दिशा अगनेय सुजानो। ता गजदन्त सुनाम जान सोमनस प्रमानो॥ ता पर जिनवर भवन महासुन्दर सुखकारी। सुरनर पूजत पाय लाल तिनपर बलिहारी॥१२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुकी अग्नि दिशा सोमनस नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिन-मंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // मेरु सुदर्शन तनी दिशा नैऋत्य सु लीजे। विद्युतप्रभ गजदंत नाम ताको जानीजे॥ तापर जिनवरधाम लसै अद्भुत तुम जानो। सुरनर पूजत आय हरष उर अन्तर जानो॥१३॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुकी नैऋत्य दिशा विद्युत्प्रभ नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिन-मंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // मेरु सुदर्शन तनी दिशा वाइव तहां लहिये। मालवान गजदन्त नाम सुन्दर तहां कहिये॥ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ASSASSANSKSSSSSSSSSSSSKIN तहां जिनमंदिर बनोबिंब जिनराज विराजै। पूजत भव्य सुपाय परम आनंद उर छाजै॥१४॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुकी वाइव दिशा मालवान नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिन-मंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शन तनी दिशा ईशान जु सोहै। धरै सुगंध अपार गन्धमादन मन मोहै। है जगदन्त सुनाम तास पर मंदिर जानो। पूजत श्री जिनबिम्ब परम आनन्द उर आनो॥१५॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुकी इशान दिशा गंधमादन नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिन-मंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ अथ जयमाला प्रारम्भ-दोहा गजदंतन पर जिन भवन, बने सु परम विशाल। सुर खग मिल पूजत सदा, अब सुनिये जयमाल // 16 // पद्धडी छन्द जै मेरु सुदर्शन स्वयं सिद्ध, ताकि चारों विदिशा प्रसिद्ध। तहां हस्ती दंत रचे बनाय, गिर निषध नीलसो लगे जाय॥ तिनपर जिन मंदिर कहे जान, है रतनमई भाषौं पुरान। तहां वेदी मध्य रची सुजान, सोहै कटनी तिनों महान॥ जै सिंहासन द्युति है रिशाल, तापर सु कमल शोभे विशाल। जहां श्रीजिनबिंब विराजमान,सतआठअधिक प्रतिमा प्रमान॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [31 जै इन्द्र सु ढारत चमर आय, जै भामंडल द्युति रही छाय। जै तीन क्षत्र सोहैं अनूप, यह अतिशय श्री जिनराज भूप॥ जै सुरपति अर सुर सूरी आन, जिनराज सुपूजत हरष ठान। बहु पुन्य बढ़ावत करत गान,बाजत सब साज समाज जान॥ जै द्रुम द्रुम द्रुम बाजत मृदंग, इन्द्रानी इन्द्र नचैं जु संग। जै छम छम छम धुंघरू बजंत, जिनराज सुगुण गावैं अनंत॥ ताथेइ थेइ थेइ धुन रही पुर, बन रहो झुरमुठ जिन हजूर। हैं जन्म सुफल तिनके सुसार, देखत जु सबै नैनन निहार // घत्ता-दोहा यह गजदन्तनकी बनी, पूजा सरस विशाल। भविजन कंठ सुहावनी, लाल रची जयमाल॥२४॥ इति आरती अथाशीर्वादः--कुसुमलता मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू सम्पति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भवजस परभव सुखदाई,सुरनर पदले शिवपुरजाय॥२५॥ इत्याशीर्वादः। इति श्री सुदर्शनमेरु सम्बन्धी चारों विदिशा मध्ये चार गजदंत पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान अथ सुदर्शनमेरुके उत्तर ईशान कौन जम्बूवृक्ष और दक्षिण नैऋत्य कौन सालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 4 दोहा-मेरु सुदर्शन ते गिनो, उत्तर कौन इशान। दक्षिण नैऋत कौन है, भूप वृक्ष परमान॥१॥ जम्बू सालमली कहें, तिनपर श्री जिनधाम। आह्वानन तिनको करो, मनवचतन सु प्रनाम॥२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके उत्तर ईशानकौन जम्बूवृक्षपर दक्षिण नैऋत्यकौन सालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणम् स्थापन। अथाष्टकं--सुन्दरी छंद जल सुपावन उज्जल लीजिये, धार श्रीजिन सन्मुख दीजिये। जम्बू सालमली मन भावने, जिनभवन तरु सीस सुहावनो॥ ____ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके उत्तर ईशान कौन जम्बूवृक्ष // 1 // दक्षिण नैऋत्य कौन सालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिन मंदिरेभ्यो॥२॥ जलं॥ दक्षिण नैऋत्य कौन सालमली वृक्षपर। अगरचंदन केसर गारकै, पूजिये जिन चरण निहारकै। जम्बूसाल. // 4 // ॐ ह्रीं. // चंदनं। सरस उज्जल अक्षत लाइये, पुज दे जिनचरण चढ़ाईये। ___ जम्बूसाल. // 5 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ लै सुफूल मनोहर पूजिये, जोडकर जिन सन्मुख हूजिये। जम्बूसाल. // 6 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं॥ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [33 घृत श्रेतांकर मिश्रित जानिये, परम सुन्दर नेवज आनिये। __जम्बूसाल. // 7 // ॐ ह्रीं. / नैवेद्यं // दीपजगजग जोति सुधारनै, मोह तिमिर विनाशन कारनै। जम्बूसाल. // 8 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ अगर चंदन धूप सुलायके, जिनसु सन्मुख खेवत जायके। ___ जम्बूसाल. // 9 // ॐ ह्रीं. ॥धूपं॥ लौंगआदि सुफल सबलाइये,फलसों पूजत शिवफल पाइये। जम्बूसाल. // 10 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फलादिक वसुविध जानिये,अरघ दे उर आनंद मानिये। जम्बूसाल. // 11 // ॐ ह्रीं. // अर्घ। अथ प्रत्येकार्घ - दोहा जंबूवृक्ष सुहावनो, पूरव शाखा जान। सिद्धकूट मंदिर जजों, अरघ लिये कर आन॥१२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके उत्तर दिश ईशान कौन सम्बन्धी जम्बूवृक्षकी पूर्व शाखापर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ अघु // शालमली द्रुम पूर्व दिशा शाखा, बनी विशाल। सिद्ध कूट जिनभवन नमि अर्घ जजों भर थाल॥१३॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके दक्षिण नैऋत्यकौन सम्बन्धी सालमली वृक्षकी पूर्वशाखापर संस्थित सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ अर्धं // अथ जयमाला दोहा-जम्बू सालमली तनी, पूजो भई विशाल। तिन जिन मंदिरकी कहूँ, अब सुनिये जयमाल॥१४॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ផលជលផលផ= == == ===== पद्धडी छन्द जै मेरुसुदर्शन ढिग सुजान, उत्तर अरू दक्षिण दिश बखान। जै शोभित दोऊ वृक्ष सार, जम्बू अरू सालमली निहार॥ तिनपर जिनभवन बनो विशाल,पूजत सूर विद्याधर त्रिकाल। वेदी पर कटनी दियै सार, वसु मंगल द्रव्य धरे विचार॥ सिंहासन अद्भुत शोभमान, तापर सु कमल राजै महान। तापर जिनबिंब बिराजमान शजि सूरक्रांति छबिछीण जान॥ धारे सिर छत्रसु तीन सार, त्रिभुवनके ईश्वर है निहार। जै चमर दुरै चौसठसु सार, सब देव करै जै जै पुकार॥ भामंडलकी छबि रहि छाय, भवि सात भवांतर लखै आय। जहँ रत्न अमोलक जगमगाय, खेवर खेचरनी नचैं आय॥ जिनराज रूप नैनन निहार, विंतर गुणगान करै अपार। तहं द्रुम द्रुम द्रुम बाजत मृदंग, इन्द्रानि इन्द्र नचैं जु संग॥ बहु पुन्य उपावत देव आय, निज जन्म सुफल अपनो कराय। जिनराज सगुण महिमा अपार,भविलाल कहतपावैन पार॥ घत्ता दोहा-जिनगुण महिमा अगम है, को पावै तसु पार। भूप वृक्षपर जिन भवन, मन वच तन उर धार॥ सोरठा-जिनगुण गूंथ सवार, विविधवरण माला रची। ते उतरें भवपार, निज गुणमाल संवार ही॥२३॥ इति जयमाला Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [35 ParaSNNNNNNNNNNNNNNNN अथाशीर्वादः -- कुसुमलता मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू सम्पति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह सब जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति सुदर्शनमेरु सम्बन्धी जम्बूसालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ सुदर्शनमेरुके पूर्वविवेह सम्बन्धी वक्षार गिरपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 5 अथ स्थापना - (मद अवलिप्तकपोल छन्द) मेरु सुदर्शन पूरव दिश वक्षार कूटवर, कहे आठ जिनभवन तासपर सरस सु सुन्दर। तिनको सुर खग जजै हरष धर जिन गुण गावत, हम पूजत इह ठाम, थाप निज भाव बढ़ावत॥१॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्। स्थापनम्। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ~~~~~ ~~~~~~~~~~~=== अथाष्टकं-सुन्दरी छन्द सुर नदी जल शीतल लायके जिन सू पूजत मन हर्षायके। गिर वक्षारतने जिनधामजू, पूरव दिश पूजो अभिराम जू॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी पश्चात् // 1 // चित्रकूट // 2 // पद्मकूट // 3 // नलीन // 4 // त्रिकूट // 5 // प्राच्य // 6 // वैश्रवण // 7 // अंजन न वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिन मंदिरेभ्यो जलम्। अगर केशर चंदन गारकै, जिन सुपूजत चरण निहारकै। गिर वक्षार. // 3 // ॐ ह्रीं. // चन्दनम्। सरस अक्षत सुन्दर धोयके, देत पुंज सुगन्ध समोयकै। गिर वक्षार. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतम्॥ लेत फूल अनेक सुहावने, कल्पवृक्ष तने मन भावने। गिर वक्षार. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पम्॥ तुरत वह पकवान बनायक, जिन सु पूजत प्रीति लगायकै। गिर वक्षार. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यम्॥ दीप जगमग जोति जगायकै,कनक थाल विषै धर लायकै। गिर वक्षार. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपम्॥ धूप दशविध खेवत लायके,जिन सु पूजत मनवच कायकै। गिर वक्षार. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपम्॥ फल मनोहर नैन सुहावने, जिन चढाय परमपद पावने। गिर वक्षार. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलम्। द्रव्य वसुविधि सुन्दर लायके, अरघ देत गुलाल बनायके। गिर वक्षार. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घम्॥ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [37 श्री तेरहद्वीप पूजा विधान vnununununununnnnnnnnnnnn अथ प्रत्येकार्घ (सोरठा) प्रथम कूट पश्चात्, नाम सरस मन मोहनो। देखत मन हर्षाय, जिनमंदिर तापर जजो॥१०॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी पश्चात् नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // चित्रकूट अभिराम, नाम कहो मन लायके। तापर जिनवर धाम, पूजत मन हर्षायके // 11 // ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी चित्रकूट नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // पद्मकूट सुखकार, तापर जिनमंदिर बनो। मैं पूजू हित धार, श्री जिनवर प्रति निरखके॥१२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी पद्मकूट नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ नलिनकूट सुविशाल, जिन मंदिर कर सोहनो। मैं पूजूं त्रैकाल, जगजीवन मन मोहनो॥१३॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी नलिन नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // है त्रिकूट जो नाम, महिमा ताकी को कहें। परम महा अभिराम, जिनमंदिर पूजो सदा॥१४॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी त्रिकूट नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ // प्राच्य कूट है नाम, रतनमई जगमग लसै। तापर जिनवर धाम, मैं पूजू वसु द्रव्य ले॥१५॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी प्राच्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 38] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान कूठ वैश्रवण नाम, महा मनोहर मन हरै। जिनमंदिर अभिराम, पूजो मनवचकायसों॥१६॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी वैश्रवण नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ अंजनगिर वक्षार, तापर मंदिर जानिये। महिमा अगम अपार, आठ दरव ले पूजिये॥१७॥ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी अंजना नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // अथ जयमाला-दोहा मेरु सुदर्शन पूर्व दिशि, गिर वक्षार विशाल। तिनपर जिनमंदिर बने, सुन तिनकी जयमाल॥१८॥ पद्धडी छन्द जै मेरू सुदर्शनकी सुजान, पूरव दिश क्षेत्र विदेहमान। तहं तीर्थंकर राजें मुनीश, तिनको हम नावत हैं सु शीश॥ श्रीमंदर जुगमंदर सु देव, सुरनर मिल तिनकी करत सेव। जै जिनवाणी ध्वनिखिरै सार,भवि जीव सु नैं आनंद धार॥ केईदिक्षा धारकियो कर्मनाश,पावै शिवपुर अविचल अवाश। केई बारह व्रत धर देव होय केई श्रावकके व्रत धेरै सोय॥ तहां काल चतुर्थ विराजमान, सब कर्मभूमि रचि रही जान। तहां गिर वक्षार बने सु आठ, तापर जिनमंदिर कहे पाठ॥ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [39 ANINrNarrarerNNNNNrNareranaa जिन बिम्ब विराजत छबि अनूप, सुरनर विद्याधर नमें भूप। केई गावैं जिनगुण हरष धार,जिनराज छवि देखें निहार॥ केई पूर्णं सुविध द्रव्य लाय,केई पाठ पढे अति मुदित काय। केई अरघ जसें कर धरै थार, केई जै जै शब्द करै उचार॥ जगमें जैवंते होहु देव, हम ध्यावत निश दिन करत सेव। फुनी करै विनती शीश नाय, तुम चरण सदा सेवै बनाय॥ __घत्ता-दोहा मेरु सुदर्शन पूर्व दिश, गिर वक्षार महान। तिनपर जिनमंदिर बने, स्वयं सिद्ध भगवान॥ आठ अधिक अरु एकशत, प्रतिमा, जिनगृहमांहि। पूजत अति भवि सुख लहैं, निह. शिवपुर जांहि // 26 // इति जयमाला अथाशीर्वाद (कुसुमलता छन्द) मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद लै शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः। इति श्री सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान Saritarasharirareranarrorrerarsha अथ सुदर्शनमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी वक्षार गिरपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 6 अथ स्थापना--अडिल्ल छन्द मेरु सुदर्शनते पश्चिम दिश जानिये, __ तहां आठ वक्षार सुगिरि परमानिये। तापर श्री जिनभवन बने सु विशाल जू, ___ आह्वानन विधि करों नाय निज भाल जू॥१॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं। __ अथाष्टकं-मद अवलिप्त कपोल छन्द क्षीरोदधिको उज्जल जल ले रतन कटोरीमें धर लाय, जनम जरा दुख दूर करनको, श्री जिनवरके पूजत पाय। मेरु सुदर्शन पश्चिम दिशमें, गिर वक्षार आठ सुविशाल। तिनपर श्री जिनभवन विराजित, भविजन पूजत है त्रैकाल॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी शब्दवान॥१॥ विजयवान // 2 // आसीविष // 3 // सुषावह // 4 // चन्द्र // 5 // सूर्य // 6 // नाग 7 // देवनाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ जलं॥ केसर अगर कपूर मिलाकर, मलयागिर चंदन सुखदाय। श्रीजिन चरण चढ़ावत भविजन, भव आताप दूर है जाय॥ मेरु सुदर्शन. // 3 // ॐ ह्रीं.॥ चन्दनं // Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [41 Sarareranaamanarararareersararararary मुक्ताफल सम उज्जल अक्षत, प्राशुक जल ले धोय बनाय, पुंज देत श्रीजिनवर आगे, अक्षय पद पा₹ भवि जाय॥ मेरु सुदर्शन. ॥४॥ॐ ह्रीं.॥अक्षतं॥ कमल केतुकी बेल चमेली, श्री गुलाब ले मंदिर आय। कामबाणके दूर करनको, श्रीजिन आगै देत चढ़ाय॥ मेरु सुदर्शन. // 5 // ॐ ह्रीं.॥पुष्पं // फेनी गोझा मोदक खाजे, ताजे तुरत सु लेहु बनाय। क्षुधा रोगके नाश करनको, श्री जिनवर पद पूजत जाय॥ मेरु सुदर्शन. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // मणिमई दीप अमोलिक लेकर, जगमग जोत होत तिहवार। मोह तिमिर नाशनके कारण, श्रीजिन पूजत हरष अपार // मेरु सुदर्शन. // 7 // ॐ ह्रीं.॥दीपं // अगर कपूर सुगन्ध सु दशविध, खेवत श्री जिनमंदिर जाय, करम आठ बलवान महा ठग, तिनै जलावत मन हरषाय॥ मेरु सुदर्शन. // 8 // ॐ ह्रीं.॥धूपं // लोंग सुपारी श्रीफल भारी, पिस्ता दाख छुहारे लाय। धर सन्मुख जिन पूजन फलसो शिवफल पावत कर्मनशाय॥ मेरु सुदर्शन. ॥९॥ॐ ह्रीं.॥फलं॥ जल चंदन अक्षत प्रसून मिल, चरू वर दीप धूप फल सार। भविजन गाय बजाय हरष धर, श्रीजिनवर पद अरघ उतार॥ मेरु सुदर्शन. // ॐ ह्रीं.॥अर्घ / रा Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 42] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 22222222222881 अथ प्रत्येकार्घ (सोरठा) मेरु सु पश्चिम आन, शब्दवान गिर नाम है। ताके ऊपर जान, श्रीजिन मंदिरको जजो॥११॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी शब्दवान नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ मेरु सु पश्चिम सार, विजयवान गिर नाम है। तापर भवन निहार, पूजत भवि मन लायके॥१२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी विजयवान नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ आसीविष है नाम, मेरु सु पश्चिम दिश विषै। ता गिरिपर जिन धाम, सुरनर पूजत भावसों॥१३॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आशीविष नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ मेरु सु पश्चिम जान, सैंल सुषावह नाम है। ता ऊपर जिन धाम, मन वच तन कर पूजिये॥१४॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुषावह नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ मेरु सु पश्चिम वौर, चंद्र नाम वक्षार है। है जिन मंदिर जोर, मैं पूजू मन लायके // 15 // ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी चंद्रनाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ // सूर्य नाम गिर सार, मेरु सु पश्चिमकी दिशा। श्री जिन भवन निहार, अर्घ जजों वसु द्रव्य ले॥१६॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सूर्यनाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // "जवा Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [43 ANNNNNNNNNNNNNNNNNNN नाग नामा गिर जान, मेरु सु पश्चिमदिश गिनो। जिन मंदिर उर आन, भविजन पूजो भावसों॥१७॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ देव नाम गिर सार, तापर जिनवर धाम है। करम होत सब छार; पूजत श्री जिनराजको॥१८॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी देव नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // अथ जयमाला (दोहा) मेरु सुदर्शन सोहनो, पश्चिम दिशा विदेह। गिर वक्षार कहे सु वसु, तापर श्री जिन गेह // 19 // तिन गुण गूंथी सरस विधु, वरनी परम विसाल। वसुविध जिनपद पूजिकै, अब वरनूं जयमाल॥२०॥ पद्धडी छन्द जै मेरु सुदर्शनकी सुजान, पश्चिम दिश क्षेत्र विदेह मान। जै तीर्थंकर राजै त्रिकाल, तिनको सुर नर खग नमैं भाल॥ जै बाहु सुबाहु विराजमान, जै मुनिगण तिनका धरत ध्यान। जै जिनवाणी धुन खिरे सार, श्री गणधर देव कहैं विचार॥ भवी जीव सुनैं आनंद धार, निज निज भाषा समझैं अपार। केई दुद्धर तप धारै महान, लहि केवल शिव पार्दै निदान॥ केई श्रावक व्रत धारै पुनित, लहि स्वर्ग सम्पदा अति सुरीत। केई पावै सम्यक् गुण अनंत, मिथ्यात पंथ नाशै तुरंत॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 44 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ======= ==== = == == यह अतिशय श्री जिनराज भूप, शत इन्द्र चरण सेवै अनूप। जहां चौथो काल रहै सदीव, तहां कर्मभूम जानो सुजीव॥ तहां गिर वक्षार बने सु आठ, तिनपर जिनमंदिरके सु ठाठ। जै सिद्धकूट जिन धाम सार, जै वेदीको वर्णन अपार॥ तहां सिंहासन शोभै विशाल, तापर सु कमल राजै विशाल। जै श्रीजिनबिंब विराजमान,सत आठअधिक बहुद्युति महान्॥ जै भामण्डल छबि रही छाय, जै तीन छत्र सिरपर सुहाय। जै चमर जु चौसठ ढुरत सार, जै मंगलद्रव्य धरे निहार॥ जै इन्द्रादिक पूजत सु पाय, जै नृत्य करैं जिनगुण सु गाय। जै प्रभु गुणमहिमा अगम सार,मुनिजन ताको पावै न पार॥ घत्ता-दोहा मेरुसु पश्चिम दिश तनी, पूजा बनी विशाल। मन वच तन लव लायके, लाल भनी जयमाल // 30 // सोरठा-यह जिन पूजा सार, जो नर करें उछाहसों। ते पावें भवपार, स्वर्ग सम्पदा भोगकैं॥३१॥ ___ इति जयमाला ____ अथाशीर्वाद-कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वर्णन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पदले शिवपुर जाय॥ इति श्री सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। इत्याशीर्वादः माला Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [45 श्री तेरहद्वीप पूजा विधान oranwroarinarararararararawwarerare अथ सुदर्शनमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी षोडश रुपाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 7 अथ स्थापना-मद अवलिप्तकपोल छन्द मेरु सुदर्शन पूरव दिशमें, कहे विदेह सु षोडश जान। तहां षोडश बैताड़ मनोहर, तिनपर श्रीजिन भवन बखान। सुर विद्याधर पूजन आवै, गावै गुण मन हरष सु आन। हम पूजत आह्वानन करके, अपने घरमें आनंद मान॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरवविदेह सम्बन्धी षोडश रूपाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिन मंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठर ठः ठः स्थापनं / अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणं / स्थापनं। अथाष्टकं-चाल छन्द क्षीरोदध उज्जल नीर, सुरगण लावत हैं। पूजे श्री जिनपद धीर, पुन्य बढावत है॥१॥ हे मेरु सुदर्शन नाम, पूरव दिश सो है। रूपाचल पर जिन धाम, षोडश मन मोहैं // 2 // ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी कक्षा // 1 // सुकक्षा // 2 // महाकक्षा // 3 // कक्षावती // 4 // अवर्ता॥५॥ मंगलावती // 6 // पुष्कला ॥७॥पुष्कलावती॥८॥वक्षा ॥९॥सुवक्षा॥१०॥महावक्षा॥११॥ वत्सकावती॥१२॥ रम्या॥१३॥ सुरम्या॥१४॥ रमणी॥१५॥ मंगलावतीदेश सस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥जलं॥ मलयागिर चन्दन लाय, केशर रंग भरी। पूजों श्री जिनवर पाय, आनन्दकी सु धरी॥ हे मेरु सु.॥३॥ ॐ ह्री. चंदनं / / Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान मुक्ताफलकी उनहार, अक्षत लीजत हैं। उज्जल जिनचरण निहार, पुंज सु दीजत हैं। हे मेरु सु.॥४॥ ॐ ह्रीं. अक्ष / / सुरतरुके फूल मंगाय, सुरगण लावत हैं। प्रभु पूजत मन हरषाय, जिनगुण गावत हैं। हे मेरु सु.॥५॥ ॐ ह्री. पुष्पं // फेनी गोझा सु बनाय, मोदक लै ताजे। पूजन श्री जिनवर पाय, बाजत हैं बाजे॥ हे मेरु सु.॥६॥ ॐ ह्रीं. नैवेद्यं // भवि दीप अमोलक लाय, जगमग जोत जगी। पूजत जिन चरण चढाय, तन मन प्रीत लगी॥ हे मेरु सु.॥७॥ ॐ ह्री. दीपं॥ कृष्नागर धूप मिलाय, दसविध खेवत है। सब कर्मन देत जलाय जिनपद सेवत हैं॥ हे मेरु सु.॥८॥ ॐ ह्रीं. धूपं॥ ले फल सुन्दर सुखदाय, नैननको प्यारे। पूजत जिनवरके पाय, हरष हिये धारे // ___हे मेरु सु.॥९॥ ॐ ह्री. फलं॥ जल फल वसु दर्व मिलाय, अरघ बनावत हैं। जिन चरणन देत चढ़ाय, पुन्य, उपावत हैं // हे मेरु सु.॥१०॥ ॐ ह्रीं. अर्घ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [ 47 NNANONareranararwariharaswara अथ प्रत्येकार्घ-सोरठा / कक्षा देश सु जान, मेरुके पूरव दिश गिनो। तहां रूपाचल आन, श्रीजिन भवन सुपूजिये // 11 // ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी कक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ देश सुकक्षा नाम, मेरु सु पूरव दिश कही। है सुन्दर जिन धाम, रूपाचल पर नित जजों॥१२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी सुकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // मेरु सु पूरव आन, देश महाकक्षा बनो। तहां जिनमंदिर जान, विजयारध गिरपर जजों॥१३॥ _____ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी महाकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 3 // अर्घ॥ कक्षकावती देश, मेरु सु पूरव दिश विषै। गिर विजयारध वेश, जिनमंदिर तिनपर जजों॥१४॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी कक्षावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ दोहा-मेरु सु पूरव दिश विषैः, रूपाचल अभिराम। देश नाम आवर्त है, पूजो जिनवर धाम // 15 // ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरवदेश सम्बन्धी आवर्ता देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ देश मंगलावती गिन, मेरु सु पूरव बौर। विजयारध पर जिनभवन, पूजो मन धर जोर // 16 // ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ~~~~~~~~~~ ~~~~~~~~~ मेरु सुदर्शन पूर्व दिश देश पुष्कला नाम। विजयारधके शिखरपर, पूजों श्री जिन धाम॥१७॥ __ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी पुष्कला नाम देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ सोरठा पुष्कलावती देश, मेरु पूर्व दिश जानिये। जिन मंदिर सु विशेष, विजयारध गिरपर जजों॥१८॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी पुष्कलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ॥ मेरु पूर्व दिश सार, वक्षा देश सुहावनो। तहां जिन भवन निहार रूपाचल पर पूजिये॥१९॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी वक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ॥ देश सुवक्ष महान, गिनो मेरु पूरव दिशा। जिन मंदिर धर ध्यान, गिर वैताड शिखर जजों॥२०॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी सुवक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ महावक्षा नाम देश पूर्व दिश मेरु तें। रूपाचल जिन धाम, आठ दरव पूजों सदा॥२१॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी महावक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ // मेरु सुदर्शन जान, ताकी पूरव दिश कहो। वत्सकावती आन, रूपाचल जिनगृह जजों॥२२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी वत्सकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ // Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [49 courururururururururururununununununun रम्य देश शुभ सार मेरुकी पूरव दिश विषै। रूपाचल निरधार, तिन जिनमंदिरको ज॥२३॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी रम्य देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ // देश सुरम्या सार, मेरुकी पूरव दिश कहो। जहां बैताड़ निहार, श्रीजिन मंदिरको जजों॥२४॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी सुरम्या देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ // रमणी देश सुजान, पूरवदिश गिन मेरुतै। तहां रुपाचल मान, जिन मंदिर नित पूजिये॥२५॥ __ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी रमणी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ॥ मेरु सु पूरव जान, मंगलावती देश है। विजयारध परमान, श्रीजिन भवन सु पूजिये॥२६॥ ___ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ // अथ जयमाला - दोहा मेरु सुदर्शन पूर्वदिश, षोडश देश विशाल। रुपाचल पर जिनभवन सुन तिनकी जयमाल॥२७॥ पद्धडी छन्द जै मेरु सुदर्शन है महान, सब गिरको भूप कहो वखान। तहां तीर्थंकरको न्हवन होय ताको वरणन वरने सु कोय। ता मेरु सु पूरव दिश विचार, जहां षोडश देश विदेह सार। तहां विजयारध सोलहसु जान, तिनपर जिनमंदिर शोभमान॥ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान NNNNNNNNNNNNNNNNNARSE जै तिन मंदिरमें देव आय, पूजै श्री जिनवर प्रीत लाय। जैजै तन निरखत जिन स्वरूप,जै जिनगुण गावत सुर अनूप॥ जै समवसरण रचना समान, वसु मंगल दर्व धरे सुजान। जै वेदीको वरणन विशाल, जै कटनी तीन बनी रिशाल॥ जै सिंहासन द्युति शोभमान, ता ऊपर कमल बनो महान। तहांश्रीजिनबिंबबिराजमान,शतआठअधिकबहुगुण निधान॥ तहां खेचर खेचरनी सु आय,बहु पाठ पढ़ें अति हरष लाय। जै नृत्य करें संगीत सार, विद्या बल रूप अनेक धार // जै जगमग जगमग जोत सार, जिनमंदिरकी शोभा अपार। जै हम पूजत यहां शीश नाय, वसु द्रव्य मनोहर ले बनाय॥ जै जै जै जग जयवंत देव, तुम चरणनकी हम करत सेव। भवि जीवनकी यह अरज जान,भवर तुम सेवा मिले आन॥ घत्ता-दोहा मेरु सुदर्शन पूर्व दिश, गिर बैताड विशाल। तिनपर जिनमंदिर कहें, तिनकी यह जयमाल॥३६॥ कुसुमलता छन्द जै जै जिनमंदिर नमत पुरंधर, जिनवर बिंब सु पूजी जै। जै मेरु सुदर्शन पूरव दिशमें, रूपाचल गिरि लोजी जै॥ षोडश मंदिर है ता ऊपर, दर्शन ताको कीजी जै। भवि जिवसु आवै,पुन्य बढ़ावै,निज अनुभवरस पीजी जै॥ इति आरती अथाशीर्वाद कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वर्णन को कर सकै बनाय॥ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [51 arwarehararSNNNNNNNNNNNNN ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पदले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री सुदर्शन मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी षोडश विजयारध पर सिद्धकूट जिनमंदिरपूजा सम्पूर्णम्। अथ सुदर्शनमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी षोडश रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं.८ अथ स्थापना (मद अवलिप्तकपोल छन्दा मेरु सुदर्शन पश्चिम दिशमें, कहे विदेह सु षोडश जान। तहां षोडश बैताड़ मनोहर, तिनपर श्रीजिन भवन वखान॥ सुर विद्याधर पूजन आ3, गावै गुण मन हरष सु आन। हम पूजत आह्वानन करके, अपने घरमें आनंद मान॥ ___ ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके पश्चिमविदेह सम्बन्धी षोडश विजयारध गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट सन्निधिकरणम् स्थापन। अथाष्टकं-मद अवलिप्त कपोल छन्द क्षीरोदधको उज्जल जल ले परम सुगंधित नैन निहार। श्रीजिनचरण प्रक्षालित भविजन,जन्म जन्म दुखको निरवार॥ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 52] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान =================== मेरु सुदर्शन पश्चिम दिशमें, हैं षोड़स बैताड महान। तिनपर श्री जिमंदिर सो हैं, तिनप्रति पूजों उर धर ध्यान॥ ____ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी पद्मा // 1 // सुपद्मा॥२॥ महापद्मा॥३॥ पद्मकावती॥४॥ सुसंखा // 5 // नलिना॥६॥ कुमदा // 7 // सरिता // 8 // वप्रा॥९॥ सुवप्रा // 10 // महावप्रा // 11 // वप्रकावती॥१२॥ गंधा // सुगंधा // 14 // गंधला॥१५॥ गंधमालनी देश संस्थित रूपाचल 59 सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ चंदन अरु मलयागिर घसकर, केशर अरु करपूर मिलाय। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, भव आताप मिटे दुखदाय॥ मेरु सुदर्शन.॥३॥ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ सुंदर अक्षत सरस मनोहर, मुक्ताफल सम उजल लाय। पुंज देत श्रीजिनवर आगै, शिवसम्पत सुख विलसै जाय॥ मेरु सुदर्शन.॥४॥ ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी श्री गुलाब अरू, बेला फूल अनेक प्रकार। लावत सुरगन कल्पवृक्षके, कामबान मेटन हितकार॥ मेरु सुदर्शन. // 5 // ॐ ह्री. // पुष्पं // घेबर बावर मोदक फेनी, नेवज नाना विध पकवान। श्री जिनचरण चढावत भविजन, क्षुधा रोग भागै भय मान॥ मेरु सुदर्शन.॥६॥ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जगमग जोत होत रतननकी, ऐसे दीपक ले हरषाय। करो आरती जिन चरणनकी, मोह तिमिर भाजै भय खाय॥ ___मेरु सुदर्शन.॥७॥ ॐ ह्री. // दीपं॥ खेवत धूप अगनमें धरकै, फैले गंध दसों दिश जाय। जारै कर्म बंध अनादिके, मेंटत श्री जिनवरके पाय॥ मेरु सुदर्शन.॥८॥ ॐ ह्रीं. ॥धूपं // Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [53 ====== === = ====== लौंग इलायची पिस्ता किसमिश, दाख बदाम छुहारे लाय। श्री जिनचरण चढ़ावत श्रीफल, पावत मुक्त श्रीफल जाय॥ मेरु सुदर्शन.॥९॥ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल चंदन अक्षत प्रसून ले, चरुवर दीप धूप फल सार। अरघ बनाय चढाय गाय गुण,नरभव सुफल करें तिहबार॥ मेरु सुदर्शन. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ / अथ प्रत्येकार्घ - सोरठा पद्म देश महान, तहां विजयारध गिर कहो। ता ऊपर जिन थान, मैं पूजू मन लायकें॥११॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी पद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ नाम सुपद्मा देश तहां विजयारध गीरी लसै। तापर जिन गृह वेश, मैं पूजू हरषायकै॥१२॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुपा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ महापद्मा शुभ देश तहां विजयारध सोहनो। तहां जिन भवन विशेष, भविजन पूजो भावसों॥१३॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी महापद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ पद्मकावती जान, देश महा सुन्दर बसै। रूपागिर जनथान, वसुविध पुजों भावसों॥१४॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी पद्मकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 88888888888888888889 देश सुसंखा सार जहां बैताड सुहावनो। तहां जिन भवन निहार, पूजों तन मन लायकै॥१५॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुसंखा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 5 // अर्घ॥ नलिन देश सुखकार, तहां विजयारध गिर बनो। तापर मंदिर सार, श्री जिनवर पद पूजिये॥१६॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी नलिन देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ कुमदा देश सुजान, है बैताड़ सुहावनो। तापर भवन प्रमान, श्री जिनवर पद पूजिये॥१७॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी कुमदा नाम देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ सरिता देश विशाल, तहां बैताड़ सु जानिये। ता ऊपर सुविशाल, श्री जिन मंदिर पूजिये॥१८॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सरिता देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्थ // वप्रा देश अनूप सो है विजयारध तहां। श्री जिनवर पद भूप, पूजत मन वच कायसे॥१९॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी वप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ॥ नाम सुवप्रा देश, तहां विजयारध गिर महा। पूजत हैं धरनेश, श्री जिनवर पद हरषसों॥२०॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुवप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ // Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [55 នននននននននននននន महा वप्रा है नाम, देश सरस शोभा धरै। जहां वैताड सु ठाम, तहां जिन भवन सु पूजिये॥२१॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी महावप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ॥ वप्रकावती सार देश जहां बैताड है। तहां जिन भवन निहार, मैं पूजू मन लायकै॥२२॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी वप्रकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ॥ है गंधाता नाम, देश सरस मन मोहनो। गिरि विजयारध ठाय तापर जिनमंदिर जजो॥२३॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी गंध देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ नाम सुगन्धा तास, गिरि वैताड तहां कहो। तहां जिनभवन प्रकाश मैं पूजू मन लायके॥२४॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुगंधा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ॥ देश गन्धला नाम, तहां वैताड़ सुहावनो। ता ऊपर जिन धाम, मैं पूजू हरषाय // 25 // ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी गंधला देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ॥ गन्धमालनी नाम, तहां विजयारध जानिए। तापर है जिनधाम, पुजत सुरनर हरषसों॥२६॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी गंधमालनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ផលនៅសេសសលផលនទេ ___ अथ जयमाला-दोहा छन्द मेरु सुदर्शनकी कही पश्चिम दिश उर आन। तहां षोडश बैताड पर, जिनवर भवन सु जान // 27 // तिनकी यह जयमाल है, बनी सु परम विशाल। जै जै जै जिनदेव तुम लाल नवावत भाल // 28 // पद्धडी छन्द जै मेरु सुदर्शनके सु जान, पश्चिम दिश क्षेत्र विदेह ठान। तहां षोडश देश विदेह मान, षोडश रूपा गिर हैं सु थान॥ तिनपर षोड़श जिनभवन सार,बन रहें सु अद्भुत हिये धार। जै रतनमई रचना उद्योत, जै जगमग जगमग जोति होत॥ जै तीन पीठ शोभे रिसाल, तिनपर सिंहासन है विशाल। जै कमल बनो तापर अनूप, जिनबिंब बिराजैं जिनस्वरूप॥ जै तीन छत्रकर शोभमान, त्रिभुवनके पति यातें प्रमान। जै सुरनर पूजत हर्ष धार, जिनराज सु छबि नैनन निहार॥ जै ढोरत चमर सु इन्द्र आय, इन्द्रानी नृत्य करें बनाय। जहां बाजत सब बाजे विशाल, गंधर्वदेव तहां देत ताल॥ जै झुकझुक निरखत जिनस्वरूप,जै जगजयवंती छवि अनूप। जै जिनवर गुण गावै विशाल,जै नयर नय नावत सु भाल॥ जै दुन्दुभि बाजनकी जु शोर,सुन श्रवन न. भविजीव मोर। तहां श्रीमुनिराज बिराजमान, जै अनुभवरस पीजै सुजान // जै श्रावक श्रावकनी सु आय, मुनिराज चरण से बनाय। धर्मोपदेश मुनि दे सार, भवि जीवन पर करुणा सुधार॥ Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [57 जहां खेचर खेचरनी सुआय, बहुभक्ति सहित उत्सव कराय। जै जै जै श्री जिनराज देव, सुरनर विद्याधर करत सेव॥ घत्ता-दोहा-पश्चिम दिशा सु मेरुकी, षोडश क्षेत्र विदेह। तहां षोडश बैताड़ गिर, तिनपर श्रीजिनगेह॥३८॥ जहां जिनबिंब अनादि हैं, अद्भूत परम विशाल। तिनपद शीश निवायकै, लाल रची जयमाल॥३९॥ इति जयमाला। अथाशीर्वाद - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताको पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढ़ अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री सुदर्शनमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी षोडश रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ सुदर्शनमेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र संबन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 9 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द मेरु सुदर्शन दक्षिण दिशमें, भरतक्षेत्र शोभे सु विशाल। बीस चार जिनवर तहां निवसै,सुरनर खग सेवै तिहुंकाल॥ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 58] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធនធានធនធានធនធាន तहां पढ़ो बैताड़ मनोहर तिनपर श्रीजिन भवन विशाल। आह्वानन विध तिनकी करकै, श्रीजिनचरण नवावत भाल॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणम्, स्थापनम्। अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द क्षीरोदधि का उज्जल जल ले, श्री जिनचरण पूजत जाय। जन्मजरा दुःख दूर करनेको शीश नबावत अभि सुख पाय॥ मेरु सुदर्शन दक्षिण दिशमें, भरतक्षेत्र सुन्दर अभिराम। जहां बताड मनोहर सोहैं, तहां जजो जिनवरके धाम॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ जलं॥ चंदन अरू कर्पूर मिलायके, केसर लावत रंग भरी। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, भव आताप सो दूर करी॥ मेरु सुदर्शन. // 3 // ॐ ह्रीं. // चन्दनं॥ मुक्ताफल सम अक्षत उजल, पुंज देत अति मन हरषाय। अक्षयपद पावत तहां भविजन,जिन चरणांबुज मस्तक नाय॥ मेरु सुदर्शन.॥४॥ ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कुसुम तरुके वेल चमेली, श्रीगुलाब महके सुखदाय। सुर नर विद्याधर सब ले ले, श्री जिनचरण चढावत लाय॥ ___मेरु सुदर्शन.॥५॥ ॐ ह्रीं. // पुष्पं // बावर घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत सु लेत बनाय। क्षुधा रोगके दूर करनको, जजत जिनेश्वर मंगल गाय॥ मेरु सुदर्शन.॥६॥ ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [59 जगमग जोत होत मंदिर, मणिमई दीप अमोलक लाय। मोह तिमिरके नाश करनको, भविजन पूजो श्री जिनराय॥ मेरु सुदर्शन.॥७॥ ॐ ह्रीं. // दीपं // कुश्नागर वर धूप दशांगी, खेवत जिनचरणन ढिग जाय। हाथ जोड प्रभु सन्मुख ठाढे, गावत जिनगुण मन हरषाय॥ मेरु सुदर्शन.॥८॥ॐ ह्री. ॥धूपं॥ श्रीफल लौंग सुपारी पिस्ता, ऐला दाख छुहारे लाय। भाव सहित श्रीजिनवर पूजों, शिवसुन्दरको व्याहों जाय॥ ___मेरु सुदर्शन.॥९॥ ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल आठों दरब सु लेके, अर्घ चढ़ावत श्री जिनराय। बल बल जात लाल चरणपर, पूजत भाव भक्त उर लाय॥ मेरु सुदर्शन.॥ ॐ ह्रीं. ॥अर्घ // अथ प्रत्येकार्घ-कुसुमलता छन्द मेरु सुदर्शनकी दक्षिण दिश, भरतक्षेत्र सोहें अभिराम। तहां पड़ो बैताड मनोहर, रूपावत रूपाचल नाम॥ ताके ऊपर सिद्धकूट है, तहां अकीर्तम जिनधाम। सुर विद्याधर पूजत वसुविध, हम पूजत ले अर्घ सु ठाम॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र संबन्धी रुपाचल सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // ___ अथ जयमाला-दोहा प्रथम मेरु दक्षिण दिशा, भरतक्षेत्र सुविशाल। रूपाचलपर जिन भवन, सुनो सु भवि जयमाल॥१२॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ផលជលផលផលនៅសលផលជលផល पद्धडी छन्द जै जै श्रीमेरु सु प्रथम जान है नाम सुदर्शन सुख निधान। जै षोडश तहां जिनभवन सार,बन रहें अकीर्तम हिये धार॥ जै तहां तीर्थंकर न्हवन होय, ताकी महिमा वरणे सु कोय। जै जाकी दक्षिण दिश बखान, तहां भरतक्षेत्र शोभे महान॥ जै जै तहां काल सहों सुरीत, वरने जिन आगम कही मीत। जै तीन कालमें भोंगभूम, जै कल्पवृक्ष तहां रहे झूम॥ जै चौथेमें जिनराज जन्म, जै चौवीसों भाषे सु पर्म। जै नारायण बलदेव जान, प्रतिहर, चक्री त्रेसठ महान॥ जै भरतक्षेत्र महिमा अपार, तहा कर्मभूम वरतै विचार। ता बीच पडो बैताड आन, तापर नौ फूट अनूप जान॥ वसु कूट सरस सुन्दर अवास, तहां बिंतर देव करें निवास। नौमो श्रीसिद्ध सुकूट जान, जहां श्रीजिनमंदिर शोभमान॥ ताकी उपमान वरनै सु कोय, सब रतनमई द्युति दिपै सोय। ऐसो जिनभवन बनो विशाल,तिनमैं जिनबिंब लसै विशाल॥ तन उचित पांचसै धनुष काय, पद्मासन छवि वरनी न जाय। शत आठ कहे जिनवर बखान,सुर विद्याधर पूजत सु आन॥ जै रचना समवशरन प्रमान, बन रहि अनादि तनी सुजान। जै सुर नर पूजा करें आय, जै वसुविध द्रव्य सु ले बनाय॥ जै नृत्य करत बाजे बजाय, जै भावभक्ति उरमें सु लाय। जिनराज चरणको सीस नाय, निजर थानक पहुँचे सुजाय॥ घत्ता-दोहा-जो बांचें यह पाठको, तन मन प्रीत लगाय। महिमा ताके पुन्यको, मो पर कही न जाय॥२३॥ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [61 बने अकीर्तम जिन भवन, रतनमई सुविशाल। हां जिनबिंब निहारके, दर्शन करत सु लाल // 24 // अथाशीर्वाद-कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू सम्पति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवुपर जाय॥ इत्याशीर्वादः। इति श्री सुदर्शनमेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ सुदर्शन मेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 10 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द मेरु सुदर्शनकी उत्तर दिश, ऐरावत है क्षेत्र विशाल। तीर्थंकर चौवीस होय जहां, सुरनर सेवत हैं तिहुंकाल॥ तहां पडो बैताड़ मनोहर, तिनपर जिनभवन विशाल। आह्वानन विधितिनकीकरकै, मनवचकायनवावत भाल॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिन मंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं / अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं। स्थापनं। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 62] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ផល១២៨៨៨៨៨៨៨===== अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द क्षीरो दधि उजल जल लेकर, श्रीजिनपद प्रक्षालित जा / / जन्म जरा दुख दूर वरनको, धार देत अति मन हरषा // मेरू सुदर्शनकी उत्तर दिश, ऐरावत है क्षेत्र सु नाम। जहां पडो बैताड मनोहर, तहां जजों जिनवरके धाम॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ जलं॥ केसर अरु करपूर मिलाके मलयागिर चंदन घस लाय। भव आताप हरण जिनवर पद, तिन्हैं चढावत दाह नशाय॥ मेरु सुदर्शन.॥२॥ ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ मुक्ताफल सम उज्जल अक्षत, पुंज चढावत प्रीत लगाय। अक्षय पद पावै तहां भविजन,जिन चरणांबुज मस्तक नाय॥ मेरु सुदर्शन.॥३॥ ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ वेल चमेली श्री गुलाब ले, सुरतरुके बहु फूल मंगाय। सुरनर विद्याधर सब लेले, श्री जिन चरण चढ़ावत आय॥ मेरु सुदर्शन.॥४॥ ॐ ह्रीं. // पुष्पं // घेबर बाबर फेनी लाडू, खाजे ताजे तुरत बनाय। क्षुधारोगके दूर करनको, जगत जिनेश्वर मंगल गाय॥ मेरु सुदर्शन.॥५॥ ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // जगमग जोत होत मंदिरमें, मणिमई दीप अमोलक लाय। मोहतिमिरके नाश करनको, करो आरती श्री जिनराय॥ मेंरु सुदर्शन.॥६॥ ॐ ह्रीं. // दीपं॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [63 कृष्णागर वर धूप दशांगी, खेवत जिन चरणन ढिग जाय। कर्म जलावत पुन्य चढ़ावत, गावत जिनगुण नृत्य कराय॥ मेरु सुदर्शन.॥७॥ ॐ ह्री. ॥धूपं॥ श्रीफल लौंग सुपारी पिस्ता, ऐला दाख छुहारे लाय। श्री जिनचरण चढ़ावै भविजन,शिवफल पावो कर्म नशाय॥ मेरु सुदर्शन. // 8 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल आठो द्रव्य सु लैके अर्घ चढ़ावौ श्रीजिनराज। बलबल जात लाल चरणन पर,पूजऊ भाव भक्त उर लाय॥ मेरु सुदर्शन.॥९॥ ॐ ह्रीं. ॥अर्ध। __ अथ प्रत्येकाघ (सोरठा) मेरु उत्तर दिश सार, ऐरावत शुभ देश है। तहां पढो वैताड़ तापर जिनमंदिर जजो॥११॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ अथ जयमाला (दोहा) प्रथम मेरु उत्तर दिशा, ऐरावत सु विशाल। रूपाचलपर जिन भवन, सुनो सु भवि जयमाल॥१२॥ पद्धडी छन्द जै जै श्री मेरु सुप्रथम जान, है नाम सुदर्शन सुख निधान। तामैं बन चार कहै बखान, सबके उपर पांडुक महान॥ चारो दिश चार शिला पवित्र, है रतनमई अति द्युति विचित्र। ता ऊपर केहर पीठ जोय तहां तीर्थंकरको न्हवन होय॥ ऐसो गिरराज विराजमान, ताकी उत्तर दिश है महान। तहां ऐरावत वर क्षेत्र सार, जै ताकौ वर्णन है अपार // Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान जै जै तहां काल छहो सुरीत, वरतै जिन आगम कही मीत। जै तीन कालमें भोगभूम, जै कल्पवृक्ष तहां रहै झूम॥ जब चौथा काल करै प्रवेश तब कर्मभूम लागी अशेश। तब तीर्थंकर चौवीस होय, वसु कर्मनाश शिव लहै सोय॥ चक्री बल नारायण सु जान, प्रत्येक सब मिल त्रेसठ महान। यह चोंथे काल पर्यंत होय, पंचम छट्टममें नहीं कोय॥ यह क्षेत्र तनी विध कही सार, तहां जैनी जीव वसैं अपार। ताबीच पड़ो बैताड आन, तापर नौ कूट विराजमान॥ वसु कूट सरस सुन्दर अवास, तहां बिंतरदेव करें निवास। श्री सिद्धकूट नौमो सुजान, जहां श्रीजिनमंदिर शोभमान॥ जै रचना समवसरण प्रमान, बन रही अनादि तनी सुजान। सब रत्नमई द्युति दिपै सोय, ताकि उपमा वरनै सु कोय॥ ऐसो जिनभवन बनो महान, तिनमें जिनबिंब बिराजमान। तन ऊंच पांवसे धनुष काय पद्मासन छवि वरनी न जाय॥ शत आठ कहै जिन बिंबसार, सुर विद्याधर सेवत अपार। इन्द्रादिक पूजत श्री जिनंद, वसु द्रव्य चढावत अति अनंद॥ जै नृत्य कर बाजे बजाय, जै भावभक्ति उरमें सु लाय। जिनराज चरणको शीशनाय, निज२ थानक पहुँचे सुजाय॥ घत्ता-दोहा-ऐरावत वर क्षेत्रमें, मेरु सु उत्तर भाग। रूपाचलपर जिन भवन, वंदत सुर नर नाग॥२५॥ ताकी यह जयमाल है, पूरण मई विशाल। जिनगुण अगम अपार है बुद्धिहीन भविलाल // 26 // इति जयमाला। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [65 SSNORINTrSawarSSrNTNNNNN अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पदै पन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सक बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू सम्पति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः इति श्री सुदर्शन मेरुके उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ सुदर्शन मेरुके दक्षिण उत्तर षट्कुलाचल पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 11 ___ अथ स्थापना-मद अवलिप्तकपोल छन्द मेरु सुदर्शन दक्षिण उत्तर, षट् कुल गिर सोहें अभिराम। गिरके सिखर कूटकी पंकती, बिचर सिद्धकूट अभिराम॥ सुर विद्याधर नितप्रति पूजत, हमें शक्त नाही तिस ठाम। याते आह्वानन विध करके, निजगृह पूजत करत प्रणाम। ____ॐ ह्रीं सुदर्शनमेरुके दक्षिण उत्तर षट्कुलाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं। अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द उज्जल जल ले क्षीरोदधिको, श्री जिनचरणन चढावत हैं। जन्म जरा दुखनाशन कारण जिन गुण मंगल गावत हैं। मेरु सुदर्शन दक्षिण उत्तर षट, कुलगिरीपर जिनभवनं। सुर खग मिल ध्यावै पुण्य बढावै, हम पूजत हैं जिन चरणं॥ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 66 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान depeed ed ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके दक्षिण दिश निषध॥१॥ महाहिमवन // 2 // हिमवन // 3 // उत्तरदिश नील // 4 // रुक्मनि // 5 // शिखर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ जलं॥ मलयागिर चंदन दाह निकंदन, केशर डारी रंग भरी। भव ताप निवारन निजपद धारन,शिवसुख कारन पुज करी॥ मेरु सुदर्शन. // 3 // ॐ ह्रीं. // चन्दनं॥ सुखदास कमोदं अति अनमोदं, उपमा द्योतं चन्द्रसमं। जिनचरण चढावें मन हरषावें, सुरपद पावै मुक्ति रमं॥ मेरु सुदर्शन.॥४॥ ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी वेल चमेली, ले गुलाब धर जिन आगे। जिनचरण चढावत मनहर पावत, कामबान तत क्षिण भागै॥ ___ मेरु सुदर्शन. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // नेवज ले नीको तुरत सुधीको, श्री जिनवर आगे धरिये। भर थाल चडावो जिनगुण गावो,शीस नवावो, शीव वरिये। मेरु सुदर्शन.॥६॥ ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ मणिमई दीप अमोलक लेकर, जगमग जोत सु होत खरी। मोह तिमिरके नाश करनको, श्री जिन आगै भेट धरी॥ मेरु सुदर्शन.॥७॥ ॐ ह्रीं. // दीपं॥ कृश्नागर धूपं जज जिन भूपं, लख निज रूपं खेवत हैं। वसु कर्म जलावैं पुन्य बढावै, दास कहावै सेवत हैं। मेरु सुदर्शन.॥८॥ ॐ ह्रीं.॥धूपं // बादाम छुहारे लौंग सुपारी, श्रीफल भारी कर धरके। जिनराज चढावै शिवपद पावै, शिवपुर जावै अघ हरके। मेरु सुदर्शन. // 9 // ॐ ह्रीं.॥ फलं॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [67 वसु द्रव्य मिलावै अर्घ बनावै, जिनवर पगतल धारत हैं। शिवपदकी आशा मन हुल्लासा, चहु गत बाशा टारत हैं। मेरु सुदर्शन.॥१०॥ ॐ ह्रीं.॥अर्घ // __ अथ प्रत्येकार्घ-सोरठा मद अवलिप्त कपोल छन्द मेरु सुदर्शन दक्षिण दिशमैं, तप्त हेम द्युति निषध सुनाम। तिगंछ द्रह द्रह बिच पंकज, कमल बीच धृतदेवी धाम॥ सिंह गिरिशिखरकूट नौ उन्नत, ताबीचसिद्धकूटअभिराम। तहां जिन भवन निहार धार, उर अर्घ चढावत शीस नमाय॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके दक्षिण दिश निषध पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // मेरु सुदर्शन दक्षिण दिशमैं, स्वेत महाहिमवन गिरनाम। महापद्म द्रह द्रह बिच नीरज जलज बीच ह्रीं देवी धाम॥ ता गिरिशिखरकूट वसुशोभित,तिंह बिचसिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर अर्घ चढावत शीश नमाय॥ __ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके दक्षिण दिश महा हिमवन पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शनको दक्षिण दिश, हेमवरण हिमवन गिरनाम। पद्मद्रह बीज पद्म है पद्म बीच श्री देवी धाम॥ गिरके शिखर कूट एकादश सिद्धकूट तिह बीच सु ठाम। तहां जिनभवन निहार धार उर अर्घ चढावत शीश नमाय॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके दक्षिण दिश हिमवन पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // मेरु सुदर्शनकी उत्तर दिश, नीलवरण गिर नील सु नाम। द्रह केसरी कमलकर शोभित तहां कीर्तदेवीको धाम॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68] श्री तेरहद्वीप पजा विधान ធនធានធនធានមន तिहगिर शिखरकूट नौ उन्नत ता बिच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ चढावत शीस नमाय॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके उत्तर दिश नीलपर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शनकी उत्तरदिश रजत रुक्मगिर पर्वत नाम। द्रह महा पुंडरीक पंकज जुत तापर बुध देवीको धाम॥ तागिरशिखरकूट वसुशोभिततिहबीचसिद्धकूटअभिराम। तहां जिनभवन निहार धार, उर अर्घ चढावत शीस नमाय॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके उत्तर दिश रुक्मगिर पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ मेरु सुदर्शनकी उत्तरदिश हेमवरन शिखरन गिर नाम। पुंडरीक द्रह द्रह बिच पंकज जहां लक्ष्मी देवीको धाम॥ गिरके शिखर कूट एकादश सिद्धकूट तिह बीच सु ठाम। तहां जिनभवन निहार धार, उर अर्घ चढावत शीस रमाय॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके उत्तर दिश शिखरिनगिर पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ / मेरु सुदर्शन भद्र शाल बन सीतातट दोनों दिश मान। पांच पांच है कुंड मनोहर तिह तट दस दस गिर परमान॥ तिस कंचनगिरपर जिन प्रतिमा एकर सब पर सम मान। सबमिल एकशतक नितप्रति हम जजतअर्घतजकेअभिमान॥ ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी सीता नदीके दोनों तट पांच पांच कुंड तिस एक एक कुन्ड तट दस दस कंचनगिर तीन कंचनगिर पर एक एक जिनप्रतिमा अकीर्तम गन्धकुटीसहित विराजमान तिन सौ प्रतिमाको॥७॥ अर्घ // Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [69 मेरु सुदर्शन भद्रशाल वन सीतोदा दोनों तट मान। पांच पांच हैं कुण्ड मनोहर तिह तट दस दस गिर परमान॥ तिस कंचनगिर पर जिनप्रतिमा एक एक सब पर सम मान। सब मिल एकशतक नितप्रति हमजजतअर्घतजके अभिमान॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके भद्रशाल बन सम्बन्धी सीतोदा नदीके दोनों तट पांच पांच कुंड तिस एक एक कुन्ड तट दस दस कंचनगिर तीन कंचनगिर पर एक एक जिनप्रतिमा अकीर्तम गन्धकुटीसहित विराजमान ते सौ प्रतिमाको॥८॥ अर्घ // मेरु सुदर्शन चारों दिशके षोडश भवन कहे सुख मान। षोडस गिर वक्षार मनोहर चौतिस विजयारध गिर मान॥ हस्तिदंत चार षट कुलगिर दो इक इक द्रुमके परिमान। आठ अधिक सत्तर जिनमंदिर जजों अर्घ तजके अभिमान॥ ___ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके चारों दिश सम्बन्धी अठत्तर जिनमंदिर सिद्धकूट तिनको॥९॥ अर्घ // मेरु सुदर्शनकी आठों दिश लवण उदध लकहै मरजाद। ताके मध्य क्षेत्र बहु वरणे तहां जिनमंदिर साद अनाद॥ सिद्ध भूम तहां कही अनन्ती सुर खग जजत करत अहलाद। मनवचतन हमशीश नायकर जजत अघ तजके परमाद। ॐ ह्रीं सुदर्शन मेरुके दिशा विदिशा मध्ये लवण समुद्र तकुम जहां जहां कीर्तन अकीर्तम जिनमंदिर होय सिद्धभूमि होय तहां तहां // 10 // अर्घ // अथ जयमाला - दोहा षटकुल गिरपर जिनभवन, शोभित परम विशाल। तिन प्रति सीस नवायकै, अब वरणूं जयमाल // 21 // Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ================ == पद्धडी छन्द जै मेरु सुदर्शन गिर महान, सब गिरवरमें भूपत समान। जैताकी दक्षिणदिश विशाल,तहांकुलगिर तीनकहेविशाल॥ पहलो निषद्ध गिर है उतंग, दूजो महा हिमवन अति सुचंग। तीजोहिमवनगिर है प्रसिद्ध,बहुरचितखचित द्युति स्वयंसिद्ध॥ अब उत्तर दिशके सुनो नाम, पहिले गिरनील महा सु ठाम। दूजो गिर रुक्म महाविचित्र, तीजो सिखरिन गिर है पवित्र। एही घट कुलगिर हैं महान, तिनपद द्रह सुन्दर सजल बान। ता बीच कमल शोभेभिराम, जामैं कुल देवनके सुधाम॥ यह विधिकुलगिरशोभे सुसार,बहु शिखरकूट पंकत अपार। तिनकूट मध्य शोभे सिंगार, श्री सिद्धकूट उन्नत निहार॥ तहां जिनमंदिर वरणे पुरान, तामैं जिनबिंब बिराजमान। प्रतिमा शत एक अधिकसुआठ,वसुमंगल द्रव्य बने सुठाठ॥ सब समोसरण विधकही जोय,देखे भविसम्यक दरश होय। जै सुर गण मिल पूर्जे सदैव, जिन भक्त हिये धारै सु जीव॥ जै निरजर निरजरनी सु आय, खेचर खेचरनी शीस नाय। ना. गावै दे दे सुताल, झुक झुक जिनमुख देखें संभाल॥ जै द्रुम द्रुम द्रुम बाजै मृदंग, इन्द्रानी इन्द्र नचै सु संग। जै थेइ थेइ थेइ धुम रही पूर, बन रहो सुझुरमुट जिन हजूर॥ यह विधि वर्णन बहु है अपार, सुरगुरु वरनत पावै न पार। जै जै जै जिनवर परम देव, तुम चरणनकी हम करत सेव। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [71 == === === ======= दोहा-षट कुल गिरपर जिनभवन, पूजा बनी विशाल। पढत सुनत सुख उपजै, बल बल जात सु लाल॥३२॥ इति जयमाला। अथाशीर्वाद - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री सुदर्शनमेरुके दक्षिण उत्तर षट् कुलाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। इति जम्बूद्वीप मध्ये सुदर्शन मेरुके प्रथम मेरु सम्बन्धी अठत्तर जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ धातुकी द्वीपमध्ये पूर्वदिश विजयमेरु (द्वितीयमेरु) संबंधी षोडश जिनमंदिर पूजा नं. 12 अथ स्थापना-मद अवलिप्तकपोल छन्द दीप धातुकी पूरव दिशमें, विजयमेरु वन्दू सुख खान। भद्रशाल नंदन सौमनस गिन, अरू पांडुक बन चार महान॥ चारों दिशा चार जिनमंदिर, चारों बन षोड़स परमान। तिनकी आह्वानन विधि करके, हम पूजत अपने निज थान॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ___ॐ ह्रीं धातुकी द्वीपमध्ये पूर्व दिश विजयमेरु सम्बन्धी चारों दिश चार वन संस्थित षोडश जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं / अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं। स्थापनं। अथाष्टकं-चाल जै क्षीरोदध उज्जल जल लीजै, सु गुण हम ध्यावै। जै श्री जिन सन्मुख धार सु दीजै सो गुण हम ध्यावै॥ जै विजयमेरु चारों दिश सोहै, सो गुण हम ध्यावै। जै षोड़स जिनमंदिर मन मोहै, सुगुण हम ध्यावै॥ जै देख जिनेश्वर कैसे राजै सुगुण हम ध्यावै। जै पूजत जिनको सब दुख भाजै, सुगुण हम ध्यावै॥ __ॐ ह्रीं धातुकी द्वीपके पूरवदिश विजयमेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी पूर्व // 1 // दक्षिण // 2 // पश्चिम॥३॥ उत्तर // 4 // नंदनवन संबन्धी पूर्व // 5 // दक्षिण॥६॥ पश्चिम // 7 // उत्तर // 8 // सोमनस वन सम्बन्धी पूर्व॥९॥ दक्षिण॥१०॥ पश्चिम॥११॥ उत्तर॥१२॥ पांडक वन सम्बन्धी पूर्व // 13 // दक्षिण॥१४॥ पश्चिम // 15 // उत्तर दिश॥१६॥ सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो जलं। जै केसर अर करपूर मिले कै, सुगुण हम ध्यावै। जै पूजत जिनवर चंदन लेकै, सो गुण हम ध्यावै॥ जै विजय.॥३॥ ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ जै मुक्ताफल सम अक्षत लीजै, सो गुण हम ध्यावै। जै श्री जिन सन्मुख पुञ्ज सु दीजै, सो गुण हम ध्यावै॥ जै विजय. / / 4 // ॐ ह्रीं.॥ अक्षतं॥ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [73 ==================== जै फूल मनोहर लेकर सो गुण हम ध्यावै / ले ले जिनमंदिर पूजन जाहि, सो गुण हम ध्यावै॥ जै विजय.॥५॥ ॐ ह्रीं.॥ पुष्पं // जै फेनी घेबर मोदक खाजे सो गुण हम ध्यावै। जै पुजत जिनवर लेकर ताजे, सो गुण हम ध्यावै॥ जै विजय.॥६॥ ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जै मणिमई दीपक लेकर घालो, सो गुण हम ध्यावै। जै जगमग जगमग होत दिवाली, सो गुण हम ध्यावै॥ जै विजय.॥७॥ ॐ ह्रीं.॥ दीपं॥ जै अगर कपूर सुगन्ध मिलाके सो गुण हम ध्यावै। जै श्री जिन सन्मुख खेवत जाके, सो गुण हम ध्यावै॥ जै विजय.॥८॥ ॐ ह्रीं.॥ धूपं॥ जै श्री फल दाख बदाम सुपारी, सो गुण हम ध्यावै। जै जिन पद पूज वरो शिवनारी, सो गुण हम ध्यावै॥ जै विजय.॥९॥ ॐ ह्रीं. // फलं॥ जै जल फल अर्घ बनाय सु लावो, सो गुण हम ध्यावै। जै लाल जिनेश्वर चरण चढावो सो गुण हम ध्यावै॥ जै विजय.॥१०॥ ॐ ह्रीं // अर्घ॥ अथ प्रत्येकार्घ दोहा-विजय मेरुकी पूर्व दिश, भद्रशाल वन जान। तहां जिनभवन सुहावनो, पूजै सुरगन आन॥११॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी पूर्वदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान នផ================= विजय मेरु तै जानिये, दक्षिण दिश सुखदाय। भद्रशाल बन जिनभवन, पूजत मन हरषाय॥१२॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी दक्षिणदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ विजयमेरु तै लिजिये, पश्चिम दिशा अनूप। भद्रशाल वन जिनभवन, पूजत सुर खग भूप॥१३॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके ,भद्रशाल वन सम्बन्धी पश्चिमदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ विजयमेरु उत्तर दिशा, जिनमंदिर सुखकार। भद्रशाल वनके विषे जजों हरष उर धार // 14 // ॐ ह्रीं विजय मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो।४॥ अर्घ॥ मदअवलिप्तकपोल छन्द विजयमेरुकी पूरव दिशमें, नन्दनवन सोहे सुविशाल। तहां जिनभवन अनूप शोभित, सुरगुण पूजत हैं त्रिकाल॥ अष्टद्रव्य ले पूजा करकर, नाचत थेई थेई देते ताल। जे नर आवत अर्घ चढावत, शिवसुन्दर पावत सुखमाल॥ ____ॐ ह्रीं विजयमेरु नन्दनवन सम्बन्धी पूर्वदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ विजयमेरुकी दक्षिण दिशमें, नन्दनवन शोभे सुखकार। तहां जिनभवन अकीर्तम सो हैं सुरगण मोहित रुप निहार॥ केई गावै केहै ताल बजावै, नाचत उर धर हरष अपार। अर्घ चढावत पुण्य बढावत, गावत जिनगुण शिव सुखकार॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके नन्दनवन सम्बन्धी दक्षिणदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [75 = === ==== = == == === विजयमेरुकी पश्चिम दिशमें, नन्दनवन मन मोहत सार। तहां जिनबिंब विराजत अद्भुत, ऐसे जिनमंदिर सुखकार॥ तिनको ध्यानदेख सुरखग मुनि,निज स्वरूप अपनी सुनिहार। करम कलंक पंक नित धोवत, जजत जिनेश्वर अष्ट प्रकार॥ ____ ॐ ह्रीं विजय मेरुके नन्दनवन सम्बन्धी पश्चिमदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 7 // अर्घ॥ विजयमेरुके उत्तर दिशमें, नन्दनवन जिनमंदिर जान। तहां जिनबिंब अनूपम सो हैं इन्द्रादिक पूजत हैं आन॥ सुर सुरांगना अर विद्याधर,सब मिल जिन गुण करत वखान। यह कौतुक बन रहो सुनिशदिन,पूजै जिन पावै सुख खान॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके नन्दनवन सम्बन्धी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // सोरठा-विजयमेरु है सार, ताकी पूरव दिश विषै। वन सौमनस निहार, तहां जिनमंदिरको जजो॥१९॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके सोमनस वन सम्बन्धी पूर्वदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ॥ दक्षिण दिश सुखकार, विजयमेरु ते लीजिये। वन सोमनस निहार, तहां जिनवर पद पूजिये॥२०॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके सोमनस वन सम्बन्धी दक्षिणदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्थ // पश्चिम दिश सु जान, विजयमेरुकी लीजिये। जिनमंदिर सुख खान, वन सौमनस विषै जजों॥२१॥ ____ॐ ह्रीं विजय मेरुके सोमनस वन सम्बन्धी पश्चिमदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान === ================ उत्तर दिश गिन सार, विजय मेरुतें जानिये। वन सौमनस विचार, तहां जिनवर पद पूजिये॥२२॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके सोमनस वन सम्बन्धी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ॥ चाल छन्द पांडुक बन सोहै सार, महिमाको वरनै। है विजय सु पूरव धार, पाप तिमिर हरनै॥ तामें जिनमंदिर सार, पूजत सुखकारी। जिनबिंब अनुप निहार, तिनपर बलिहारी॥२३॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पांडुक वन सम्बन्धी पूर्वदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ गिरि विजय सु दक्षिण सार, पांडुक वन सोहै। तहां श्री जिनभवन निहार, सुन नर मन मोहै। इन्द्रादिक पूजत पाय, महिमाको वरनै / हम पूजत अर्घ चढाय, पाप तिमिर हरनै // 24 // ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पांडुक वन सम्बन्धी दक्षिणदिश सिद्धकूट . जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घा पश्चिम गिर विजय विशाल, पांडुक वन जानो। जिनमंदिर बने विशाल, सुर नर मन मानो॥ तहां खगपति सुरपति जाय, बहु विध नृत्य करै। हम पूजत अर्घ चढ़ाय, आनन्द भाव धरै // 25 // ॐ ह्रीं विजय मेरुके पांडुक वन सम्बन्धी पश्चिमदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [77 ===== === == === === = गिर विजय सु उत्तर ओर, पांडुक वन प्यारो। नामैं जिनभवन सु जोर, सुन्दर मन धारो॥ वहां सुर खग पूजन जांय, जिन गुण गान करै। म अर्घ चढ़ावत आय, तन मन ध्यान धरै // 26 // ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पांडुक वन सम्बन्धी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा विजयमेरु चारों दिशा, चारों वन सु विशाल। षोडस जिनमंदिर कहें, तिनकी यह जयमाल॥२७॥ पद्धडी जै द्वीप धातुकी है उदार, ताकी पूरव दिश लसै सार। गिर विजय नाम कहिये उतंग, जोजन चौरासी सहस अंग॥ जै कटनी चार बनी अभंग, तामैं बन चार दिपै सु चंग। वन भद्रशाल नंदन सु जान, सौमनस रु पांडुक है महान॥ चारों दिश चारों वन मझार, श्रीजिनवर भवन दिपे सिंगार। यह विध षोडस मंदिर निहार, सब समोसरण वर्णन विचार॥ जै वेदी मध्य बनी पवित्र, जै कटनी तीन कही विचित्र। जैतापर सिंहासन रिशाल, तिस ऊपर कमल रचो विशाल॥ तहां श्रीजिनबिंब विराजमान,शत आठ अधिक वरणो पुरान। भामंडलकी छबि रही छाय, भव सात दरश देखत जनाय॥ जै तीन छत्र सिर फिरै सार, जै चौसठ चमर दुरै अपार। जै वृक्ष अशोक सुलहलहाय, जै पुष्पवृष्टि सुर करत लाय॥ जै दुन्दुभि शब्द बजै आकाश, भवजीव बुलावै जिन अवास। चारों दिश सोलह भवनमांहि,जै झूमर खेलत सुर सुजाहि॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ជលផលជលផលផលមនននននន जै द्रुम द्रुम द्रुम बाजै मृदंग, जै झन झन झन सुर नचत संग् / जै जिनगुण गावै प्रीत लाय, बहु भक्ति हिये धारै बनार // इन्द्रानी इन्द्र नचै सु साथ, जिन रूप निरख नावै सु माथ। निज जाड़ अंजुली धरत पाय, जिनराज सबै निरखै बनाय॥ फिरफिरफिरफिरकीलेतजाय,झुकझुकझुकझुकजिनसरणआय। छमछम छमछम घुघरु बजंत, जय जय जय जय सुर करंत॥ यह विधबहु भक्ति करै सुरेश,निरजर निरजरनी मिल असेश। खेचर खेचरनी सबै जाय, यह कौतुक देखत प्रीत लाय॥ जै बल बल जातसु लाल देख,तुम ध्यान धरत हिरदे विशेष। यह अरज हमारी सुनी सार संसार समुद्र ते करो पार॥ घत्ता-दोहा विजयमेरु पूजा सुविध, सुन्दर सरस रिसाल। वांचत भवि मन लायकैं, लाल नवावत भाल॥४०॥ इति जयमाला। अथाशीर्वाद-कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वर्णन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पदले शिवपुर जाय॥ // इति आशीर्वादः॥ इति श्री विजयमेरु सम्बन्धी षोडश जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [79 अथ धातुकी द्वीपमध्ये विजय मेरुके चारों विदिशा मध्ये चार गजदन्त पर सिद्धकूट चार जिनमंदिर पूजा नं. 13 अथ स्थापना-मद अवलिप्तकपोल छन्द विजयमेरुकी चारों विदिशा, तिनमें हैं गजदंत सु चार। तिनपर सिद्धकूट जिनमंदिर, ताको वर्णन अगम अपार॥ तिनको सुरपति खय मिल पूजत, हमें शक्त नाहीं सो जान। यातें आह्वानन विध करकै, अपने घर पूजत जिन थान॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके चारों विदिशा मध्ये चार गजदंत पर सिद्धकूट जिन मंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट सन्निधिकरणम्। स्थापनम्। अथाष्टकं-सुन्दरी छन्द जल सु उज्वल प्राशुक लाइये,जिन सु पूज परम पद पाइये। गिर विजय गजदंत सुचार जू, जजो जिनमंदिर उरधार जू॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके अग्निदिश सौमनस // 1 // नैऋत्यदिश विद्युतप्रभ // 2 // वायव्यदिश मालवान // 3 // ईशानदिश गंधमादन नाम गजदंत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ जलं॥ परम पावन चंदन गारये, जिन सु पूजत दाह निवारये। गिर विजय.॥३॥ ॐ ह्री.॥ चंदनं॥ सरस अक्षत उज्वल धोयके,जिन सु पूजत निर्मल होयकै। गिर विजय.॥४॥ ॐ ह्री.॥ अक्षतं॥ फूल सुरतरुके सु मंगाइये, जिन सु पूजत काम नशाइये। गिर विजय. // 5 // ॐ ह्री.॥ पुष्पं // Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==================== करत नेवज नैन सुहावनो,जिन सु पूज परम सुख पावनो। गिर विजय.६॥ ॐ ह्री.॥ नैवेद्यं // दीप मणिमई जगमग जोत है, जिन सु पूजत जोत उद्योत है। गिर विजय.॥७॥ ॐ ह्री.॥ दीपं // धूप दश विध खेवत लायके, जिन सु पूजत मन हरषायके। __ गिर विजय.॥८॥ ॐ ह्री.॥ धूपं॥ फल मनोहर मिष्ट मंगाइये, जिन सु पूजत शिवफल पाइये। __गिर विजय.॥९॥ ॐ ह्री.॥ फलं॥ जल सुफल व द्रव्य सुलीजिये, अर्घ श्रीजिनसन्मुख दीजिये। गिर विजय.॥१०॥ ॐ ह्री.॥ अर्घ // अथ प्रत्येकाघ-मद अवलिप्तकपोल छन्द विजयमेरु ते गिनो दिशा अग्नेय सु जानो। ता गजदंत सु नाम जान सोमनस प्रमानो॥ ता पर श्री जिनभवन बने सुन्दर सुखकारी। पूजत अर्घ चढाय लाल तिनपर बलिहारी॥११॥ ____ॐ ह्रीं विजयमेरुके अग्निदिश सोमनस नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ मेरु विजय ते गिनो दिशा नैऋत्य सु लीजे। विद्युतप्रभ गजदंत नाम ताको जानीजे // तापर जिनवर धाम लसै अद्भुत तुम जानों। पूजत अर्घ चढ़ाय हरष उर अन्तर जानो॥१२॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके नैऋत्य दिश विद्युतप्रभ नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [81 === ====aggage मेरु विजयते जान दिशा वायव्य तहां लहिये। मालवान गजदंत नाम अति सुन्दर कहिये। तहां जिनमंदिर बने बिंब जिनराज बिरा। पूजत अर्घ चढाय परम आनन्द उर छा // 13 // ____ॐ ह्रीं विजयमेरुके वायव्य दिश मालवान नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // मेरु विजय ते जान दिशा ईशान जो सोहै। धरै सुगन्ध अपार गन्ध मादन मन मोहै। है गजदंत सु नाम तासपर मंदिर जानो। पूजत अर्घ चढ़ाय परम आनन्द उर जानो॥१४॥ __ ॐ ह्रीं विजयमेरुके ईशानदिश गंधमादन नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा विजय मेरुतै लीजिये, विदिशा चार विशाल। गजदंतनपर जिन भवन, सुन तिनकी जयमाल॥१५॥ पद्धडी छन्द जै द्वीप धातुकी है उदार, ताकी पूरव दिश मेरु सार। जै विजय नाम गिरको सुजान, ताकी चारों विदिशा महान॥ गजदंत चार सुन्दर स. ाय, गिर निषध नीलसों लगे जाय। वन भद्रशालमें स्वयं सिद्ध श्री जिनवाणी भाषो प्रसिद्ध॥ तापर सो है जिनभवन सार, वरनत सुर गुरु नहि लहत पार। सब उपमा समवशरण बनाय,सिंहासन द्युति वरणी न जाय॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 1888888888888888888 तापर जिनबिंब बिराजमान, शत आठ अधिक सो है महान। छबि निरखत अतिआनंद होय,लखरूप छिपत मकरंद सोय॥ सुरपतिखगपति नावत सुसीस जै जै जिनवर त्रिभुवनके ईस। सब देवी देव करें सु गान, इन्द्रानी इन्द्र नचैं जु जान॥ ता थेई थेई थेई ध्वनि रही पूर,द्वै रहो सु झुरमुट जिन हजूर। यह कौतुक देखत हैं जु आय, सब देवी देवन चतुर काय॥ अब हमको तारो परम देव, तुम चरणनकी हम करत सेव। जग जाल महा दुखकों निधान,ता काढो प्रभु अरज मान॥ पत्ता--दोहा विदिशा पूजें मेरू की, कहै चार गजदंत। जिनमंदिर पूजा बनी, बांचो भविजन संत // 23 // इति जयमाला। अथाशीर्वाद-कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढे अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति विजयमेरुकी चार विदिशा मध्ये चार गजदंत पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [83 22222222222222222 अथ विजयमेरुके ईशान नैऋत्य कोण जंबूशालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 14 अथ स्थापना-अडिल्ल छन्द विजय मेरुतें उत्तर दक्षिण जानिये। जंबू शालमली दो वृक्ष वखानिये // तिनपर जिनवर भवन विराजत सार जू। आह्वानन विष करो हरष उर धार जू॥१॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके ईशानकोण जंबू वृक्ष अरु दक्षिण नैऋत्यकौण शालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट सन्निधिकरणम् स्थापनम्। अथाष्टकं सो गुण हम ध्यावै, सो गुण हम ध्यावें। गण फण पति कथि पार न पावै, सो गुण हम ध्या३।।टेक.॥ जै क्षीरोदध उज्जल जल लावो, सो गुण हम ध्यावै। जै श्री जिन चरणनको सुचढावो सो गुण हम ध्यावै॥ जै जंबू शालमली पर जानो, सो गुण हम ध्यावै। जै जिनमंदिर पूजत सुख मानो, सो गुण हम ध्यावै॥२॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके उत्तर दिशा ईशान कोण जम्बूवृक्ष // 1 // दक्षिण दिश नैऋत्यकौण शालमली वृक्षका पूरव शाखा पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ जलं॥ जै मलयागिर चन्दन ले खासा सो गुण हम ध्यावै। जै फै ले सर्व सुगंध सुवासा सो गुण हम ध्यावै॥ जै जम्बू.॥३॥ ॐ ह्रीं॥ चंदनं // Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 84] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 18888888888888881 जै मुक्ताफल सम अक्षत लीजै सो गुण हम ध्यावै। जै श्री जिन सन्मुख पुज्जसु दीजै, सोगुण हम ध्यावै॥ जै जम्बू.॥४॥ ॐ ह्रीं // अक्षतं॥ जै कमल केतकी बेला लावो, सो गुण हम ध्यावै। जै श्रीजिनचरणन भेट चढ़ावो, सो गुण हम ध्यावै॥ जै जम्बू.॥५॥ ॐ ह्रीं // पुष्पं // जै घेबर बावर मोदक खाजे, सो गुण हम ध्या। जै जिनवर पूजन कर धर ताजे, सो गुण हम ध्यावै॥ जै जम्बू.॥६॥ ॐ ह्रीं // नैवेद्यं॥ जै मणिमई दीपक ले करमाहीं, सो गुण हम ध्यावै। जै मोह तिमिर दीखत कहूँ नाहीं,सो गुण हम ध्यावै॥ जै जम्बू.॥७॥ ॐ ह्रीं // दीपं / / जै दस विध धूप मनोहर लाई, सो गुण हम ध्यावै। जै श्रीजिन सन्मुख खेवत भाई, सो गुण हम ध्यावै॥ जै जम्बू.॥८॥ ॐ ह्रीं॥ धूपं॥ जै लौंग छुहारे पिस्ता लावो, सो गुण हम ध्यावै। जै जिनपद पुज शिवफल पावो, सो गुण हम ध्यावै॥ जै जम्बू.॥९॥ ॐ ह्रीं॥ फलं॥ जै जल फल अर्घ बनाय सु नाचों सो गुण हम ध्यावै। जै लाल सु पूजा मनधर वांचो, सो गुण हम ध्यावै॥ जै जम्बू.॥१०॥ ॐ ह्रीं॥ अर्घ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान = == = = = = = = = = अथ प्रत्येकार्घ - दोहा विजयमेरु ईशान दिश, जम्बूवृक्ष महान। पूरव शाखा जिन भवन, अर्घ जजों तज मान॥११॥ ___ ॐ ह्रीं विजयमेरुके उत्तर दिश ईशान कोण सम्बन्धी जम्बूवृक्ष की पूर्व शाखा पर संस्थित सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // विजयमेरु नैऋत्य दिश, शालमली तुम जान। पूरव शाखा जिनभवन, अर्घ जजों तज मान॥१२॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके दक्षिण दिश नैऋत्यकौण सम्बन्धी शाल्मली वृक्षकी पूर्व शाखा पर संस्थित सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ अर्घ // अथ जयमाला-दोहा विजयमेरु उत्तर दिशा, ताके कौण ईशान। दक्षिण नैऋत्य कोण है, भूप वृक्ष दोय जान॥१३॥ जम्बू शालमली तनी, शाखा अधिक विशाल। तिनपर जिनमंदिर जजों अब सुनिये जयमाल॥१४॥ चाल छन्द विजय मेरु उत्तर दिशा जगसार हो, शौभै कोन ईशान। दूजी दक्षिण दिश गिनों, जनसार हो नैऋत्यकौण सुजान॥ जान उत्तर गिन सु दक्षिण दोय वृक्ष सुहावने। जम्बू सु सालमली मनोहर, मन हरण मन भावने॥ ताकी जु शाखा चार, चहूँ दिश फूल फल पल्लव घने। नही खिरत काल अनादि सेती काय पृथ्वी सोहने। पूरव शाखा पर कहै जग सार हो जिन मंदिर सु विशाल। सो हैं सरस सुहावने, जग सार हो लागे रतन सुलाल॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान PANETranarassNNNNNNrsasrananer लाल लागे हैं अमोलिक, कौन उपमा दीजिये। जै देव विद्याधर सु पूजैं, परम उत्सव कीजिये॥ जहां बनो सिंहासन अनूपम, कमल ता पर सोहनो। जापर सु जिनवर बिंब राजै, भविक जन मन मोहनो॥ तीन छत्र सिरपर धरै जग सार हो, तीन जगतके ईश। ढोरत चंवर जु सुर तहा, जगसार हो, सुरपति नावै शीस॥ शीस नावै इन्द्र निशदिन, भक्तिवश पूजा करें। 'देवोपनीत सु द्रव्य लेकर, परम आनन्द उर धरै // जहां अमर अपछरा गीत गा, हाव भाव हसंतिया। रून झुनकर नाचें ठुमक चालैं, झमक मन बिहसंतया॥ तुम गुण महिमा अगम है, जग सार हो, पारन पावै कोय। तुम सेवा जे नर करें, जग सार हो, तिन घर मंगल होय॥ होय मंगल नित नए जहां, सरस पुन्य उपायकै। संसार सागर पर ढेकर, लहै शिव-सुख जायकै॥ यह भांति सुर खग परम हर्षित, करत उत्सव आयकै। हम शक्तिहीन सु दीन है, प्रभु नमत तुम पद ध्यायकै॥ घत्ता-दोहा-जम्बू सालमली तनी, शाखा सरस विशाल। तिनपर जिनमंदिर बने लाल नवावत भाल॥१९॥ ___इति जयमाला। अथाशीर्वाद - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वर्णन को कर सकै बनाय॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेस्हद्वीप पूजा विधान [ 87 ~~~~NNNNNARSANSravasaree ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पदले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः। इति श्री विजय मेरू के ईशान नैऋत्यकौन जम्बूसालमली वृक्ष पर सिद्धकूट जिनमंदिरपूजा सम्पूर्णम्। अथ विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 15 अथ स्थापना-मद अवलिप्तकपोल छंद विजयमेरु पूरव दिश सोहे गिर वक्षार आठ अभिराम। तिनके ऊपर बने अकीर्तम, अति उतंग जिनवरके धाम। सुर विद्याधर पूजन आवै, गावैं जिन गुण आठों जाम। हम तिनकी आह्वानन विधकर पूर्णं श्रीजिनवर इह ठाम॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं। अथाष्टकं चाल छन्द उज्जल जल प्रासुक लीजे, प्रभु आगै धार सु दीजे। तब जन्म जरा दुख छीजै तब अजर अमर पद लीजै॥ गिर विजय सु पूरव जानो, वक्षार आठ उर आनो। तिनपर जिनमंदिर सो हैं सुर नर खगपति मन मोहैं। ____ ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरवविदेह सम्बन्धी पाश्चात्य ॥१॥चित्रकूट // 2 // पद्मकूट ॥३॥नलिन ॥४॥त्रिकूट ॥५॥प्राच्य ॥६॥वैश्रवण ॥७॥अजननाम वक्षारगिरिपरसिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥जलं॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 88] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान Aararararararwareranaaraharanaaraमलयागर चन्दन लावो, जिन चरणनको सु चढ़ावो। भव भव आताप निवारो, शिवसुन्दर रूप निवारो॥४॥ गिर विजय. // 4 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ सुख दायक मोदक नीके, अक्षत ले धोय सु ठीके। जिन आगै पुंज सो दीजे, अक्षय पद तुरत सो लीजे॥६॥ गिर विजय. // 7 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ सुर द्रुमके फूल मंगावो, जिन चरणन भेट चढ़ावो। कामादिक कीच बहावों, तव परम महासुख पावो॥८॥ गिर विजय. // 9 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // फेनी गोझा ले खाजे, जिन पूजत चरु ले ताजे। तब क्षुधा रोग मिट जावै, जब आप ही सिद्ध कहावै॥१०॥ गिर विजय. // 11 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ ले दीप अमोलिक आवो, जिन पूज सु जोति जगावो। तिन मोह तिमिर निरवारो, जब केवलज्ञान पसारो॥१२॥ गिर विजय. // 13 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ ले धूप सुगन्धी खेवो, जिनराज चरनको सेवो। वसु कर्मनको सो जलावै, तब ही उत्तम पद पावै॥१४॥ ____ गिर विजय. // 15 // ॐ ह्रीं. // धूपं // श्रीफल बादाम सुपारी, लौंगादिक प्रासुक धारी। जिन चरणनको सो चढ़ावै शिवसुन्दर कण्ठ लगावै॥१६॥ गिर विजय. // 17 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [89 ធនធានធមេធគេទេ जल फल ले अर्घ सु दीजे, जिन वचन सुधा रस पीजे। तब कारज सब सुखदाई, सुनियो अब मेरे भाई॥१८॥ गिर विजय. // 19 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ ___अथ प्रत्येकार्घ - सोरठा गिर पाश्चात्य सुनाम, विजयमेरु पूरव दिशा। जिनमंदिर अभिराम, अर्घ देत अति हर्षसों॥२०॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव दिश पाश्चात्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ चित्रकूट वक्षार, विजय पूर्व दिशमें कहो। जिनमंदिर उर धार, अर्घ जजों वसु द्रव्य ले॥२१॥ ___ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी चित्रकूट नाम गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ पद्म नाम वक्षार, विजय पूरव दिश जानिये। जिन मंदिर सुखकार, अर्घ जजो बहु प्रीतसो॥२२॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी पद्मनाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ पूरव विजय सु आय, नलिन नाम वक्षार है। वसु विध अर्घ चढाय, श्री जिनमंदिर पूजिये॥२३॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी नलिननाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ है त्रिकूट वक्षार, नाम विजय पूरव दिशा। जिन मंदिर सु निहार, पूजो अर्घ चढायकै // 24 // ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी त्रिकूटनाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 5 // अर्घ॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान =============== === विजय पूर्व दिश सार, प्राच्य नाम वक्षार है। श्री जिनभवन निहार, अर्घ जजों कर भावसों॥२५॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी प्राच्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ गिर वैश्रवण सुजान, पूरव विजय सु जानिये। अर्घ जजों धर ध्यान, जिनमंदिरमें जायकै // 26 // ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी वैश्रवण नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // विजय सु पूरव द्वार, गिर अंजन वक्षार है। वसु विध अर्घ उतार, जिनमंदिर पूजों सदा // 27 // ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी अंजनगिर नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्धं // अथ जयमाला-दोहा विजयमेरु पूरव दिशा, गिर वक्षार विशाल। * तिनपर जिनमंदिर बने, तिनकी सु जयमाल // 28 // पद्धडी वर दीप धातुकी खंड मान, ताकि पूरव गिर विजय जान। सिंह गिरकी पूरवदिश पवित्र, षोड़श विदेह सोहैं विचित्र॥ तहां तीर्थंकर राजैं सदीव, जिनके पद परसैं भविक जीव। तहां जिनवरदोय बिराजमान,स्वयंजाति स्वयंप्रभुगुणनिधान॥ तिनको सुरनर खग सीस नाय,बहु पाठ पढ़ें जिनगुण सुगाय। जै मुनिगण तिनका धरै ध्यान निजरूप निहारै हरष छान॥ जै जिनवाणी ध्वन रही छाय, श्रीगणधरअर्थकरेंअर्थबनाय। भवि जीव सुनैं आनंद होय, निज२ भाषा समझै सुलोय॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ 91 श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ONNNNNNNNNNNNNNNNNN केई दुद्धर तप धारै बनाय, लहैं केवल शिव पहुंचें सुजाय। केई श्रावकव्रत घरस्वर्गजांय कोई सम्यकदर्शन लहें सुलाय॥ केई षोडश कारण भावधार, गति तीर्थंकर बांधैं विचार। केई दसविध धर्म धरै अडोल, केई रत्नत्रय पालैं अमोल॥ जै अतिशय श्रीजिनराज देव, सत इंद्र चरणको करत सेव। जहां करतै चौथो काल सार, तहां कर्मभूमि जानैं विचार॥ तिस क्षेत्र विदेहके बीच मान, गिर आठ पड़े वक्षार जान। तिस पर बहु कूट रचे बनाय, तहां सिद्धकूट वरनो न जाय॥ तिनपर जिनमंदिर हैं रिशाल, सुरपति खगपति नावत सुभाल। तहां वेदी अति सुन्दर विशाल, तापर सिंहासन जडित लाल॥ तिस ऊपर कमल लसै महान, तहां श्री जिनबिंब बिराजमान। भामंडलकी छबि रही छाय, भव सात दरस देखत सुजान॥ जै तीन छत्र, सिरपर फिराय, जै चरन सु ढोरत अमर आय। जै दुन्दुभि शब्द धुरै अकाश सुर द्रुमके फूल खिरै सुवास॥ जै वृक्ष अशोक सुलहलहाय, जिन पूजनको भविजन बुलाय। तहां चतुरनिकाय सु देव आय, बहु नृत्य करत बाजेबजाय॥ खेचर खेचरनी सीस नाय, गुण पाठ करत आनंद बढाय। जै तुम गुण वरणन है अपार, वरनत कवि कैसे लहै पार॥ घत्ता-दोहा-आठों गिर वक्षारकी, पूजा रची विशाल। / जिनपद शीश नवायकै, लाल भनी जयमाल॥४२॥ इति जयमाला अथाशीर्वाद-कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महीमा, वर्णन को कर सकै बनाय॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान === =========== ==== ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जसपर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः इति श्रीविजयमेरुकी पूरव विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम् / अथ विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 16 ___ अथ स्थापना - दोहा विजयमेरू पश्चिम दिशा, कूट आठ वक्षार। तिनपर जिनमंदिर निरख, करो थापना सार॥१॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठर , ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं / स्थापनं। अथाष्टकं-चौपाई क्षीरोदधि उजल जल लीजे, श्रीजिनचरण धार सु दीजे। जन्म जरा दुखनाशन कारन, पूजो जिनवर भवदधि तारन॥ विजयमेरु पश्चिम दिश जानों, गिर वक्षार आठ उर आनों। जा पर जिनमंदिर सुखकारो, तिनके पाइन धोक हमारी॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी शब्दवान॥१॥ विजयवान // 2 // आसीविष॥३॥ सुखावह // 4 // चन्द्र // 5 // सूर्य // 6 // नाग॥७॥ देवनाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ जलं॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [93 ==================== मलयागिर चन्दन ले आवो, पूजन जिनवर पुन्य कमावो। भव आताप महादुखदाई, ताको नाश होय सुन भाई॥ विजय. // 5 // ॐ ह्री. चंदनं॥ मुक्ताफल सम अक्षत लीजें, श्रीजिन सन्मुख पुंज सु दीजै। यातें अक्षत पद तुम, कर्मादिक सब कीच बहावो॥ विजय. // 7 // ॐ ह्रीं. अक्षतं॥ सुरतरुके बहु फूल सु लावो, श्री जिनचरणन भेंट चढ़ावो। यातें कामबाण मिट जावै, जिनपद पूज परम सुख पावै॥ विजय. // 9 // ॐ ह्रीं. पुष्पं // फेनी गोझा मोदक खाजे, नैननको प्यारे ले ताजे। क्षुधा रोगको नाश सु कीजे, अजर अमर पदवी तब लीजे॥ विजय. // 11 // ॐ ह्रीं. नैवेद्यं॥ दीप अमोलिक कर धरवा लो जगमग जगमग होत दिवालो। मोहतिमिर कहुँ दीखत नाही, पूजत जिनचरणन जग माही॥ विजय. // 13 // ॐ ह्री. दीपं॥ धूप सुगन्ध दशों दिश छाई, जिनचरणन भवि खेवत भाई। कर्म महारिपु को सुजलावो, पूजत जिनवर शिवसुख पावो॥ विजय. // 15 // ॐ ह्रीं. धूपं॥ लौंग छुहारे पिस्ता लाय, श्रीफल अरू बादाम मंगाय। ले जिनवरके सन्मुख हुजे, पावत शिवफल प्रभुपद पूजे॥ विजय. // 17 // ॐ ह्रीं. फलं॥ जल फल अर्घ चढाय सु गावै,थेई थेई थेई सुर ताल बजावै। यहै कौतुक अद्भुत सुविशेखो,पूजत जिनवर लाल सु देखो। विजय. // 19 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 94] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान अथ प्रत्येकार्घ - दोहा शब्दवान वर कूट है, विजय सु पश्चिम वीर। ता पर श्री जिनभवन लख, अर्घ जजों कर जोर॥२०।। ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी शब्दवान नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ विजयवान वक्षार है, विजय सु पश्चिम द्वार। अर्घ देत भवि भाव धर, श्री जिनभवन निहार॥२१॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी विजयवान नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ विजयमेरु पश्चिम दिशा, आसीविष वक्षार / ता पर जिन मंदिर बनो, अर्घ देत उर धार // 22 // ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आसीविष नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ पश्चिम विजय सु मेरुके, नाम सुखावह सार। मन वच तन जिन भवन नाम, अर्घ देय भर थार॥२३॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुखावह नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ चन्द्र नाम वक्षार है, पश्चिम विजय सु नाम। श्री जिनमंदिर है तहां, अर्घ जजों तज काज॥२४॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी चन्द्र नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ विजय सु पश्चिम वोर लख, सूर्य नाम वक्षार। अर्घ जजों वसु द्रव्य ले, जिनमंदिर सुखकार // 25 // ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह लम्बन्धी सूर्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्भकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [ 95 = === = == === == विजय सु पश्चिम दिश गिनौ, नाग नाम वक्षार। ताके ऊपर जिनभवन, पूजों अर्घ संवार // 26 // ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी नाग नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // देव नाम वक्षार है, विजयके पश्चिम आन। तापर जिनवर भवन लख, अर्घ जजों तज मान॥२७॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी देव नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // विजयमेरु पश्चिम दिशा, गिर वक्षार विशाल। तिनपर जिनमंदिर बने तिनकी सुन जयमाल // 28 // पद्धडी छन्द जै द्वीप धातुकी है अति उदार, ताकी पूरव गिर विजय सार। तिस गिरकी पश्चिम दिश महान, जै षोडश देश विदेह थान॥ तहां तीर्थंकर राजै सदीव, बल चक्री हर प्रतिहर सु जीव। जै पुन्य पुरुष भावें प्रवीन, जिह क्षेत्र सदा उपजै नवीन // तहां रिषभानन जिन विद्यमान, दूजै प्रभु वीर्य अनंत जान। जै जिनवानी धुन खिरै सार, भविजीव सुनै आनंद अपार॥ केइ वानी सुन वैराग होय, मुनि भार वहै भव त सोय। केइ श्रावकके व्रत धरै धीर, केइ सम्यग्दर्शन लहैं वीर॥ सब कर्म भूम रचना सुहाय, जहां चौथा काल सदा रहाय। तिस क्षेत्र बीच बैताड़ आठ, गिरपर महासुन्दर सुठाठ॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान = == = ===== ===== तिनपर जिनमंदिर हैं महान, सब समोसरण वरणन समान। जै वेदी मध्य विराजमान, सिंहासन हेमवरण वखान॥ जै सिंहासनपर कमल सार, बहू रत्नजडित नैनन निहार। तहां श्रीजिनके प्रतिबिंब देख,अति हर्ष किये सुरपति विशेख॥ भामंडलकी छबि रही छाय, भव सात दरश देखत जिनाय। जै तीन छत्र सिरपर फिराय, जैचमर सु चौसठ दुरत जाय॥ जै दुंदुभि शब्द बजैं आकाश, जै कल्पवृक्ष सुन्दर सुवास। जै पुष्पवृष्टि सुर करें लाय, जै सभी जीव जै जै कराय॥ जै वृक्ष अशोक सुलहलहाय, जिनपूजनको भविजन बुलाय। जै चतुर निकाय सु देव आय, खेचर खेचरनी सीस नाय॥ बहु नृत्य करै बाजे बजाय, गुण आठ पढ़ आनंद बढ़ाय। प्रभु तुम गुण वरणन है अपार, वरनत कवि कैसे लहै पार॥ घत्ता-दोहा-विजयमेरु पश्चिम दिशा, आठों गिर सु विशाल। तिनपर जिन गृह पूजक, लाल नवावत भाल॥४०॥ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू सम्पति, बाढे अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [ 97 awareneurersarSSNNNNNNN अथविजयमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी षोडश रूपाचलपरसिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 17 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द विजयमेरुके पूरव दिशमें, है रूपाचल गिर अभिराम। सोलह कूटनपर जिनमंदिर रत्नमई जिनवरके धाम॥ तिनमें जिनवर बिंब विराजत सुरखग मिल पूजत तिह ठाम। तिनकी आह्वानन विध करकै, हम पूजत नित करत प्रणाम॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी षोडश रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठर ठः ठः स्थापनं, अब मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणम्, स्थापनम्। अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द क्षीरोदधिको उज्जल जल ले, श्री जिनमंदिर आवत हैं। रत्न कटोरीमें धर कर ले, श्री जिनचरण चढावत हैं। विजयमेरुके पूरव दिशमें, षोड़श देश जु सोहत हैं। रुपाचल पर श्री जिनमंदिर, सुर नरके मन मोहत हैं। ॐ ह्रीं विजय मेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी कक्षा॥१॥ सुकक्षा // 2 // महाकक्षा // 3 // कक्षावती॥४॥ आवर्ता // 5 // मंगलावती॥६॥ पुष्कला // 7 // पुष्कलावती॥८॥ वक्षा // 9 // सुवक्षा // 10 // महावक्षा // 11 // वत्सकावती॥१२॥ रम्या॥१३॥ सुरम्या // 14 // रमणी॥१५॥ मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ मलयागिर चन्दन अरु केसर, ले दोऊ घिसकर धारत है। तन मन भक्ति भाव उर घिसकर,जिन चरणन पर बारत हैं। विजयमेरु.॥३॥ॐ ह्री.॥ चंदनं॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធផលធមទេសនផផផផផផផផផន देव जीर सुख दासक मोदक, अक्षत धोय बनावत हैं। मुक्ताफल सम सार मनोहर, श्री जिनचरण चढावत हैं। विजयमेरु.॥४॥ ॐ ह्रीं // अक्षतं॥ कल्पवृक्ष सुरतरु ते उपजत, फूल सुगंध रही महकाय। शीस नाय भवि पूजत जिनको, श्रीजिन गुण गावत हरषाय॥ विजयमेरु.॥५॥ ॐ ह्रीं // पुष्पं // फेनी गोझा मोदक खाजे, ताजे तुरत सु लेत बनाय। क्षुधा रोगके दूर करनको, श्री जिनवर पद पूजत जाय॥ विजयमेरु.॥६॥ ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जगमग जोत होत दीपककी, रत्नमई कञ्चन भर थार। श्री जिन सन्मुख करत आरती, नाचत थेईथेई पद झुनकार॥ विजयमेरु.॥७॥ ॐ ह्रीं // दीपं॥ फेले सरस सुगन्ध दसों दिश, दशविध धुप बनावत लाय। खेवत अगन माहिजिन सन्मुख,वसुविध कर्म जलावत जाय॥ विजयमेरु.॥८॥ ॐ ह्रीं ॥धूपं॥ श्रीफल लौंग बदाम छुहारे, पिस्ता किसमिस दाख मंगाय। रसना घ्राण नैन सुख उपजत, जिनपद पूजत शिवपद दाय॥ विजयमेरु.॥९॥ॐ ह्री. // फलं॥ जलफलअर्घ बनाय गाय गुण,जिन चरणाम्बुज मस्तक नाय। नरनारी निरजर निरजरनी, जै जै शब्द करत हरषाय॥ विजयमेरु.॥१०॥ ॐ ह्रीं. ॥अर्घ॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [ 99 अथ प्रत्येकार्घ - सोरठा कक्षा देश महान विजयमेरु पूरव दिशा। तहां रूपाचल जान, जिनमंदिर पूजो सदा॥११॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी कक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ देश सु कक्षा सार, पूरव विजय सु मेरूकी। तहां जिन भवन निहार, रूपाचल पर पूजिये॥१२॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी सुकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ विजय सु पूरव ओर, महा सुकक्षा देश हैं। श्री जिनमंदिर जोर, विजयारध पर पूजिये // 13 // __ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी महाकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // कक्षकावर्ती देश, पूरव दिश गिर विजयतें। रूपाचलगिर देश तापर जिनमंदिर जजो॥१४॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी कक्षावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ विजयके पूरव जान, देश नाम आवर्त हैं। श्री जिनभवन महान, विजयारध गिरपे जजो॥१५॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी आवर्त देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ मंगलावती देश, विजयके पूरव दिश कहो। विजयारध गिर वेश, श्री जिनमंदिर पूजिये // 16 // ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 100] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ASSISTANSENSTEINSharaNavra देश पुष्कला सार, पूरव विजयके जानिये। जिन मंदिर सुखकार, पूजो गिर वैताडके // 17 // ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी पुष्कला देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ विजय पूरव दिश जान, पुष्कलावती देश हैं। रुपाचल जिन था पूजो मन वच कायकर // 18 // ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी पुष्कलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // देख अधिक रमणीक, वक्षा पूरव विजयके। जिन मंदिर तहां ठीक, विजयारध पर पूजिये॥१९॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी वक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्धं // देश सुवक्षा नाम, विजय पूरव दिशमें सही। रूपाचल जिन धाम, पूजो भवि मन हर्षसो॥२०॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी सुवक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ विजय पूरव दिश सार, देश महावक्षा गिनो। गिर बैताड निहार, पूजो जिनगृह भावसों // 21 // ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी महावक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ // पूरव विजय विशाल, वत्सकावती देश है। पूजत भवि तिहुंकाल, रूपाचल पर जिन भवनजूं॥२२॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी वत्सकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ // Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान / [101 areraareerNawararakarsaware विजय महागिर सार, पूरव रम्या देश है। अर्घ जजो भर थार, रूपाचल जिन भवन // 23 // ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी रम्या देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ देश सुरम्या जान, पूरव दिश गिर विषयके। जिन मंदिर धर ध्यान, पूजौ गिर वैताडके // 24 // ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी सुरम्या देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ॥ रमणी देश अनूप, विजय पूर्व दिश सोहनो। पूजत सुर खग भूप, जिनमंदिर वैताडके // 25 // ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी रमणी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ // मंगलावती नाम, देश विजय पूरव वसै। सिद्धकूट जिन धाम, पूजो गिर विजयारध पर॥२६॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके पूरव विदेह संबंधी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ // अथ जयमाला - दोहा विजयमेरु पूरव दिशा, गिर वैताड विशाल। षोडश जिनमंदिर जजों, अब वरनूं जयमाल॥२७॥ पद्धडी छन्द जै विजयमेरु सुन्दर सुजान, ताकी पूरव दिशमें वखान। वहां षोडश देशविदेह सार, ताको वरनत लागै अपार // तहां षोडश गिर वैताड नाम, ताके ऊपर जिनवर सु धाम। जै जिनमंदिरमें देय आय, श्री जिनवर पू0 प्रीतलाय॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==================== जै रचना समोशरण समान, वसु मंगल द्रव्य विराजमान। जै वेदीकी कटनी विचित्र, जै सिंहासन सोहैं पवित्र // जैतापर कमल रच अनूप, तहां राजै श्री जिनराज भूप। सत आठअधिक जिनबिंबसार, लख रूपहोत आनंद अपार॥ तहां खेचर खेचरनी सु आय, गुनगान करें बाजे बजाय। जै नृत्य करें संगीत सार, विद्या बल रूप अनेक धार॥ जिनबिंब सुनिरखत नैन लाय,निज जन्मसुफलमानत बनाय। अतिहर्ष सहित पूजत जिनेश, फुनि पाठ पढ़त बहुविधखगेश॥ जै जै जै जिनवर परम देव, तुम चरणनकी हम करत सेव। जै तुम गुण महिमा अगम सार, वरनत हम कैसे लहैं पार॥ पर भक्त लीन तुमको सु ध्याय, पूजत तुम पद आनंद बढाय। जगमें जयवंते होय देव, हम करे सदा तुम चरण सेव॥ भव जीवनकी यह अरज आन, भव भव तुम सेवा मिलै आन। किजै किरपा हमपर दयाल, करजोर शीश नावत सुलाल॥ घत्ता-दोहा-विजयमेरुके पूर्वदिश, रूपाचल जिन थान। सुर खगपति पूजत सदा, लहत सु पद निर्वाण॥ इति जयमाला। अथाशीर्वाद (कुसुमलता छन्द) मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः। इति श्री विजयमेरुकी पूरव विदेह सम्बन्धी षोडश विजयार्द्ध पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [103 SarararSararaharasharaSaawarsh अथ विजयमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी षोडश रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 18 अथ स्थापना - अडिल्ल छन्द विजयमेरुके पश्चिम दिशा वखानिये। तहां षोड़स बैताड़-सरस उर आनिये॥ तिनपर श्री जिनभवन विराजत सार जू। आह्वानन विध करत हरष उर धार जू॥१॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी षोड़श वैताड़ गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं। स्थापनं। अथाष्टकं चाल-कार्तिकीकी प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये इन्द्रादिक पूजत पाय। प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये टेक। प्राणी उज्ज्वल जल सु मंगायके, क्षीरोदधकी उनहार। प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये प्राणी श्री जिन चरण चढाईये, दुख जनम जरा निरवार॥ प्राणी श्री जिनवरपद पूजिये।। प्राणी विजयमेरु पश्चिमदिशा षोड़श रुपाचल जान। प्राणी तिनपर जिनमंदिर कहे सुर खग मिल पूजत आन। प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये॥३॥ ____ॐ ह्रीं विजय मेरु के पश्चिम विदेह संबंधी पद्मा // 1 // सुपद्मा // 2 // महापद्मा // 3 // पद्मकावती॥४॥ ससंखा // 5 // नलिना // 6 // कुमदा॥७॥ सरिता // 8 // वप्रा॥९॥ सुवप्रा॥१०॥ महावप्रा // 11 // वप्रकावती॥१२॥ गंधा॥१३॥ सुगंधा॥१४॥ गंधला // 15 // गंधमालनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान प्राणी मलयागिर अति शीयरो, चंदन केसरमें गार। प्राणी श्री जिनचरण चढाइये, भवभव आताप निवार॥ प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये इन्द्रादिक पूजत पाय॥ प्राणी विजय मेरु.॥५॥ ॐ ह्री. // चंदनं॥ प्राणी अक्षत सरस सु धोइये, मुक्ताफलकी उनहार। प्राणी श्री जिन सन्मुख पुञ्जदे, लहै अक्षयपद सुखकार॥ प्राणी श्री जिन॥६॥ प्राणी विजय मेरु.॥७॥ ॐ ह्री. // अक्षतं॥ प्राणी वेल चमेली केवडा ले फूल अनेक प्रकार। श्री जिन चरण चढाइये कामादिक बाण निवार॥ ___प्राणी श्री जिन // 8 // प्राणी विजय मेरु.॥९॥ ॐ ह्री. // पुष्पं // प्राणी बावर घेवर आदी दे, नानाविधके पकवान। प्राणी श्री जिनचरण चढ़ाइये, तब गई क्षुधा भयमान॥ प्राणी श्री जिन // 10 // प्राणी विजय मेरु.॥११॥ ॐ ह्री. // नैवेद्यं॥ प्राणी जगमग जगमग होत है, दीपककी जोत प्रकाश। प्राणी श्री जिन आरती कीजिये, हो मोह तिमिरको नाश॥ प्राणी श्री जिन॥१२॥ प्राणी विजय मेरु.॥१३॥ ॐ ह्री. // दीपं // प्राणी कृनागर करपूर ले दशविधकी धूप बनाय। प्राणी श्री जिन आगै खेइये, सब कर्म पुज्ज जल जांय॥ ___प्राणी श्री जिन॥१४॥ प्राणी विजय मेरु.॥१५॥ ॐ ह्री. // धूपं॥ प्राणी लौंग सुपारी लायची, बादाम सु पिस्ता लाय। प्राणी श्री जिन चरण चढाइये, मनवांछित शिव फल पाय॥ प्राणी श्री जिन॥१६॥ प्राणी विजय मेरु.॥१७॥ ॐ ह्री. // फलं॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [105 ANNNNNNNNNNNNNNNNNNN प्राणी जल फल आठो दर्व ले, सुर खग मिल पूजत पाय। प्राणी श्री जिन आगै अर्घ दो, भवि लाल सुबल बल जाय॥ प्राणी श्री जिन // 18 // प्राणी विजय मेरु.॥१९॥ ॐ ह्री. // अर्घ // अथ प्रत्येकार्घ - सोरठा विजय सु पश्चिम वोर, पद्मा देश सुहावनो। विजयारध गिर जोर, तापर जिनमंदिर जजो॥२०॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी पद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // नाम सु पद्मा देश, विजयमेरु पश्चिम दिशा। तहां रूपाचल वेश, पूजो जिनमंदिर सदा॥२१॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुपद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ विजय सु पश्चिम सार, महापद्मा शुभ देश है। तहां जिन भवन निहार, रुपाचल पर पूजिये॥२२॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी महापद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ पद्मकावती सार, विजय सु पश्चिम जानिये। जिनमंदिर सुखकार, विजयारध गिरपर जजों॥२३॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी पद्मकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ देश सुसंखा नाम, विजयके पश्चिम दिश कहो। रूपाचल जिन धाम, पूजों मन वच कायसों॥२४॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुसंखा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 5 // अर्घ // Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान नलिना देश उदार, विजयके पश्चिम दिश वसै। रुपाचल सु निहार, श्री जिन मंदिर पूजिये॥२५॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी नलिना देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ कुमदा देश पवित्र, पश्चिम विजय सु मेरुके। विजयारध सु विचित्र, तहां जिनमंदिर नित जजों॥२६॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी कुमदा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // सरिता देश सु जान, विजयके पश्चिम दिश गिनो। रूपाचल जिन थान, पूजों वसु विध दर्व ले॥२७॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सरिता देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ॥ वप्रा देश महान पश्चिम दिश गिर विजयके। जिनमंदिर सुख खान, पूजों गिर वैताड पर // 28 // ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी वप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ॥ पश्चिम विजय विशाल, नाम सुवप्रा देश है। तहां जिन भवन रिशाल, विजयारध पर पूजिये॥२९॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुवप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ / विजय सु पश्चिम देश, महावप्रा मन मोहनो। श्री जिनमंदिर देश, गिर वैताड विर्षे जजों॥३०॥ ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी महावप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [107 NNNNNNNNNNNNNNNNNNNN वप्रकावती देश, सोहै पश्चिम विजयको। गिर वैताड विशेष, तापर जिन गृह नित जजों॥३१॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी वप्रकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ // गन्धा देश विशाल, पश्चिम दिश गिर विजयके। श्री जिन भवन विशाल, अर्घ जजों वैताड़ पर // 32 // ____ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी गंधा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ // पश्चिम विजय वखान, देश सुगन्धा नाम है। विजयारध गिर जान, तापर जिनगृह पूजिये // 33 // ___ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुगंधा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ // विजय पश्चिम दिश सोय, देश गन्धला है भलो। तहां जिनमंदिर जोय जजों सदा विजयार्धमें // 34 // ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी गंधला देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ // गन्धमालनी देश, वसै विजय पश्चिम दिशा।। श्री जिन भवन विशेष, रुपाचल पर पूजिये॥३५॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी गंधमालनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ // ___अथ जयमाला - दोहा / विजय मेरुके पश्चिम दिशा रुपाचल सु विशाल। तिनपर जिनगृह पूजकैं, अब वरनूं जयमाल // 36 // Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान SNESharashNrNarSNNNNrsrirara पद्धडी छन्द जै विजयमेरु शोभै महान, ताकी पश्चिम सु विदेह जान। तहां षोडश देश वसै सु थान रुपागिर षोड़श है सु जान॥ तिनपर जिनमंदिर है विशाल षोडश मन मोहत द्युति रिशाल। जै रत्नमई रचना अपार, बन रहा सु अद्भुत हिये धार॥ जै जगमग जगमग जोति सार, जै तीन पीठ सोहै सिंगार। जै सिंहासन पर कमल देव, सुर खग मन हर्ष बढो विशेख॥ तहां राजै श्री जिनराज देव, शत इन्द्र चरणकी करत सेव। जै छत्र तीन सिरपर फिराय, भामंडल छवि वरणी न जाय॥ जै चौसठ चमर ढुरै विचित्र, सब मंगल दर्व धरै पवित्र। तहां खेचर खेचरनी सु आय, पूजै जिनवर अति प्रीत लाय॥ पुन करत आरती जुगल हाथ, जै जै धुन कर नावतसु माथ। जै नृत्य करत संगीत आय, गुणगान करत बाजे बजाय॥ जिनराज सभी नैनन निहार, विद्या बल रूप अनेक धार। द्रुम द्रुम द्रुम द्रुम बाजै मृदंग, खेचर खेचरनी नचैं संग॥ जै दुंदुभी नाद बसें अकाश, जै गन्धोदक वरसै सु वाश। तहां श्रीमुनिराजधरैसुध्यान, निजअनुभवरसकोकरनपान॥ यह विध वरनन है बहु अपार, वरनत कवि कैसे लहै पार। हम शक्ति हीन तुम भक्त धार, तुम गुण वरणन कीनो सवार॥ तुम जग जयवन्ते होहु देव, हम करै सदा तुम चरन सेव। हमपर किरपा कीजे दयाल, कर जोर सीस नावत सुलाल॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [109 ==================== घत्ता-दोहा पश्चिम विजय सुमेरुके, षोड़श क्षेत्र विशाल। श्री जिनभवन अनादि लख, लाल रची जयमाल॥ इति जयमाला। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढै मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू सम्पति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री विजयमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी षोडश रुपाचल पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। ___ / / अथ विजयमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबंधी रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 19 अथ स्थापना - कुसुमलता छन्द विजयमेरुकी दक्षिण दिशमें, भरत क्षेत्र सुन्दर सु विशाल। वीसचार तीर्थंकर निवसैं, सुरनर खगपति नावत भाल॥ रूपाचल तहां पढो मनहर, सिद्धकूट जिनभवन रिशाल। तिनकी आह्वानन विध करके, अपने घर पूजैं तिहुँ काल॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके दक्षिण भरतक्षेत्रसम्बन्धीरूपाचल परसिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधकरणम् स्थापनं / Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==== === ===== ___अथाष्टकं-चाल प्रभु पूजो रे भाई, भला प्रभु पूजो रे भाई। तुम श्रावक कुलको पाय कै, प्रभु पूजो रे भाई॥ टेक // पद्मद्रहको नीर सु लेकर, कंचन झारी भरिये। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, तृषा रोग तब हरिये॥प्रभु. विजय मेरुकी दक्षिण दिशमें, भरत क्षेत्र अति सौहै। तहां पडो वैताड़ मनोहर, जिन मंदिर मन मोहै।प्रभु.॥२॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ जलं॥ मलयागिर घस सार सु चन्दन, केसर रंग सु गारो। श्री जिनचरण चढावो भविजन, भव आताप निवारो।।प्रभु.॥ विजयमेरु.॥३॥ ॐ ह्रीं // चंदनं॥ मुक्ताफल सम उज्जल अक्षत, पुज्ज मनोहर दीजै। श्री जिनचरण चढावत भविजन, तुरत अखै पद लीजैं।प्रभु.॥ विजयमेरु.॥४॥ ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी जुही चमेली, श्री गुलाब ले नीको। कामबाणके नाशन कारण, पूजो श्री जिनजीको॥प्रभु.॥ विजयमेरु.॥५॥ ॐ ह्रीं. // पुष्पं // फेनी घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत बनावो। क्षुधा रोगके नाशन कारण, श्री जिनचरण चढावो।प्रभु.॥ विजयमेरु.॥६॥ ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ मणिमई दीप अमोलिक लेकर, कनक रकेबी धारो। मोह तिमिरके नाशन कारण, जिन वरणन पर वारो।।प्रभु.॥ विजयमेरु.॥७॥ॐ ह्रीं. // दीपं॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [111 SarSNASESSISTANTSPSSSwar दस विध धूप सुरंगी चंगी, अगनीको सु पचावो। खेवो धूप जिनेश्वर आज, वसु विध कर्म जलावो॥प्रभु.॥ विजयमेरु.॥८॥ ॐ ह्रीं.॥धूपं॥ श्रीफल लौंग सुपारी पिस्ता, नैननको सुखकारी। श्रीजिन चरण चढावत भविजन,शिवपद पावत भारी।प्रभु.॥ विजयमेरु.॥९॥ ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल अर्घ चढ़ाय गाय गुण, नाचत दे दे तारी। नरभव पाय जिनेश्वर पूजै, लाल सदा बलिहारी ।प्रिभु.॥ विजयमेरु.॥१०॥ ॐ ह्रीं. // अर्घ / अथ प्रत्येकार्घ - कुसुमलता छन्द विजयमेरुके दक्षिण सोहैं, भरतक्षेत्र सुन्दर अभिराम। ताके मध्य पडो रूपाचल, श्वेत वरण मुनिजन विश्राम // तहां श्री सिद्धकूट जिनमंदिर, श्री जिनबिंब अकीर्तम धाम। तिनके चरणकमल हम वसुविध,अर्घ चढ़ाय जजै निज ठाम॥ __ॐ ह्रीं विजयमेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र संबंधी संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ अथ जयमाला - दोहा विजयमेरु दक्षिण दिशा, भरतक्षेत्र सु विशाल। रूपाचलपर जिन भवन, पूजत सुर नर लाल // 12 // पद्धडी छन्द जै द्वीप धातुकी परम वेश, तहां दोय मेरु भाषे जिनेश। पूरव दिश मेरूविजय महान, पश्चिम दिश दूजो अचल जान॥ जै दोऊ मेरु महा उतंग, जोजन चौरासी सहस अंग। जै पूरव विजय सुमेरु सार, ताकी दक्षिण दिशमें निहार॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ================== जै भरतक्षेत्र सुन्दर अनूप, जै छहों काल करते स्वरूप। जै तीन कालमें भोग भूम, दश कल्पवृक्ष तहां हैं शुभ॥ जहां जुगला धर्म हैं सदीव, सुखमें बहु मगन रहैं सुजीव। जै चौथो जब वरतैसु आय, तब कर्मभूम छवि रहैं छाय॥ जै तीर्थंकर चौवीस जान, चक्री द्वादश भाषे पुरान। जै प्रतिहर हर बलभद्र होय, जैत्रेसठ-पुरुष पवित्र सोय॥ जै मुनिव्रत धारै भव्य जीव, श्रावक व्रत पालैं हैं सदीव। जै चार घातिया करैं नाश, जै केवलज्ञान लहैं प्रकाश॥ यह चौथे काल तनी सूरीत, भाषी जिन आगम कही मीत। जै पंचम छट्ठम दुःख रूप, दुःख रूप सु कारज करैं भूप॥ ता क्षेत्र बीच वैताड लेख, तापर नव कूट रचे विशेष। चारों दिश आठ कहैं सुजान, तिनपर विंतर देवन सुथान॥ श्री सिद्धकूट तिस बीच जान, तापर जिनमंदिर शोभमान। जै रत्नजटित वरनन अपार, वरणत सुरगुरु पावैं न पार॥ सब समोसरण रचना रिशाल, बन रही परम सुन्दर विशाल। वसु प्रातिहार्य द्युत रही छाय, जै मंगल द्रव्य रचे बनाय॥ जै सिंहासनपर कमल सोय, जै जगमग जगमग जोति होय। ता ऊपर श्रीजिनराज देव, सत आठ अधिक सुर करत सेव॥ शत पांच धनुष उन्नत सुकाय, पद्मासन छबि वरणी न जाय। इन्द्रादिक वसुविध दर्व लाय, जिनराज चरण पूजन बनाय॥ खेचर खेचरनी सबै आय, गुण गान करत बाजे बजाय। फुन नृत्य करत संगीत सार, निज जन्म सफल मनमें विचार॥ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [113 NawarararNNNNNNNNNNNNNN ____घत्ता-दोहा दर्श देख जिनराजको, सम्यक् लहत सु जीव। यह पूजा वैताड की वांचों भव्य सदीव॥ इति जयमाला। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री विजयमेरुकी दक्षिण दिश भरतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ विजयमेरुके उत्तर दिश ऐरावतक्षेत्र संबंधी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 20 अथ स्थापना - (मदअवलिप्तकपोल छन्द) विजयमेरुकी उत्तरदिशमें, ऐरावत शुभ क्षेत्र महान। जहां होत चौबीस तीर्थंकर, नितप्रति नमें सचीपति आन॥ तहां पडो वैताड मनोहर, तापर सिद्धकूट जिनथान। तिनकी आह्वानन विधि करके, अपने घर पूजत सुख मान॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके उत्तर दिश ऐरावतक्षेत्र संबंधी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतरसंवौषट् आह्वाननं ।अत्र तिष्ठतिष्ठ ठः ठःस्थापनं, अत्रममसन्निहितोभवर वषट् सन्निधिकरणम्, स्थापनं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 114] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ========== == अथाष्टकं-चाल प्रभु पूजोरे भाई, भला प्रभु पूजोरे भाई। यह श्रावक कुलको पायक, प्रभु पूजोरे भाई॥ टेक॥ पुंडरीक द्रहको उज्जल जल, कंचन झारी भरिये। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, जन्मजर दुख हरिये। प्रभु.॥ विजयमेरु उत्तर ऐरावत, रुपाचल गिरि सोहै। ताके उपर सिद्धकूट है, जिन मंदिर मन मोहे प्रभु.॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके उत्तर दिश ऐरावतक्षेत्र संबंधी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ जलं॥ मलयागिर घन सार सुचन्दन, केसर घिसकर लावो। भव आताप हरन जिनवर पद, पूजत दाह मिटावोभिला.॥ विजयमेरु.॥३॥ ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ देवजीर सुखदायक मोदक, सुन्दर धोय सु लीजो। श्वेत वरण मुक्ता सम अक्षत, पूंज मनोहर दीजो॥भला.॥ विजयमेरु.॥४॥ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ वेल चमेली कुन्द केतकी जल थल कमल मंगावो। कामबाण नाशन जिनवर पद, सुन्दर फूल चढ़ावोभला.॥ विजयमेरु.॥५॥ॐ ह्रीं. // पुष्पं // बावर घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत सु करके। क्षुधा हरण जिनचरण चढावो, कंचन थाल सु भरकै॥भला. विजयमेरु.॥६॥ ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // जगमग जोत होत रतनकी, मणिमई दीप सु लावो। मोह-तिमिरके नाश करणको, जिनवर चरण चढ़ावोभला. विजयमेरु.॥७॥ ॐ ह्रीं. // दीपं॥ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [115 SSSSSSSSSSSSSSSSSwara कृश्नागर वर धूप मनोहर, दशविध गंध मिलावो। आठ कर्म जारन प्रभु सनमुख, धूप खेय गुण गावोभला.॥ विजयमेरु.॥८॥ ॐ ह्री. ॥धूपं॥ दाख छुहारे श्रीफल पिस्ता, किसमिस लौंग सुपारी। शिवरमणी वर पूजत भविजन, पावै शिवफल भारी॥भला.॥ विजयमेरु.॥९॥ ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल अर्घ चढाय गाय गुण, नाचत दे दे तारी। विघन हरन जिनराज चरन पर, लाल सदा बलिहारी॥भला. विजयमेरु.॥१०॥ ॐ ह्रीं. ॥अर्घ॥ अथ प्रत्येकाघ - कुसुमलता छन्द विजयमेरु उत्तर ऐरावत, रुपाचल सोहै अभिराम। ताके शिखरकूट भव उन्नत, रत्नमई विंतर विश्राम॥ सिद्धकूट तिस बीच मनोहर, तहां जु श्री जिनवरको धाम। तिनके चरणकमल वसुविध हम, चढाय जजत निज ठाम॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र संबंधी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ अथ जयमाला (दोहा) विजय उत्तर दिशा, ऐरावत सु विशाल। रुपाचल पर जिन भवन, सुन तिनकी जयमाल॥१२॥ - पद्धरि छन्द जै द्वीप धातुकी अति उदार, जाकी पूरव गिरि विजयसार। तिस गिरिकी उत्तर दिश महान, तहां ऐरावत वर क्षेत्र मान॥ जहां छहों कालकी फिरन होय, निज पुन्य पाप फल लहैं सोय। जै तीन कालमें भोगभूम दश कल्पवृक्ष तहां रहें झूम॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធផលទេសផលជលផល जै जुगला धर्म चलैं सु रीत, सुखमें सब जीव करै व्यतीत। जब चौथा काल लगैंसु आय, तब कर्म झूम वरतै सुमाय॥ जहां तीर्थंकर चौवीस होय, लख दरश सचीपति मोहि होंय। चक्री बलहर प्रतिहर महान, यह त्रेसठ पुरुष पवित्र जान॥ केई मुनि व्रत धारै निकट भव्य, केई गहैं अणुव्रत लहैं द्रव्य। केई केवलज्ञान करें प्रकाश, पावै शिवपुर अविचल अवास॥ यह चौथे काल कही सुरीत, पंचम षष्ठम दुखरूप मीत। तिस क्षेत्र बीच वैताड एक, गिर शिखरकूट नव हैं प्रत्येक॥ वसु कूट आठ दिश कहै भेव तहां केल करैं बिंतरें सु देव। नवमो श्री सिद्ध सुकूट नाम,जहां स्वयं सिद्धजिनवर सुधाम॥ जै रत्नमई प्रतिमा पवित्र सत आठ अधिक छबि अति विचित्र। सब समोसरण रचना अनूप,सुरनर मिल निरखें जिन स्वरूप॥ जै प्रातिहार्य मंगल सु दर्व, जै वर्णन कवलों करै सर्व। जै सिंहासनपर कमल सार, जै जगमग जोत लसै अपार॥ जैतापर श्री जिनराजदेव, शत इन्द्र चरनकी करत सेव। पद्मासन छवि वरणी न जाय, तन उचित पांचसै धनुष काय॥ खेचर खेचरनी सबै आय, जिनराज चरन पूजन सु भाय। जै नृत्य करत संगीत सार, विद्या बल रूप अनेक धार॥ बहु विध कौतूहल करत जाय, नरजन्म सुफल अपनो कराय। जै जै जै जै जिनराज देव, भवि लाल चरनकी करत सेव॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [117 === ==== = ===== == ___ घत्ता-दोहा पूजा श्री सर्वज्ञकी, जो वांचै मन लाय। नरसुरपति सुख भोगकैं, निहचै शिवपुर जांय॥ इति जयमाला। अथाशीर्वाद - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाटै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री विजयमेरुके उत्तर ऐरावत संबंधी रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ विजयमेरुके उत्तर दक्षिण षट्कुलाचल पर्वत सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 21 अथ स्थापना - अडिल्ल छन्द विजयमेरु के दक्षिण तीन सुजानिये। अरु उत्तर दिश तीन कुलाचल मानिये॥ तिनपर श्री जिनभवन विराजत सार जू। आह्वानन विध करत हरष उर धार जू॥१॥ ॐ ह्रीं विजय मेरुके दक्षिण उत्तर षट् कुलाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं / अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं / स्थापनं / Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान उज्वल जल प्रासुक ले नीको, कंचन झारी भरीये। पूजत श्री जिनराज प्रभूको, जनम जरा दुख हरिये॥ विजयमेरुके दक्षिण उत्तर, षट्कुल गिरपर सोहै। तहां जिनभवन अकीर्तम सुन्दर, सुरनर के मन मोहै॥२॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके दक्षिण दिश निषध॥१॥ महाहिमवन // 2 // हिमवन // 3 // उत्तरदिश नील // 4 // रुक्म // 5 // सिखरन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ जलं॥ मलयागिर करपूर सु चन्दन, केसर रंग सु नीकों। भव आताप निवारन कारन, पूजत जिनवरजीको॥ 'विजयमेरु.॥३॥ ॐ ह्रीं. // चंदनं // देवजीर सुखदास सु अक्षत, उज्वल धोय सु लीजे। मन वच काय लाय जिन चरणन, पुञ्ज मनोहर दीजे॥ विजयमेरु.॥४॥ ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ नानाविधके फूल सुवासित, सुर तरुके ले आवो। पूजो श्री जिनराज प्रभुको, हरष हरष गुण गावो॥ विजयमेरु. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // बहु विधके पकवान मनोहर, ले जिनपूजा करिये। क्षुधा रोगके नाश करनको, प्रभु सन्मुख ले धरिये॥ विजयमेरु.॥६॥ ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जगमग जगमग होत दिवाली, दीप अमोलक लावो। मोह तिमिर नाशक जिनवरपद, आरति कर हरषावो॥ विजयमेरु.॥७॥ ॐ ह्रीं. // दीपं॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [119 = = = = = == == दशविध धूप सुगंधित लेकर, पूजन भविजन भाई। ये कर्मादिक दहन हुताशन, जिन चरनन लौ लाई॥ विजयमेरु.॥८॥ ॐ ह्रीं. // धूपं // लौंग लायची पिस्ता किसमिस, अरु बादाम मंगावो। पूजत भविजन श्रीजिनवर पद मुक्तश्री फल पावो॥ विजयमेरु.॥९॥ ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल अर्घ बनाय गाय गुण, श्री जिनचरण चढ़ावो। भावभक्तिसौ पूजो भविजन, वसुविध कर्म नशावो॥ विजयमेरु.॥१०॥ ॐ ह्री. // अर्घ। अथ प्रत्येकाघ (मदअवलिप्तकपोल छन्द) विजयमेरके दक्षिण सोहै, तप्त हेमद्युति निषध सु नाम। द्रहतिगिन्छ कमल पंकति जुत, जलज बीच धृत देवी धाम॥ गिरिके शिखर कूट नव वरने तिस बीच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ चढ़ाय करत परणाम॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके दक्षिण दिश निषेध पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // विजयमेरु दक्षिण दिश सोहै, विसद महाहिमवन गिर नाम। द्रह महा पद्म कमलकी पंकज, नीरज बीच ही देवी नाम॥ गिरके शिखरकूट वसु उन्नत, तिहबिच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ चढाय करत परणाम॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके दक्षिण दिश महाहिमवन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान សធផល विजयमेरुके दक्षिणदिश सोहै, सुवरणद्युति हिमवन गिरनाम। पद्म द्रह द्रह बीच कमल है, कमल बीच श्रीदेवी धाम॥ ता गिर शिखरकूट एकादश, सिद्धकूट सोहै तिह ठान। तहां जिन भवन निहार धार उर, अर्घ चढाय करत परणाम॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके दक्षिण दिश हिमवन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // विजयमेरुके उत्तर दिशमें, वडूरज द्युति नील सु नाम। द्रह केसरी जलज पंकतिजुत, तहां कीर्तदेवीको धाम॥ गिरिके शिखरकूट नव सोहैं, तिहबीच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ चढ़ाय करत परणाम॥ ___ॐ ह्रीं विजयमेरुके उत्तर दिश नील पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ विजयमेरु उत्तर दिश सोहै, रजित रुक्मगिरि पर्वत नाम। द्रह महा पुण्डरीक पंकज जुत, तापर बुधदेवीको धाम॥ तहां गिरि शिखरकूट वसु उन्नत, ताबीच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ चढ़ाय करत परणाम॥ ____ॐ ह्रीं विजयमेरुके उत्तर दिश रुक्म पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 5 // अर्घ // विजयमेरुके उत्तर दिशमें, कनकवरण शिखरगिरी नाम। पुंडरीक द्रह द्रह बीच नीरज, तहां लक्ष्मीदेवीको धाम॥ तिहगिर शिखरकूट एकादश, तिह बीच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ चढाय करत परणाम। ॐ ह्रीं विजयमेरुके उत्तरदिश सिखरिन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [121 = == = = == = = = = = विजयमेरुके भद्रशाल वन सीता तट दोनों दिश जान। पांच पांच हैं कुण्ड मनोहर तिह तट दस दस गिर परमान॥ तिस कंचनगिर पर जिनप्रतिमा एक एक सोहै जिन थान। सबमिल एक शतक नितप्रति हम जजत अर्घउरमें धर ध्यान॥ ____ॐ ह्रीं विजयमेरुके भद्रशाल बन सम्बन्धी सीता नदीके दोनों तट पांच पांच कुण्ड तिन कुण्डन तट दस दस कंचनगिरि पर एक एक जिनप्रतिमा अकीर्तम गंधकुटी सहित विराजमान तिन एक सौ प्रतिमाजीको॥७॥ अर्धं // विजयमेरुके भद्रशाल बन, सीतोदा दोनों तट जान। पांच पांच हैं कुंड मनोहर, तिह तट दस दस गिर परमान॥ तिह कंचन गिरपर जिन प्रतिमा, एकर सोहै जिन थान। सब मिल एकशतक नितप्रति हम, जजत अर्घ उरमेंधर ध्यान॥ ____ॐ ह्रीं विजयमेरुके भद्रशाल वन संबंधी सीतोदा नदीके दोनों तट पांच पांच कुंड तीन कुण्डन तट दस दस कंचनगिरि पर एक एक जिनप्रतिमा अकीर्तम गन्धकुटी सहित विराजमान तिन सौ प्रतिमाजीको॥८॥ अर्धं // विजयमेरुके पूरव कालोदधि, पश्चिम लवणोदधि मरजाद। दक्षिण उत्तर इष्वाकारे, बीच क्षेत्र वहु कहैं अबाद॥' सिद्ध भूम तहां कही अनन्ती अर जिनमंदिर साद अनाद। मन वच तन हमशीश नायकर, अघ जजत तजकै परमाद॥ ॐ ह्रीं विजयमेरुके दिशा विदिशा मध्ये लवणसमुद्र आदि कालोदधि पर्यन्त जहां जहां कीर्तम अकीर्तम जिनमंदिर होय अथवा सिद्धभूमि होय तहां तहां // 9 // अर्घ // // जवा Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1922] 122] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान == = ========= ===== अथ जयमाला - दोहा विजयमेरु कुल गिर कहै, श्री जिनभवन विशाल। तिन प्रति सीस नवायके, अब वरणूं जयमाल // 20 // पद्धरि छन्द जै द्वीप धातुकी है उदार, ताको पूरव दिश कही सार। जै विजयमेरु सोहै उतंग जोजन चौरासी सहस अंग॥ जै ताकी दक्षिण दिश पवित्र,तहां कुलगिर तीन कहैं विचित्र। "है पहिलो नाम निषध सु जान, दूजो महाहिमवन है प्रधान॥ जैतीजो हिमवन गिर विशाल, तिसपर जिनमंदिर है रिशाल। अब उत्तरदिश वरनूं सु तीन, गिर नील नाम पहिली प्रवीन। दूजो गिररुक्म सुजगमगाय,तीजो गिर सिखरन अति सुहाय। येही षट्कुलगिर हैं प्रसिद्ध,बहुरचित खचितद्युति स्वयंसिद्ध॥ तिनपर द्रह सुन्दर सजल थान,तिस बीच कमल पंकज महान। तिनपर कुलदेवीके अवास,बहु रत्नजड़ित सुन्दर सुवास॥ गिर सिद्धकूट पंकति अपार, श्री सिद्धकूट तिनमें सिंगार। तहां श्रीजिनमंदिर शोभमान,सत आठ अधिक प्रतिमा प्रमान॥ जहां मंगल द्रव्य धेरै बनाय, वसु प्रातिहार्य छबि रही छाय। सबसमवसरणविधकहीसोय, देखतभविसम्यक्दरशहोय॥ जै सुरखग मिल पूर्णं सदीव, जिन भक्ति हिये धारै सुजीव। नाचैं गा दे दे सुताल, झुक झुक जिनमुख देखें संभाल॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [123 SSSSSSSSSSSSSSSSSSSS जै द्रुम द्रुम द्रुम बाजै मृदंग, इन्द्रानी इन्द्र नचै सु संग। जै थेई थेई थेई धुन रहीं पूर, बन रहोसुझुरमुट जिन हजूर॥ जिनराज सभी नैनन निहार, चित्त हर्ष बढ़ोसुरपति अपार। जै जै जै जिनवर परमदेव, तुमचरणनकी हम करत सेव॥ घत्ता-दोहा षट् कुलगिरि पूजा परम, बनी सु बहुत विशाल। वांचत सुख उपजै घनो, बल बल जात सु लाल॥३१॥ इति जयमाला अथाशीर्वाद (कुसुमलता छन्द) मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जसपर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः इति श्री विजयमेरुके दक्षिण उत्तर दिश षटकुलाचल पर्वतपर जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। इति धातुकी द्वीपमध्ये पूर्वदिश विजयमेरु (द्वि. मेरु) सम्बन्धी अष्टोत्तर जिन मंदिर शास्वत् विराजमान तिनकी पूजापाठ सम्पूर्णम् / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान SNNNNNNNNNNNNNNNNNN अथ धातुकी द्वीपमध्ये पश्चिमदिश अचलमेरु (तृ. मेरू) संबंधी षोडश जिमंदिर पूजा नं. 22 अथ स्थापना (मदअवलिप्तकपोल छन्द) दीप धातुकी पश्चिम दिशमें, अचल मेरु वंदू धर ध्यान। भद्रशाल नंदन सोमनस वन, अर पांडुकवन चार प्रमान॥ चारों दिशा चार जिनमंदिर, चारों वन षोड़स जिन थान। तिनकी आह्वानन विध करके, अपने घर पूजत सुख मान॥ ___ॐ ह्रीं धातुकी द्वीप पश्चिम दिशा अचलमेरु पर चारों दिशा चार वन संस्थित षोडश जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं, स्थापन। अथाष्टकं-त्रिभंगी छन्द क्षीरोदधि नीरं अमल अमीरं, मन वच धीरं भर लावो। कंचन भर झारी धार निकारी, तृषा निवारी सुख पावो॥ गिर अचल जो सोहै सुरनर मोहै,अति छबि जो है जिनभवनं। कर पूजा सारी अष्ट प्रकारी, शिव-सुखकारी जिन चरनं॥ ___ॐ ह्रीं धातुकी द्वीपके पश्चिमदिशा अचलमेरुके भद्रशाल वन संबन्धी पूर्वदिश॥१॥ दक्षिण॥२॥ पश्चिम // 3 // उत्तर // 4 // नंदनवन संबन्धी पूर्व // 5 // दक्षिण॥६॥ पश्चिम // 7 // उत्तर // 8 // सोमनस वन सम्बन्धी पूर्व॥९॥ दक्षिण // 10 // पश्चिम॥११॥ उत्तर॥१२॥ पांडुक वन सम्बन्धी पूर्व // 13 // दक्षिण॥१४॥ पश्चिम॥१५॥ उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [125 = = = = = = = = = = मलयागिरि बावन चंदन पावन, निर्मल भावन घस लीवो। जिनचरण चढावो दाह नशावो, शिपद पावो भव जीवो॥ गिर अचल.॥३॥ ॐ ह्रीं.॥चंदनं॥ अक्षत ले ताजे अति छवि छाजे, कोमल साजे धोय धरो। अक्षयपद पावो मन हरषावो, बलबल जावो दोष हरो॥ गिर अचल.॥४॥ ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ बहु फूल सुवासी अमल विकाशी, आनंद राशी लाय धरो। सुरतरुके लावो चरण चढ़ावो, जिनगुण गावो काम हरो॥ गिर अचल.॥५॥ॐ ह्री.॥ पुष्पं॥ पकवान सुनीको तुरत सुधीको, सब विध ठीको मिष्ट महा। भर कंचन थारी नेवज सारी, क्षुधा निवारी हर्ष लहा॥ गिर अचल.॥६॥ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // दीपककी जोतं तम क्षय होतं, जोत उद्योतं रत्नमई। , मोहादिक नाशैं स्वपर प्रकाशैं हम घट माशैं ज्ञानमई॥ गिर अचल.॥७॥ ॐ ह्रीं. // दीपं॥ वरधूप दशांगी परमल चांगी, अगन सुरांगी धर खेवो। वसु कर्म जलावो मन हर्षावो, पुन्य बढावो जिन सेवो॥ गिर अचल.॥८॥ ॐ ह्रीं.॥धूपं॥ फल मधुर सुचोखे सुर तरुपोखे, अमल अदोखे रितु रितुके। जिनचरण चढावो मंगल गावो, शिवफल पावो निज हितके॥ गिर अचल.॥९॥ ॐ ह्रीं // फलं॥ जल फल वसु लावो अर्घ बनावो, पूज रचावो हितकारी। भविजन सब लावो कर चित्त चावो,आन चढ़ावो भर थारी॥ गिर अचल.॥१०॥ ॐ ह्रीं. ॥अर्घ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान =================== अथ प्रत्येकार्घ - दोहा अचलमेरु पूरव दिशा, भद्रशाल वन जान। तहां जिनमंदिर सोहने, पूजो उर धर ध्यान॥११।' ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी पूर्वदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ अचलमेरुके दक्षिण दिशा, भद्रशाल वन सोय। ॐ ह्रीं अचलमेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी दक्षिणदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 2 // अर्घ॥ अचलमेरु ते जानिये, पश्चिम दिश सुखकार। भद्रशाल वन जिनभवन, पूजत हरष अपार // 13 // ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम दिश भद्रशाल वन सम्बन्धी सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // अचलमेरुके उत्तर दिशा, भद्रशाल वन सार। श्री जिनभवन सु पूजिये, जिनवर बिंब निहार // 14 // ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तर दिश भद्रशाल वन सम्बन्धी सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // सोरठा-- अचलमेरुते जान, पूरव नन्दन वन विौं / जिनमंदिर धर ध्यान, पूजों अर्घ चढ़ायके॥१५॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके नन्दन वन सम्बन्धी पूर्व दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ // अचलमेरु है नाम, दक्षिण दिशा सु जानिये। नन्दन वन जिन धाम, मैं पूजू मन लायकै // 16 // ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके नन्दन वन सम्बन्धी दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [127 ANSrawaraNEFarararakarsanaries अचल सु पश्चिम वीर, नन्दनवन अति सोहनो। जिनमंदिर कर जोर, पूजो वसु विध दर्वसों॥१७॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके नन्दन वन सम्बन्धी पश्चिम दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्धं // अचलमेरु सुखकार, उत्तर नन्दन वन कहो। जिनमंदिर सु निहार, अर्घ जजो वसु दर्व ले॥१८॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तर दिश नन्दनवन सम्बन्धी सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // चौपाई अचलमेरु सुन्दर सु रिशाल, ताकी पूरव दिश सु विशाल। वन सौमनस सु अति घनधोर, जिनमंदिर पूजो कर जोर॥ ____ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव दिश सौमनस वन सम्बन्धी सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ // अचलमेरुके दक्षिण दिशा, वन सौमनस सघन बहु लसा। तहां जिनमंदिर परम रिशाल, अर्घ चढाय नमत तिहूँकाल॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिण दिश सौमनस वन सम्बन्धी सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ // अचलमेरु पश्चिम दिश जान, वन सौमनस वसै सुखखान। श्री जिनमंदिर बने अनाद, अर्घ जजूं तजके परमाद॥ ____ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम दिश सौमनस वन सम्बन्धी सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ॥ अचलमेरुके उत्तर दिश जहां, वन सौमनस विराजै तहां। श्री जिनमंदिर सुन्दर जोय, अर्घ चढ़ाय नमूं पद खोय॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तर दिश सौमनस वन सम्बन्धी सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान KarahararashNrNESSKINNNNNNNN अडिल्ल अचलमेरु की पूरव दिशा सु जानिये। तहां पांडुक वन सार सरस उर आनिये // तहां जिन भवन विशाल अमर खगनितरमैं। वसुविध अर्घ चढाय गाय गुण हम नमैं // 23 // __ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पांडुक वन सम्बन्धी पूर्व दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ अचलमेरु सुन्दर दक्षिण दिश मन हरैं। पांडुक वन जिनभवन अमर जै जै करैं / वसुविध दर्व मिलाय अर्घ ले पूजिये। नर सुरके सुख भोग सु निरमय हूजिये // 24 // ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पांडुक वन सम्बन्धी दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ॥ अचलमेरुकी पश्चिम दिश शुभ लेखिये। पांडुकवन मन हरण सरल तहां देखिये॥ सिद्धकूट जिनभवन परम सुविशाल जू। जलफल अर्घ चढ़ाय नमत भवि लाल जू॥२५॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पांडुक वन सम्बन्धी पश्चिम दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ॥ अचलमेरु उत्तर दिश अति रमणीक है। तहां पांडुकवन सरस विराजित ठीक है। जिनमंदिर धर ध्यान, अमर खग नमत हैं। हाथ जोड नय माथ अरघ हम जजत हैं // 26 // ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पांडुक वन सम्बन्धी उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [129 orarersarakarararasaaraarakSahara अथ जयमाला - दोहा द्वीप धातुकी खंडमें, पश्चिम दिश सु विश्..ल। अचलमेरु तहां सोहनो, सुनो भविक जयमाल॥२७॥ पद्धडी छन्द जै केवलज्ञान विराजमान, तिन मुखरौं जिन ध्वनि खिरी जान। सो गणधर देव दई बताय, भवि जीव सुनत आनंद पाय॥ जै दीप धातुकी है महान, ताकी पश्चिम दिशमें वखान। है अचलमेरु महिमा अपार, जै कंचन वर्ण हिये सुधार // जै सहस असी अरु चार जान, जोजन ऊंचै भाषे पुरान। जै चारो कटनी हैं रिशाल, तहां चारों वन शोभै विशाल॥ जै भद्रशाल पहिलो अनूप मनमोहन नन्दनवन स्वरूप। सौमनस सु वन तीजो बताय, चौथी पांडुक छवि रही छाय॥ जै चारों वन दैदीप्यमान, फल फूल पत्र सुन्दर सु जान। जै पांडुक वनमें सब सुरेश, जै न्हवन करत अद्भुत जिनेश॥ जै गावत जिन गुण हरष धार सो वरणन करत लगै अवार। जै चारों दिशमें चार२, षोड़श जिनभवन बने निहार / / तहांश्रीजिनबिंबविराजमान,सतआठअधिकसुखकेनिधान। पद्मासन छवि वरणी न जाय, तन उचित पांचसै धनुष काय॥ सुर विद्याधर पूजै त्रिकाल, गुण गान करें अद्भुत विशाल। जै जै जै शब्द करें सु जान, खेचर खेचरनी नचैं आन॥ जिनराज दरस नैनन निहार, यह अरज करत प्रभु तार तार। तुम चरणकमलको सीसनाय भवि लालसदा बलर सुजाय॥ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान SarvarNarersSINrwarsharirarary घत्ता-दोहा-अचलमेरुपर जिनभवन, षोड़स बने विशाल। सुर खेचर पूजत चरन, लाल नवावत भाल॥ इति जयमाला __ अथाशीर्वाद कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढे अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः। इति श्री अचलमेरु सम्बन्धी षोडश जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम् / अथ अचल मेरुके चार विदिशा मध्ये चार गजदन्तपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 23 अथ स्थापना-जोगीरासा अचलमेरु गजदन्त सु चारों, विदिशा मांहि बताए। तिनपर श्रीजिन भवन अनूपम बने सरस मन भाए॥ रत्नमई सुन्दर छबि सोहत, परम सुखदाई। पूजा करत जहां सुर खग मिल, हम पूजत यहां भाई // 1 // ____ॐ ह्रीं अचलमेरुके चारों विदिशा मध्ये चार गजदन्तपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं / अथाष्टकं - सुन्दरी छन्द द्रह सुपद्म तनो जल लाइये, जिन सु चरनन पूजन जाइये। अचलमेरु तने गजदन्त जू, तहां जिनेश्वर पूजत संत जू॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [131 arrerarSararararaharaaaaaarahar ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके अग्नि दिश सौमनस // 1 // नैऋत्य दिश विद्युत्प्रभ॥२॥ वायव्य दिश मालवान // 3 // ईशानदिश गंधमादन नाम गजदन्तपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ जलं॥ अगर चंदन केसर गारये, जिन चढ़ाय सु जन्म सु धारये। अचलमेरु तने गजदंत जू, तहां जिनेश्वर पूजत संत जू॥चंदनं। परम उज्जल अक्षत लीजिये, जिन सु आगै पुंज सु दीजिये। अचलमेरु तने गजदंत जू, तहां जिनेश्वर पूजत संत जू॥अक्षतं फूल सरस सुगन्धित लै घने, जिनसु पूजत काम विना हने। अचलमेरु तने गजदंत जू, तहां जिनेश्वर पूजत संत जू ।।पुष्पं // सरस विंजन मोदक लाइये, जिनसु पूजत मन हरषाइये। अचलमेरु तने गजदंत जू, तहां जिनेश्वर पूजत संत जू।नैवेद्यं॥ दीप जगमग जोति सुहावनी, जिनसु पूजत तन मन भावनी। अचलमेरु तने गजदंत जू, तहां जिनेश्वर पूजत संत जू।दीपं॥ अगर धूप सुगन्ध मंगाइके, जिनसु आगै खेवत जायके। अचलमेरु तने गजदंत जू, तहां जिनेश्वर पूजत संत जू॥धूपं // फल मनोहर सुन्दर सार जू, जिनसु पूजत पुण्य अपार जू। अचलमेरु तने गजदंत जू, तहां जिनेश्वर पूजत संत जूफिलं॥ जल फलादिक सुन्दर धोयकै, अर्घ देत सु लाल संयोजकै। अचलमेरु तने गजदंत जू, तहां जिनेश्वर पूजत संत जू।अर्घ॥ अथ प्रत्येकार्घ (सोरठा) अचल दिशा अगनेह, नागदंत सौमनस है। तापर श्री जिन गेह, पूजों वसु विध दर्वसों॥११॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके अग्नि दिश सौमनस नाम गजदन्तपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 1888888888888==== अचल दिशा नैऋत्य, विद्युतप्रभ गजदन्त है। श्री जिन भवन विचित्र अर्घ जजों वसु दर्व ले॥१२॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके नैऋत्यदिश विद्युतप्रभ नाम गजदन्तपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // अचल पवन दिश सार, मालवान गजदंत हैं। श्री जिनभवन विचित्र, अर्घ जजों वसु दर्व लै॥१३॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके नैऋत्यदिश विद्युतप्रभ नाम गजदन्तपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 3 // अर्घ॥ अचल पवन दिश सार, मालवान गजदन्त है। श्री जिनभवन निहार, मन वच तन पूजों सदा // 14 // ॐ ह्रीं अचलमेरुके वायव्य दिश मालवान नाम गजदन्तपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // गंधमादन गजदन्त, अचल दिशा ईशानमें / जिनमंदिर शोभन्त, आठ द्रव्य पूजा करो // 15 // __ॐ ह्रीं अचलमेरुके ईशान दिश गंधमादन नाम गजदन्तपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 5 // अर्घ॥ अथ जयमाला - दोहा अचलमेरुतें जानिये, विदिशा मांहि विशाल। गजदन्तन पर जिन भवन, तिनकी सुन जयमाल // 16 // पद्धडी जै अचलमेरु सोहै उदार, ताकी चारों विदिशा निहार। तहां नागदन्त सुन्दर सुहाय, गिर नील निषध सो लगे जाय॥ तिनके ऊपर जिन भवन सार, सब समोसरण रचना अपार। वेदी तसु मध्य विराजमान, कटनी तिनों सोहैं महान॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [133 SararararwarsawarSararaarakshara ता ऊपर सिंहासन रिशाल, तिसबीच कमल अद्भुत विशाल। तहां श्री जिनबिंब विराजमान,सत आठ अधिक भाषे पूरान॥ जै सुर जिन गुण आवै अपार, विद्याधर पूजैं हरष धार। हम पूजत या तनमन लगाय,महिमा तिनकी वरणी न जाय॥ जै जै जिनदेव सुगुण अनंत, तुम मांहि लखै जाको न अंत। जै प्रातिहार्य सोहैं सुसार, तिनकर शोभित महिमा अपार॥ जहां मंगल द्रव्य धरे पवित्र, सब रत्नमई सोहै विचित्र। सुर नर मिलकर तुम करें सेव, जै जै जै जै देवनके देव॥ हैं अरु कुदेव जो जगतमांहि, तिनको नैनन देखै सु नाहिं। यह वान पड़ी तुम दरश पाय जै लाल सदा बल सु जाय॥ दोहा यह गजदन्तनकी बनी, फूजा सरस विशाल। जो बांचै मन लायके तिनके भाग विशाल // 24 // इति जयमाला। अथाशीर्वाद-कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री अचलमेरुके चार विदिशा मध्ये चार गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान នននននននននននននននននន अथ अचलमेरुके ईशानदिश जंबूवृक्षपर नैऋत्यदिश शालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 24 अथ स्थापना - अडिल्ल छन्द अचलमेरु के उत्तर कोन ईशान जू। अर दक्षिण नैऋत्य कोन धर ध्यान जू॥ जम्बू शालमली दोउ वृक्ष सुहावने / आह्वानन विध करै, भवन जिनवर तने॥१॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तर ईशानकोन जम्बूवृक्ष अरु दक्षिण नैऋत्य कोन शालमली वृक्षपर सिद्धकट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापनं। अथाष्टकं चाल - जोगीरासा सरस मनोहर उज्वल जल, ले क्षीरोदधि सम लावो। जन्म जरा दुखनाशन कारण, श्री जिनचरण चढावो॥ जंबू शालमली शाखा पर, श्री जिनमंदिर सोहै। हम पूजत धर ध्यान जिनेश्वर, सुर नरके मन मोहै॥२॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तर ईशानकोन जंबूवृक्ष // 1 // दक्षिण नैऋत्य कोन शालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ जलं // चन्दन अर करपूर मिलाकर, केसर जलसों गारो। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, भव आताप निवारो॥ जंबू शालमली. // 3 // ॐ ह्रीं // चंदनं / / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [135 NNNNNNNNNNNNNNNNNNN मुक्ताफल सम उज्वल अक्षत, निर्मल धोय सु लीजो। श्री जिनवरके सन्मुख होकर, पुंज मनोहर दीजो॥ जंबू शालमली.॥४॥ ॐ ह्रीं॥ अक्षतं॥ कमल केतकी बेल चमेली फूल मनोहर लावो। श्री जिन चरण चढ़ावो भविजन, परम महासुख पावो॥ जंबू शालमली. // 5 // ॐ ह्रीं॥ पुष्पं // घेवर बावर मोदक खाजे, ताजे तुरत बनावो। क्षुधा रोगके नाशन कारण, श्री जिन चरण चढ़ावो॥ जंबू शालमली.॥६॥ ॐ ह्रीं॥ नैवेद्यं॥ मणीमई दीप अमोलिक लेकर, जगमग ज्योति जगाओ। मोह अन्धके नाशन कारण, पूजन जिनवर आवो॥ जंबू शालमली. // 7 // ॐ ह्रीं॥ दीपं॥ दश विध धूप सुगंधित लेकर श्री जिन सन्मुख खेवो। अष्ट कर्मके नाशन कारण, जिन चरणनको सेवो॥ जंबू शालमली.॥८॥ ॐ ह्रीं॥ धूपं॥ दाख छुहारा पिस्ता किसमिश लौंग लायची लाई। पूजत श्री जिन चरण मनोहर परमातम पद पाई॥ जंबू शालमली.॥९॥ ॐ ह्रीं // फलं॥ जल फल अर्घ बनाय गाय गुण, श्री जिनचरण चढ़ावो। परमानन्द अखण्ड अनूपम ऐसी पदवी पावो॥ जंबू शालमली.॥१०॥ ॐ ह्रीं // अर्घ // Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 136] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ផល១៩៨៨៨៨៨៨៨៨៨៨៨៨ अथ प्रत्येकार्घ - दोहा जम्बू तरु सुन्दर बनो, दिश सु पूरव जान। शाखा ऊपर जिन भवन, अर्घ जजौं धर ध्यान // 11 // ॐ ह्रीं अचलमेरु के उत्तर दिश ईशान कोन संबन्धी जम्बूवृक्षकी पूर्व शाखापर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // शालमली द्रुम निरखकै, पूरव शाखा सार। तापर जिनवर भवन लख, अर्घ जजों भर थार // 12 // ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिणदिश नैऋत्यकोन संबंधी शालमली वृक्षकी पूर्वशाखापर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ ___अथ जयमाला - दोहा जम्बू शालमली जुगम् वृक्ष सु परम विशाल। तिनपर जिनमंदिर जजो, अब वरणूं जयमाल॥१३॥ पद्धरि छन्द जै अचलमेरु तीजो महान, ताके उत्तर कोन ईशान। पूजो दक्षिण नैऋत्य वोर, तहां वेदी इक इक बनी जोर॥ वेदीकी कटनी तीन सार, कंचनमई वरण लखो निहार। तिस ऊपर सोहै भूपवृक्ष जम्बू अर शालमली प्रत्यक्ष॥ दोऊ तरु पृथ्वीकाय सार, चारो दिश शाखा कही चार। दक्षिण पश्चिम उत्तर कि डार, विंतरवासी सूर रहे लार॥ पूरवकी शाखापर पवित्र, श्री सिद्धकूट मंदिर विचित्र। सब समोसरण रचना समान, वसु मंगल द्रव्य धरे सु जान॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [137 AarasharararareersarSahararawasa जै सिंहासन कमल ठान, तहां श्री जिनबिंब विराजमान। जै चौसठ चंवर अमर ढुराय, भामंडल छवि वरणी न जाय॥ सब प्रातिहार्य वर्णन विशाल, सुर विद्याधर पूजत त्रिकाल। गुणगान करैं बहुविध सुसार,फुनि नृत्य करें अद्भुत अपार॥ जै दुन्दुभि बाजै बजैं घोर सुर सप्त अरब बारह किरोर। जै प्रभुदर्शन देखें निहार मुख पाठ पढ़ें प्रभु तार तार॥ जै जै तुम परमातम सु देव, तुम चरणनकी हम करत सेव। हमपर किरपा कीजे दयाल, कर जोर सीस नावत सु भाल॥ जै जै तुम परमातम सु देव, जै जै जग तारनकी सु टेव। जै जै जिनवर करूणानिधान,जै तुम सब देव न और आन॥ घत्ता-दोहा जम्बू शालमली तनी, विविध चरण जयमाल। जौ वांचै मन लायकै, तिनके भाग विशाल॥२३॥ इति जयमाला। अथाशीर्वाद-कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वर्णन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जसपर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः . इति श्री अचलमेरु सम्बन्धी जम्बू शालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान === == ~~ ~~~~~~~~ अथ अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरि पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 25 अथ स्थापना-मद अवलिप्तकपोल छन्द / अचलमेरु पूरव दिश वरने, गिर वक्षार आठ सुखकार। तिनपर श्री जिन भवन अकीर्तम, पूजत सुरपति हर्ष अपार॥ विद्याधर भूपत सुर सब मिल, आवत ले ले सब परवार। हम पूजत निज घर जिनवर पद, आह्वानन विधकर मनधार॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणं। स्थापनं। अथाष्टकं-चाल सो गुण हम ध्यावै, जै गन फनपति कथि पार न पावै। सो गुण हम ध्यावै॥टेक॥ जै क्षीरोदधिको नीर सु लीजे, सो गुण हम ध्यावै। जै सुवरणकी झारी भर दीजे, सो गुण हम ध्यावै॥ जैले श्री जिनवर चरण चढावो, सो गुण हम ध्यावै। जै भव भव मांही परमसुख पावो, सो गुण हम ध्यावै॥२॥ जै अचलमेरु पूरव दिश जानो, सो गुण हम ध्यावै। जै गिर वक्षार आठ उर आनो सो गुण हम ध्यावै॥ जै तिनपर जिनमंदिर छबि छाजै, सो गुण हम ध्यावै। तहां जिनेश्वर बिम्ब बिराजै, सो गुण हम ध्यावै॥३॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [139 SSSSSSSSSSSSSSSSSSPORA ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरवविदेह सम्बन्धी पाश्चात्य // 1 // चित्रकूट // 2 // पद्मकूट // 3 // नलिन // 4 // त्रिकूट // 5 // प्राच्य // 6 // वैश्रवण // 7 // अंजन नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ जलं॥ जै मलियागिर चन्दन ले पीरो, सो गुण हम ध्यावै। जै परम सुगंध सुगुण कर सीरो, सो गुण हम ध्यावै॥ जै ले श्री जिनवर चरण चढावों सो गुण हम ध्यावै। जै भव भव मांही परम सुख पावो सो गुण हम ध्यावै॥४॥ जै अचलमेरु.॥५॥ ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ जै मुक्ताफल सम अक्षत लीजे, सो गुण हम ध्यावै। जै पुंज मनोहर प्रभु ढिंग दीजे सो गुण हम ध्यावै॥जै ले.६॥ जै अचलमेरु.॥७॥ ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ जै वेल चमेली चंपा लावो, सो गुण हम ध्यावै। जै कमल कमोदनी कर महकावो, सो गुण हम ध्यवै॥जैले. ___ जै अचलमेरु.॥९॥ ॐ ह्रीं. // पुष्पं // जै फेनी घेवर मोदक खाजे सो गुण हम ध्यावै। जै तुरत बनावत सुंदर ताजे, सो गुण हम ध्यावै॥जै ले.१० जै अचलमेरु.॥११॥ॐ ह्रीं.॥ नैवेद्यं // जै मणिमई दीपक जोत प्रजालो, सो गुण हम ध्यावै। जै जगमग जगमग होत दिवालो, सो गुणहम ध्यावै।जैले.१२ जै अचलमेरु.॥१३॥ ॐ ह्रीं.॥ दीपं॥ जै दशविध धूप सुगन्ध बनाओ, सो गुण हम ध्यावै। जै धूपायन घर अगन खिवाओ, सो गुण हम ध्यावै।जैले.१४ जै अचलमेरु.॥१५॥ॐ ह्री.॥धूपं // Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 140] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ======= == ====== जै कोमल मधुर सुरस गुण भारी, सो गुण हम ध्यावै। जै फलबहु विध सुन्दर भरथारी, सो गुण हम ध्यावै॥जैले.१६ जै अचलमेरु.॥१७॥ ॐ ह्रीं. // फलं॥ जै जल फल अर्घ बनाय चढावों, सो गुण हम ध्यावै। जै जिन गुणगाय अक्षयपदपावो,सो गुण हम ध्यावै।जै ले.१८ जै अचलमेरु.॥१९॥ ॐ ह्रीं ॥अर्धं // अथ प्रत्येकाघ - दोहा प्रथम सु गिर प्राश्चात्य है, तापर जिनवर धाम। तहां जिनबिंब निहारके, अर्घ जजूं तज काम॥२०॥ ____ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूर्व विदेह संबंधी प्राश्चात्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 1 // अर्घ॥ चित्रकूट दूजो कहो, तापर श्री जिन गेह।। वसु विध अर्घ संजोयके पूजो मन धर नेह // 21 // ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूर्व विदेह संबंधी चित्रकूट नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // पद्म नाम तीजो सु गिर, तहां जिनभवन रिशाल। श्री जिनवर पद पूजके, धोक देत नमि भाल॥२२॥ ___ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूर्व विदेह संबंधी पद्म नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ . नलिन नाम वक्षार गिर, तापर श्रीजिन थान। वसु विध पूजत भविकजन हम पूजत धर ध्यान // 23 // ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूर्व विदेह संबंधी नलिन नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [141 SararahararSNSararararararare नाम त्रिकूट सुहावने पंचम गिर वक्षार। तहां जिन बिम्ब निहारके, अर्घ जजू हित धार॥२४॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूर्व विदेह संबंधी त्रिकूट नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ // छट्ठम प्राच्य सुगिर बनो, जिनमंदिर रमणीक। तहां श्री जिनवर बिम्ब लख, अर्घ जजों शुभ ठीक // 25 // __ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूर्व विदेह संबंधी प्राच्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ . नाम वैश्रवण गिर महा, जिनमंदिर सुविशाल। अर्घ जजों वसु द्रव्य ले, मन वच तन भर थाल॥२६॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूर्व विदेह संबंधी वैश्रवण नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // अंजनगिरि पर जिनभवन, श्री जिनभवन विशाल। वसुविध अर्घ चढायके, लाल नवावत भाल॥२७॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूर्व विदेह संबंधी अंजनगिर नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // अथ जयमाला-दोहा अचलमेरु पूरव दिशा, वसु वक्षार विशाल। तिनपर जिनमंदिर जजों, अब वरनूं जयमाल // 28 // पद्धरि छन्द द्वीप धातुकी है धन्य, ताकी पश्चिम गिर अचल जन्य। जैं गिरकी पूरव दिश विशाल, जहां तीर्थंकर राजै त्रिकाल॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ================= जै सूर प्रभु जिनगुण विशेष, जै विशालकीर्त वन्दत सुरेश जै सुर खग मुनि गावत सुरेश, मुखपाठ पढ़े जयजय जिनेश / जय जिनवाणी ध्वनि खिरै सार, भवि जीव सुनैं आनंद अपा / केइ जीव धरै चारित्र भार, केइ श्रावक व्रत पालें विचार॥ केइ सहैं परिषह वीस होय, केइ केवल लह सिह-कंथ होय। केइ सम्यक्ज्ञान करैप्रकाश,निज आतमरसअनुभव विलास॥ यह अतिशय श्री जिनराज देव, शत इन्द्रचरणकी करत सेव। जहां चौथो काल रहै सदीव, तहां कर्मभूम जानो सु जीव॥ तहां गिर वक्षार सु आठ जान, तिनपर जिनमंदिर हैं महान। श्री सिद्धकूट हैं नाम सार, वरणत सुरगुरु पावैं न पार॥ जै सिंहासन पर कमल जान, तापर जिनबिंब विराजमान॥ वसु मंगल द्रव्य धरै विचित्र, सब प्रातिहार्य सोहै पवित्र। जै इंद्र सकल पूजत सु पाय, सुर नृत्य करत बाजे बजाय॥ खेचर खेचरनी सबै धाय, नित नित कौतूहल करत आय। हम करत विनती शीश नाय, जयवंत होहु प्रभु तुम सु गाय॥ घत्ता-दोहा-अचलमेरु पूरव दिशा, गिर वक्षार सु आठ। तिनकी यह जयमाल है कीजै निशदिन पाठ॥ इति जयमाल। अथाशीर्वाद कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [143 === = ======== === ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पदले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः। इति श्री अचलमेरुकी पूरव दिश आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 26 अथ स्थापना-अडिल्ल छन्द है अचलमेरु वर तीजो, ताकी पश्चिम दिश लीजो। वक्षार आठ गिर हूजो, तापर जिनमंदिर पूजो॥१॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिमविदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणम्, स्थापनम्। * अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द सरस मनोहर उजल जल ले क्षीरोदध ले लावत जाय। रत्नकटोरीमें सो धरकै, पूजत श्री जिनवरके पाय॥ अचलमेरुके पश्चिम दिशमें गिर वक्षार आठ भवि जान। तिनपर श्री जिन भवन अकीर्तम तहां विराजै श्री भगवान॥ ____ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी शब्दवान // 1 // विजयवान // 2 // आसीविष // 3 // सुखावह // 4 // चन्द्र॥५॥ सूर्य // 6 // नाग॥७॥ देवनाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ जलं॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 22222222222222 मलयागिर चन्दन दाह निकन्दन, केशर डारी रंग भरी। श्री जिनचरण सुपूजत भविजन, भव आताप सु दूर करी॥ अचलमेरु. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ देवजोर सुखदास सु अक्षत, मुक्ताफल सम लीजै। मन वच काय लाय जिनचरणन, पुंज मनोहर दीजै // अचलमेरु. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी वेल चमेली, फैले गन्ध दसों दिसों आय। अमर समूह जजैं जिनवर पद, हम पूर्जे मन वच तन लाय॥ अचलमेरु. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // पुरी पुवा अन्दरसा लाड, फेनी खाजे तुरत बनाय। क्षुधा रोग निवारण कारण, श्री जिनवर पद पूजत जाय॥ अचलमेरु. ॥६॥ॐ ह्री. // नैवेद्यं // जगमग जोत होत दसह दिश, मणिमई दीप अमोलक लाय। करत आरती श्रीजिन आगै, नित्य प्रभु गुण मंगल गाय॥ अचलमेरु. ॥७॥ॐ ह्री. // दीपं॥ अगर कपूर सुगन्ध सु दशविध, फैली परम लता सु अपार। खेवत धूप जिनेश्वर आगै, कर्म जलै चहुँ गत दातार॥ अचलमेरु. // 8 // ॐ ह्रीं. ॥धूपं॥ श्रीफल लौंग सुपारी पिस्ता, किसमिस दाख छुहारे लाय। पूजत फल जिनचरण मनोहर, शिवफल पावत कर्म खिपाय॥ अचलमेरु. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [145 ====== === ===== = == जल चन्दन अक्षत प्रसून ले, नेवज दीप धूप फल सार। अर्घ बनाय जजों श्रीजिनवर, लाल सदा तिनप बलिहार॥ अचलमेरु. ॥१०॥ॐ ह्रीं. ॥अर्घ॥ अथ प्रत्येकार्घ - दोहा शब्दवान वक्षार गिर, अचलकी पश्चिम वोर। ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी शब्दवान नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ अचलमेरु पश्चिम दिशा, विजयवान वक्षार। तापर श्री जिनभवन लख, अर्घ जजों भर थार॥१२॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी विजयवान नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ आसीविष वक्षार है, पश्चिम अचल सुमेर। तहां जिनमंदिर सोहनो, जिनपद पूजो हेर // 13 // ___ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्मिच विदेह संबंधी आसीविष नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // पश्चिम अचल सुमेरुकी, नाम सुखावह जान। श्री जिनमंदिर तासपर, अर्घ जजों धर ध्यान // 14 // ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुखावह नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्धं पश्चिम दिशा सु अचलकी, चन्द नाम वक्षार। तापर जिनमंदिर जजों, वसुविध अर्घ समार॥१५॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी चन्द्र नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 5 // अर्घ // Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान सूर्य नाम वक्षार गिर, तहां जिनमंदिर देख। अचलमेरु पश्चिम दिशा, पूजत अर्घ विशेख // 16 // ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सूर्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // अचलमेरु पश्चिम गिनो, गिर वक्षार सु नाग। तहां श्रीजिनवर धाम हैं, अर्घ जजों मद त्याग॥१७॥ __ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी नाग नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ। देव नाम वक्षार पर, स्वयं सिद्ध जिन धाम। पश्चिम अचल सुमेरूतें पूजों भविजन काम॥१८॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी देव नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // अथ जयमाला - दोहा अचलमेरु पश्चिम दिश, गिर वक्षार विशाल। तहां जिनमंदिर पूजके, अब वरनूं जयमाल॥१९॥ ___ पद्धडी छन्द जै द्वीप धातुकी दुतिय मेरु, ताकि पश्चिम दिश अचलमेरु। जै गिरकी पश्चिम दिशा विदेह,तहां चौथो काल सदा गनेह॥ जै तीर्थंकर निवसैं सदीव, जै वज्राधर जिनगुण अतीव। जै चंद्रानन दूजो जिनन्द, मुखचंद्रवरण आनंद कंद। जिनमुखतें दिव्याधुन खिरंत, भविजीव सुनत भवजल तुरंत। लई मुनिव्रत धारै तज अवास, केई श्रावकव्रत पालैं उदास॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [147 NNNNNNNNNNNNNNNNNNNN केई सम्यग्दर्शन लहैं जीव, यह अतिशय श्रीजिनवर सदीव। जहांकर्मभूमि है तिहूँकाल,शिवमारगकी जहांचलैचाल आठ ऐसे शुभ क्षेत्र बनो रिशाल, तहां गिरि वक्षार पड़े विशाल। जै गिरि उपर जिनभवन ठाठ,जिनबिंब लसैं शत अधिक आठ सब समोसरण रचना समान, वसु मंगल दर्व विराजमान। सत इंद्र चरणनकी कंरत सेव, जै नंद वृद्धि भासत सु देव॥ जै नृत्य करत संगीत सार, बाजे बाजत अनहद अपार / निरजर निरजरनी करत मान, भूचर भूचरनी करत ध्यान॥ खेचर खेचरनी सबै आय, मुख पाठ पढ़त अति मुदित काय। हम पूजत जिनमंदिर सुआय, निज चरणकमलपर सीसनाय॥ जै जै जै जिनवर परम देव, तुम चरणनकी हम करत सेव। यह अरज हमारी सुनो सार, संसार जलधतें करो पार॥ घत्ता-दोहा अचलमेरु पश्चिम दिशा, गिरि वक्षार विशाल। तिनपर जिनमंदिर निरख, लाल नवावत भाल॥२९॥ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू सम्पति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान NarararSKSEKSararararakaraharana अथ अचल मेरुके पूरव विदेह संबंधी षोडश रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 27 अथ स्थापना-चौपाई पूरव अचलमेरु तैं कहिये, रूपाचल षोड़श तहां लहिये। तिन ऊपर मंदिर जिनजीके, आह्वानन कर पूजत नीके। ___ॐ ह्रीं अचलमेरुक पूरव विदेह सम्बन्धी षोडश विजयार्द्ध पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं। स्थापनं। अथाष्टकं चाल-जोगीरासा परम मनोहर उज्वल जल ले, श्रीजिन सनमुख जावो। पूज जिनेश्वरके पद पंकज, आनन्द मंगल गावो॥ अचलमेरुके पूरव षोडश, रूपाचल गिरि सोहै। तहां षोडश जिन भवन सु पूजो, जगजीवन मन मोहै। ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह संबंधी कक्षा // 1 // सुकक्षा // 2 // महाकक्षा॥३॥ कक्षकावती॥४॥ आवर्ता // 5 // मंगलावती॥६॥ पुष्कला // 7 // पुष्कलावती // 8 // वक्षा॥९॥ सुवक्षा // 10 // महावक्षा // 11 // वत्सकावती // 12 // रम्य // 13 // सुरम्या॥१४॥ रमणी॥१५॥ मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ मलयागिर करपूर मिलाकर, केसर रंग बनावो। रत्न कटोरीमें सो धरके, श्री जिनचरण चढ़ावो॥ अचलमेरु. // 3 // ॐ ह्रीं॥ चंदनं॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [149 NRNATIOPORTANTANTNNNNNNNNN मुक्ताफल सम उज्जल अक्षत, सुन्दर धोय धरीजे। परम प्रीत उर लाय गाय गुण, पुंज मनोहर दीजे॥ अचलमेरु. // 4 // ॐ ह्रीं // अक्षतं॥ नानाविधके फूल मनोहर, सुरतरु सम ले आवो। श्री गुण गावत ताल बजावत, श्री जिनचरण चढ़ावो॥ अचलमेरु. // 5 // ॐ ह्रीं // पुष्पं // सरस मनोहर नेवज नीको, तुरत सुधीको कीजै। सुवरण थाल बीच सो धरके, श्रीजिन पूजा कीजै॥ अचलमेरु. // 6 // ॐ ह्रीं॥ नैवेद्यं॥ जगमग जोति होत दीपककी, ले जिनमंदिर जावो। करत आरती श्री जिनवरकी, हरस हरस गुण गावो॥ अचलमेरु. // 7 // ॐ ह्रीं // दीपं॥ कृश्नागर वर धूप दशांगी, खेवो अति बिहसाई। फैली सरस सुगन्ध दसों दिश, पूजत जिनवर भाई॥ अचलमेरु. // 8 // ॐ ह्रीं॥ धूपं॥ लौंग सुपारी पिस्ता चोखे, अरु बादाम मंगावो। शिवफल पावन कर्म नसावन, श्री जिनचरण चढ़ावो॥ अचलमेरु. // 9 // ॐ ह्रीं // फलं॥ जल फल अर्घ बनाय गाय गुण, जिनचरणन लौ लावो। लाल सदा बल जात प्रभुकी, जिन पूजत सुखपावो॥ अचलमेरु. // 10 // ॐ ह्रीं॥ अर्घ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 150] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ផលជលផល अथ प्रत्येकार्घ-चौपाई अचलमेरुकी पूरव दिशा, कक्षा नाम देश शुभ बसा। तहां रुपाचलपर जिन धाम, अर्घ जजों तजकै सब काम॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी कक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ देश सुकक्षा नाम प्रधान, अचलमेरुतें पूरव जान। श्री बैताड सिखरजिन भौन, अर्घ जजों करके चिंतौन॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी सुकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // अचलमेरु पूरव दिश सार, देश महाकक्षा सुखकार। गिर विजयापर जिन थान, अर्घ जजों तजके अभिमान॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी महाकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ कक्षकावती देश सु बसै, अचलमेरुतें पूरव लसै। रूपाचलपर श्री जिन धाम, अर्घ चढाय करूं परिणाम॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी कक्षावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // अचलमेरुके पूरव जान, आवर्ता शुभ देश महान। जिनमंदिरमें अर्घ चढाय, विजयारध पर पूजो जाय॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी आवर्ता देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ देश मंगलावती सु सार, अचलमेरुतें पूरव द्वार। वसुविध अर्घ जजों धर ध्यान, गिर बैताड़ सिखर उद्यान॥ __ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [151 SPrasharaSrNNNNNNNNNNNN अचलमेरुतें पूरव गाय, देश पुष्कला सुवस बसाय। रूपाचलपर जिन थल जोय, अर्घ जजों वसु दर्व संजोय॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी पुष्कला देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // पुष्कलावती है सुख रास, अचलमेरुतें पूरव वास। श्री जिनमंदिर अर्घ संजोय, रूपाचलपर पूजो जोय॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी पुष्कलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ॥ अचलमेरुके पूरव ठीक, वक्षा देश वसै रमणीक। जिनवर भवन जजो हरषाय, रूपाचलपर अर्घ चढाय॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी वक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ // देश सुवक्षा है घनघोर, अचलमेरुके पूरव वोर। गिर वैताड सिखर जिनथान, अर्घ जजो वसुविध सुखमान॥ __ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी सुवक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ // . अचलमेरुते पूरव कहो, देश महा वक्षा निरवहों। रूपाचल जिनभवन विशाल, अर्घ जजो वसु दर्व संभाल॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी महावक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्धं // दश वत्सकावती जो सही, अचलमेरुके पूरव कही। गिर वैताड शिखरपर जोय, श्रीजिनभवन जजो मद खोय॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी वत्सकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ // Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ============== ===== पूरव अचलमेरुकी दिशा, रम्या देश अधिक शुभ वसा। विजयारध गिर शिखर विशेख, अर्घ जजों जिनमंदिर देख॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी रम्या देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 13 // अर्घ॥ पूरव अचल सुरम्या देश, विजयारध तह बीच विशेष। श्री जिनभवन अकीर्तम जाय, अर्घ जजों वसु दर्व मिलाय॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी सुरम्या देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ // पूरव अचलमेरु अभिराम, रमणी देश रमनको ठाम। तहां विजयारध गिरके सीस, अर्घ जजों जिनमंदिर दीस॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी रमणी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ // मंगलावती देश प्रधान, अचल मेरुते पूरव जान। रूपाचलपर श्री जिनधाम, अर्घ जजों तजके सब काम॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ // अथ जयमाला-दोहा अचलमेरु पूरव दिशा, गिर बैताड विशाल। तिनपर जिनमंदिर जजों, अब वरनूं जयमाल // 27 // पद्धडी छन्द जै अचलमेरुते पूर्व जान, जै षोडश क्षेत्र विदेह मान। जै तीर्थंकर राजै सदीव, चक्रीबल हर प्रतिहर सुजीव॥ जहांमुकतपंथकीचलैचाल, सबजीवसुखीनहीं फिरनकाल। जहां षोडश विजयारधविचित्र,तहां जिनमंदिर षोडशपवित्र // Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [153 Arararararararahararerarararararararary जै वेदी तीन बनी सु ठार, जै सिंहासन पर कमल सार। जै श्रीजिनबिंब विराजमान,सत आठ अधिक प्रतिमा प्रमाण॥ जै मंगल द्रव्य रचे बनाय, वसु प्रात्यहारवरनी न जाय। सुर विद्याधर पूजत सु आय, बहु नृत्य करत बाजे बजाय॥ गुणगान करत चित धरत ध्यान,जै जै जिनवर करूणा निधान। तुमरूप अतुलनैनन सु देख, अति हरषबढो सुरपति विशेख॥ जै जै प्रभु परम दयाल देव, तुम चरणनको हम करत सेव। हमहुको दीजै अभय दान, हम जाचक तुम दाता विधान॥ __ घत्ता-दोहा षोडसगिर वैताडपर, श्री जिनभवन रिशाल। जिनप्रति सीस निवायकै लाल भनी जयमाल॥ इति जयमाल। __ अथाशीर्वाद (कुसुमलता छन्द) मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बा. अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पदले शिवपुर जाय। इत्याशीर्वादः। इति श्री अचलमेरुकी पूरव विदेह संबंधी षोडश रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। I Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==== ===== ===== == अथ अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी षोडश रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 28 अथ स्थापना-अडिल्ल छन्द अचलमेरु के पश्चिम दिशमें जानिये। षोड़सगिर वैताड़ सरस उर आनिये॥ तिनपर श्री जिनभवन विराजत सार जूं। आह्वानन विध करत हरष उर धार जूं // 1 // ___ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी षोडश रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अब मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणम्, स्थापनं। कुसुमलता छन्द क्षीरोदध सम उज्वल लेकर, रतन कटोरीमें धर सार। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, जन्मजरामृत रोग निवार॥ अचलमेरु पश्चिम दिश वंदूं, तहां विजयारध षोडस गाय। तिनपर श्रीजिनभवन अकीर्तम, पूजत सुरनर हर्ष बढाय॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरु के पश्चिम विदेह सम्बन्धी पद्मा // 1 // सुपद्मा // 2 // महापद्मा॥३॥ पद्मकावती // 4 // सुसंखा // 5 // नलिना॥६॥ कुमदा॥७॥ सरिता // 8 // वप्रा // 9 // सुवप्रा // 10 // महावप्रा // 11 // वप्रकावती॥१२॥ गंधा॥१३॥ सुगंधा // 14 // गंधला // 15 // गंधमालनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 16 // जलं॥ मलयागिर करपूर सु चंदन, केसर घिसके देत मिलाय। भव आताप हरन जिन चरनन, धार देत उर दाह बुझाय॥ अचलमेरु. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [155 vururururururunurGEYFynununununununun देव जीर सुखदायक अक्षत, सुन्दर मुक्ताफल उनहार। पुञ्ज देत भविजीव मनोहर, श्री जिनचरण हृदे अब धार॥ अचलमेरु. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी जुही चमेली वेला, सरस गुलाब सु लाय। फैली सर्व सुगन्ध दशों दिश, देत श्री जिन चरण चढाय॥ अचलमेरु. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // बावर घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत सु लेत बनाय। घ्राण रसना सुख उपजत, चरु ले पूजत श्री जिनराय॥ अचलमेरु. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // जगमग जगमग होत दसों दिश, जोत रही मंदिरमें छाय! श्री जिन सन्मुख करत आरती, भवि मनवचतन प्रीत लगाय॥ अचलमेरु. // 7 // ॐ ह्री. // दीपं / / अगर कपूर सुगन्ध मनोहर, चन्दन कूट सु देत मिलाय। जिन सन्मुख खेवत धूपायन, कर्म जलावत मन हरवाय॥ ___ अचलमेरु. 18 // ॐ ह्रीं ॥धृपं / / नैननको सुन्दर सुखकारी मीठे सरस सुगन्धित लाय। षट ऋतुके ले फल जिन पूजो, शिवफल पावो चेतनराय।। __ अचलमेरु. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं // जल फल अर्घ चढाय गाय गुण, नाचत थेई थेई देदे ताल। धन्य भाग उनही जीवनके, जिनपद धोक देत भवि लाल॥ अचलमेरु. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ // Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 156 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान CONTINENTRIENTISFArsearsrsrorecord. अथ प्रत्येकाघ - चौपाई अचलमेरुते पश्चिम वोर, पद्मा देश बसै घनघोर / तहां रूपाचलपर जिनधाम, अर्घ जजों तजके सबकाम। ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी पद्मा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // देश सु पद्मा सु बसै बसै, अचलमेरुते पश्चिम लसै। श्री जिनमंदिर अर्घ चढाय, विजयारध पर पूजो जाय॥ ____ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुपद्मा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्ध अचलमेरुके पश्चिम द्वार, देश महापद्मा सुखकार। गिर वैताड़ शिखर जिन गेह, अर्घ जजों धर परम सनेह॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी महापद्मा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्धं // देश पद्मकावती वसाय, अचलमेरुके पश्चिम गाय। गिर विजयारधपर जिनथान, अर्घ जजों तजके अभिमान॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी पदाकावती देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो / / 4 / / अर्घ / अचलमेरुके पश्चिम जोय, देश सुसंखा नाम सु होय। वसुविध अर्घ जजो भर थार, रूपाचल जिनभवन निहार।। ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुसंखा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ // नलिना देश कहो रमणीक, अचलमेरुतें पश्चिम ठीक। विजयारध गिरिपर जिन भौन, अर्घ जजों करकैं चिंतौन॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी नलिनी देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 6 // अर्घ // Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [157 Dararararararararanaarasrirararira अचलमेरु पश्चिम सुखकार, कुमदा देश बसै निरधार। जिनमंदिर तहां पूजो जाय, रूपाचल पर अर्घ चढाय॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी कुमदा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // सरिता देश वसै शुभ थान, अचलमेरू पश्चिम दिश जान। जिनमंदिर विजयारध सीस वसुविध अर्घ जजों जिन ईश॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सरिता देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ॥ पश्चिम अचलमेरुकी कही वप्रा देश विराजै सही। जिनमंदिर वसु द्रव्य मिलाय, अर्घ जजों रूपाचल जाय॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी वप्रा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ // देश सुवप्रा अति सुख रास, अचलमेरुतें पश्चिम वास। विजयारधपर जिन थल देख,अर्घ जजो उर हर्ष विशेख॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुवप्रा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ // अचलमेरुतें पश्चिम सुनो, देश महावप्रा तहां मुनो। वसुविध अर्घ जजों धर ध्यान, गिर वैताड सिखर जिनथान। ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी महावप्रा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ / वप्रकावती देश महान, पश्चिम अचलमेरुतें जान। जिनमंदिर पूजो विहसाय, विजायरध पर अर्ध चढाय॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी वप्रकावती देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ // Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ======= ======= == === पश्चिम अचलमेरु” लेह, गन्धा देश परम सुख गेह। रूपाचलपर भवन विचित्र, अर्घ जजों वसु दर्व पवित्र // ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी गंधा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ // देश सुगन्धा वसे सु थान, अचलमेरु पश्चिम दिश जान। रूपाचल जिनमंदिर जोय, वसुविध अर्घ जजों मद खोय॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुगंधा देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ अचलमेरुके पश्चिम भाग, देश गन्धला बसै सु भाग। निरस जिनालय अर्घ चढ़ाय, विजयारध पर्वतपर जाय॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी गंधला देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ // गन्धमालनी देश रमन्य, अचलमेरूके पश्चिम धन्य। रूपाचलपर हरष चढाय, अर्घ जजों जिनमंदिर जाय॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी गंधमालनी देश संस्थित रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ // अथ जयमाला-दोहा अचलमेरु पश्चिम दिशा, रूपाचल सु विशाल। तिनपर जिनमंदिर जजों, अब वरनूं जयमाल॥ पद्धडी छन्द जै अचलमेरु तीजो विशाल, जै जयवंतो जगमें त्रिकाल। ताकी पश्चिमदिशमें सुजान, षोडश विदेह उरमें सु आन॥ जहां चौथों काल रहै सदीव तहां कर्मभूम वरतै सु जीव। जहां तीर्थंकरको जन्म होय, चक्री प्रतिहर बलभद्र सोय॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [159 SarvSareershararerararararareras प्रति वासदेव उत्कृष्ट जीव, निजनिज करनी भोगैं सदीव। जहां श्रीमुनिराज करै विहार, ऐलक क्षुल्लक श्रावक निहार॥ सम्यग्दृष्टि दो विध सुजान, भव देत चतुरविधको सुदान। जै ऐसे घोड़स देश सार, बन रहैं परम आनन्दकार // तहां रूपाचल षोड़स सुजान, एक एक गिरिपर नव कूटमान। श्री सिद्धकूट तिस बीच सार, तहां श्रीजिनमंदिरको निहार॥ जै सिंहासन तीनों रिशाल, झलकैं मोती अर रतन माल। कमलासन पर सु विराजमान, सिर तीन छत्र धारै सु जान॥ जै प्रतिमा श्रीजिनवरसुदेव,सत आठ अधिक भवि करत सेव। सब मंगल दर्व, धरै सु आद, बन रही सुरचना यह अनाद॥ सुरपति सुर खेचर सबै आय, जिनराज चरण पूजत बनाय। बहु भक्ति करेंअति प्रीत लाय, जिनगुण गावैभनवचन काय॥ नाचत थेई थेई दे दे सु ताल, बाजे बाजै बहु विध रिशाल। जै जग जयवंतो होय देव, तुम चरननको हम करत सेव॥ हमको वांछा कुछ और नाहि, तुम भक्ति रहै हम हिये मांहि। तुमगुण महिमा वरणन अपार, यह करो भक्त उरमें सुधार॥ घत्ता-दोहा-अचलमेरु पश्चिम दिशा, पूजा परम विशाल। पढत सुनत सुख पाइये, लाल भनी जयमाल॥ ___इति जयमाल। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणनको कर सकै बनाय॥ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 160] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ताके पुत्र पौत्र अरू सम्पति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री अचलमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी षोडश रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ अचलमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 29 ____ अथ स्थापना अडिल्ल अचलमेरु के दक्षिण भरत सु जानिये। तहां सु गिरि वैताड़ श्वेत उप जानिये // सिद्धकूट जिन धाम विराजित सार जू। आह्वानन विध करूं हरष उर धार जू॥१॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम् अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनम्। पद्म द्रहको उज्वल जल ले, कंचन झारी भरिये। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, जन्म जरा दुख हरिये॥ अचलमेरुके दक्षिण दिशमें, भरतक्षेत्र सुखकारी। तहां रूपाचलपर जिनमंदिर, तिन प्रति धोक हमारी॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ जलं // Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [161 मलयागिर करपूर सु चन्दन, केसर रंग सु नीको। भव आताप सु दूर करनको, पूजत जिनवरजीको॥ अचलमेरु. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ देवजीर सुखदास सु अक्षत, सुन्दर धोय सु लीजै। मन वच काय लाय जिन चरणन, पुज मनोहर दीजै॥ ___ अचलमेरु. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं // नाना विधके फूल मनोहर, सुरतरु समके लावो। पूजो श्री जिनराज प्रभुको, हरष हरष गुण गाओ। ___ अचलमेरु. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं॥ बहु विधके पकवान मनोहर, सुवरन थारी भरिये। क्षुधा रोगके नाश करनको, प्रभु सन्मुख ले धरिये॥ अचलमेरु. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं / / जगमग जगमग होत दिवाली, दीप अमोलिक लावो। मोह तिमिरके नाश करनको, श्री जिनचरण चढ़ावो॥ अचलमेरु. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं // दश विध धूप सुगंधित लेकर, पूजो भविजन भाई। कर्म महारिपु दूर करनको, खेवत जिन ढिग आई। अचलमेरु. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ लौंग लायची पिस्ता नीके, किसमिस दाख मंगावो। फलसे पूजो श्री जिनवर पद, यातें शिव-फल पावो॥ अचलमेरु. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल अर्घ बनाय, गाय गुण, श्रीजिनचरण चढ़ावो। भाव भगतसौ पूज जिनेश्वर, लाल सदा बल जावो॥ अचलमेरु. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान = == = = == = = = = = == गीता छन्द अचलगिरकी दिशा दक्षिण, भरतक्षेत्र सुहावनो। तसु बीच रुपाचल मनोहर कूट जब सन भावनो॥ तहां सिद्धकूट सिखर विराजै जिन भवन अति मन हरैं। वसु दर्व ले हम जजै नितप्रति, परम आनंद उर धरै॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा अचलमेरु दक्षिण दिशा, भरत क्षेत्र सु विशाल। रुपाचलपर जिन भवन, तिनकी सुन जयमाल // 12 // पद्धडी छन्द जै द्वीप धातुकीमें निहार, गिर अचल तनो वरनन अपार। जै ताकी दक्षिण दिश अनूप, तहां भरतक्षेत्र सुन्दर स्वरूप॥ तहां छहों कालकी फिरन होय,कोडाकोड़ी दश उदधि सोय। जै भोगमूम पहिले सु तीन, तहां जुगल धर्म चले प्रवीन॥ दस कल्पवृक्ष तहां रहै जाय, मनवांछित सुख सब नर कराय। जब चौथा काल लगै सु आय, तब कर्मभूम बरतें बनाय॥ जै तीर्थंकर चौबीस होय, द्वादश चक्री जानो सु लोय। बल नारायण प्रतिहर प्रमान, नवर सब जानो सु जान॥ यह त्रेसठ पदवी पुरुष जोय, अरु बहुत जीव उत्कृष्ट होय। तीनको कहांलो करिये बखान, विधसहित कहो उत्तर पुरान॥ केई मुनिव्रत धारै तज अवास, केई श्रावक व्रत पालैं उदास। केईचारघातियाकर्मनाश, केवलपदलहिअविचलअवाश॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [163 FarSENSNrorarSararararsaareerNare केई सम्यकद्दष्टि जीव जान, विध चार संघको देत दान। यह विध वरतै सो चतुर काल पंचम छट्ठम दुखको महान॥ तिस क्षेत्र विषै वैताड़ नाग, द्युति स्वेत वरण सोहै सुहाग। तसु शिखर विराजै सिद्धकूट, तापर जिनमंदिर हैं अटूट॥ सब समोसरण रचना समान,सत आठ अधिक प्रतिमा प्रमान। सब मंगल दर्व धरें विचित्र वसु प्रातिहार्य सोहैं पवित्र॥ सुर विद्याधरके भूप आय, जिनराज भवन पूजत बनाय। नाचत गावत देदे सुताल, निज जन्मसुफल मानत सुलाल॥ घत्ता-दोहा अचलमेरु दक्षिण दिशा, गिर वैताड विशाल। तिनकी यह जयमाल है, वांचत भविजन लाल // 23 // इति जयमाल ___ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढै मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुर नर पद ले शिवपुर जाय॥ // इति आशीर्वादः॥ इति श्री अचलमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबन्धी रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 164] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान nurunnurinnnnnnnnnnnnnnn अथ अचलमेरुके उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र संबंधी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 30 अथ स्थापना-अडिल्ल छन्द अचलमेरु उत्तर ऐरावत खेत है, तहां पड़ो वैताड़ वरण अति स्वेत है। ताके सिखर निहार, जिनेश्वर धाम जू, आह्वानन विध करी छोड़ सब काम जू॥१॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं। अथाष्टकं-जोगीरासा पुण्डरीक द्रहको जल निर्मल, रतन कटोरी भरिये। धार देत श्री जिनवर आगै, जन्म जरा दुख हरिये॥ अचलमेरु उत्तर ऐरावत, रूपाचल सुखकारी। सिद्धकूट तापर जिनमंदिर, तिन प्रति धोक हमारी॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ जलं॥ मलयागिर करपूर सु चन्दन, केसर परिमल धारी। जजत जिनेश्वरके पद पंकज, भव आताप निवारी॥ अचलमेरु. // 3 // ॐ ह्री. // चंदनं / / मुक्ताफल सम उज्जल अक्षत, सुन्दर धोय सु लीजे। मन वच तन जिनवर पद आगै, पुंज मनोहर दीजे // अचलमेरु. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [165 rerareranararararareranararareranaaras मुरतरु समके फूल सुगन्धित, वरन वरनके लीजे। पूजत श्री जिनवर चरणांबुज, मदन जलांजुल दीजे॥ अचलमेरु. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // नाना विध पकवान मनोहर, चक्षु घ्राण सुखकारी। श्री जिनचरण कमल नित पूजो, भर भर कंचन थारी॥ अचलमेरु. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जगमग जगमग होत दसों दिश, दीपक जोत जगावो। आरती करत जिनेश्वर आगै, हरष हरष गुण गावो॥ __ अचलमेरु. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं // दस विधकी बहु धूप सुगन्धित, अगन बीच ले खेवो। अष्ट करम नाशक जिनवर पद, भविजन निशदिन सेवो॥ अचलमेरु. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं // फल अति मिष्ट बादाम छुहारे, किसमिस दाख सुपारी। फल ले पूजो जिनपद पंकज, पावो शिवफल भारी॥ अचलमेरु. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल चंदन अर फूल मनोहर, अक्षत नेवज नीको। दीप धूप फल अर्घ सु लेकर, पूजत श्री जिनवरजीको॥ ____ अचलमेरु. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्ध / ___ गीता छन्द गिर अचल उत्तर दिश मनोहर, क्षेत्र ऐरावत सुनो। तिन बीच गिर विजयार्द्ध, उज्जल कूट नव तापर मुनो॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान careerNararararararararareranvrore गिर शिखर श्री जिनभवन सुन्दर, सिद्धकूट सुहावनो। वसु दर्व ले हम जजत जिनपद, अर्घ अति मन सुहावनो॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // अचलमेरु उत्तर दिशा, ऐरावत सुविशाल। रूपाचल पर जिनभवन, सुन तिनकी जयमाल // 12 // __ पद्धडी छन्द जै द्वीप धातुकी है प्रसिद्ध, पश्चिम गिरअचल सुस्वयं सिद्ध। ताकी उत्तर दिश क्षेत्र थान, ऐरावत नाम पड़ो महान॥ षट्काल फिरें आगम प्रमान, अंबुध दश कोडाकोडी जान। है जुगला धर्म सुकाल तीन, तहां भोगभूम जानो प्रवीन। दस कल्पसरोवर लहलहाय, सुख सहित भोग सबजन कराय। जब चौथो काल करै प्रवेश, तब कर्मभूम लागै अशेष // जब चौबीसो जिनराज होय, बलहर प्रतिहर चक्री सु जोय। नव नव नव द्वादश है प्रमान, सब त्रेसठ पुरुष कहे पुरान॥ केइ धरै दिगम्बर भेष भार, केइ श्रावक व्रत पालैं संभार। केइ सम्यग्द्दष्टी शुद्ध भाव, केइ पूजा दान करें उपाव॥ केइ कर्म नास केवल लहंत, भए सिद्ध निरंजन गुण अनंत। यह चोंथे काल कही सुरीत, पंचम छट्ठम दुखकी प्रतीत॥ यह विध ऐरावत क्षेत्र सार, षट्खंड सहित सोहैं सिंगार। तिस बीच पडो अतिस्वेत रंग, विजयारघ गिर सोहै उतंग॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [167 Pururururururururururururururururununun गिर शिखर श्रीजिनभवन सार, सब समोसरण रचना निहार। वेदीपर सिंहासन सुहाय, तापर सु कमल द्युति जगमगाय॥ तिस ऊपर श्रीजिनराज भूप,सत आठ अधिक प्रतिमा अनूप। सब मंगल दर्व रचे बनाय, छबि प्रातिहार्य वरनी न जाय॥ सुर विद्याधर पूजैं त्रिकाल, गुण गान करत अद्भुत विशाल। जै नृत्य करत संगीत सार, बाजे बाजै अनहद अपार // जैसो कौतूहल रहो छाय, तैंसो मोपै वरनो न जाय। जिनराज चरनपर सीसनाय, भवि लाल सदा बलर सुजाय॥ धत्ता-दोहा उत्तर अचल सुमेरुकी, गिर वैताड़ विशाल। श्री जिनवर पद पूजकै, लाल भनी जयमाल॥२४॥ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मनलाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः। इति श्री अचलमेरुके उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। 222 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान aarararararareranaararararararan अथ अचलमेरुके दक्षिण उत्तर दिश षट्कुलाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 31 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द अचलमेरुके दक्षिण उत्तर, षट् कुलगिर भाषे जिनराय। तिनके शिखर कूट पंकतिके,बिच बिच सिद्धकूट सुखदाय॥ तहां जिन मंदिर बने अकीर्तम, सुर विद्याधर पूजन जाय। आह्वानन विध कर अपने घर, हम पूजत हैं मंगल गाय॥ ____ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिण उत्तर षटकुलाचल पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अब मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणम्, स्थापनं। अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द क्षीरोदधिको उज्जल जल ले, श्री जिनचरण चढ़ावत है। जन्म जरा मृत नाशन कारण, जिन गुण मंगल गावत है। अचलमेरुके दक्षिण उत्तर, षट्कुल गिरपर जिन भवनं। सुर खग मिल ध्यावै पुन्य बढ़ावै, हम पूजत यां जिनचरनं॥ __ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिण दिश निषध // 1 // महाहिमवन // 2 // हिमवन॥३॥ उत्तरदिश नील॥४॥ रुक्मनी॥५॥ सिखरनी पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ जलं॥ मलयागिरि चन्दन दाह निकन्दन, केशर डारी रंग भरी। जिनवर पद ध्यावै शिवफल पावै, पूजत भव आताप हरी॥ अचलमेरु. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [169 COUNrUrurucunrunrururunununununua सुखदास कमोदं धार प्रमोदं, अति मन मोदं धोय धरो। जिन चर्ण चढ़ावो, मन हर्षावो, शिवमुख पावो पुंज करो॥ अचलमेरु. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी वेल चमेली, श्री गुलाब धर जिन आगै। भविजन मन भावत फूल चढ़ावत, कामबाण ततक्षण भागैं॥ ___अचलमेरु. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // नेवज ले नीको तुरत सुधीको, श्री जिनवर आगै धरिये। भरथाल चढ़ावो क्षुधा नशावो, जिन गुण गावो शिव वरिये॥ ___ अचलमेरु. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ मणमई दीप अमोलक लेकर, जगमग जोत सु होत खरी। मोहांध विनाशक सुख परकाशक, श्री जिन आगँ भेट धरी॥ अचलमेरु. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं // कृश्नागर धूपं जजि जिन भूपं, लख जिन रूपं खेवत हैं। सब पाप जलावै पुण्य बढ़ावै दास कहावै सेवत हैं। अचलमेरु. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं // बादाम छुहारे लौंग सुपारी, श्रीफल भारी कर धरकै। जिनराज चढ़ावै मन हर्षावै, शिवफल पावै अघ हरकै॥ अचलमेरु. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ वसु दर्व मिलावै अर्घ बनावै, जिनवर पगतल धारत हैं। भवर सुख पावै शुभगति जावै, कर्म पुंज निरवारत हैं। अचलमेरु. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्थ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 170] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान MereranaareerNareranvrreranarary अथ प्रत्येकाघ-मदअवलिप्तकपोल छंद दक्षिण अचलमेरुके शोभे, तप्त हेमद्युति निषध सु नाम। द्रह तिगंछ बीच कमल अनूपम, तापर धृति देवीको धाम॥ पर्वत शिखरकूट नव पंकत, तिस बीच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ जजत तजके सबकाम। ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिण दिश निषध पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 1 // अर्घ // दक्षिण अचलमेरुते गिनये स्वेत महा हिमवत गिर नाम। महापद्म द्रह द्रह बीच पंकज, जल बिच ही देवीको धाम॥ आठ कूट गिरशिखर विराजत,तिसबिच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ जजत तजके सबकाम॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिण दिश महाहिमवन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदियो॥२॥ अर्धं // दक्षिण अचलमेरुके सो है, कनकवरण हिमवन गिर नाम। पद्मद्रह बीच कमल हैं, अंबुज बिच श्री देवी धाम // गिरके शिखर कूट एकादस, सिद्धकूट तिस बीच सु ठाम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ जजत तजके सबकाम॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके दक्षिण दिश हिमवन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // उत्तर अचलमेरुतें कहिए, वेडूरजवत नील सु नाम। द्रह के सरी कमलकी पंकत, कीर्ति देवीको धाम // Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [171 Prarararerarersanarinarararararararar सुभ्रत शिखर कूट नव उन्नत, तिस बीच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ जजत तजके सबकाम॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तर दिश नील पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // उत्तर दिशा अचलगिरि केरी, विषम रुक्मगिर पर्वत नाम। द्रह महापुंडरीक पंकज जुत, जलज बीच बुधदेवी धाम।। गिरके शिखरकूट वसु वरने, तिस बिच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिनभवन निहार धार उर, अर्घ जजत तजके सबकाम॥ ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तर दिश रुक्म पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ // उत्तर अचलमेरुतें लखिये, हेम वरन सिखरन गिर नाम। कमल पुंज जुत पुण्डरीक द्रह, तहां लक्ष्मीदेवीको धाम॥ एकादसवरकूट सिखरगिरि, तिस बीच सिद्धकूट अभिराम। तहां जिन भवन निहारधार उर, अर्घ जजत तजके सबकाम॥ ____ॐ ह्रीं अचलमेरुके उत्तर दिश सिखरिन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // भद्रशाल वन अचलमेरुके, सीता नदी दोनों तट जान। कुण्ड मनोहर पांच पांच हैं, तिह तट दस दस गिरि परमान॥ तिस कंचन गिरिपर जिन प्रतिमा, एक एक सोहै जिन थान। सबमिल एकशतक नितप्रति हम अरघ जजतउरमें धर ध्यान॥ ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी सीता नदीके दोनों तट पांच पांच कुण्ड तिस एक एक कुण्ड तट दस दस कंचनगिरि तिस कंचनगिरि पर एक एक जिनप्रतिमा अकीर्तम गंधकुटी सहित विराजमान तिन एकसौ प्रतिमाजीको॥७॥ अर्घ // Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान Jurururururunurdurdururururirurver, भद्रशाल वन अचलमेरुके, सीतोदा दोनों तट जान। कुंड मनोहर पांच पांच हैं, तिस तट गिर दस दस परमान। तिस कंचन गिरिपर जिन प्रतिमा, एकर सोहै जिन थान। सब मिल एकशतक नित प्रति हम,अर्घजजत उरमें धरध्यान। ___ॐ ह्रीं अचलमेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी सीतोदा नदीके दोनों तट पांच पांच कुंड तिस एक एक कुण्ड तट दस दस कंचनगिरि तिन कंचनगिरि पर एक एक जिनप्रतिमा अकीर्तम गन्धकुटी सहित विराजमान तिन एकसौ प्रतिमाजीको॥८॥ अर्ध / / अचलमेरु वन चार मनोहर, चारों दिश षोड्स जिन थान। षोडस गिरि वक्षार सिखरपर, चौतिस विजयारध गिरिजान॥ षट् कुलगिरिके कुरु द्रुमके दुई, हस्थी दंत चार परमान। आठ अधिक सत्तर जिनमंदिर, अर्घ जजो उरमें धर ध्यान॥ ____ॐ ह्रीं अचलमेरु सम्बन्धी चारों दिशा अठत्तर जिनमंदिर सिद्धकूट तिनको॥९॥ अर्धं // अचलमेरुके पूरव लवनोदधि, पश्चिम कालोदधि मरजाद। दक्षिण उत्तर इश्वाकारे, बीच क्षेत्र बहु कहे आबाद // सिद्ध भूमि तहां कही अनंती, अरु जिनमंदिर साद अनादि। मन वच तन हम सीस नायकै, अरघ जजत तजकै परमाद। ॐ ह्रीं अचलमेरु सम्बन्धी दिशा विदिशा मध्ये लवणसमुद्र आदि कालोदधि पर्यन्त जहां जहां सिद्धभूमि होय तहां अथवा कीर्तम अकीर्तम जिनमंदिर होय तहां तहां // 10 // अर्धं // अथ जयमाल .. दोहा अचलमेरु कुलगिर सिखर, जिनमंदिर सु विशाल। जिनपद पूज रचायकै, अब वरनूं जयमाल / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [173 AarashatarreranarsrirarararaNarerary ___पद्धडी छन्द जै द्वीप घातकी है विचित्र, पश्चिम गिर अचल महापवित्र। जैताकी दक्षिणदिश विशाल,तहां कुलगिरितीनकहैं रिशाल॥ गिर निषधनाम पहिलो सु जान, दूजो महाहिमवन है प्रधान। तीजो हिमवन जानो प्रवीन, अब उत्तर दिशके सुनो तीन॥ गिरनीलरुक्म सिखरन प्रसिद्ध,ये छहों कुलाचल स्वयं सिद्ध। गिर पीठ सरोवर सजल थान, द्रह बीच पद्म पंकत महान॥ अंबुज बिच कुलदेवी निवास, सब रत्नमई सुन्दर अवास। गिर सिखर कूट बहु है खन्न, तहां सिद्धकूट सोहैं सु धन्न / तापर जिनमंदिर जगमगाय, सब समोसरण रचना बनाय। वेदीपर सिंहासन सुहाय, तिस बीच कमल अति लहलहाय॥ तिहि ऊपर श्रीजिनराज भूप,सत आठ अधिक प्रतिमा अनूप। सब मंगल दर्व धरे बनाय, छवि प्रातिहार्य वरणी न जाय॥ सुर विद्याधरके ईश आय, जिनराज चरन पूजत बनाय। निरजर निरजरनी करत गान, खेचर खेचरनी हरष मान॥ द्रुम द्रुम द्रुम द्रुम बाजत मृदंग, इन्द्रानी इन्द्र नचै जुसंग। जिनराज सभी नैनन निहार, हरि लोचन द्वार किये हजार॥ झुकझुक झुकझुक जिन दर्श पाय, फिरफिरफिरफिरकीलैत जाय। टमटम टमटमक जो पग धरंत, छमछम छमछम धुंधरु बजं॥ सब सभा जीव जय जय करंत, जै नंद वृद्धि सुरपति भनन। जिन चरन कमल तलसीस नाय,भव लालजीत बलबल सुजाय॥ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान PareersNrwareNavaratra घत्ता-दोहा-षट कुलगिर पूजा परम, बनी सु बहुत विशाल। वांचत सुख उपजै घनो, लाल नवावत भाल॥ इति जयमाल। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति अथाशीर्वादः ___ इति श्री अचलमेरुके दक्षिण उत्तरदिश पटकुलाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। इति श्री धातुकी द्वीप मध्ये पश्चिम दिश अचलमेरु सम्बन्धी अठत्तर जिनमंदिर शाश्वते विराजमान तिनकी पूजा सम्पूर्णम्। अथ धातुकी द्वीपमध्ये विजय अचल मेरुके दक्षिण दिश दोनों भरतक्षेत्र बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 32 दीप धातुकी युगम मेरुके, दक्षिण दिश है इक्ष्वाकार। दोउ भरतके बीच विराजत, दक्षिण उत्तर दंडाकार / / तिस गिरिशिखर एक जिनमंदिर, स्वयं सिद्धरचना अधिकार। तिनको आह्वानन विध करकै, जजत जिनेश्वर अष्ट प्रकार॥ ॐ ह्रीं धातुकी द्वीप मध्ये विजय अचलमेरुके दक्षिण दिश इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [175 arrerananararararararsanararararam आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापनं। अथाष्टकं-चाल होलीकी आछी प्रीत लगाई॥ टेक॥ सुरपति पूजत फनपति पूजत, पूजत खेचराई। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, जन्म जरा दुख जाई॥ आछी प्रीत लगाई। विजय अचलकी दक्षिण दिशमें, इक्ष्वाकार बताई। तापर जिन भवन अनूपम, जगजीवन सुखदाई॥ आछी प्रीत लगाई, पूजत श्री जिनराई॥ आछी प्रीत लगाई। ॐ ह्रीं धातुकी द्वीप मध्ये विजय अचलमेरुके दक्षिण दिश इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ जलं॥ मलयागिर चंदन केसर घस, दोऊ देत मिलाई। भव आताप सो दूर करनको, जजत जिनेश्वर पाई।आछी.॥ विजय अचलमेरु. // 3 // ॐ ह्रीं // चंदनं॥ मुक्ताफल सम उञ्जल अक्षत, सुन्दर धोय बनाई। पुंज देत जिनराज प्रभू ढिंग, अक्षयपदको पाई आछी॥ विजय अचलमेरु. // 4 // ॐ ह्रीं // अक्षतं॥ बेला कमल केतकी महकै, अरु गुलाब सुखदाई। काम रोगके दूर करनको, जजत जिनेश्वर जाई।आछी.।। विजय अचलमेरु. // 5 // ॐ ह्रीं / / पुष्यं॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान rururururunurrorununurinnProcur फेनी घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत बनाई। श्री जिनचरण चढ़ाय गाय गुण, क्षुधारोग न रहाई ।आछी.॥ विजय अचलमेरु. // 6 // ॐ ह्रीं // नैवेद्यं // मणिमई दीप थालमें धरके, जगमग जोत सुहाई। मोह कर्मके दूर करनको, श्री जिन चरण चढाई आछी.।। विजय अचलमेरु. // 7 // ॐ ह्रीं // दीपं / / कृष्णागर वर धूप दशांगी खेवत जिन ढिग जाई।। मनवच कायलाय चरणन चित,करमन देत जलाई।आछी.॥ विजय अचलमेरु. // 8 // ॐ ह्रीं ॥धूपं // श्रीफल लौंग सुपारी पिस्ता, अरु बादाम मंगाई। श्रीजिनचरण चढ़ावत भविजन,शिवफल पावत जाईआछी. विजय अचलमेरु. // 9 // ॐ ह्रीं // फलं // जल फल अरघ चढ़ाय गाय गुण, नाचत देदे ताल। इक्ष्वाकार तनी यह पूजा, वांचैं सुरपति लाल ॥आछी.॥ विजय अचलमेरु. // 10 // ॐ ह्रीं ॥अर्घ // सुन्दरी छन्द धातुकी दक्षिण दिशमें कहो, मेर इक्ष्वाकार सु बन रहो। गिरिशिखरजिनधाम विशाल जू,अरघले पूजत भविलालजू॥ ___ ॐ ह्रीं धातुकी द्वीप मध्ये विजय अचलमेरुके दक्षिणदिश दोनों भरतक्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ / अथ जयमाल - दोहा विजय अचल दक्षिण दिशा, इक्ष्वाकार विशाल। तिनपर जिनमंदिर जजू, अब वरनू जयमाल॥ पाहा Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तरहद्वीप पूजा विधान [177 cururururururururururururururururururun पद्धडी छन्द जै द्वितीय धातुकीदीप जान तहां विजय अचलगिरिवर महान। जै ताकी दक्षिण दिश खन्न, जुत भरतक्षेत्र सोहैं सु धन्न / जै दोउ भरतके बीच सार, उत्तर दक्षिण लावो निहार। इक इक्ष्वाकार परो पवित्र, तिस उपर जिनमंदिर विचित्र // जय समोसरण रचना समान, वेदीपर कटनी तीन जान। जै सिंहासन पर कमल सार, सब मंगल दर्व धरे समार॥ भामंडल भव देखे जु सात, जै चमर जु चौसठ दुरत जात। जै क्षेत्र तीन सिरपर फिरात, जै सुर वरषावत कुसुम पात॥ जै वृक्ष अशोक जु लहलहाय, जै दुन्दुभि बाजे बजत आय। तहां श्रीजिनबिंब विराजमान,शतआठ अधिक प्रतिमाप्रमाद / / लख दरश भविक पावै अनंद,मुख जयजय शब्द करें सुछन्द। जै चतुरनिकाय जु देव आय, जिन चरणकमल पूजत बनाय॥ जै नृत्य करैं संगीत सार, विद्या बल रूप अनेक धार / जै गावै किन्नर देव गान, बाजे बाजै अनहद निशान / / जै खेचर खेचरनी सु आय, जिनराज दरश देखे अघाय। जिनचरणकमलपर सीसनाय भविकाल सदाबलबलसुआय॥ धत्ता-दोहा। इक्ष्वाकार तनी कही. पूजा सरस विशाल। पढत सुनत सुख उपजै, लाल नवावत भाल // 21 // इति जयमाल। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 17 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान sururururunupurpururuRUPURIFICURUPUrya अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिनभवन अकीर्तम, ताको पाठ पढै मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री धातुकी द्वीप मध्ये अचलमेरुके दक्षिण दिश दोनों भरतक्षेत्र बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ धातुकी द्वीप मध्ये विजय अचलमेरुके उत्तरदिश दोनों ऐरावत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 33 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द विजय अचलकी उत्तरदिश, गिन द्वीप धातुकी मांहि सुजान। ऐरावत जुग क्षेत्र मनोहर तिस बीच इक्ष्वाकार महान॥ सिद्धकूट तापर जिनमंदिर, स्वयं सिद्ध रचना उर आन। तिनकी आह्वानन विध करकै, जजत जिनेश्वर मंगल ठान॥ ___ॐ ह्रीं धातुकी द्वीप मध्ये विजय अचलमेरुके उत्तर ऐरावत क्षेत्र दोनों के बीच इक्ष्वाकार पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं अत्र तिष्ठ२ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणम्, स्थापनं / Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [179 CururunurinnupuuroDNRNRUNNURORIN अथाष्टकं - चाल दीपचन्दी छन्द सुरपतिपूजन आवै,तनमनप्रीति लगावैंसुरपति पूजन आ टेक क्षीरोदधिको नीर जो लावै कंचन कलश भरावें। इक्ष्वाकार शिखर जिनमंदिर, श्रीजिनचरण बहावै।।सुरपति॥ ____ॐ ह्रीं धातुकी द्वीप मध्ये विजय अचलमेरुके उत्तर दिश दोनों ऐरावत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ जलं॥ परम लता गुण शीतल चंदन केसर रंग मिलावै। इक्ष्वाकार. // सुरपति.॥३॥ ॐ ह्री. चंदनं // अमल अदोखे उज्जल चोखे, तंदुल पुंज दिवावै / इक्ष्वाकार. // सुरपति.॥४॥ ॐ ह्रीं. अक्षतं॥ फूले फूल विकाश सुवासी, सब रितुके चुन लावै। इक्ष्वाकार. // सुरपति. // 5 // ॐ ह्रीं. पुष्पं॥ नाना विध नेवज भर थारी, ताजे तुरत बनावै। ____इक्ष्वाकार. // सुरपति.॥६॥ ॐ ह्रीं. नैवेद्यं॥ रतनमई दीपक दुति धारा, जगमग जोत जगावै। इक्ष्वाकार. // सुरपति.॥७॥ ॐ ह्री. दीपं // अगर सुगन्ध दशों दिश महके, दस विध धूप खिवावै। इक्ष्वाकार. // सुरपति.॥८॥ ॐ ह्रीं. धूपं // फल उत्कृष्ट मधुर गुन भारी, कोमल सरस मंगावै। इक्ष्वाकार. // सुरपति.॥९॥ ॐ ह्रीं. फलं॥ जल फल अर्घ बनाय गाय गुण, लाल सदा सिर नावै। इक्ष्वाकार. // सुरपति. // 10 // ॐ ह्रीं. अर्ध / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान = == ==== = चौपाई धातुकी उत्तर दिश जानिये, मेरू इक्ष्वाकार वखानिये। तासु सिखर श्रीजिनधाम जू, अरघ जजत तज सबकाम जू॥ ___ॐ ह्रीं धातुकी द्वीप मध्ये विजय अचलमेरुके उत्तरदिश दोनों ऐरावत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // अथ जयमाल - दोहा दीप घातकीमें कही, उत्तर दिशा विशाल। इक्ष्वागिरिपर जिनभवन सुन तिनकी जयमाल // 12 // ___ पद्धडी छन्द जे दोप घातकी है अभंग, गिरि विजय अचल सोहै उतंग। जै गिरिकी उत्तरदिश निहार, ऐरावत क्षेत्र व अपार॥ जै दोनों ऐरावत सु बीच, जै इक्ष्वाकार पडो नगीच। जै गिर ऊपर जिनवर सुधाम, सब समोसरण रचनाभिराम॥ जै वेदी कटनी तीन उक्त, सिंहासन सोहै कमल युक्त। जै तीन छत्र सोहैं विख्यात, भामण्डल भव देखे जु सात॥ जै वृक्ष अशोक जु लहलहाय, सुर पुष्टवृष्टि नमसों कराय। जै दुन्दुभि बाजे बजै जोर, अनहद साढेबारह करोर // सिर चमर जु ढोरत असर आय, सब देव वृन्द जै जै कराय। इस प्रातिहार्य सोहैं विचित्र, सब मंगल दर्व धरे पवित्र॥ तहां श्रीजिनबिंब विराजमान, सतआठ अधिक प्रतिमा प्रमान। सुर विद्याधरके इस आय, जिनराज चरण पूजत बनाय॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [181 nurururururururururururunnirypruriere जै द्रुम द्रुम द्रुम बाजत मृदंग, इन्द्रानी इन्द्र नचैं जु संग। जै थेई थेई थेई धुनि रही पूर, द्वै रहो सु झुरमट जिन हजूर।। निरजर निरजरनी करत गान, खेचर खेचरनी तजत मान। हम नमत धरासो शीश नाय, जै जै जै त्रिभुवनके राय॥ घत्ता-दोहा इक्ष्वाकार तनी रची, पूजा सरस रिशाल। जो भवि वांचैं भावसों, तिनके भाग विशाल॥२१॥ इति जयमाल। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, जाडै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः इति श्री धातुकी द्वीप मध्ये विजय अचलमेरुके उत्तर दिश दोनों ऐरावत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट ___ जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। इति श्री धातुकी द्वीप मध्ये विजयमेरू सम्बन्धी अठत्तर और अचलमेरु सम्बन्धी अस्सी सब मिल एकसौ अठावन जिनमंदिर शाश्वते विराजमान तिनको पूजापाठ सम्पूर्णम्। # # # Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान NararNNNNNNNNNNNAPrarrore अथ पुष्करार्घ द्वीपकी पूर्वदिश मंदिर मेरु सम्बन्धी षोडश जिनमंदिर पूजा नं. 34 पुष्करा वर दीप मनोहर, ताकी पूरव दिशा बताय। मंदिरमेरु परम सुन्दर छवि, कंचन वरन रही द्युति छाय॥ ताको चारों दिश वन चारों, षोड़श जिनमंदिर सुखदाय। तिनकी आह्वानन विध करकै हम पूजत हैं मंगल गाय॥ ॐ ह्रीं पुष्करार्द्ध द्वीपमध्ये पूरवदिश मंदिर मेरुके सम्बन्धी षोडश जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्, अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं। __ अथाष्टकं चाल छन्द उज्जल जल सरस मंगाय, जिनवर पूजी जैं। तिहु धार देत मन लाय, सन्मुख हूजी जै॥ हैं मंदिर मेरु सु नाम, महिमाको वरनै। जहां षोडश जिनके धाम, सुरनर मन हरनै // 2 // ___ ॐ ह्रीं पुष्करार्द्ध द्वीपके पूर्वदिश मंदिरमेरुके भद्रशाल वन संबन्धी पूर्व // 1 // दक्षिण॥२॥ पश्चिम // 3 / / उत्तर॥४॥ नंदनवन संबंधी पूर्व // 5 // दक्षिण॥६॥ पश्चिम // 7 // उत्तर // 8 // सोमनस वन संबंधी पूर्व॥९॥ दक्षिण॥१०॥ पश्चिम॥११॥ उत्तर॥१२॥ पांडुक वन संबंधी पूर्व // 13 // दक्षिण॥१४॥ पश्चिम॥१५॥ उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ मलयागिर चंदन लाय, केसर रंग भरी। पूजत श्री जिनवर जाय, भवदुख दाह हरी॥ है मंदिर. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [183 मुक्ताफलकी उनहार, अक्षय धोय धरो। पूजो जिनचरण निहार, सन्मुख पुंज करो॥ है मंदिर. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ सुरगनके फूल सु लाय, वास सु महक रही। भव पूजो मन हरषाय, जिनवर चरण सही॥ है मंदिर. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // फेनी गोझा सु बनाय, नैनन सुखकारी। पूजत जिनचरण सु जाय, सुन्दर भर थारी॥ है मंदिर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ मणिमई दीपक सुविशाल, जगमग जोत जगी। पूजो जिनचरण त्रिकाल, तनमन प्रीत लगी। है मंदिर. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ ले दस विध धूप बनाय, सरस सुगन्ध भरी। खेवत जिन सन्मुख जाय, सुन्दर लें सु धरी॥ है मंदिर. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ नानाविध फल भर थाल आनंद राचत हैं। तुम शिवफल देहु दयाल, तो हम जाचत हैं। है मंदिर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल वसु दर्व मिलाय, अर्घ सु दीजिये। तहां लाल सुबल बल जाय, निजरस पीजीये॥ है मंदिर. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ // Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान Kareenarararararararararararapearsrareran अथ प्रत्येकार्घ-गीता छन्द मंदिर मेरु पूर्व दिश सार, भद्रशाल वन भू पर धार। तहां जिनभवन अकीर्तम जोय, अर्घ जजू वसु दर्व संजोय॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके भद्रशालवन सम्बन्धी पूर्वदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ मंदिर गिरकी दक्षिण वोर, भद्रशाल वन भूपर जोर। सिद्धकूट जिनमंदिर ताम, अर्घ जजो तजके सबकाम। ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके भद्रशालवन सम्बन्धी दक्षिणदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 2 // अर्घ // मंदिर गिरकी दिशा विशेख, पश्चिम भद्रशाल वन देख। स्वयंसिद्ध जिनभवन निहार, अर्घ जजो भर कंचन थाल। ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके भद्रशालवन सम्बन्धी पश्चिमदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 3 // अर्घ // उत्तर दिश मंदिर गिर कहो, भद्रशाल वन भूपर ठहो। देख अकीर्तम श्रीजिन गेह, अर्घ जजो उरमैं धर नेह॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके भद्रशालवन सम्बन्धी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो।॥४॥ अर्घ / सुन्दरी छन्द मेरु मंदिरकी पूरव दिशा, वन सु नंदन अति सुन्दर लशा। तहां मनोहर श्रीजिन धाम जू, जजत अर्घ करत परिणामजू॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके नंदन वन सम्बन्धी पूरव दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 5 // अर्घ // Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [185 rurururunururununununununununununununun मेरु मंदिर दक्षिण दिश भली वन सुनंदन लख पूजैं रली। जिनभवन जिनबिम्ब विशाल जू, अर्घ ले पूजत भर थाल जू॥ _____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके नंदन वन सम्बन्धी दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 6 // अर्घ // दिश सु पश्चिम मंदिरकी कही, वन सुनंदन बहु शोभा लही। जिनभवन तहां देखो चावसों, अर्घ ले भवि पूजो भावसों॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके नन्दनवन सम्बन्धी पश्चिम दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ मेरु मंदिर दिश उत्तर जहां, वन सुनंदन सघन लसै तहां। मणिमई जिनमंदिर सोहने अर्घ ले पूजत मन मोहने // ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके नन्दन वन सम्बन्धी उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // सोरठा मेरु सु मंदिर जान, पूरव वन सौमनसमें। स्वयंसिद्ध जिन थान, पूजो अर्घ चढायकै॥१९॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके सोमनस वन सम्बन्धी पूर्व दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ // मंदिर दक्षिण द्वार मन सौमनस विषै कहो। जिन मंदिर सुखकार, अर्घ जजो वसु दर्व ले॥२०॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके सोमनस वन सम्बन्धी दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ / पश्चिम मंदिरमेरु वन सौमनस सुहावनो। जिनमंदिर छबि हेर, अष्ट दरव पूजा करो॥२१॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके सोमनस वन सम्बन्धी पश्चिम दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធនធានធនធានធនធានធនធ वन सौमनस रिशाल, गिरि मंदिर उत्तर दिशा। जिनमंदिर सुविशाल अर्घ जजो अति भावसों॥२२॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके नंदन वन सम्बन्धी उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ॥ सोरठा-मंदिर गिरि पूरव दिशा पांडुक वन सुखकार। तहां जिनभवन निहारके, अर्घ जजों भर थार॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पाईंकवन सम्बन्धी पूर्व दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ दक्षिण मंदिरमेरुके पांडुक वन जिन गेह। वसु विध अरघ संयोजके, जिन पूजो धर नेह॥२४॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पांडुक वन सम्बन्धी दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ // पश्चिम मंदिरमेरुके, पांडुक वन जिन थान। मन वच तन लव लायके, अर्घ जजों धर ध्यान // 25 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पांडुक वन सम्बन्धी पश्चिम दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ // मंदिर गिर उत्तर दिशा, पांडुक वन सुखदाय। श्री जिनभवन विलोकके, अर्घ जजों चित लाय॥२६॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पांडुक वन सम्बन्धी उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ // अथ जयमाला - दोहा मंदिर गिर चारों दिशा, चारों वन सु विशाल। षोड़स मंदिर पूजके, अब वरनूं जयमाल // 27 // Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [187 = == == == = = == === == पद्धडी छन्द जै पुष्करार्द्ध वरद्वीप जान, ताकी पूरव दिश है महान। सो है श्रीमंदिरमेरु सार, कलधोत वरण द्युति है अपार // जोजन चौरासी सहस जान, उन्नत गिर वर भाषे पुरान। वन भद्रशाल नंदन रिशाल, सोमनस और पांडुक विशाल॥ जहां तीर्थंकरको न्हवन होय, फल फूल पत्र युत सघन सोय। जै चारों दिश चहुं वन मझार, षोड़स जिनमंदिर हैं निहार॥ जै तीन पीठ पर कमल जान, तापर जिनबिंब विराजमान। सतआठ अधिक प्रतिमा पवित्र, सब मंगल दर्व धरे विचित्र // वसुप्रातिहार्यवर्णनअपार,लखदरशभविकसमकितसुधार। वसुअंग धरा सो सीसलाय, कर जोर सचीपती नमत आय॥ जिन चरण कमल पूजत सुरेश, मुखपाठ पढ़त जै जै जिनेश। जै द्रुम द्रुम द्रुम बाजै मृदंग, खेचर खेचरनी नचै संग॥ जै छम छम छम घुघरु बजंत, जै ठम ठम ठमक सु पग धरंत। जै थेई थेई थेई धुन रही पूर, है रहो सु झुरमट जिन हजूर॥ निरजर निरजरनी सीस नाय, जिनराज छवि निरखे बनाय। जै सुर नाचत दे दे सुताल, पहरै गलमें मोतिनकी माल॥ जै जै जै फिरकी सु लेय, जिन सन्मुख सीस नवाय देय। जै जै जगजीवनके दयाल, मन वच तन गुण गावत सुलाल॥ घत्ता-दोहा श्री जिन महिमा अगम है, कोई न पावै पार। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान = = = = = = = = = अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः। इति श्री पुष्करार्द्ध द्वीपमध्ये पूर्वदिश मंदिरमेरु सम्बन्धी षोडश जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ मंदिरमेरु चारों विदिशा मध्ये चार गजदन्त पर चार जिनमंदिर पूजा नं. 35 ___ अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द श्री मंदिरगिरकी कनकवरण छवि,ताकी चारों विदिशा जान। तहां चार गजदंत मनोहर, कहे केवली श्री भगवान // तिनपर श्री जिनभवन अनूपम, रतनमई जिनबिम्ब महान। तिनकी आह्वानन विध करके, हम पूजत हैं आनंद मान॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके चारों विदिशा मध्ये चार गजदन्तपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं। अथाष्टकं-सुन्दरी छन्द परम पावन नीर सु लायके पूजिये जिनचरन चढ़ायके। मेरु मंदिरके गजदंत जू, तहां सु जिन पूजत भवि संत जु॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके अग्नि दिश सौमनस // 1 // नैऋत्य दिश विद्युत्प्रभ // 2 // वायव्य दिश मालवान // 3 // ईशानदिश गंधमादन नाम गजदन्त सिद्धकूट जिनम् दिरेभ्यो॥४॥ जलं॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [189 ले सुगंध२ अवार जू, जिन सु पूजत चंदन गार जू। ___ मेरुमंदिर.॥३॥ ॐ ह्रीं. ॥चंदनं // परम उज्वल अक्षत लीजिये, पुंज श्रीजिन सन्मुख दीजिये। मेरुमंदिर.॥४॥ ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ सरस सुन्दर फूल मंगायके, जिन सु पूजत चरण चढायके। मेरुमंदिर.॥५॥ ॐ ह्रीं. // पुष्पं // मन हरण नैवेद्य बनायके, जिनचरण भवि पूजो लायके। मेरुमंदिर.॥६॥ ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // दीप मणिमई जोत जगायके, जिनचरण भवि पूजो जायके। मेरुमंदिर.॥७॥ ॐ ह्रीं. // दीपं / / अगर धूप मनोहर खेइये, मन लगाय सु जिनपद सेइये। ___ मेरुमंदिर.॥८॥ ॐ ह्री. ॥धूपं // फल मनोहर उत्तम लाइये, जिन सु पूजत शिवफल पाइये। मेरुमंदिर.॥९॥ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल सु फलवसुदर्व मिलायके, अर्घ देत सुजिनगुण गायके। मेरुमंदिर.॥१०॥ ॐ ह्रीं. ॥अर्घ॥ __ अथ प्रत्येकार्घ-अडिल्ल छन्द मंदिरमेरु विशाल अग्नि दिशमें कहा, नागदन्त सोमनस महां छवि है तहां। तापर श्री जिन धाम विराजत सार जू, पूजो अर्घ चढ़ाय हरष उर धार जू // 11 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके अग्नि दिश सौमनस नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==== == ========== = मंदिर दिश नैऋत्य सकल सुख ठाम हैं, विद्युतप्रभ गजदंत तासको नाम हैं। ताके शिखर विराजत श्री जिन धाम जू, वसु विध अर्घ चढाय करत परजाम जू॥१२॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके नैऋत्यदिश विद्युतप्रभ नाम गजदंतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ मंदिर मेरु महान दिशा वायव्य केही, मालवान गजदंत तहां सोहै सही। तिस ऊपर जिनभवन सु परम विशाल जू, वसु विध अर्घ बनाय जजत नम माल जू॥१३॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके वायव्य दिश मालवान नाम गजदंतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ मंदिर दिशा ईसान अधिक शोभा जहां, धरे सुगंध अपार गंधमादन तहां। है गजदन्त सु नाम शिखर जिनधाम जू, पूजो अर्घ चढाय छोड सब काम जू॥१४॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके ईशान दिश गंधमादन नाम गजदंतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // अथ जयमाल मंदिरमेरु सुहावनो तहां गजदन्त विशाल। तिनपर जिन मंदिर जजों अब वरनूं जयमाल // 15 // पद्धडी छन्द जै जै श्री मंदिरमेरू सार, है कंचन वरण सु द्दग निहार। जै ताकी विदिशामें विशाल, चारों गजदंत बने रिशाल॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [ 191 == = == == === === = == जै तिनपर जिनमंदिर अनूप, हैं रत्नमई सुन्दर स्वरूप। जैतहां जिनबिंब विराजमान,प्रतिमा सतआठ अधिक प्रमान॥ जै प्रातिहार्य विध रही छाय, सब मंगल दर्व रचे बनाय। जै सर खग इंद्रादिक जु सर्व सज सज विभूत ले ले सुदर्व॥ जै पूजा कीनी प्रीत लाय, जिनराज सु गुण गाए बताय। फुन नृत्य कियो नानाप्रकार, मुखपाठ पढै जै जै सु कार॥ बाजै झांझर बीनी सु चंग खेचर खेचरनी नचैं संग। छमछमछमछम धुंघरू बजंत, ठमठमक ठमक जुग पगधरंत॥ जै थेई थेई थेई धुन रही पूर, बन रहो सु झुरमुट जिन हजूर। जिनराज सभी नैनन निहार, निरजरपति नैन किये हजार॥ अस्तुति करकर बहु भक्ति ठान निज२ थानक सब गए जान। जगमें जैवंते होहु देव तुम चरणनकी हम करें सेव॥ घत्ता-दोहा-पूजा श्री गजदन्तकी पूरण भई विशाल। वांचौ भविजन भावसों, लाल नवावत भाल॥ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति इत्याशीर्वादः इति श्री पुष्करार्द्ध दीप मध्ये मंदिरमेरुके चारों गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान अथ मंदिरमेरुके उत्तर ईशान कौन जंबूवृक्ष अर दक्षिण नैऋत्य कौन शाल्मली वृक्ष पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 36 __ अथ स्थापना-जोगीरासा मंदिरमेरु बनी उत्तर दिश, कौन ईशान जु सोहै। दक्षिण दिश नैऋत्य कौन लख, सुरनरके मन मोहै। जम्बू शालमली शाखा पर, श्री जिनभवन सुहाई। तिनकी आह्वानन विध करकै, पूजों भविजन भाई॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके उत्तर दिश ईशानकोन जम्बूवृक्ष और दक्षिणदिश कौन नैऋत्य शालमली वृक्षकी पूर्व शाखा पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापनं। अथाष्टकं-जोगीरासा छन्द सरस मनोहर नीर सु लेके, श्री जिन पूजन जइये। निरख छबी सुन्दर जिनवरकी, धार देत सुख पइये॥ जम्बू शालमली शाखापर, श्री जिनमंदिर सोहै। तिनमें श्री जिनबिंब अकीर्तम, निरख२ मन मोहै॥१॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके उत्तर दिश ईशानकोन जम्बूवृक्ष // 1 // दक्षिणदिश नैऋत्य कोन शालमली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ जलं॥ मलयागिरि चंदन केसर ले, दोऊ एक मिलावो। श्री जिनवरपद पूजत भविजन, भव आताप मिटावो॥ जंबू शालमली. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [193 NaraharNaaraaNNNNNritaisriram देवजीर सुखदास मनोहर, उज्वल अक्षत लीजै। देख जिनेश्वरके पद पंकज, पुंज मनोहर दीजै // जंबू शालमली. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी बेल चमेली, फूल सुगन्धित लइये। श्री जिन चरण चढ़ावत भविजन, आनंद मंगल गइये॥ ___ जंबू शालमली. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं॥ फेनी घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत बनाइये। क्षुधा रोगके नाशन कारण, श्री जिनचरण चढाइये। जंबू शालमली. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // कनक थालमें मणिमई दीपक, जगमग जोत परजारो। जाय जिनेश्वर सन्मुख लेके, चरन कमलपर वारो॥ जंबू शालमली. // 7 // ॐ ह्री. // दीपं॥ दस विध धूप सुगंधित लैके, जिनवर आगे खेवो। जनम जनम अघ नाशन कारण, श्री जिनवर पद सेवो॥ जंबू शालमली. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ श्रीफल अरु बादाम छुहारे, पिस्ता लौंग मिलावो। शिव फल पावन दुःख नशावन, श्री जिनचरण चढ़ावो॥ ___ जंबू शालमली. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ वसु विध दर्व मिलाय मनोहर, अर्घ बनाय चढ़ावो। ताल मृदङ्ग साज सब बाजत, सुरनर मिल गुण गावो॥ जंबू शालमली. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान NNNNNNNNNNNNNNNNNNNN अथ प्रत्येकाघ - दोहा मंदिर गिरतें जानिये, उत्तर कौन ईशान। जम्बू तरुपर जिनभवन, अर्घ जजों धर ध्यान॥११॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके उत्तर दिश ईशान कौन सम्बन्धी जम्बूवृक्षकी पूर्व शाखापर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // मंदिर गिर दक्षिण दिशा, नैऋत्य कौन विशाल। शाल्मली द्रुमपर जजों श्री जिनभवन रिशाल॥१२॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दक्षिण दिश नैऋत्यकौन सम्बन्धी शालमली वृक्षकी पूर्व शाखापर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ जम्बू शाल्मली तनी शाखा सरस विशाल। श्री जिनमंदिर पूजकै अब वरनूं जयमाल // 13 // पद्धडी छन्द जयमाला जै जै श्री मंदिरमेरु जान, जै कंचनमई सुन्दर महान। जै ताकी उपर दिश ईशान, तहां जंबूवृक्ष कहो पुरान॥ जै दूजो दक्षिण दिश निहार, नैऋत्य कौन सोहै सिंगार। जै शाल्मली तरु तहां सार, चहुँदिश चारों शाखा मंझार॥ जै पूरवकी शाखा रिशाल, तापर जिनमंदिर हैं विशाल। कंचनमई रत्न लगे अमोल, जै स्वयं सिद्ध रचना अडोल॥ तिनमें श्री जिनवर बिंब जान जै सुरपति पूजत भक्ति ठान। हम पूजत जिनगृह प्रीत लाय, जिनराज दरश देखत अघाय॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [195 जै हमपर करुणा कर दयाल, चहू गतके दुखते वेग टाल। यह अरज हमारी सुनो देव, तुम चरणनकी हम करै सेव॥ जग जाल महा विकरालरूप, याते न्यारो कर जगत भूप। तुम तारण समरथहो सुजान, कोउ देव न दूजो और आन॥ हम शीश नवावत बार बार, करूणा कीजे उर धार धार। जै तातें हमको तार तार, जै कीजे जगते पार पार // घत्ता-दोहा श्री मंदिरगिरि मेरु ढिग, जुगम वृक्ष सु विशाल। सुर खग मिल पूजत सदा, लाल नवावत भाल॥२१॥ इति जयमाल। मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महीमा, वर्णन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढे अधिक सरस सुखदाय। यह भव जसपर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ ___ इत्याशीर्वादः इति मंदिरमेरु सम्बन्धी जम्बू शाल्मली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम् / <> <> <> Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान crururururunununununununununununun अथ मंदिरमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 37 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द श्री मंदिर गिरिकी पूरव दिशमें, है वक्षार सु वसु गिर जान। कंचनवरण रतनमई कलशा, रतन जडित जिनभवन वखान॥ तहां श्री जिनवर बिंब बिराजै, सुर विद्याधर पूजै आन। हम तिनकी आह्वानन करकै, पूजत जिन धर आनंद मान॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणम्। स्थापनं। अथाष्टकं -चाल होलीकी वो जिन पूजोरे भाई, भला जिन पूजो रे भाई।। यह उत्तम नरभव पायके जिन पूजो रे भाई॥ टेक॥ सरस मनोहर उञ्जल जल ले, रतन कटोरी धारो। श्री जिनवरके सन्मुख होके, चरण कमल पखारो॥ वो जिन पूजो रे भाई॥१॥ मंदिर गिरकी पूरव दिशमें, वसु वक्षार बताए। तिनके शिखर जु श्री जिनमंदिर, पूजत मन हरषाए। वो जिन पूजो रे भाई॥२॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूरवविदेह सम्बन्धी प्रश्चात्य // 1 // चित्रकूट // 2 // पद्मकूट // 3 // नलिन॥४॥ त्रिकूट // 5 // प्राच्य॥६॥ वैश्रवण // 7 // अंजन नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ जलं॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [197 urururuFIGURNOrurururururururururu मलयागिर चन्दन केसर घसकर, श्री जिनचरण चढावो। भाव भक्ति सों पूजा कीजै, हरष२ गुण गावो॥वो जिन.॥ मंदिर गिरकी वो जिन. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं / / मुक्ताफल सम उज्जल अक्षत, मल मल धोय धरीजै। परम महा उत्तम जिनवर ढिग, पुंज मनोहर दीजै॥वो जिन.॥ मंदिर गिरकी वो जिन. ॥४॥ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी जुही चमेली, श्री गुलाब ले आवो। सुर तरुवरके फूल सुवासी,श्रीजिनचरण चढावो॥वो जिन.॥ ___ मंदिर गिरकी वो जिन. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // फे नी घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत बनावो। हाथ जोड श्रीजिनवर आगे, पूजत मन हरषावो।वो जिन.॥ मंदिर गिरकी वो जिन. ॥६॥ॐ ह्री. // नैवेद्यं॥ जगमग जोत होत दीपककी, रतन कटोरी धरकै / श्रीजिनवरको पूजतभविजन,मोह तिमिरको हरकै।वो जिन.॥ मंदिर गिरकी वो जिन. // 7 // ॐ ह्री. // दीपं // कृश्नागर करपूर मिलाके , दस विध धूप सु लेवो। श्रीजिनचरन कमल ढिगलेके,धूपायन घर खेवो॥वो जिन.॥ मंदिर गिरकी वो जिन. // 8 // ॐ ह्रीं. ॥धूपं // श्रीफल लौंग बदाम छुहारे पिस्ता दाख सु लावो। कोमल मधुर सुरससुन्दर फल,श्रीजिनचरण चढ़ावो।वोजिन. मंदिर गिरकी वो जिन. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल अरघ बनाय गाय गुण, श्रीजिन चरण पद पूजो। बलर जात लाल चरणन पर जिन सम देव न दूजो॥वो जिन मंदिर गिरकी वो जिन. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ====== ========== अथ प्रत्येकार्घ-चौपाई मंदिर गिर पूरव दिश सार, गिर पश्चात्य नाम वक्षार। ताके शिखर जिनेश्वर धाम, वसुविध अर्घ जजो तज काम॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी प्रश्चात्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ चित्रकूट वक्षार निहार, मंदिर गिरके पूरव द्वार। तापर श्रीजिन भवन विशाल, अर्घ जजो वसु दर्व संभाल॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी चित्रकूट नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ मंदिर पूरव दिशा पवित्र, पद्मनाम वक्षार विचित्र। श्रीजिन मंदिर गिरके शीस, अर्घ चढ़ाय नमो निस दीस॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी पद्म नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // नलिन नाम वक्षार महान, मंदिर गिरते पूर्व जान। तहां जिन मंदिर सुन्दर जोय, अर्घ जजो उरसों मद खोय॥ ____ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी नलिन नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // मंदिर पूरव है वक्षार नाम त्रिकूट कहो श्रुतधार / ता ऊपर श्रीजिनवर धाम, अर्घ जजो वसुविध धर ध्यान॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी त्रिकूट नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ // प्राच्य नाम वक्षार सु देख, मंदिर.गिरतें पूरव लेख। ताके ऊपर जिनवर गेह, अर्घ जजो उरमें घर नेह // ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी प्राच्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [199 मंदिरमेरु पूर्व दिश वोर, गिरि वक्षार वैश्रवण जेर। जिनमंदिर तिस ऊपर साद, अर्घ जजों तजके परमाद॥ ___ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी वैश्रवण नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ दोहा-मंदिर माली मेरुके, पूरव दिशा विशाल। अंजनगिरि पर जिनभवन, अर्घ जजत भवि लाल॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी अंजनगिरि नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // अथ जयमाला - दोहा मंदिरगिरि पूरव दिशा, वसु वक्षार रिशाल। तिनपर जिनमंदिर जजों, अब वरनूं जयमाल // 19 // पद्धडी छन्द जै जै श्री मंदिरमेरु सार, जै पीत वरन सुन्दर निहार। नानाविध रतनकी सु खान, जै जगमग जगमग होत जान॥ जै ताकी पूरव दिश वखान, जहाँ षोड़श देश विदेह जान। तहां तीर्थंकरको जन्म होय, सत इन्द्र महोत्सव करैं सोय॥ जै चन्द्र बाहु जिन विरहमान, जिनवर भुजंग प्रभु है महान। जै सुरखग मुनिध्यात्रिकाल,भविजीव निरखनावत सुमाल॥ चक्री हलधर प्रतिहर मुरार सब पुन्य पुरुष उपजैं अपार। जै चौथो काल रहें अतीव, तहां कर्म भूम वरतें सदीव॥ जै दिव्यध्वनि जिन मुख खिरंत सब जीव सुनत आनंद लहंत। जहां श्री मुनिराज करै विहार, तहां श्रावक श्रावकनी अपार॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 ] श्री तेरहदाप पूजा विधान CuriosorununurIDCIRUPURIPIDURIPRIRURS समदृष्टी जीव कहें विशेष, व्रत शील दया पाले अशेष। जहां चारों विधको होत दान,लख पात्र देत श्रावक सुजान / / तहां गिरि वक्षार पड़े सु आठ, तिनपर जिनमंदिर सु ठाठ। सब समोसरण रचना विशाल, वेदीपर लटके रतन माल॥ जै सिंहासन पर कमल जान, तापर जिनबिंब विराजमान / सत आठ अधिक रचना प्रसिद्ध, यह रचना जानो स्वयं सिद्ध। सुर विद्याधरके ईश आय, जिनराज चरन पूजत बनाय। जुग हाथजोर भविमाथलाय,भविलाल सदा बलर सुजाय॥ घत्ता-दोहा मंदिरगिरि पूरव दिशा, गिर वक्षार विशाल। तिन जिनमंदिरकी सु यह, पूरन है जयमाल // 29 // इति जयमाल। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुर नर पदले शिवपुर जाय॥ // इति आशीर्वादः॥ इति श्री मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [201 SNNISESHISHESARSONNESSASNNN अथ मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 38 ___ अथ स्थापना-अडिल्ल छन्द कंचन वरन सु मंदिर मेरू प्रमानिये, ताकी पश्चिम दिशमें सुरपुर जानिये। आठ महा वक्षार सुगिर सौहैं तहां। तिनपर कूट विशाल सु जिनमंदिर जहां // 1 // दोहा-सुर विद्याधर हरष धर, श्री जिन पूजन जाय। हम आह्वानन विध सहित, निज धर पूजत पाय॥२॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं, स्थापनं। अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द परम सु पावन उज्जल जल ले, श्रीजिन चरन चढ़ावत हैं। ताल मृदंग बजावत सब मिल, जिन गुण मंगल गावत हैं / / श्री मंदिरकी पश्चिम दिशमें, वसु वक्षार सु राजत हैं। तिनपर कूट तहां जिनमंदिर, तहां जिनराज विराजत हैं। ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी शब्दवान // 1 // विजयवान॥२॥ आसीविष॥३॥ सुखावह // 4 // चन्द्र // 5 // सूर्य॥६॥ नाग॥७॥ देवनाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ जलं॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធផលនៅសល ផ លធននននន मलयागिर करपूर सु चंदन, डारत के सर रंग भरी। श्रीजिन चरण चढ़ावत भविजन, भव आताप सु दूर करी॥ श्री मंदिर. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं // देवगीर सुखदास सु अक्षत, पाशुक जलसे धोय धरे। श्री सर्वज्ञ देवके सन्मुख पुंज देत सुन्दर सुथ रे // श्री मंदिर. // 4 // ॐ ह्रीं. ॥अक्षतं॥ कमल केतकी जुही चमेली, श्री गुलाबके फूल हरे। पूजत श्री जिनराज चरनको, यातें भवदधि पार तरे॥ श्री मंदिर. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // बावर घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत बनावत हैं। क्षुधा रोगके दूर करनको, श्री जिन चरन चढ़ावत हैं। श्री मंदिर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ मणिमई दीप अमोलक लेकर, जगमग जोत सु होत खरी। करत आरती श्रीजिन सन्मुख मंगल दर्व जहां सु धरी॥ __ श्री मंदिर. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ अमर कपूर सुगन्ध सुदसविध, श्रीजिन चरण सुखेवत हैं। श्री अरहन्त जिनेश्वरके पद, भविजन निशदिन खेवत हैं। श्री मंदिर. // 8 // ॐ ह्रीं. ॥धूपं॥ श्रीफल लौंग छुहारे पिस्ता दाख मनोहर लावत हैं। श्री जिनपूजा करत सु भविजन, मोक्ष महाफल पावत हैं। श्री मंदिर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल वसु विध दर्व सु लेकर, सुन्दर अर्घ बनावत हैं। श्री जिनचरन चढ़ाय लाष मन, लाल सु मंगल गावत हैं। श्री मंदिर. ॥१०॥ॐ ह्रीं. ॥अर्घ॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [203 ============ ======= अथ प्रत्येकार्घ - छन्द चाल मंदिरगिर पश्चिम द्वार, तहां शब्दवान वक्षारा। तिस ऊपर श्री जिन गेहा, नित अर्घ जजों धर नेहा॥ ____ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिमविदेह सम्बन्धी शब्दवान नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ जहां विजयवान गिर कहिये, मंदिर” पश्चिम लहिये। तहां श्री जिन भवन सुहाई, नित अर्घ जजो रे भाई॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिमविदेह सम्बन्धी विजयवान नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ गिर मंदिर पश्चिम जानो, आसीविष नाम प्रमानो। तापर जिनमंदिर ध्यायो, ले वसु विध अर्घ चढ़ावो॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिमविदेह सम्बन्धी आसीविष नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ गिर नाम सुखाः वह देखो, मंदिर ते पश्चिम लेखो। जिन मंदिर तापर हुजो, ले अर्घ जिनेश्वर पूजो॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिमविदेह सम्बन्धी सुखावह नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ मंदिरके पश्चिम द्वारा, गिरि चन्द्र नाम वक्षारा। तहां पर जिन भवन लखाई, पूजो भवि अर्घ चढ़ाई॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिमविदेह सम्बन्धी चन्द्र नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ है सूर्य नाम गिरि छट्ठा मंदिरते पश्चिम दिट्ठा। तापर जिनभवन विशाला, पूजों जिन अर्घ रिशाला॥ ॐ ह्री मंदिरमेरुके पश्चिमविदेह सम्बन्धी सूर्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 6 // अर्घ // Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान INNNNNNNNNNNNNrararare मंदिरते पश्चिम लीजे गिरनाम जू नाग कही जे। जिन मंदिर तापर सोहै, जिन पूजत सुर नर मोहै। __ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिमविदेह सम्बन्धी नाग नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 7 // अर्घ // गिरदेव नाम सुखकारी, मंदिर पश्चिम दिश भारी। जिन भवन महासुखदाई, भवि अर्घ जजो हरषाई॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिमविदेह सम्बन्धी देव नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // अथ जयमाला - दोहा मंदिर गिरि पश्चिम दिशा, वसु वक्षार विशाल। तिनपर सोहै जिनभवन, तिनकी सुन जयमाल // 20 // पद्धडी छन्द जै जै श्री मंदिरमेरु सार, जै ताकी पश्चिम दिश विचार। तहां है विदेह सुन्दर सु जान, मानों उतरो सुरलोक आन॥ जहां चौथो काल रहै सदीव, जिनधर्म सदा धारै सु जीव। जहां हों तीर्थंकर विद्यमान, जै ईश्वर नेमिश्वर महान॥ जहां श्री मुनिराज करै विहार हलधर प्रतिहर चक्री मुरार। सब पुन्य पुरुष उपजैं असेष, श्रावक सम्यग्दृष्टि विशेष // तहां चारों विधके देत दान, भवि नित्य निपुन भाषं पुरान। जै जै जहां सुन्दर हैं विशाल, वक्षार सु वसु सोहै रिशाल॥ जै तिन गिरपर हैं कूट सार, जैतापर जिनमंदिर निहार। सब समोसरण रचना सु धार, बन रहो परम आनंदकार॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [205 जैतहां जिनबिंब विराजमान, प्रतिमा शतआठ अधिक प्रमान। जै सुर सुरपति पूजा कराहि, वसु दर्व लिए करके सु मांहि॥ जै विद्याधर सब भूप आय, जिनराज चरन पूजत बनाय। जै जिनगुण गावैं भक्त लीन, जिनचरण कमल से प्रवीन / जै जग जैवंते होय देव, भविजीव सदा तुम करै सेव। यह अरज हमारी सुनो सार, संसार-समुद्रतै करो पार // घत्ता-दोहा पश्चिम दिश वक्षारगिरि, पूजा बनी विशाल। तहां जिनभवन निहारकै, लाल नवावत भाल॥२९॥ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति इत्याशीर्वादः इति श्री मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान SararararararNITISrararararararara अथ मंदिरमेरूके पूरव विदेह सम्बन्धी षोडश रूपाचल पर जिनमंदिर पूजा नं. 39 अथ स्थापना - कुसुमलता छन्द मंदिरमेरु तनी पूरव दिश, षोडश रूपाचल तहां जान। तिसपर जिनवर भवन अनूपम, रतनमई सुन्दर सुख खान॥ तिनमें श्री जिनबिंब विराजित, जिनपद पूजत सुरपति आन। हम तिनकी आह्वानन विधकर, जजत जिनेश्वर श्री भगवान। ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी षोडश रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवोषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं, स्थापनं। __ अथाष्टकं-छन्द वो जिन पूजो रे भाई, भला प्रभु पूजोरे भाई। यहश्रावककुलकोपायकै,प्रभुपूजोरेभाई,भलाप्रभुपूजोरेभाई॥ सरस मनोहर उजल जल ले, रतन कटोरी भरकै। जन्मजरादुःखनाशनकारण, श्री जिनसन्मुखधरकै॥वो जिन. मंदिर मेरु तनी पूरव दिश, रूपाचल गिर जानो। तिनपर षोडशभवन जिनेश्वर पूजाकर सुख मानो॥वो जिन. ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूरव विदेह सम्बन्धी कक्षा॥१॥ सुकक्षा // 2 // महाकक्षा // 3 // कक्षकावती॥४॥ आवर्ता // 5 // मंगलावती // 6 // पुष्कला // 7 // पुष्कलावती॥८॥ वक्षा // 9 // सुवक्षा // 10 // महावक्षा // 11 // वत्सकावती॥१२॥ रम्या॥१३॥ सुरम्या॥१४॥ रमणी // 15 // मंगलावती देश संस्थित रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [207 = = == = == = === == केसर अरू करपूर मिलाकर, चंदन घसकर लावो। भव आताप निवारन कारण, श्रीजिन पूजन जावो॥ ___ वो जिन. मंदिर मेरु. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ देवजीर सुखदास सु अक्षत, सुन्दर धोय धरीजै। षोड़स पुंज देत जिन सन्मुख, परम अखैपद लीजै॥ वो जिन. मंदिर मेरु. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी जुही चमेली, श्री गुलाब ले आवो। मदन वानके नाशन कारण, श्री जिन चरण चढ़ावो॥ वो जिन. मंदिर मेरु. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं॥ फेनी घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत बनावो। क्षुधा रोग निरवारन कारण, श्री जिन चरण चढावो॥ वो जिन. मंदिर मेरु. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ मणिमई दीप अमोलिक लेकर कनक रकाबी डालो। मोह तिमिरके नाशन कारण जगमग जोत दिवालो॥ वो जिन. मंदिर मेरु. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं // कृश्नागर करपूर मिलाकर, धूपाइन धर खेवो। अष्ट कर्म इंधर जारनको, श्री जिनवर पद सेवो॥ वो जिन. मंदिर मेरु. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ श्रीफल लौंग सुपारी पिस्ता, दाख बदाम सु लावो। श्री जिन चरण चढ़ावत भविजन, मोक्ष महाफल पावो॥ ___ वो जिन. मंदिर मेरु. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल अर्घ बनाय गाय गुण, श्री जिन सन्मुख हुजो। बल बल जात लाल चरणनपर, निज अनुभव रस पीजो॥ वो जिन. मंदिर मेरु. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान nrururururururunununununununCCINAS अथ प्रत्येकार्घ - दोहा कक्षा देश विशाल है, मंदिर पूरव और। रूपागिरपर जिनभवन, अर्घ जजों कर जोर // 11 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी कक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // मंदिरगिरि पूरव दिशा, देश सु कक्षा सार। विजयारधपर जिनभवन, अर्घ जजों भर थार // 12 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी सुकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ देश महाकक्षा बनो, पूरव मंदिर द्वार / जिनमंदिर वैताड़ पर अर्घ जजों भर थार // 13 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी महाकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // पूरव मंदिर मेरु के , कक्षकावती देश। रूपाचल जिनभवन लख, पूजो अर्घ विशेष // 14 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी कक्षकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // सोरठा। देश आवर्ता सार, गिर मंदिर पूरव दिशा। पूजो अर्घ संवार, जिन मंदिर वैताड़के // 15 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी आवर्ता देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्धं // Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [209 Karnaraswareranarrarerrerary रुपाचल जिन गेह, गिर मंदिर पूरव दिशा। अर्घ जजो धर देह, देश मंगलावर्तमें // 16 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 6 // अर्घ // देश पुष्कला जान, मंदिर गिरते पूर्व दिश। अर्घ जजो धर ध्यान, जिनमंदिर विजयार्धके॥१७॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी पुष्कला देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // मंदिर पूरव देख, पुष्कलावती देश है। पूजो अर्घ विशेष, रुपाचल जिन भवनमें // 18 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी पुष्कलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // चाल छन्द मंदिर पूरव दिश जानो, तहां वक्षा देश प्रमानो। विजयारधपर जिन गेहा, भवि अर्घ जजों धर नेहां॥१९॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी वक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ // जहां देश सुवक्षा देखो, मंदिरते पूरव लेखो। रुपाचलपर जिन थाना, पूजो भवि अर्घ महाना॥२०॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी सुवक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ पूरव दिश मंदिर सोई, महावक्षा देख जु होई। बैताड़ शिखर जिन धामा, भवि अर्घ जजो तज कामा। ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी महावक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान === = ======= = ==== == है वत्सकावती देशा, मंदिरते पूरव लेशा। रूपागिर शिखर विशाला, जिनमंदिर जजो त्रिकाला॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी वत्सकारः “ग संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ // पद्धडी छन्द मंदिरगिर पूरव दिश सार, तहां रम्य देश सोहै निहार। वैताड़ शिखरजिनभवनदेख,पूजतभविअर्घसुअति विशेख। ___ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी रम्या देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 13 // अर्घ॥ वर देश सुरम्य बसै विशाल, गिर मंदिरके पूरव विशाल। जिनभवन कहो वैताड़ शीस, भवि अर्घ चढ़ावत नमतशीश॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी सुरम्या देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ // गिर मंदिर दिश पूरव पवित्र, तहां रमणी देश वसै विचित्र। विजयारधपर जिनभवन सार, भवि अर्घ जजो वसुदर्व धार॥ ___ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी रमणी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ॥ हे मंगलावती देश नाम, मंदिर गिरके पूरव सु ठाम। जिनगेह शिखररुपा विशाल, जिनचरन अर्घ ले जजत लाल॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ // अथ जयमाला-दोहा मंदिर गिर पूरव दिशा रूपाचल सु विशाल। तिन पर षोडस जिन भवन, तिनकी यह जयमाल॥२७॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [211 Farararararerarararararararararsrararee पद्धडी छन्द जै जै श्री मंदिर गिर महान, वर पुष्कराघमें पूर्व जान। जै गिरकी पूरव दिश विचार, तहां षोड़श देशविदेह सार॥ जै वरतै चौथो काल रीत, जहां शिवमारग चालैं पुनीत। तहां तीर्थंकर चक्रीश होय, बलहर प्रतिहर मकरंद सोय॥ जै पुन्य पुरुष उपजै अपार, मुनिराज वहैं चारित्र भार। जै कर्मभूमि विध रही छाय, भवि जीव तिरै केवल उपाय। तिसबीच पडोबैताड़ नाग, द्युति स्वेत वरण सुन्दर सुहाग॥ षोड़शगिर षोड़शदेश माहि, तिस ऊपर विद्याधर रहाहि। गिर शिखरकूट पंकत रवन्य, तहां सिद्धकूट सोहें सु धन्य॥ जै तहां जिनमंदिर हैं उतंग, जै कलश धुजा सोहे अभंग। जै सिंहासनपर कमलसार, जै जगमग जगमग द्युति अपार॥ जैतापर श्रीजिनराजदेव, शतआठ अधिक प्रतिमा गनेव। जै सुर विद्याधर दरव लाय, जिनराज चरण पूजत बनाय॥ जै करत जु स्तुति प्रीत धार, जिनराज सबै नैनन निहार। जै निरजर निरजरनी सुआय, जै नृत्य करत बाजै बजाय॥ जै द्रुम द्रुम द्रुम बाजत मृदंग, जै बीन बांसरी और मृदंग। जै थेई थेई थेई धुन रही पूर, जै खेलें झुरमट जिन हजूर। घत्ता-दोहा मेरु सु मंदिर पूरव दिश, रूपागिर सु विशाल। तिनपर घोड़स जिनभवन, बलबल जात सु लाल // 37 // इति जयमाल। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान KarorarsanarararaNararararararararam ___अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढै मनलाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ // इति आशीर्वादः॥ इति श्री मंदिरमेरुके पूर्व विदेह सम्बन्धी षोडश रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम् / अथ मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह संबंधी षोडश रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 40 अथ स्थापना-जोगीरासा मंदिरमेरुतनी पश्चिम दिश, है विदेह सुखकारी। तहां पडो वैताड़ मनोहर, षोडश गिर मनहारी॥ ताके ऊपर श्री जिनमंदिर, बिंब जिनेश्वर सोहैं। तिनकी आह्वानन विध करके, पूजत सुरनर मोहैं। ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी षोड़श रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्, स्थापनम्। अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द कंचन झारीमें उज्वल जल क्षीर वरन मन हरन सु आन। पूजत हम जिनराज चरणको, प्रभु गुण गावत मधुरी तान॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [213 arerarrerakaraNarararerararararera मंदिरगिरकी पश्चिम दिशमें, षोड़श गिर रूपाचल जान। तापर श्री जिनभवन अनूपम, जजत जिनेश्वर श्री भगवान॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी पद्मा // 1 // सुपा // 2 // महापद्मा // 3 // पद्मकावती // 4 // सुसंखा॥५॥ नलिना // 6 // कुमदा॥७॥ सरिता // 8 // वप्रा // 9 // सुवप्रा // 10 // महावप्रा // 11 // वप्रकावती॥१२॥ गंधा // 13 // सुगंधा // 14 // गंधला // 15 // गंधमालनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ केसर अर करपूर सु चंदन, परम सुगंधित लावत हैं। भव आताप सु दूर करनकों, श्री जिनचरण चढ़ावत हैं। मंदिर. // 3 // ॐ ह्रीं. ॥चंदनं / / सरस सु उज्वल चन्द्र किरन सम, अक्षत धोय सु लावत हैं। पुंज देत जिनराज सु आगै अक्षय पदको पावत हैं / मंदिर. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ केसर फूल सुवासित लेकर श्री जिन चरन चढावत हैं। भावभक्तिसों पूजा करकै, जन गुण मंगल गावत हैं। ___मंदिर. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // नाना विध पकवान मनोहर, ताजे तुरत संवारत हैं। क्षुधा रोग निरवारन कारन, जिनचरणन पर वारत हैं। मंदिर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ मणिमई दीप अमोलिक लेकर, जिनमंदिरमें आवत हैं। करत आरती श्री जिन आगै, झांझर ताल बजावत हैं। मंदिर. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ दश विध धूप दसों दिश महकै, खेवत जिन आगे धरके। पूजत श्री जिनराज प्रभुको, जांय कर्म सब ही जरके // मंदिर. // 8 // ॐ ह्रीं. ॥धूपं॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान wrararararararwariharanwrwasnareranars श्रीफल लौंग छुहारे पिस्ता, दाख बदामसु लावत हैं। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, मनवांछित फल पावत हैं। मंदिर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ वसु विध दर्व मिलाय मनोहर, अर्घ बनावत भर थारी। जजत जिनेश्वरके पद पंकज लाल चरणपर बलिहारी॥ मंदिर. // 10 // ॐ ह्रीं. ॥अर्घ॥ अथ प्रत्येकार्घ - चाल छन्द मंदिर पश्चिम दिश कहिये, तहां पद्मा देश जु लहिये। रूपाचल पर जिन गेहा, भवि अर्घ जजों धर नेहा // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी पद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ जहां देश सुपद्मा होई, पश्चिम दिश मंदिर सोई। वैताड़ सिखर जिन धामा, ले पूजो भवि तज कामा॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुपद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // मंदिर गिर पश्चिम जानो, महापद्मा देश प्रमानो। रुपाचल जिनगृह सोहै, पूजत सुरनर मन मोहै। ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी महापद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ शुभ पद्मकावती देशा, मंदिरते पश्चिम वेशा। तहां गिर वैताड सुहाई, जिन मंदिर पूजो भाई॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी पद्मकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [215 PNOTTrerakareersarararararaaNP दोहा-मंदिर गिरि पश्चिम दिशा, देश सुसंखा सार। रुपाचलपर जिन भवन, जजै अर्घ संवार // 15 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुसंखा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ / नलिना देश सुहावनो, मंदिर पश्चिम द्वार। विजयारधपर जिन भवन, अर्घ जजों भर थार॥१६॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी नलिनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्ध / / गिरि मंदिर पश्चिम गिनो, कुमदा देश विचित्र।। जिन मंदिर वैताड़ पर, पूजो अर्घ पवित्र // 17 // ___ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी कुमदा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ / सरिता देश वसे जहां मंदिर पश्चिम जान। रुपाचल जिन भवन लख, पूजो अर्घ महान // 18 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सरिता देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // सुन्दरी छन्द मेरु मंदिरकी पश्चिम दिशा, देश वप्रा है सुन्दर लशा। जिनभवन वैताड़ महान जू, अर्घ सों पूजत धर ध्यान जू॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी वप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ // देश नाम सुवप्रा अति बनो, मेरु मंदिर ते पश्चिम गिनो। रूपागिरि जिनभवन विशाल जू,अर्घ ले पूजत भवि लालजू॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुवप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान vururururururururururururururururururu गिर सुमंदिर दिश पश्चिम कहो, महा वप्रा देश सुलहलहो। गिरिशिखर विजयारधके भलै,जिनभवन पूजो भवि अर्घ ले॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी महावप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ // वप्रकावती देश सु जानिये, मेरु मंदिर पश्चिम मानिये। जिन भवन रूपाचल है जहां, अर्घ ले पूजत भविजन तहां॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी वप्रकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 12 // अर्घ // चौपाई गंधा देश बसै घनघोर, मंदिर गिरिकी पश्चिम ओर। विजयारधपर जिनवर भौन, अर्घ जजो करके चिंतौन॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी गंधा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ देश सुगन्धा नाम महान, गिरि मंदिरके पश्चिम जान। जिनमंदिरमें अर्घ चढ़ाय, विजयारध पर पूजो जाय॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी सुगंधा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ // मेरु सु मंदिर पश्चिम बसै, देश गंधला भूपर लसै। तहां रूपाचल पर जिनथान, वसुविध पूजो तज अभिमान॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी गंधला देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ // गंधमालनी देशवरन्य, मंदिर गिरते पश्चिम धन्य। गिर वैताड़ शिखर पर जाय, जिनमंदिर पूजो हरषाय॥ ह्रीं मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी गंधमालनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 16 // अर्घ / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [217 ParaTrearSSROOTrarwarerarera अथ जयमाला-दोहा मंदिर गिर पश्चिम दिशा, षोड़श देश विशाल। रुपाचल पर जिन भवन, सुन तिनकी जयमाल॥२७॥ पद्धडी छन्द जै पुष्करार्ध वर द्वीपसार, जै मंदिर गिर पूरव निहार। जै गिरके पश्चिम दिश विदेह, तहां षोड़श देश भले सु नेह॥ जहां काल चतुर्थ सदा रहाय, तहां कर्मभूम विध रहो छाय। जै मुक्त पंथकी चलै चाल, भवि जीव लहैं चारित विशाल॥ जै तीर्थंकरको जन्म होय, सत इन्द्र महोत्सव क सोय। जहां पदवीधारक मनुष होय, निज पुन्य पाप फल लहैं सोय॥ जहां श्री मुनिराज करैं विहार, धर्मोपदेश भार्षे विचार। श्रावक ऐलक क्षुल्लक प्रवीन, सम्यकद्दष्टि जिनभक्ति लीन। षटखण्ड सहित सोहै सुदेश, इक जैनधर्म दूजो न लेश। तिस क्षेत्र बीच बैताड़ जान, द्युति श्वेतवरन षोडश महान॥ गिर शिखर विराजत सिद्धकूट, तिनमें जिनमंदिर अटूट। तहां श्रीजिनबिंब विराजमान, सब समोसरन रचना समान॥ सतआठ अधिक प्रतिमा प्रसिद्ध,यह वरनन जानो स्वयं सिद्ध। जै प्रातिहार्य मंगल सुदर्व, सुर विद्याधर पू0 जू सर्व // जै नृत्य करैं संगीत सार, बाजे बाजै अनहद अपार। जै छम छम छम धुंधरु बजंत, जै ठम ठम ठमक सुपग धरंत // जै फिर फिर फिरकी सुलेय, जै जिनगुण गावत ताल देय। यह अद्भुत समै बनो विशाल, जै बलबल जातसुदेखलाल॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान AarararararararararararSararararararera घत्ता-दोहा मंदिर गिर पश्चिम दिशा, गिर वैताड़ विशाल। पूजा सरस सुहावनी, उर धर वांचत लाल // 37 // इति जयमाल। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिनभवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री मंदिरमेरुके पश्चिम विदेह सम्बन्धी षोड़श रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ मंदिरमेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 41 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द श्री मंदिरगिरकी दक्षिणदिशमें, भरतक्षेत्र सोहै उर आन। छहों कालकी फिरन जहां है, तहां पडो वैताड़ महान॥ ताके शिखर श्री जिनमंदिर, सुर विद्याधर पूजत आन। हम तिनकी आह्वानन करके, जजत जिनेश्वर मंगल ठान॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र सम्बन्धी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतरसंवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठःस्थापनं, अत्रमम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणम्स्थापनं। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [219 Sarararararararararararararararararary अथाष्टकं - चाल छन्द वो जिन पूजो रे भाई, भला जिन पूजो रे भाई। यह उत्तम नरभव पायकै जिन पूजो रे भाई॥ टेक॥ श्वेत वरन मन हरन सु उज्वल, जल लीजै भर थारी। धार देत श्रीजिनवर आगै, प्रभु चरननपर वारी।वो जिन.॥ मंदिर गिरकी दक्षिण दिशमें रुपाचलगिरि सोहै। तापर श्री जिनभवन अनूपम, सुरनरके मन मोहै।वो जिन.॥ ___ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ जलं॥ मलयागिर करपूर मिलाकर, केसर रंग भरीजै। चरन पूज जिनराज प्रभुके, भव आताप हरीजै।वो जिन.॥ मंदिर गिरि. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं / शशिकी किरण समान सु उज्वल, अक्षत धोय धरीजे। श्री जिनराज चरनके आगे, पुंज मनोहर दीजे॥ वो जिन.॥ मंदिर गिरि. ॥४॥ॐ ह्री. ॥अक्षतं॥ कमल केतकी जुही चमेली, सुन्दर फूल मंगाये। पूजा कर सर्वज्ञ प्रभुकी, हरष हरष गुण गाये॥वो जिन.॥ मंदिर गिरि. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // लाडू बरफी खुरमा ताजे, रसनाको सुखकारी। पूजत श्री जिनराज प्रभु पद, रोग क्षुधा सब टारी॥वो जिन.॥ मंदिर गिरि. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ रतन अमोलिक कनक थालमें, लेकर आरती कीजे। जगमगजगमगहोत दिवालो, प्रभुदर्शनकरलीजे॥वोजिन.॥ मंदिर गिरि. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं // Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान WIKIPORNKIKINNAROKANKSarararar इसविध धूप बनाय गाय गुण, श्री जिन आगे खेवो। इन कर्मनको दूर करनको, प्रभु चरननको सेवो॥वो जिन.॥ मंदिर गिरि. ॥८॥ॐ ह्रीं. ॥धूपं // सुन्दर सरस मनोहर मीठे, फल उत्तम घर लावो। भविजन पूजा करत जिनेश्वर, मनवांछित फल पावो॥वोजिन. मंदिर गिरि. // 9 // ॐ ह्री. // फलं॥ जल फल अर्घ बनाय थाल भर, नाचत ताल बजावो। पूजा कर जिनराज चरनकी, नरनारी गुण गावो॥वो जिन. / / मंदिर गिरि. ॥१०॥ॐ ह्रीं. // अर्घ // दोहा-मंदिरगिर दक्षिण दिशा, भरतक्षेत्र सुखकार। रूपाचलपर जिनभवन, पूजों अर्घ संवार॥११॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबंधी रुपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ अघु॥ अथ जयमाला-दोहा मंदिरमेर सुहावनो, भरतक्षेत्र सु विशाल। विजयारधपर जिनभवन, सुन तिनकी जयमाल // 12 // पद्धडी छन्द जै जै श्री मंदिरमेर चंग, चौरासी सहस जोजन उतंग। जै ताकी दक्षिण दिश निहार, तहां भरतक्षेत्र षट्खंड धार॥ जहां छहों काल वरतै प्रमान, सागर दस कोड़ाकोड जान। जै भोगभूम है तीन काल, जहां कल्पवृक्ष सोहै विशाल॥ जब चौथो काल करै प्रवेश, तब कर्मभूमि लागी अशेष। जै तीर्थंकर उपजै महान, चक्री बलहर प्रतिहर सु जान॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [221 ParNTONTROTraNareerwear सब त्रेसठ पदवी पुरुष होय, निज पुन्य उदय फल होय सोय। केई मुनिसुव्रत धारै भविक जीव,केई श्रावकव्रत पालैं सदीव॥ केई कर्मनाश केवल उपाय, जै सिद्ध भूम त्रय जगत राय। इम वरतै चौथा काल रुप, पंचम छट्ठम दुखको स्वरूप॥ तहां श्वेत वरन वैताड जान, जैतापर जिनमंदिर प्रमान। जै समोसरण रचना विशाल, जै सिंहासन पंकज रिशाल॥ जै सोहै श्री जिनराज भूप, सात आठ अधिक प्रतिमा अनूप। जै सुर सुरपति खेचर जु सर्व पूजत जिनपद ले ले सुदर्व॥ बहु भक्ति करें जिनगुण सुगाय, जै नृत्य करैं बाजे बजाय। मनहरष बढे जिनदरश पाय,भविलालसदा बलबल सुजाय॥ घत्ता-दोहा रुपाचल पर जिन भवन, ताकी यह जयमाल। मन वच काय लगायके, लाल नमत तिहूँ काल॥२१॥ इति जयमाल। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिनभवन अकीर्तम, ताको पाठ पढै मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री मंदिरमेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र संबंधी रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम् / Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2222] 222] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान arwariNarNIRNORNNNrwarerararera अथ मंदिरमेरुके उत्तरदिश ऐरावतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 42 ___ अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द मंदिर गिरकी उत्तर दिशमें ऐरावत शुभ क्षेत्र महान। तहां रुपाचल चंद्रकिरनसम, उज्जल वरन पडो उर आन॥ तापर श्रीजिनभवन अनूपम, कनक रतनमई बनो सु जान। समोसरन रचनाको धारै तहां विराज श्री भगवान // दोहा-सुर खेचर पूजा करें, हमें शक्ति सों नांहि। आह्वानन तिनको करें, पूजो सज घर मांहि // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके उत्तर ऐरावतक्षेत्र सम्बन्धी रुपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं। ___ अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द क्षीर वरन क्षीरोदधके सम, उज्वल जल ले परम सुजान। श्रीजिन चरन चढ़ावत भविजन, बाढ़े पुन्य होय अघ हान॥ मदिरगिरकी उत्तर दिशमें, क्षेत्र सु ऐरावत शुभ थान। तहां रूपाचलपर जिनमंदिर, जजत जिनेश्वर श्री भगवान॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके उत्तर ऐरावत क्षेत्र संबंधी रुपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ जलं॥ परम सुगन्धित चंदन लेकर, तामें केसर डारत है। श्री सर्वज्ञ जिनेश्वरके पद, पूजा कर नज तारत हैं। ___ मंदिर गिर. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [223 SwarSarararararararararSarararwar सरस सु उज्जल चंद्र किरन सम अक्षत धोय सु लावत हैं। पुंज देत जिनराज सु आगे, अक्षयपदको पावत हैं / मंदिर गिर. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी फूल मनोहर, वरन वरनके लावत हैं। कामबाणके नाश करनको, श्री जिन पूजत आवत हैं। मंदिर गिर. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // गोझा फेनी मोदक खाजे, ताजे तुरत बनावत हैं। क्षुधारोगके दूर करनको, श्री जिनचरण चढ़ावत हैं। मंदिर गिर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जगमग जोत होत दीपककी, रत्न अमोलक द्युति भारी। पूजत श्री सर्वज्ञ प्रभुको, मोह तिमिरको क्षयकारी॥ __मंदिर गिर. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ महकै धूप दशोंदिश परिमल, खेवत श्री जिनवर आगै। नाश होय वसुविध कर्मादिक, ज्ञानकला तप ही जागै॥ मंदिर गिर. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ लौंग छुहारे पिस्ता किसमिश, सुन्दर फल भवि लावत हैं। पूजत श्री जिनराज चरनको, मनवांछित फल पावत हैं। ___ मंदिर गिर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ वसुविध दर्व मिलाय गाय गुण, अर्घ बनावत भर थारी। पूजत चरनकमल जिनवरके, है सबका मंगलकारी॥ मंदिर गिर. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान SENSENSENSESSINESENSESESENSANKA दोहा-मंदिर गिर उत्तर दिशा ऐरावत सु विशाल। रुपाचल जिनभवन लख, जजों अर्घ त्रिकाल॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र संबंधी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ अर्धं // अथ जयमाल ऐरावत वर क्षेत्रमें, गिर वैताड़ विशाल। मंदिर” उत्तर दिशा, तिनकी यह जयमाल॥१३॥ पद्धडी छन्द जै जै श्री मंदिरमेरु सार, उत्तर ऐरावत क्षेत्र धार / जहां छहो काल वरते अशेष, षट् खंडसहित भाषै जिनेश॥ जहां भोगभूम है तीनकाल, दश कल्पवृक्ष शोभै विशाल। जब लागें चौथा काल आय, तब कर्मभूम विध रही छाय॥ जै जब तीर्थंकर जन्म लेय, तब मातापिता बहु दान देय। चक्री बलहर प्रति वासुदेव, पदवी धारक त्रेसठ गिनेव॥ तहां श्वेत वरन वैताड़ जान, जैतापर जिनमंदिर महान। सब समोशरण रचना विचित्र, वेदीपर सिंहासन पवित्र॥ जैतहांजिनबिंब विराजमान, शतआठ अधिक प्रतिमा प्रमान। जै प्रात्यहार्य मंगल सुदर्व, विध यथायोग्य लहिये सुसर्व॥ सुर विद्याधर पूजै त्रिकाल, मुखपाठ पढे जिनगुण विशाल। जै नृत्य करें संगीत सार, विद्या बल रूप अनेक धार // दुंदुभि बाजे बजै सु जोर, अनहद साढ़े बारह करोर। जै जै जुकरैं सब जीव आय, भविलाल जीत बलर सुजाय॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [225 घत्ता-दोहा। विजयारधपर जिनभवन ताकी यह जयमाल। भविजन कण्ठ सुहावनी, लाल नवावत भाल॥२१॥ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक तिन भवन अकीर्तम ताको पाठ पढै मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः। इति श्री मंदिरमेरुके उत्तर ऐरावत सम्बन्धी क्षेत्र सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ मंदिर मेरुके दक्षिण उत्तर षट्कुलाचल पर्वतपर जिनमंदिर पूजा नं. 43 अथ स्थापना - कुसुमलता छन्द मंदिरगिरकी दक्षिण उत्तर षट्कुल गिर सोहै सु रिशाल। तिनपर श्री जिनभवन अनूपम, कनक रतनमई परम विशाल॥ सुर सुरपति विद्याधर सब मिल, पूजत जिनपद तीनों काल। हम तिनकी आह्वानन विधकर निजधर पूज नवावै भाल॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दक्षिण उत्तर कुलाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठ: स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापनं। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ANWASANANrvNrvNrvNrNASANNANKINNN अथाष्टकं-छन्द उज्वल जल निर्मल अति शीतल, रतन सु झारी ले भर आन। श्री सर्वज्ञ जिनेश्वरके पद, पूजैं भविजन उर धर ध्यान // मंदिर गिरकी दक्षिण उत्तर, षट्कुल गिरि जिनभवन महान। सुर विद्याधर करत महोत्सव, जजत जिनेश्वर श्री भगवान॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दक्षिण दिश निषध॥१॥ महाहिमवन॥२॥ हिमवन // 3 // उत्तर दिश नील॥४॥ रूक्म॥५॥ शिखरिन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ जलं॥ मलयागिर करपूर सु चंदन, अरु केसर ले धरकर मांहि। भव आताप सु दूर करनको, श्री जिनवर पद पूजन जाहि॥ मंदिर. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं। अक्षत चन्द्र किरन सम उज्जल, मुक्ताफलकी है उनहार। पूजत श्री जिनराज प्रभुको, अखय हेतु मन हरष अपार // मंदिर. 4 // ॐ ह्रीं. / / अक्षतं॥ वरन वरनके फूल सुगंधित ले जिनमंदिर आवत हैं। भाव भगत सों पूजा करके, जिन गुण मंगल गावत हैं। ___ मंदिर. // 5 // ॐ ह्री. // पुष्पं // षट्रस पूरित रसना रंजन, विंजन तुरत बनावत हैं। क्षुधारोगके दूर करनको, श्री जिनचरन चढ़ावत हैं। मंदिर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जगमग जोति होत मंदिरमें, रत्न अमोलिक आन धरे। दीपक सों पूजै जिनवर पद, भवसागरते पार तरे // मंदिर. / / 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [227 NURINDRINIRINcorrrrrrrrr कृश्नागरकी धूप सु दशविध, जिनचरनन ढिग खेवत जाय। इन कर्मनके नाश करनको, जिनपद पूजत मन हरषाय॥ मंदिर. // 8 // ॐ ह्रीं. ॥धूपं॥ श्रीफल दाख छुहारे पिस्ता, लौंग लायची लावत हैं। भविजन पूजत जिनचरणनको, मनवांछित फल पावत हैं। मंदिर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल आठों दर्व सु लेकर, अर्घ बनावत भर थारी। श्री जिनचरण चढ़ाय गाय गुण, लाल सदा जिनपर वारी॥ मंदिर. // 10 // ॐ ह्रीं. // अघु।। __ अथ प्रत्येकार्घ-दोहा मंदिरगिर दक्षिण दिशा, कुलगिर निषध सु जान। तापर जिनमंदिर बनो, पूजो अर्घ महान // 11 // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दक्षिणदिश निषध पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ ___ चाल-जोगीरासा मंदिर गिरकी दक्षिण दिशमें, कुल गिरि दूजो भाई। नाम महाहिमवन ता ऊपर जिन मंदिर सुखदाई॥ जजत जिनेश्वरके पद पंकज, तन मन प्रीत लगाई। भाव भगतसों करत महोत्सव, भविजन मिल हरषाई॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दक्षिणदिश महाहिमवन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२।। अर्घ मंदिरगिर दक्षिण दिश ओर, हिमवन कुलगिर तहां जोर। जापर जिनमंदिर सो है, पूजत भविजन मन मोहै // ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दक्षिणदिश हिमवन पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___श्री तेरहद्वीप पूजा विधान vuruOSKYRIRAJArruryryRPUFYRIRURRIN पद्धडी छन्द मंदिरगिर उत्तर दिश सुआन, तहां नील नाम कुलगिर वखान। तापर जिनमंदिर हैं विचित्र, भवि अर्घ जजो वसुविध पवित्र॥ ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके उत्तर दिश नील पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // अडिल्ल. मंदिर गिरकी उत्तर दिश उर आनिये। कनक रतन कर जडीत सु परम प्रमानिये॥ रुक्म नाम गिरपर जिनमंदिर सोहनो। पूजत अर्घ चढ़ाय भविक मन मोहनो॥१५॥ ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके उत्तर दिश रूक्म पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ ___ चाल-नंदीश्वरके अष्टककी मंदिरगिर उत्तर ओर, कुलगिर है भाई। गिर शिखरन् नाम सु जोर, देखत सुख पाई॥ तापर जिनमंदिर जाय, पूजत सुर खग हैं। हम वसुविध अर्घ चढ़ाय, ध्यावत जिनपग हैं // 16 // ____ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके उत्तरदिश शिखरिनगिर नाम पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // वन भद्रशाल सु मेरु मंदिर, नदी सीता तट मही। द्रह पांच पांच कहे दौऊ दिश, मेरु दश दश बन रही। कंचन सुगिर तसु नाम जानो, एक इक प्रतिमा जहां। सब एकसत जिन प्रति जहां, हम अरघ धर करमैं तहां। ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी सीता नदीके दोना तट पांच पांच कुण्ड तिनके समीप दश दश कंचनगिरि तिसार एक Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [229 SESSINESSSSSSSSSSSSSSS एक जिनप्रतिमा ऐसे सर्वमिल एकसौ प्रतिमा गंधकुटी सहित सास्वती विराजमान तिनको॥७॥ अर्घ॥ वन भद्रशाल सु मेरु मंदिर, नदी सीतोदा महा। द्रह पांच पांच कहें दोउ दिश, मेरू दश दश वन रहा। कंचन सु गिर तस नाम जाका, एक एक प्रतिमा जहां। सब एक शत जिन प्रति जजत हम, अर्घ धर करमें तहां। ॐ ह्रीं मंदिर मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी सीतोदा नदीके दोनों किनारे पांच पांच कुण्ड तिनके समीप दश दश कंचनगिर तिसपर एक एक जिनप्रतिमा अकीर्तम गन्धकुटी सहित विराजमान तिन एकसौ प्रतिमाजीको॥८॥ अर्घ॥ मंदिर सु गिर जिन भवन सोलह, बहु कुलाचल शीस हैं। षोडश सु गिर वक्षार ऊपर रुचिक गिर चौतीस हैं। गजदंत चार सु कूर द्रुम, द्रह आठ सत्तर सब जहां। नित प्रति जजों भवि भाव सेती, अर्घ धर करमें तहां॥ ___ॐ ह्रीं मेरु मंदिर संबंधी अठत्तर जिन मंदिरमें सिद्धकूट विराजमान तिनको पूर्णार्धं // 9 // मंदिर सु पूरव मानुषोत्तर, परै कालोदधि कहा। दक्षिण सु उत्तर कार इष्वा, बीच क्षेत्र सु अति लहा॥ जिस बीच साद अनाद जिन गृह, सिद्धभूम जहां जहां। तिन प्रति जजों भव भावसेती, अर्घ ले करमें तहां॥ __ॐ ह्रीं मंदिरमेरुके दिशा विदिशा मध्ये कालोदधि समुद्रादि मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त जहां जहां कीर्तम अकीर्तम जिनमंदिर होय अथवा सिद्धभूमि होय तहां तहां // 10 // अर्घ॥ इति जयमाल। Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान សធផលជលផលផនផល दोहा मंदिरगिरिके जानिये, षट्कुल गिर सु विशाल। पूजा कर मन लायकै, अब वरनूं जयमाल॥२१॥ चाल-छन्द पुष्करार्ध वर द्वीपमें जग सार हो, पूरव दिश सु महान। मंदिरमेरु सुहावनो जग सार हो, कंचन वरन सु जान॥ जान कंचन वरन गिरपर, चार वन चहुँदिश वहे। जिनभवन सोलह स्वयं सिद्ध, अनादि रचना बन रहे॥ जोजन चौरासी सहस उन्नत, शिखर वन पांडुक जहां। जिनराज जन्माभिषेक मंगल, अमर खग पूर्णं तहां॥ ताकी दिश दक्षिण कही जगसार हो, तीन कुलाचल सार। निषध जहां हिमवन पडों जग सार हो, है हिमवन सुखकार॥ सुखकार उत्तर दिश कुलाचल, तीन गिरवर सोहनो। वर नील दूजो रुक्म तीजो, शिखर नौ मन मोहनो॥ तसु तीस जिनमंदिर मनोहर, रतनजडित सु राजही। तहां रत्नबिंब जिनेशकी, शत आठ अधिक बिराजही॥ समोसरन रचना रची जग सार हो, मंगल दर्व विशाल। प्रातिहार्य वसु सोहनो जग सार हो, सुर पूज तिहुँकाल॥ तिहूँकाल सुर खग जजत हरषित, इन्द्र सहित उछाह सो। देवी शची जग खेचर तिया मिल, गीत गावें भावसों॥ जहां करत नृत सांगीत सुरपति, हावभाव विचित्रता। लखि लाल भाल नमाय भविजन, होय निज सुख भोगता॥ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [231 2222222222222222222 पद्धडी छन्द जै सुर विद्याधर सबै आय, जिनराज सु पूजा करत जाय। जिनगुण गावैं मन हरष लाय, जै नृत्य करैं बाजे बजाय॥ जै थेई थेई थेई धुन रही पूर, जग तारक जिनवरके हजूर। जै करत विनती बार बार जै जै प्रभु हमको तार तार // घत्ता-दोहा षट् कुलगिरपर जिनभवन, तहां श्री जिनवर देव। जो पूर्जे मन लायके, सुख पावै स्वयमेव // 27 // इति जयमाल। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढै मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः इति श्री मंदिरमेरुके दक्षिण उत्तर दिश षट्कुलाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। इति श्री पुष्करार्द्ध द्वीपमध्ये पूरवदिश मंदिरमेरु सम्बन्धी अठत्तर जिनमंदिर शाश्वते विराजमान तिनकी पूजापाठ सम्पूर्णम्। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान SANSararararaswarararwarihararera अथ पुष्करार्ध द्वीपमध्ये पश्चिमदिश विद्युन्मालीमेरु संबंधी षोडश जिनमंदिर पूजा नं. 44 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द | विद्युन्माली मेरु पंचमो, पुष्करार्ध वर द्वीप मझार। कंचन वरन लसै पश्चिम दिश, ता ऊपर सोहैं वन चार॥ तहां श्री जिनवर बिंब बिराजै, चाल वरन षोड़श सुखकार। तिनकी आह्वानन विध करकै, हम पूजत जिन पद उर धार॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्मली मेरु के चारों वन सम्बन्धी षोडश जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः, ठः स्थापनम्, अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनं। अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द सरस मनोहर उज्ज्वल जल ले, क्षीरोदधि सम लेत मंगाय। श्रीजिनचरण चढ़ावत भविजन,जन्मअर मरनजरादुख जाय॥ विद्युन्माली मेरु पंचमो, ताके चारों वन दिश चार / तिनमें षोड़श भवन अनूपम जजत जिनेश्वर नैन निहार॥ ____ॐ ह्री विद्युन्माली मेरुके भद्रशाल वन सम्बन्धी पूर्व॥१॥ दक्षिण // 2 // पश्चिम // 3 // उत्तर // 4 // नंदनवन संबन्धी पूर्व // 5 // दक्षिण॥६॥ पश्चिम // 7 // उत्तर॥८॥ सोमनस वन सम्बन्धी पूर्व॥९॥ दक्षिण // 10 // पश्चिम // 11 // उत्तर // 12 // पांडुक वन सम्बन्धी पूर्व // 13 // दक्षिण॥१४॥ पश्चिम // 15 // उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ मलयागिर करपूर सु चंदन, केशर रंग भरी तहां लाय। भव आताप सु दूर करनको, श्री जिन चरनन देत चढ़ाय॥ विद्युन्माली. // 3 // ॐ ह्री. // चंदनं॥ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [233 AwarerararararararararSSNR N r देवजीर सुखदास सु अक्षत, उज्वल जलसों धोय बनाय। हाथ जोड़ श्री जिनवर आगे, पुंज मनोहर दीजो जाय॥ विद्युन्माली. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी जुई चमेली, श्री गुलाब सुन्दर महकाय। श्री जिनवरके सन्मुख लेकर, पूजत भविजन भक्ति बढ़ाय॥ विद्युन्माली. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // बावर घेवर मोदक खाजे, ताजे गोझा तुरत बनाय। क्षुधा निवारन शिवसुख कारण,श्रीजिनचरन चढ़ावत आय॥ विद्युन्माली. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जगमग जोती होत दीपककी ऐसे मणिमई जोत जगाय। जिनवर चरन हरन दुःख संकट, तिनको पूजत शीश नवाय॥ विद्युन्माली. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ अगर कपूर धूप दश विधकी, खेवत जिन आगै हरषाय। फैली सरस सुगंध दशों दिश, कर्मन पुञ्ज सु देत जलाय॥ विद्युन्माली. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ श्रीफल अर बादाम छुहारे पिस्ता लौंग लायची लाय। चरनकमल पूजत जिनवरके, शिवफल पावत कर्म खिपाय॥ विद्युन्माली. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल अर्घ बनाय गाय गुण श्री जिनवर पद पूजत आय। ताल मृदंग साज सब बाजत, लाल सदा तिनकी बल जाय॥ विद्युन्माली. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ // Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ====== ============= अथ प्रत्येकाघ - अडिल्ल छन्द विद्युन्माली मेरू तनी पूरव जहां, भद्रशाल वन भूप है जिनमंदिर तहाँ। सुर खग पूजन जांहि सुमनके चाव सों, हम पूजत जिनचरन अर्घ धर भाव सों॥११॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके भद्रशालवन संबंधी पूर्वदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ दक्षिण दिश सु विशाल मेरु पंचम तनी, भद्रशाल वन सघन सरस उपजावनी। तहां जिनभवन निहार जजत सुरजायकै। हम पूजत जिनचरन सु अरघ चढ़ायकैं // 12 // ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके भद्रशालवन संबंधी दक्षिणदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 2 // अर्थ // विद्युन्माली मेरु दिशा पश्चिम मनो। भद्रशाल वन बीच भवन जिनवर तनो॥ विद्याधर सुर जजत दरव वसु लायके / हम पूजत ले अर्घ सु मन हरषायके // 13 // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके भद्रशालवन संबंधी पश्चिमदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // विद्युन्माली मेरु उत्तर दिश भावनो। भद्रशाल वन भूप सरस सुहावनो॥ जिनमंदिर सुर जाय जजत वसु दर्व ले। हम पूजत जिनराय आठ विध दर्व ले // 14 // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके भद्रशालवन संबंधी उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [235 = == = == == == == = == विद्युमाली मन मोहै, पूरव नंदनवन सोहै। तहां श्रीजिनभवन सुहाई, नित अर्घ जजोरे भाई॥१५॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके नंदनवन संबंधी पूरव दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ // विद्युन्माली गिर देखो, दक्षिण नंदनवन पेखों। जिनभवन सरस सुखदाई, पूजो भवि अर्घ चढ़ाई॥१६॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके नंदनवन संबंधी दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // विद्युन्माली गिर कहिये, पश्चिम नंदनवन लहिये। जिनमंदिरकी छबि भारी भवि अर्घ जजो भर थारी॥१७॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके नंदनवन संबंधी पश्चिम दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ विद्युन्माली गिर जानो, नंदन वन उत्तर मानो। जिनराज भवन द्युति जोई पूजो भवि अर्घ संजोई॥१८॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके नंदनवन संबंधी उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ॥ दोहा-विद्युन्माली पूरव दिश, वन सोमनस विशाल। जिन मंदिरमें जायके, पूजो अर्घ त्रिकाल // 19 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके सौमनस वन संबंधी पूर्व दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ॥ दक्षिण दिश सौमनस है विद्युन्माली तेह।। वसु विध अर्घ संयोजके पूजो जिनवर एह // 20 // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके सौमनस वन संबंधी दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ========== == ===== विद्युन्माली मेरुके, पश्चिम दिश जिन धाम। वन सौमनस विषै कहो, अर्घ जजों तज काम // 21 // ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके सौमनस वन संबंधी पश्चिम दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ // उत्तर वन सौमनसमें, जिनमंदिर सुखकार। विद्युन्माली मेरु ढिग, पूजो अर्घ संवार // 22 // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके सौमनस वन संबंधी उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ॥ सुन्दरी छन्द मेरू विद्युन्माली जानिये, पूर्व पांडुक वन उर आनिये। जिनभवन द्युति परम विशाल जू, अर्घ ले पूजत भरथाल जू॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पांडुकवन संबंधी पूरव दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ मेरु विद्युन्माली द्युति घनी, दिश सु दक्षिण पांडुकवन तनी। सरस जिनमंदिर तहां सोहनो, अर्घ ले पूजत मनमोहनो॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पांडुकवन संबंधी दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ // मेरु विद्युन्माली मन हरै, वन सु पांडुक दिश पश्चिम धरै। पूजिये जिनभवन निहारके, अरघ ले सुन्दर वन धारके // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पांडुकवन संबंधी पश्चिम दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ॥ मेरु विद्युन्माली सोहनो, वन सु पांडुक उत्तरदिश बनो। सरस जिनमंदिर सु रिशाल जू, अर्घ ले पूजत भरथाल जू॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पांडुकवन संबंधी उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [237 अथ जयमाल - दोहा श्री जिनवर पद वन्दके, मन वच शीष नवाय। विद्यन्माली मेरुकी कहुं आरती गाय॥२७॥ पद्धडी छन्द जै विद्युन्माली मेरू सार, मन हरन सु कञ्चन वरन धार। जै सुन्दर शोभित है महान, नानाविध रतननकी सुखान॥ जै ताकी चारों दिश सु जान, वन चार कहें आगम प्रमान। वन भद्रशाल पहलो अनूप, नन्दनवन सब वनको सु भूप॥ सौमनस नाम तीजो रिशाल, पांडुक चौथो सुन्दर विशाल। जै चारों बनमें चार२ बन रहे सु जिनमंदिर निहार / / सब षोड़श जिनवर भवन जान, चारों दिशके भाषे पुरान। जै रत्नमई जगमग प्रकाश, चारन मुनि और करें निवास। जै कमकमई कलशा सुरंग ध्वज पंकत सोहै अति उतंग। वेदीपर सिंहासन विचित्र, तापर सौ कमल सोहै पवित्र / जै तिनमें श्री जिनबिंब जान,शत आठ अधिक प्रतिमा प्रमान। सिर तीन छत्र धारै जिनेश, चौसठ सु चमर धारै सुरेश॥ जै वृक्ष अशोक सो लहलहात, भामण्डल भव दरशै सु सात। जै सुर वरसावै फूल आय, दुन्दुभि बाजे अनहद बजाय॥ हम प्रात्यहार्य विध रही छाय, सबमंगल दर्व रचे बनाय। मनमोहन मूरत हैं जिनेंद्र, लख लोचन सहस किये सुरेन्द्र॥ जै सुर विद्याधर सबै आय, जिनचरन कमल पू0 बनाय। नाचतसुरपति अतिमुदित काय,गुणगानकरत श्रवनन सुहाय॥ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 2888888888888=== जै जै जै जै ध्वन रही पूर, जगतारन जिनवरके हजूर / निज थान गये खेचर सुदेव, भविलाल चरनकी करत सेव॥ घत्ता-दोहा-विद्युन्माली मेरू पर, हैं षोडश जिनधाम। पूजा सरस सुहावनी वांचै भवि तज काम॥३८॥ इति जयमाल। __ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुर नर पद ले शिवपुर जाय॥ इति इत्याशीर्वादः इति श्री विद्युन्माली मेरुके चारों दिश चार वन संबंधी सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ विद्युन्माली मेरुके चारों विदिशा मध्ये चार गजदन्त पर __ सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 45 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द विद्युन्माली मेरु पांचमो ताकी विदिशामें पहचान। कंचन वरन रतनमई सुन्दर, कहे चार गजदंत वखान॥ तिनपर श्री जिनभवन अनूपम तहां विराजैं श्री भगवान। तिनकी आह्वानन विध करके, हम पूजत हैं अति सुखमान॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके चारों विदिशा मध्ये चार गजदंत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [239 Aarashararsaharararararararaaaaaa तिष्ठ ठः ठः स्थापनं / अत्र मम सन्निहितो भवर वषट् सन्निधिकरणं। स्थापनं। अथाष्टकं-जोगीरासा रजल जल ले क्षीरोदधिको, रतन कटोरी धारो। सरस मनोहर चरण जिनेश्वर, तिनपर लेकर ढारो॥ विद्युन्माली मेरु पांचमो, ताकी विदिशा चारो। गजदंत पर श्रीजिनमंदिर, पूजत भवि अघ टारो॥२॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके अग्निदिश सौमनस // 1 // नैऋत्य दिश विद्युत्प्रभ॥२॥ वायव्य दिश मालवान // 3 // ईशानदिश गंधमादन नाम गजदन्त सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ जलं॥ मलयागिर करपूर सु चंदन केसर रंग सु गारो। जजत जिनेश्वरके पदपंकज भव आताप निवारो॥ विद्युन्माली. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ मुक्ताफल सम उज्वल अक्षत, सुन्दर धोय धरीजे। श्री जिनवरके सन्मुख लेकर पुंज मनोहर दीजै॥ विद्युन्माली. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कल्पवृक्षके फूल मनोहर, वरन वरनके लावो। श्री जिनचरनकमल तिन पूजो, हरष हरष गुण गावो॥ विद्युन्माली. // 5 // ॐ ह्री. // पुष्पं॥ बावर घेवर मोदक खाजे, ताजे तुरत बनावो। क्षुधा हरन रसना सुखदाई, श्री जिनचरन चढ़ावो॥ विद्युन्माली. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान NWEINNNNNNNNNNNNNISESE मणिमई दीप अमोलिक लेकर, जिनमंदिरमें आवो। आरति कर जिनराज चरनकी, जगमग जोति जगावो॥ विद्युन्माली. // 7 // ॐ ह्रीं. ॥दीपं // अगर कपूर सुगंध दशों दिश, फैले वास सु नीके। खेवत भविजन ले धूपायन, सन्मुख जिनवरजीके॥ विद्युन्माली. 4. // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ श्रीफल लौंग सुपारी पिस्ता किसमिस दाख मंगावो। मीठे सरस सचिक्कन फल ले, जिनपद आन चढ़ावो॥ विद्युन्माली. // 1 // ॐ ह्रीं. // फलं // जल फल अर्घ बनाय गाय गुण श्री जिनमंदिर जाइये। भाव भगत सो पूजा करके, बहुविध पुन्य उपजाइये॥ विद्युन्माली. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ / अथ प्रत्येकाघ - सुन्दरी छन्द मेरु विद्युन्माली जानिये, अग्नि दिश सौमनस वखानिये। नागदंत शिखर जिनधाम जू, अर्घ ले पूजत तज काम जू॥ __ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके अग्नि दिश सौमनस नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ / मेरु विद्युन्माली तें गिनो है दिशा नैऋत्य सुहावनो। नागदंत सु विद्युत्प्रभ जहां, जिनभवन ले अर्घ जजों तहां। ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके नैऋत्य दिश विद्युत्प्रभ नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // मेरु विद्युन्माली भावनो, पवन दिश गजदंत सुहावनो। मालवान शिखर जिन गेह जू, अर्घ सो पूजत धर नेह जू॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके वायव्य दिश मालवान नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [241 SarararaharsarSararaNararararera मेरु विद्युन्माली सोहनो, दिश ईशान सरस मन मोहनो। गंधमादन है गजदंत जू, जिनभवन पुंज भवि संत जू॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके ईशान दिश गंधमादन नाम गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // अथ जयमाला-दोहा विद्युन्माली मेरूकी, विदिशा मांहि विशाल। गजदंत पर जिनभवन, तिनकी सुन जयमाल // 15 // पद्धडी छन्द जै पुष्करार्घ वर दीप सार, ताकी पश्चिम दिशमें निहार। जै विद्युन्माली मेरु जान, कंचन द्युति मई शोभै महान॥ उन्नत जोजन अस्सी हजार, अर चार सहस अधिके विचार। जै ताकी विदिशा चार जान, चारों गजदंत कहें पुरान॥ जैतापर जिन मंदिर रिशाल, तहां रतनमई प्रतिमा विशाल। सतआठ अधिक सुर रमत आय,पद्मासन छविवरनी न जाय॥ सब जुदे जुदे दर जिनेश, यह अतिशय लख हरर्षे सुरेश। तव सुरपति नैन किये हजार, नहीं तृप्त होय फिर२ निहार॥ जै वसुविध दर्व लिये विशाल, जिनराज चरन पूजत त्रिकाल। सब विद्याधरके ईश आय, जिन चरण कमल पर शीष नाय॥ सुर नृत्य करत संगीत सार, जै नन्द वृद्ध भाषत संभार। जै सुर खेचर तिय करत गान, इंद्रानी हंस तोरत जु तान॥ यह विध सुरखग कौतुक कराय,हम शक्तिहीन पहुंचो न जाय। अपने घर पूजत श्री जिनंद, लख दर्श लाल पायो अनंद। Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធផលដែលផលធននននននន घत्ता-दोहा विद्युन्माली मेरूके, कहें चार गजदंत। तिनकी यह पूजा भई वांचत भविजन सन्त॥२३॥ इति जयमाल। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री विद्युन्माली मेरुके विदिशा मध्ये चार गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ विद्यन्माली मेरुके उत्तर दिश ईशान कौन सम्बन्धी जंबूवृक्षपर अर दक्षिणदिश नैऋत्यकौन संबंधी शाल्मली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 46 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द विद्युन्माली मेरु पांचमो, ताकी उत्तर दिश ईशान। अर दक्षिण नैऋत्य कौन ढिग, जंबू शाल्मली तरु जान // तिनपर श्री जिनभवन अकीर्तम, पूजत सुर विद्याधर आन। हम तिनकी आह्वानन करके, जिनपद पूजत आनंद मान॥ ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके उत्तर ईशानकौन सम्बन्धी जम्बूवृक्ष अर दक्षिण नैऋत्य कौन शाल्मली वृक्षकी पूर्व शाखापर सिद्धकूट Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [243. == == = = = = == == = == = जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापन। अथाष्टकं-चाल छंद सुकारन पूजत है,भवि श्रीजिनवरजीके पायसुकारनपूजत हैं।टेक। सरस मन मनोहर उजल जल ले, रतन कटोरी भरकै। जन्म जरा दुख दूर करनको,श्रीजिन सन्मुख धरकै॥सुकारन. विद्युन्माली गिर उत्तर दिश, अर दक्षिण दिश सोहै। जम्बू शालमली शाखापर, जिनमंदिर मन मोहै।।सुकारन.॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश ईशानकोन संबंधी जम्बूवृक्ष // 1 // नैऋत्य कौन संबंधी शाल्मली वृक्षकी पूर्व शाखापर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ जलं॥ मलयागिर चंदन अरु केशर, घस कर्पूर मिलावो। भव आताप निवारण करन, श्री जिन चरण चढ़ावो॥ सुकारन. विद्युन्माली. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ मुक्ताफल सम उज्वल अक्षत, मलमल धोय धरीजे। श्री जिन सन्मुख हाथ जोड़कर, पुंज मनोहर दीजे॥ सुकारन. विद्युन्माली. 4 // ॐ ह्रीं. ॥अक्षतं॥ कमल केतकी जुही चमेली, श्री गुलाब सुखदाई। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, परम महा सुख पाई॥ सुकारन. विद्युन्माली. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // फेनी घेवर मोदक खाजे, ताजे, तुरत बनावो। क्षुधा विनाशक रुचि परकाशक, श्रीजिनचरण चढ़ावो॥ सुकारन. विद्युन्माली. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==== ==== ==== === मणिमई दीप अमोलिक लेकर, कनक रकाबी धारो। श्री जिनमंदिर पूजन जइये, जगमग होत दिवालो॥ सुकारन॥ विद्युन्माली. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं / / कृश्नागर करपूर मिलाकर, दस विध धूप बनाओ। श्री जिनवरके आगै धरके, खेवत पुन्य बढ़ाओ॥ सुकारन॥ विद्युन्माली. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ श्रीफल अर बादाम छुहारे, पिस्ता लौंग सुपारी। जजत जिनेश्वर मन वचतन भवि, पावै शिवफल भारी॥ सुकारन॥ विद्युन्माली. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं // जल फल अर्घ बनाय गाय गुण, नाचत ताल बजाय। बल बल जात लाल चरनपर, पूजत मन हरषावै॥ सुकारन॥ विद्युन्माली. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ अथ प्रत्येकार्घ - दोहा उत्तर कौन ईशान, विद्युन्माली मेरूते। जिनमंदिर धर ध्यान, जम्बू तरुवर नित जजो॥११॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरूके उत्तर दिश ईशान कौन जम्बूवृक्षकी पूर्व शाखापर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ दक्षिण कौन नैऋत्य, विद्युन्मालीसे गिनो। जिनमंदिर सु पवित्र, शाल्मली द्रुमपर जजो॥१२॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरूके दक्षिण दिश नैऋत्य कौन शाल्मली वृक्षकी पूर्व शाखापर सस्थित सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा विद्युन्माली मेरु ढिग, जुगम वृक्ष सु विशाल। तिनपर जिनमंदिर बने, तिनकी सुन जयमाल // 13 // Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [245 warrarshanarararararirararararararars पद्धडी छन्द जै विद्युन्माली मेरु सार, जै कंचनवरन सु रंग धार। जै ताकी उत्तरदिश ईशान, तरु जम्बूतरु सोहै महान॥ नैऋत्य कौन दक्षिण विशाल, तहां शाल्मली द्रुम है रिशाल। जै जुगमवृक्ष पिरथी जु काय, रचना अनादि वरनी न जाय॥ जै चारों दिश शाखा जु चार, फल फूल पत्रयुत सघन डार। पूरवदिश शाखापर सु जान, जै श्री जिनभवन विराजमान॥ जै समोसरण रचना प्रमान, सत आठ अधिक प्रतिमा प्रमान। जै रतनमई द्युति है विशाल, सुर विद्याधर पूर्जे त्रिकाल॥ वसु प्रातिहार्य मंगल सु दर्व, है यथायोग्य थानक जु सर्व। प्रभु तुमगुण महिमाअगम अपार,वरनत सुरगुरु पावै न पार॥ हम पूजत यों निज शीष नाय, वसु दर्व सरस सुन्दर बनाय। श्रावक श्रावकनी हर्ष धार, जिनराज दरश नैनन निहार। मुख पाठ पढ़े जै जै जिनेन्द्र, तुम चरनकमल वंदत सुरेंद्र। कर जोर शीष नावत सुलाल, भवसिंधु पार कीजे दयाल॥ घत्ता-दोहा जम्बू शाल्मली तनी, पूजा सरस विशाल। जो वांचैं मन लायके, तिनके भाग विशाल॥२१॥ इति जयमाल। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द / मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធផលផផផផផផផផផផផផផផផ្ទះ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई,सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः इति श्री विद्युन्माली मेरुके जंबू शाल्मली वृक्षपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 47 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द विद्युन्माली मेरु पंचमो, ताकी पूरव दिशा बताय। गिरि वक्षार आठ सुखकारी, कंचन वरन कहे जिनराय॥ तिनपर रत्नमई जिनमंदिर, बने परम सुन्दर सुखदाय। जिनकी आह्वानन विध करके, हम पूजत हैं मंगल गाय॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापनं। अथाष्टकं-जोगीरासा छन्द क्षीरोदधि सम उज्वल जल ले, रत्न सु झारी भरिये। धार देत श्री जिनवर आगै, जन्म जरा दुख हरिये॥ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [247 पंचम मेरु तनी पूरव दिश, वसु वक्षार जु सोहै। तिनपर श्री जिनभवन अनूपम, सुर नरके मन मोहै। ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी पश्चात्य // 1 // चित्रकूट // 2 // पद्म॥३॥ नलिन // 4 // त्रिकूट // 5 // प्राच्य / / 6 / / वैश्रवण // 7 // अंजन नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ मलयागिर करपूर सु चंदन, अरू केशर घस नीकी। पूजा करत हरष उर धरके, श्री जिनवर प्रभुजीकी॥ __पंचम मेरु. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ देवजीर सुखदास सु अक्षत, मुक्ताफल सम लीजे। जजत जिनेश्वरके पद पंकज, पुंज मनोहर दीजे // पंचम मेरु. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी जुही चमेली, श्री गुलाब तहां महकै। पूजत चरन कमल जिनवरके परम सुगंधित लहकै॥ पंचम मेरु. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // नानाविधके जिन ताजे, खाजे तुरत बनावो। हाथ जोड श्री जिनवर आगे, पूजत मन हरषावो॥ पंचम मेरु. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // मणिमई दीप अमोलिक लेकर, श्री जिन चरन चढ़ावै। मोह तिमिरके दूर करनको, और उपाय न पावै॥ पंचम मेरु. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं // कृश्नागर करपूर मिलाकर, धूप दशांगी खेवो। अष्ट कर्मके जारन कारन, श्री जिनवर पद सेवो॥ पंचम मेरु. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान NNNNNNNNNNNNNNNNNNNN लौंग छुहारे पिस्ता नीके, अर बादाम सु लावो। श्री जिनचरण चढ़ावत भविजन, मोक्ष महाफल पावो॥ पंचम मेरु. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल अर्घ बनाय गाय गुण, पूजत श्रीजिनजीको। बल बल जात लाल चरननपर, यह कारज है नीको॥ पंचम मेरु. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ अथ प्रत्येकाघ-अडिल्ल छन्द विद्युन्माली मेरु दिशा पूरव कहा, गिर पश्चात्य सु नाम सरस सुन्दर जहां। तापर श्री जिनभवन रतनमई मन हरै, वसुविध अर्घ संजोय भविक पूजा करें // 11 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी पश्चात्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ विद्युन्माली मेरु दिशा पूरव लई, चित्रकूट वक्षार सु गिर कंचन मई। जिन मंदिर गिर शीष विराजत सोहनो, पूजो अर्घ चढ़ाय भविक मनमोहनो॥१२॥ __ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी चित्रकूट नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // विद्युन्माली मेरू नाम पूरव कहो, पद्म नाम वक्षार अधिक उपमा कहों। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [249 SNNNNNNNNNNNNNNNNNNN तापर जिनवर धाम अमर खग नित जजै, हम पूजत तज काम अर्घ ले गुण भजै॥१३॥ ___ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी पद्म नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // विद्युन्माली मेरु दिशा पूरव बनी, नलिन नाम वक्षार विराजित ति घनी। स्वयम् सिद्ध जिनधाम रतन प्रतिमा जहां, पूजै मनवचकाय भविक वसुविध तहां // 14 // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी नलिन नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्थ॥ दोहा-विद्युतगिर पूरव दिशा, गिर त्रिकूट वक्षार। तापर जिन मंदिर बने, अर्घ जजो भर थार॥१५॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी त्रिकूट नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्थ // पूरव पंचम मेरुके, प्राच्य नाम वक्षार। तहां जिनमंदिर निरखक, पूजो अर्घ संभार // 16 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी प्राच्य नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // पंचम मेरू सुहावनो, पूरव दिश अभिराम। नाम वैश्रवण शिखर पर, पूजो जिनवर धाम॥१७॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी वैश्रवण नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान विद्युन्माली मेरुके, पूरव दिशा विशाल। अंजनगिरपर जिनभवन, अर्घ जजत भवि लाल॥१८॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरवविदेह संबंधी अंजनगिर नाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्धं // दोहा-विद्युन्माली पूर्व दिश, गिर वक्षार विशाल। तिनपर जिनमंदिर जजो, अब वरनूं जयमाल // 19 // जयमाला - पद्धडी छन्द जै विद्यन्माली मेरू सार, जै ताकी पूरव दिश निहार। तहां षोड़शदेश विदेह थान, तहां चौथो काल विराजमान॥ जै तीर्थंकर दो विरहमान, श्री वीरसेन महाभद्र जान। उत्कृष्ट जीव उपजैं अपार, चक्री हलधर प्रतिहर मुरार॥ जै श्री मुनिराज करै विहार, धर्मोपदेश भार्षे विचार। श्रावक सम्यग्दृष्टि अशेष, व्रतशील दया पालैं विशेष // वक्षार आठ गिर परो आय, तिसपर जिनमंदिर जगमगाय। जै रतनजड़ित कंचन सुरंग, वेदीपर कलसा अति उतंग॥ मणिमई प्रतिमासु विराजमान,सतआठअधिकजिनवर वखान। तिहूँकाल सचि पति नमत आय, वसुदर्व सहित पूजत सुपाय॥ खेचर खेचरनी लख स्वरूप, निज जन्म सफल मानत सुभूप। निरजर निरजरनी करत गान, सौधर्म सची तोरत जुतान॥ सुर नृत्य करैं बाजे बजाय, जिनराज समी निरखें अघाय। जिनचरनकमलपर शीसनाय,भविलालसदा बलबलसुजाय॥ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [251 NarerarararareNTIRSANTOSHO घत्ता-दोहा धन्य धन्य जिनके चरन, जे पूजत सु विशाल। तिनपर बल बल जात है, भक्ति भाव धर लाल॥२७॥ इति जयमाल। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढे अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः। इति श्री विद्युन्मालीमेरुके पूरव विदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 48 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द विद्युन्माली मेरुके पंचमी, ताकी पश्चिम दिशा विचार। गिर वक्षार आठ तहां राजै, कंचन वरन सु नैन निहार // तिनपर श्री जिनमंदिर जानो, समोसरन रचना सुखकार। पूजा करत तहां सुर खेचर, हम पूजत निज धर हित धार॥ ___ॐ ह्रीं विद्यमाली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ShareranaarakarararaKharararararar तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं। स्थापन। अथाष्टकं चाल-कार्तिकीकी प्रानी श्रीजिनवर पद पूजिये, प्रानी उज्जवल जल अति सीयरो। मानो मुक्ताफल उनहार, प्रानी श्रीसर्वज्ञ जिनेशके पद पूजत॥ पुन्य अपार, प्रानी श्री जिनवर पद पूजिये // 1 // प्रानी विद्युन्माली मेरु के पश्चिम दिश वसु वक्षार / प्रानी तहां जिनमंदिर सोहनो, भवि पूजत अष्ट प्रकार // ॐ ह्रीं विद्यन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी शब्दवान // 1 // विजयवान // 2 // आसीविष // 3 // सुखावह // 4 // चन्द्र // 5 // सूर्य // 6 // नाग॥७॥ देवनाम वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ जलं॥ प्रानी चंदन केशर गारकै पूजत पद श्री भगवान। प्रानीभव आताप निवारकै भवि पावत अविचल थान॥ प्रानी श्री. // प्रानी विद्युन्माली. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं // प्रानी अक्षत सरस सुहावने, ले उज्ज्वल वरन विशाल। प्रानी श्री जिन सन्मुख पुंज दे पावत अक्षय पद हाल॥ प्रानी श्री. // प्रानी वि. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ प्रानी परम सुगंधित फूल ले जिनमंदिर भीतर जाय। प्रानी मन वच काय लगायकै, जिनराज सु चरण चढ़ाय॥ ___प्रानी श्री. // प्रानी वि. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // प्रानी फेनी मोदक आद दे, बहु भांतनके पकवान। प्रानी कंचन थाल भरायके पूजत जिनचरण महान॥ प्रानी श्री. // प्रानी वि. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [253 ==== == === ==== ==== प्रानी रत्न अमोलिक थालमैं धर पूजत प्रीत लगाय। प्रानी जगमग जोत सु होत है, ले श्रीजिनचरण चढ़ाय॥ प्रानी श्री. // प्रानी वि. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ प्रानी अगर कपूर मिलायकै, ले दसविध धूप बनाय। प्रानी श्री जिन आगै खेइये सब कर्म पुंज जर जाय॥ प्रानी श्री. // प्रानी वि. // 8 // ॐ ह्री. // धूपं॥ प्रानी लौंग छुहारे आदि दे फल ले उत्कृष्ट महान। प्रानी पूजत श्री जिनराजको, फल पावै मुक्ति निदान॥ प्रानी श्री. // प्रानी वि. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ प्रानी जल फल आठों दर्व ले भवि अर्घ बनावत लाय। प्रानी प्रभुपद पूजत भावसों, भवि लाल सु मंगल गाय॥ प्रानी श्री. // प्रानी वि. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ अथ प्रत्येकार्घ-अडिल्ल छन्द विद्युन्माली मेरु दिशा पश्चिम जहां, शब्दवान वक्षार विराजत है तहां। ता गिर ऊपर धाम सरस सुखदाय जू, पूजो अर्घ त्रिकाल सु मन वच काय जू॥११॥ ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी शब्दवान नाम वक्षारगिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्धं // विद्युन्माली मेरुतै पश्चिम दिशा मानिये, विजयवान वक्षार सरस ऊर आनिये। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान तहां जिनभवन विशाल रतन द्युत सोहनो, वसुविध अर्घ चढ़ाय देत मन मोहनो॥१२॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी विजयवान नाम वक्षारगिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ विद्युन्माली मेरू तनी पश्चिम दिशा, आशीविष वक्षार शिखर सुन्दर लसा। तापर श्री जिन गेह रतन प्रतिमा तहाँ, नित प्रति अर्घ संजोय भविक पूजै जहां // 13 // ____ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी आसीविष नाम वक्षारगिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ विद्युन्मालीके पश्चिम दिश सार है, नाम सुखावह तास पड़ो वक्षार है। जिनमंदिर गिर शीष विराजत सार जू, पूजो भविक त्रिकाल लहै भवि पार जू॥१४॥ ___ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुखावह नाम वक्षारगिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // दोहा-विद्युतगिर पश्चिम दिशा, चन्द्र नाम वक्षार। जिनमंदिर सुन्दर तहां, पूजो अर्घ संवार // 15 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी चन्द्र नाम वक्षारगिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ पश्चिम पंचम मेरुते, सूर्य नाम गिर सोय। श्री जिन भवन निहारकै, अर्घ जजू मद खोय॥१६॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सूर्य नाम वक्षारगिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पजा विधान [255 SareersharareaawaraaNRNNN पंचमगिर पश्चिम गिनो नाग नाम वक्षार / श्री जिनमंदिर जायकै, अर्घ जजू भर थार॥१७॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी नाग नाम वक्षारगिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // पश्चिम विद्युन्मेरु के, देव नाम वक्षार / तापर जिनवर भवन लख, पूजो भवि उर धार॥१८॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी देव नाम वक्षारगिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // अथ जयमाल - दोहा पंचमगिर पश्चिम दिशा, वसु वक्षार विशाल। तिनपर जिनमंदिर जजों, अब वरनूं जयमाल॥१९॥ पद्धडी छन्द जै जै श्री पंचममेरु सार, जै ताकी पश्चिम दिश विचार। जै षोड़श देश विदेह जान, जै तीर्थंकर दोय विरहमान॥ जै जै जिनदेव सुजस जिनेंद्र जै अजितवीर्य मुख पूरनचन्द। जै तिहुँ काल वानी खिरंत, जगजीव सुनत आनंद लहंत॥ जहां चौथो काल रहै सदीव तहां कर्मभूम वरतें सु जीव। सब पदवी धारक पुरुष जान, बलहर प्रतिहर चक्री महान॥ जै श्री मुनिराज करें विहार, धर्मोपदेश भार्डे विचार। जैताको भविजन सुनें कान, जै जिन आतमको धेरै ध्यान॥ जै शिवमारग वरतें प्रसिद्ध, भवि कर्म नाश गत लहैं सिद्ध। गिर आठपड़ो वक्षार सार, तिनपर जिनमंदिर द्युति अपार॥ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ននននននននននននននននន जै रत्नमई प्रतिमा जिनेश सतआठ अधिक पूजत सुरेश। जै चतुर निकाय देव आय, निज२ नियोग कौतुक कराय॥ सब विद्याधरके ईश जाय, चरन कमल पर शीस नाय। मुखपाठ पढ़े जै जै त्रिकाल,लख जन्मसफल मानत सुलाल॥ घत्ता-दोहा यह जयमाल विशाल है, जिन गुण गही बनाय। धन्य भाग वह पुरुषके जो वांचें मन लाय॥२७॥ इति जयमाल। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाटै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुर नर पद ले शिवपुर जाय॥ इति इत्याशीर्वादः इति श्री विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर ___ सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [257 SNNNNNNNNNNNNNNNNNNN अथ विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी षोडश विजयार्धपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 49 अथ स्थापना-चाल छन्द विद्युन्माली गिर जानो, दिश पूरव परम प्रमानो। षोडश रूपाचल राजें जिन मंदिर तहां बिराजै॥ सुर विद्याधर तहां आवें पूजा कर पुन्य बढ़ावैं। हम शक्तिहीन हैं भाई पूजो निज घर जिनराई॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी षोडश रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अब मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं, स्थापनं। ___ अथाष्टकं-अडिल्ल छन्द क्षीरोदधि सम उज्वल जल ले चावसों। पूजत श्री जिन चरन सु सुन्दर भावसों॥ विद्युन्गिर पूरव दिश रुपाचल जहां। षोड़श मंदिर मांहि सु जिन पूजो तहां // 3 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी कक्षा // 1 // सुकक्षा // 2 // महाकक्षा // 3 // कक्षकावती // 4 // आवर्ता // 5 // मंगलावती // 6 // पुष्कला // 7 // पुष्कलावती॥८॥ वक्षा॥९॥ सुवक्षा // 10 // महावक्षा // 11 // वत्सकावती // 12 // रम्या // 13 // सुरम्या॥१४॥ रमणी॥१५॥ मंगलावतीदेश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान NNNNNNNNNNNNNErraraNPNRN मलयागिर चंदन केशर जु मिलायकै / जजत जिनेश्वर चरन सु प्रीत लगायकै॥ विद्यु, गिर. // 4 // ॐ ह्री. // चंदनं॥ चंद्र किरन सम उज्वल अक्षत लीजिये। श्री जिन आगे पुञ्ज मनोहर दीजिये। विद्यु. गिर. // 5 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ नानाविधके फूल सुगंधित लायके / पूजत जिनवर चरण सु मन हरषायके // विद्यु. गिर. // 6 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं॥ बावर घेवर मोदक तुरत बनायके / श्री सर्वज्ञ चरणको पूजत जायके // विद्यु. गिर. // 7 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जगमग जोत प्रकाश सु दीपक धर तहां। जजत जिनेश्वर चरन विराजत हैं तहां॥ __विद्यु. गिर. // 8 // ॐ ह्री. // दीपं॥ परमलता गुण धूप मनोहर ले यकै / ले श्री जिनवर आगै देत सु खेयकै // विद्यु. गिर. // 9 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ फल अति मिष्ट सु इष्ट सरस रससों भरे। ले सुन्दर भर थार सु जिन आगै धरै // विद्यु, गिर. // 10 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ आठों दर्व मिलाय सु अर्घ बनायके / श्री जिन चरन चढ़ावो भवि मन लायके॥ विद्यु. गिर. // 11 // ॐ ह्रीं. // अर्घ // Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [259 arerarararararareranaaraahaareKarana अथ प्रत्येकार्घ - दोहा विद्युतगिर पूरव दिशा, कक्षा देश महान। रूपाचलपर जिनभवन, अर्घ जजों धर ध्यान // 12 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी कक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // पूरव विद्युतमेरु ते, देश सुकक्षा सार / जिनमंदिर वेताड़ पर पूजो अर्घ संभार // 13 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी सुकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // देश महाकक्षा लसै मेरु पूर्व दिश ओर। विजयारध जिन गेह लख, अर्घ जजों कर जोर // 14 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी महाकक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ पूरव पंचम मेरु के कक्षकावती देश। विजयारधपर जिन सु गृह, पूजो अर्घ विशेष // 15 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी कक्षकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ पंचमगिर पूरव लसै, देश आवर्ता नाम। विजयारधके शिखरपर, पूजो जिनवर धाम // 16 // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी आवर्ता देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ मेरु सु विद्युन पूर्व दिश, रुपाचल गिर शीश। मंगलावती देश मैं पूजों पद जगदीश // 17 // ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ // Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान =================== विद्युनगिरते पूर्व है, देश पुष्कला जान। गिर वैताड सु शिखर चढ़ पूजो श्री जिनथान // 18 // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी पुष्कला देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ॥ पुष्कलावती देशमें, रुपाचल गिर जोय। मेरू पूर्व मंदिर सु जिन जजों अष्ट मद खोय॥१९॥ ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी पुष्कलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ॥ विद्यन्माली नाम, पूरव वक्षा देश है। जिनमंदिर अभिराम, विजयारध गिरिपर जजों॥२०॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी वक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 9 // अर्घ॥ देश सुवक्षा सार, पूरव विद्युन्मेरु तैं। श्री जिनभवन निहार, पूजो गिर वैताड़ पर॥२१॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी सुवक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 10 // अर्घ॥ विद्युत पूरव द्वार, देश महावक्षा वसैं। जिनमंदिर सुखकार, रूपाचल पर पूजिये // 22 // ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी महावक्षा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्थ // वत्सकावती देश, पूरव पंचम मेरु के / रुपाचल गिर देश, तापर जिनमंदिर जजों॥२३॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी वत्सकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ // Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [261 unununununununununNRUFURNrururururu विद्यूत पूरव जान, रम्या देश सुहावनो। रुपाचल जिन थान, वसु विध पूजो भावसों॥२४॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी रम्या देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ // पंचम गिर सुखकार, पूरव देश सुरम्य है। अर्घ जजू भर थार, जिनमंदिर विजयारधके // 25 // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी सुरम्या देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 14 // अर्घ // विद्युन्माली मेरु के पूरव रमणी देशमें। विजयारध गिर हेर, श्री जनिमंदिर नित जजों॥२६॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी रमणी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ // सुन्दरी छन्द मेरु विद्युन्माली जानिये मंगलावती देश वखानिये। रूपागिरिजिन भवन रिशालज,अरघलैंपूजत भविलालजू॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी मंगलावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ // अथ जयमाला - दोहा श्वेत वदन षोड़श लसैं, रूपाचल सु विशाल। तिनपर श्री जिनभवन हैं तिनकी यह जयमाल // 28 // पद्धडी छन्द जै विद्युन्माली मेरु जान, जै कनक वरन सुन्दर महान। जै ताकी पूरव दिश मंझार, जै षोड़श देश विदेह सार॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान === == ==== = 8 जै चौथा काल रहै सदीव, सब पुन्य पुरुष उपजै सु जीव। जै कर्मभूम वरतै सु रीत, भवि जीव तरै वसु कर्म जीत॥ जै क्षेत्र बीच सुन्दर स्वरूप, वैताड़ पडो षोड़श अनूप। जै श्वेतवरनशशिकिरण जान,मानोचंद्रकांतिमणि गिर प्रमान॥ जैतापर जिनमंदिर विशाल,जै कनक वरन मणि जडितलाल। जै ध्वजपंकत सोहै उतंग मनहरन कलश कंचः सुरंग॥ जै प्रातिहार्य मंगल सु दर्व जै समोसरन रचना सु सर्व। जै सिंहासनपर कमल जान, सत आठ अधिक प्रतिमा प्रमान॥ जै सुरपति विद्याधर महान, जै पूजत श्री जिन चरण आन। इंद्रानी निरजरनी सु आय, जिनराज दरश देखें बनाय॥ जै जिन गुण गावै मधुर गान, इंद्रादिक नाचें तोर तान। सुर ताल मृदंग सबै समाज, बाजे बाजत मीठी अवाज॥ जै चतुर निकाय सु देव आय, निजर वियोग कौतुक कराय। जै पूजा कर निज थान जाय, भनिलालजीत बलर सुजाय॥ घत्ता-दोहा पूरव दिश वैताड़की, पूजा पूरन जान। जो वांचै मन लायकैं, पार्दै अविचल थान // 37 // इति जयमाला। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिनभवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [263 ParasaaraarerNaaraarararare ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री विद्युन्माली मेरुके पूरव विदेह संबंधी षोडश रुपाचल ___ गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो पूजा सम्पूर्णम्। अथ विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी षोडश रुपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 50 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द विद्युन्माली मेरु पंचमो, ताते पश्चिम दिश उर आन। तहां षोड़श वैताड़ मनोहर, श्वेतवरन मनहरन सुजान। तापर श्रीजिनभवन अनूपम, जहां विराजै श्री भगवान। सुर विद्याधर पूजैं तिनको, पावत मोक्ष परम सुख थान॥ सोरठा-हमैं शक्ति सो नाहिं आह्वानन तिनको करें। पूजै निज घरमाहिं, भक्तिभाव उरमें धरै // __ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह षोडश रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं, स्थापनं। अथाष्टकं-जोगीरासा भला जिन पूजो रे भाई। यह उत्तम नरभव पायकै जिन पूजो रे भाई॥ टेक॥ क्षीरवरन मन हरन सु उञ्जवल, झारी भरकर लावो। श्रीजिनराजचरनको पूजो,जनमजनमसुखपावो॥भला जिन. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान = = = = = = = = = = = विद्युतगिर पश्चिम विजयारध, षोड़श हैं सुखदाई। तिनपर षोड़श श्री जिनमंदिर पूजो भविजन भाई॥३॥ ॐ ह्रीं विद्यन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी पद्मा // 1 // सुपद्मा॥२॥ महापद्मा // 3 // पद्मकावती॥४॥ सुसंखा // 5 // नलिना॥६॥ कुमदा॥७॥ सरिता // 8 // वप्रा॥९॥ सुवप्रा // 10 // महावप्रा // 11 // वप्रकावती॥१२॥ गंधा॥१३॥ सुगंधा॥१४॥ गंधला॥१५॥ गंधमालनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ जलं॥ चंदन सरस सुगंधित लेकर, तामें के सर गारो। भव आताप निवारन कारन, श्रीजिन आगै धारौ॥ भला जिन. विद्युन्गिर. // 4 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ देवजीर सुखदास सु अक्षत, उञ्जवल धोय धरीजै। श्रीजिनराज चरनके आगे, पुंज मनोहर दीजे // भला जिन. वि. गिर. // 5 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ वरन वरनके फूल सुवासी ले जिनमंदिर आवो। कामबाणके दूर करनको, श्री जिन चरन चढावो॥ भला जिन. वि. गिर. // 6 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // नेवज नीको तुरत सुधीको, रसना रंजन भाई। कनक थार भर ऊंचे कर कर, पूजत श्री जिनराई॥ भला जिन. वि. गिर. // 7 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ रत्न अमोलिक कनक रकाबी, में घर दीप बनावो। करत आरती श्री जिनवरकी, परम प्रीत उर लावो॥ भला जिन. वि. गिर. // 8 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [265 arwarsawraharaswarrarwarsa दश विध धूप सुवास सरस ले, श्री जिन आगै खेवो। कर्म महारिपु दूर करनको, श्री जिनवर पद सेवो॥ भला जिन. वि. गिर. // 9 // ॐ ह्री. // धूपं॥ श्रीफल लौंग छुहारे पिस्ता अरु बादाम मंगावो। श्री सर्वज्ञ जिनेश्वर पूजो, मनवांछित फल पावो॥ भला जिन. वि. गिर. // 10 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल आठों दर्व मिलाकर, अर्घ बनाय सु लावो। भाव भक्तिसों श्रीजिन पूजों हरष हरष गुण गावो॥ भला जिन. वि. गिर. // 11 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ अथ प्रत्येकार्घ-अडिल्ल विद्युन्माली मेरु तनी पश्चिम दिशा। पद्मा देश महान, तहां सूवस वशा॥ श्वेतवरन वैताढ़, शिखर जिन धाम जू। पूजों अष्ट प्रकार, तजों सब काम जू॥१२॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी पद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // विद्युन्मेरु विशाल, दिशा पश्चिम जहां। देश सुपद्मा नाम, बसैं बहुजन तहां॥ विजयारध गिर शीश, श्री जिन गेह जू। वसुविध अर्घ बनाय, जजो धर नेह जू॥१३॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुपद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==================== विद्युन्माली मेरु सरस सुन्दर लसैं / पश्चिम दिश शुभ देश महापद्मा वसै॥ रूपाचलके शिखर सु जिनमंदिर भलो। मन वच तन लौ लाय भविक पूजन चलो॥१४॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी महापद्मा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ पश्चिम दिश सुखकार मेरू पंचम तनी। पद्मकावती देश नाम उपमा धनी॥ श्री जिनभवन विशाल सरस सुन्दर जहां। आठों दर्व संजोय भविक पूजो तहां // 15 // ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी पद्मकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ दोहा-पश्चिम विद्युन्मेरुके, देश सुसंखा सार। जिनमंदिर वैताढ़के, पूजों अर्घ संवार // 16 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुसंखा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ विद्युन्माली मेरुतें पश्चिम नलिना देश। विजयारधपर जिनभवन, पूजो अर्घ विशेष // 17 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी नलिनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ विद्युन्गिर पश्चिम दिशा कुमदा देश विशाल। रुपाचलपर जिन सु गृह, अर्घ जजों भर थाल॥१८॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी कुमदा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [267 ធនធានធនធាន पश्चिम पंचम मेरुके सरिता देश महान। विजयारधकी शिखर पर, पूजों जिनवर थान॥१९॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सरिता देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो / / 8 / / अर्घ / / छन्द विद्युन्गिर पश्चिम कहिये, तहां वप्रा देश जु लहिये। विजयारध गिरपर जाइये, जिनभवन जजत सुख पइये। ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी वप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ // गिर विद्युन पश्चिम सोहैं, तहा, देश सुवप्रा मोहै। वैताड़ सिखर पर जाई, पूजों जिनमंदिर भाई॥२१॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुवप्रादेश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ पंचमगिर पश्चिम गाए, महावप्रा देश बताए। रूपाचल पर शिखर सुहाए, जिन गेह जजों हरषाए॥२२॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी महावप्रा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 11 // अर्घ॥ चौपाई विद्युनगिरि पश्चिम दिश जान, देश वप्रकावती महान। विजयारध गिरपर जिन धाम, वसुविध पूजो शीश नमाय॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी वप्रकावती देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान विद्युन्माली मेरू खन्न पश्चिम गन्धा देश सु धन्न। गिर वैताड शिखर जिनथान,अर्घ चढाय जजों धर ध्यान॥ ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी गंधा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ // विद्युन्गिर पश्चिम दिश तहां, नाम सुगन्धा देश है जहां। जिनमंदिर रुपाचल शीश, वसु विध पूजों पद जगदीश॥ ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी सुगंधा देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ अर्घ // पंचमगिर पश्चिम दिश सोय तहां गंधला देश जु होय। विजयारध गिर ऊपर जाय,श्रीजिनभवन जजों मन लाय॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी गंधला देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१५॥ अर्घ // पंचम गिरते पश्चिम ओर, देश गन्धमालन है जोर। रूपागिरि जिनभवन रिशाल,मनवचतन पूजत भविलाल॥ _____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी गंधमालनी देश संस्थित रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१६॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा विद्युन्माली मेरुतै, पश्चिम दिशा विशाल। रुपाचलपर जिन भवन सुन तिनकी जयमाल॥२८॥ पुष्करार्ध वरदीप में जग सार हो, पश्चिम दिशा महान। विद्युन्माली मेरु है जग सार हो कंचन वरन सु जान॥ जान कंचन वरन गिरवर तासु पश्चिम दिश जहां। वर देश वसत विदेह षोड़श, काल चौथा है जहां॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [269 जहां मोक्ष मारग सदा चालै, कर्मभूम बनी रहैं। तीर्थेश बलि चक्री शहर, प्रतिहर सदा उतपति लहैं। तिस बीच रुपाचल पड़े जग सार हो, श्वेत वरन अभिराम। षोड़श सरस सुहावने जग सार हो, तापर श्री जिन धाम॥ धाम श्री जिनवर अकीर्तम, रतनजड़ित सु जगमगै। तसु मध्य वेदी स्फटिक मणिमई जासु देखत मन लसै॥ कटनी सु तीन कडी अनूपम सिंह पीठ सुहावनी। वसु प्रातिहार्य सु दर्व मंगल, यथायोग्य सुहावनी॥ सिंहासन पर कमल है जग सार हो, तापर श्री जिनदेव। आठ अधिक अर एकसौ जग सार हो, इन्द्र करैं शत सेव॥ शत इन्द्र सेवा करै सु जिनकी, अमर खग जय जय करें। निरजर त्रिदश खेचर तिया मिल, परम आनंद उर धरै // ले आठ दर्व त्रिकाल सुरपति जिनचरन पूजत भए। व्यंतर भवन जोतिष भवन, सब करत कौतुक नित नये॥ पद्धडी छन्द जै जै जग तारन परम देव, तुम चरननकी हम करत सेव। जै तुम जगनायक हो प्रधान, यातें तुम शरण गहीसुजान। जै जै तुम तारक सुनो कान तव उपजो हम उरमे सु ज्ञान। हम करत बीनती बार बार, करुणानिधि हमको तारतार॥ धत्ता दोहा-विद्युनगिरि पश्चिम दिशा, रुपाचल सु विशाल / तहां जिनभवन निहारकैं, लाल नवावत भाल॥ इति जयमाला। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान =================== __अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मनलाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ // इति आशीर्वादः॥ इति श्री विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी षोड़श विजयार्ध पर ___सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ विद्युन्माली मेरुके दक्षिण भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 51 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द / विद्युन्माली मेरु पञ्चमो, ताकी दक्षिण दिशा निहार। भरतक्षेत्र सुन्दर तहां राजै छहों कालकी फिरन विचार॥ गिरि विजयारधपर जिनमंदिर, सुर खेचर पूजत सुखकार। शक्तिहीन हम जिनधर पूजत, कर आह्वानन उरमें धार॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दक्षिणदिश भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापनं। अथाष्टकं-कुसुमलता छन्द श्वेतवरण उज्वल जल सीयर, चन्द्रकला सम लेकर मांहि। परम पूज्य सर्वज्ञ जिनेश्वर, तिनके चरणन पूजत जाहि॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [271 SHASTANSHASSANTOSSANSKIN पञ्चम गिरिते दक्षिण दिशमें, भरतक्षेत्र रुपाचल जान। तापर श्री जिनभवन अनूपम, सुरखग मिल पूर्जे भगवान॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // चंदन केसर परम सुगंधित, रतनकटोरीमें धर लाय। सब देवनके देव जिनेश्वर, पूजत चरण कमल सिर नाय॥ ____ पंचम गिरि. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ उज्वल अक्षत सरस मनोहर, ताजे धोय धरी भर थार। श्री जिनराज चरनके आगे, पुंज देत मन हर्ष अपार॥ __पंचम गिरि. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ वरन वरनके फूल सुवासी, दश दिश वास रही महकाय। श्री जिनमंदिर जाय सु भविजन, जजत जिनेश्वरजीके पाय॥ पंचम गिरि. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // बावर घेवर मोदक खाजे, ताजे, तुरत बनाय सु लाय। रसना रंजन सरस कपूरे श्री जिन चरनन देत चढ़ाय॥ पंचम गिरि. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ कनक थालमें रतन दीप धर, जगमग जोत होत सुखकार। जजत जिनेश्वरके पदपंकज, है करूणानिधि हमको तार॥ पंचम गिरि. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ कृश्नागर वरधूप सु दसविध, खेवत श्रीजिन सन्मुख जाय। नये करमनके नाश करनको, पूजत भविजन मन वचकाय॥ पंचम गिरि. 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ននននននននននននននននននន श्रीफल लौंग छुहारे पिस्ता, अति सुन्दर फल लेत मंगाय। श्री सर्वज्ञ प्रभुको पूजत, मनवांछित फल पावत जाय॥ पंचम गिरि. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ अर्घ बनाय गाय गुण प्रभुके, आठों दर्व सु देत मिलाय। भाव भक्तिसों पूजा करके लाल सु जिनपर बल बल जाय॥ पंचम गिरि. ॥१०॥ॐ ह्रीं. ॥अर्घ॥ अडिल्ल-छन्द दक्षिण भरत सु क्षेत्र मेरु पंचम तनो। श्वेत वरन वैताड़ कूट नौ सोहनो॥ सिद्धकूट तिस बीच, सु जिनमंदिर जहां। पूजो भविक त्रिकाल, अर्घ वसुविध तहां॥११॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश भरतक्षेत्र संबंधी रूपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ अर्थ // अथ जयमाला-दोहा विद्युतगिरि दक्षिण दिशा, भरतक्षेत्र सु विशाल। रूपाचलपर जिनभवन सुन तिनकी जयमाल // 12 // पद्धडी छन्द जै पुष्करार्धवर दीप जान, जै ताकी पश्चिम दिश महान। जै विद्युन्माली मेरु सार, कंचन मणिमई वरनन अपार॥ जै ताकी दक्षिण दिश मंझार, तहा भरत क्षेत्र सुन्दर निहार। जहां छहों कालकी फिरन होय, कोडाकोड़ी दश उदधिसोय॥ जै तीन कालमें भोगभूम, तहां कल्पवृक्ष अति रहे झूम। जै जुगला धर्म रहै सदीव, सुख सहित रहै सबही सु जीव॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [273 जब वरतै चौथो काल आय, तब कर्मभूम विध रही छाय। जै तीर्थंकर जब जन्म लेय, जै मात तात बहु दान देय॥ सब पुन्य पुरुष उपजै विशेष, चक्री बलहर प्रतिहर नरेश। तहां विजयारधगिरि परो आय,धुति श्वेत वरन मन हरन गाय॥ जैतापर जिनमंदिर अनूप सब समोसरण रचना स्वरुप। जै श्री जिनबिंब विराजमान, सतआठ अधिक प्रतिमा प्रमान॥ जै सुर विद्याधर जजत आय, जै नृत्य करत बाजे बजाय। जै भक्त लीन दर्शन निहार, यह अरज करत प्रभु हमैं तार॥ घत्ता-दोहा श्री जिन महिमा अगम है, को कवि वरनै ताय। देख छवि भगवानकी, लाल सु बल बल जाय॥२०॥ इति जयमाला। __ अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः। इति श्री विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश भरत क्षेत्र संबंधी रुपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 274] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ននននននននននននននន अथ विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र संबंधी ___ रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 52 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द पंचममेरु तनी उत्तरदिश, क्षेत्र सु ऐरावत सुखदाय। तहां रुपाचलपर जिनमंदिर जजत जिनेश्वर सुरपति आय॥ सब विद्याधर निजगुण गावें हरष२ प्रभु परसों पाय। हम तिनकी आह्वानन विधकर, पूजैं निजधर मंगल गाय॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके पश्चिम विदेह संबंधी आठ वक्षार गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव२ वषट् सन्निधिकरणं, स्थापन। अथाष्टकं-जोगीरासा श्वेतवरन मनहरन सु उज्वल जल ले झारी भरकै। जजत जिनेश्वरके पद पंकज सब दुख जात सु टरकै॥ पंचमगिरकी उत्तर दिशमें, ऐरावत है भाई। तहां रुपाचलपर जिनमंदिर, पूजत मन हरषाई॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र संबंधी रुपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ जलं॥ मलयागिर चंदन अर केसर दोनों घसकर लावों। भव आताप निवारन कारन श्री जिन चरन चढ़ावो॥ पंचमगिर. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [275 sorunurrrrrrrrrurynururunurrun मनमोहन मनहरन सु अक्षत, मुक्ताफल सम लीजे। श्री सर्वज्ञ प्रभुके आगे, पुंज मनोहर दीजे // ___ पंचमगिर. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ सरस सुगंधित फूल सु लेकर, श्री जिनमंदिर जावो। श्री जिन चरन कमलकी पूजा, करकै आनंद पावो। पंचमगिर. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // नानाविध पकवान मनोहर, ताजे तुरत बनावो। रसना रंजन सुरस सुविजन श्री जिनचरन चढ़ावो॥ पंचमगिर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // जगमग जोति होत दीपककी रत्न अमोलिक लावो। आरती कर जिनराज प्रभूकी हरष हरष गुण गावो॥ पंचमगिर. // 7 // ॐ ह्री. // दीपं // चंदन अगर सुगंध सु दसविध, श्रीजिन आगे खेवो। ज्ञानावरनादिक कर्मनके, नाशकरन प्रभु सेवो॥ पंचमगिर. // 8 // ॐ ह्रीं. ॥धूपं // लौंग छुहारे पिस्ता आदिक, फल लावत बहु नीके। मनवांछित फल पावत भविजन पूजत पद जिनजीके। पंचमगिर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल आठों दर्व मिलाकर, अर्घ बनाय सु लावो। श्री जिन चरन चढ़ाय सु भविजन, लाल सदा बल जावो॥ पंचमगिर. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ // Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान MINIPIDURIAIPIRIPIRIPIRIPIRIPIRIPIPIRINJ __ अथ प्रत्येकाघ-अडिल्ल विद्युगिरि उत्तर ऐरावत क्षेत्र है, रूपाचलपर कूट सुनव छवि देत है, सिद्धकूट तिन बीच सु जिनमंदिर जहां, पूजो भविक त्रिकाल अर्घ वसुविध तहां // 11 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र संबंधी रूपाचल पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा विद्युतगिरि उत्तर दिशा, ऐरावत सु विशाल। विजयारधपर जिनभवन, सुन तिनकी जयमाल // 12 // पद्धडी छन्द जै विद्युन्माली मेरु सार, शोभा वरनत पावै न पार। जै ताकी उत्तर दिश मंझार वर क्षेत्र सु ऐरावत निहार॥ जहां छहों कालकी फिरन होय, पहिले सो तिनमें भूमभोय। जब चौथा काल लगै सु आय, तब कर्मभूम वरतै सु भाय॥ जब तीर्थंकरको जन्म होय, शत इन्द्र महोत्सव करें सोय। सज ऐरावत जोजनसु लाख, शतवदनवदन वसुदंत भाख॥ प्रतिदन्त सरोवर सजल थान,शत वीस पांच कमलनवखान। कमलनपरकमल पचीससार,शतआठ अधिकदलअतिउदार॥ दल दलें अपछरा न. सात, सब वीस कोड और कोड़िसात। सौधर्म इन्द्र तापर सुआय, जिन गोद लियेगिर शिखर जाय॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [277 NNNNNNNNNNNNNNNNNNNN कर जन्म महोत्सव दे सुमात, निज थान गए हषित सुगात। तिस क्षेत्र बीच वैताढ़ सार, द्युति श्वेत वरन मनहर हार॥ तापर नवकूट कहे उसंग, बिच सिद्धकूट कंचन सुरंग। तहां श्रीजिनमंदिर जगमगाय, सब समोसरण रचना लखाय॥ जै श्री जिनबिंब विराजमान, सत आठ अधिक प्रतिमा प्रमान। सुर खग इंद्रादिक जजत पाय,भविलाल सदा बलर सुजाय॥ घत्ता-दोहा विजयारध पर जिनभवन पूजा बनी विशाल। मन वचन तन लौ लायक, लाल नवावत भाल॥२१॥ इति जयमाला। अथाशीर्वाद - कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति इत्याशीर्वादः इति श्री विद्युन्माली मेरुके उत्तरदिश ऐरावत क्षेत्र संबंधी रुपाचलपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 27] श्री तरहद्वीप पूजा विधान ANANESENNNNNNNNNNNNNNNN अथ विद्युन्माली मेरुके दक्षिण उत्तर दिश षट्कुलाचल पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 53 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द पंचम गिर दक्षिण अरु उत्तर, षट्कुल गिर भाषे जिनराय। तिनपर श्री जिनभवन अकीर्तम, कंचन वरन रही छबिछाय॥ सुर सुरपति विद्याधर भूपत, पूजा करत सु मन हरषाय। हम आह्वानन करतसु तिनको, निज घर पूजत मंगलगाय॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दक्षिण उत्तर घटकुलाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापनं। ___अथाष्टकं चाल कार्तिकीकी प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये जाके पूजत पुन्य अपार। प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये॥ टेक // प्राणी श्री उज्वल अति सीयरो, क्षीरोदधिकी उनहार। प्राणी श्री जिन चरन चढ़ाइये, भवसागरते हों पार॥ प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये॥ प्राणी विद्युन्माली मेरूके, दक्षिण अरू उत्तर आन। प्राणी षटकुलगिर अति सोहनो, तिनपर जिनमंदिर जान॥ प्राणी श्री जिनवर पद पूजिये॥२॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश निषध // 1 // महाहिम वन // 2 // हिमवन॥३॥ उत्तर दिश नील॥४॥ रूक्म॥५॥ शिखरिन गिर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो।।६।। जलं॥ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तरहद्वीप पूजा विधान [279 NrNANNEVENINrvNrNrsawrsasravasava प्राणी चंदन केशर गारकै, जिन चरन पूजत जाय। प्राणी मन वच काय लगायकै, बहु भक्त करो मन लाय॥ प्राणी श्री. // प्राणी विद्युन्माली. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं / / प्राणी मुक्ताफल सम सोहनो, अक्षत ले मंदिर जाय। प्राणी पुंज मनोहर दीजिये, जिन चरणन शीश नवाय॥ प्राणी श्री. // प्राणी विद्युन्माली. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं / / प्राणी वेल चमेली केवडा, इन आदिक फूल मंगाय। प्राणी ले जिनमंदिर जाइये, तहां जजत जिनेश्वर पाय॥ प्राणी श्री. // प्राणी विद्युन्माली. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं / / प्राणी बावर घेवर आदि दे, नाना विधके पकवान। प्राणी कनकथाल भर लायकै, पूजो तुम श्री भगवान॥ प्राणी श्री. // प्राणी विद्युन्माली. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं / / प्राणी मणिमई दीप बनायकै ताकीजगमग जोत प्रकाश। प्राणी मन वच तन कर आरती जिनराज चरनके पास॥ प्राणी श्री. // प्राणी विद्युन्माली. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं / / प्राणी धूप सुगंधी खेइये श्री जिनवर आगै जाय। प्राणी इन कर्मनके नाशको जिनराज सु शरणै आय॥ प्राणी श्री. // प्राणी विद्युम्माली. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं // प्राणी फल ले लौंग सु लायची, बदाम पिस्ता लाय। प्राणी जजत जिनेश्वर देवका, मनवांछितके फल पाय॥ प्राणी श्री. // प्राणी विद्युन्माली. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ प्राणी वसुविध दर्व मिलायके, ले सुन्दर अर्घ विशाल। प्राणी श्री जिनसन्मुख जायकै प्रभु पूजत है भवि लाल॥ प्राणी श्री. // प्राणी विद्युन्माली. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280] श्री तेरहदीप पूजा विधान dorurYricinarurupucircupIPURINIRAN अथ प्रत्येकाघ-दोहा विद्युन्माली मेरुते दक्षिण दिश सुखकार। निषध नाम गिरपर जजो श्री जिनभवन निहार // 11 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दक्षिणदिश निषध पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // चौपाई विद्युन्माली गिर सोहनो, दक्षिण महा हिमवन गिर बनो। ताके शिखर जिनेश्वर थान, पूजो भविजन पद उर आन॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दक्षिणदिश महाहिमवन पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ। इन्ट विद्युन्माली गिर सोहै, दक्षिण हिमवन मन मोहै। तहां जिनमंदिर सुखकारी, भवि अर्घ जजों भर थारी॥ ____ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दक्षिणदिश हिमवन पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ। मदअवलिप्तकपोल छन्द विद्यन्माली मेरूतनी उत्तर दिश जानो, मनमोहन मनहरन नीलगिर मनमें आनो। तापर श्री जिनभवन अकीर्तम सुन्दर सोहै, पूजत भविक त्रिकाल सबनके मनको मोहै // 14 // ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश नील पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ __ अडिल्ल पंचमगिर उत्तर दिशमें जानिये, रूक्म नाम गिर सुन्दर परम प्रमानिये। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [281 2222222222222222222 तापर श्री जिनमंदिर परम विशाल जू, पूजत पुन्य अपार कटैं अघ जाल जू॥१५॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश रूक्म पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो।५॥ अर्घं पद्धडी छन्द पंचमगिर सुन्दर शोभमान, ताकी उत्तर दिशमें वखान। तहां सिखरन गिरपरजिनसुथान जहां जजतजिनेश्वरको सुजान। ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश शिखरिनगिर पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अघु चौपाई विद्युन्माली मेरु महान, ताके भद्रशाल वन जान। सीता नदी दोऊ तट सार, पांच पांच तहां कुण्ड निहार॥ कुण्ड निकट दस दस गिर सोय, तापर इक इक प्रतिमा होय। सब मिल एक शतक जिनराय, मन वच तन पूजो लव लाय॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके भद्रशाल वन संबंधी सीता नदीके दोनों किनारे पांचर कुण्ड तिनके एक२ कुंडके समीप दशर कंचनगिरि तिन कंचनगिरिपर एक एक जिन प्रतिमा सब मिल एकसौ जिन प्रतिमा गंधकुटी सहित शाश्वते विराजमान तिनको॥७॥ अर्घ। विद्युन्माली मेरु उतंग, भद्रशालवन कंचन रंग। सीतोदा तटके दोय ओर, पांच पांच तहां कुण्ड सु जोर॥ दस कंचनगिर इक इक पास एक शतक सब जिनवर भास। तापर श्री जिनबिंब विशाल, रत्नमई पूजत भवि लाल॥ ___ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके भद्रशाल वन संबंधी सीतोदा नदीके दोनों किनारे पांचर कुण्ड तिनके समीप दश दश कंचनगिरि तिसपर Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान एक एक जिनप्रतिमा ऐसे सब मिल एकसौ जिन प्रतिमा गन्धकुटी सहित शाश्वते विराजमान तिनको॥८॥ अघु। विद्युन्माली मेरुके सु जान, चारों वन षोड़श जिन थान। षोड़श गिर वक्षार सुशीश, गिर वैताड़ शिखर चौतीस॥ षट्कुलगिर कुरु भु द्रुम दोय, हस्तीदंत चार फुनि होय। आठ अधिक सत्तर जिनधाम, अर्घ चढ़ाय करूं परिणाम॥ ॐ ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दिशा विदिशा मध्ये अठत्तर जिनमंदिरके सिद्धकूट शाश्वते विराजमान तिनको॥९॥ अर्घ // विद्युन्माली पूरव ओर कालोदधि सागर घनघोर। पश्चिम मान पौत्र गिर सार, दक्षिण उत्तरं इक्ष्वाकार। बीच जिते जिनमंदिर होय, कीर्तम और अकीर्तम सोय। अथवा सिद्ध भूम है जहां, अर्घ चढ़ाय नमूं नित तहां॥ ___ह्रीं विद्युन्माली मेरुके दिशा विदिशा मध्ये कालोदधि समुद्रादि मानुषोत्तर पर्वत पर्यन्त जहां जहां कीर्तम अकीर्तम जिनमंदिर होय अथवा सिद्धभूमि होय तहां तहां॥१०॥ अर्घ। अथ जयमाला-दोहा विद्युन्माली मेरुके षट्कुल गिर सु विशाल। दक्षिण उत्तर दोय दिश, तिनकी सुन जयमाल॥२५॥ पद्धडी छन्द जै विद्युन्माली मेरू जान, जै कंचन वरन हिये सु आन। जहां सोलहजिनमंदिर विशाल,भविजीव सुपूजत हैं त्रिकाल॥ जै ताकी दक्षिण दिश निहार, तहां तीन कुलाचल पडे सार। गिर निषध महाहिमवन महान, हिमवन गिर हेमवरन वखान॥ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [283 SNANASANANNEINNNNNNNNNNNN लख ताके उत्तर दिश प्रवीन,गिर नील रुक्म सिखरन सुतीन। येही षट्कुल गिर हैं प्रसिद्ध, सब वरणन जानो स्वयंसिद्ध॥ जै तिनपर जिनमंदिर अनूप जै पूजा करत सु अमर भूप। जै समोसरन रचना समान, बनरहें तहां अद्भुत सुजान॥ जै रत्नमई प्रतिमा जिनेन्द्र, शतआठ अधिक भाषै जिनेंद्र। जै सुर विद्याधर भक्त लीन, जिनराज सुगुण गावै नवीन॥ जै नृत्य करत बाजे बजाय, जै थेई थेई थेई धुन रही छाय। यह अद्भुत ठाठ बनो विशाल,सुन श्रवण माथनावतसुलाल॥ घत्ता-दोहा षट्कुलगिरकी आरती, पूरन भई रिशाल। जो वाचै मन लायकै तिनके भाग विशाल॥३२॥ इति जयमाला। अथाशीर्वाद - कसमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढे अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः। इति श्री विद्युन्माली मेरु संबंधी षट्कुलाचल पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। इति श्री पुष्करार्घ द्वीपमध्ये पश्चिमदिश विद्युन्माली मेरु संबंधी अठत्तर जिनमंदिर शाश्वते विराजमान तिनको पूजापाठ सम्पूर्णम्। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==================== अथ पुष्करार्ध द्वीपमध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश दोनों भरत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 54 अथ स्थापना-कुण्डलिया छन्द मंदिर विद्युन्मेरु के, दक्षिण दिश सुखकार / भरतक्षेत्र दोय बीचमें सोहै इक्ष्वाकार // सोहै इक्ष्वाकार शिखर जिनभवन बिराजै / पंच वरन मणि जडित, देख द्युति रवि शशि लाजै॥ रतनमई जिनबिंब नमत खग अमर पुरन्दर / आह्वानन विध करत जजत हम श्रीजिनमंदिर॥ ॐ ह्रीं पुष्करार्ध द्वीपमध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश दोनों भरतक्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम् स्थापनम्। अथाष्टकं-चाल छन्द क्षीरोदधि सम उज्वल नीर, पूजो जिनवर गुण गम्भीर। परम सुख हो, देखे दरश महासुख हो॥ इक्ष्वाकार शिखर जिन धाम, जिनप्रतिमाजीको करुं प्रणाम। ___ महासुख हो, देखे दरश महासुख हो॥२॥ ॐ ह्रीं पुष्करार्ध द्वीपमध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश दोनों भरतक्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ जलं॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [285 ==================== चन्दन केशर घसत मिलाय, श्री जिन चरनन देत चढ़ाय। परम. // इक्ष्वाकार. // 3 // ॐ ह्री. चंदनं॥ उज्वल अक्षत ले सुख दास, अक्षय पदको पावत वास। परम. // इक्ष्वाकार. // 4 // ॐ ह्रीं. अक्षतं॥ कमल केतकी अति महकाय, जिनपद पूजो प्रीत लगाय। परम. // इक्ष्वाकार. // 5 // ॐ ह्रीं. पुष्पं // नानाविध पकवान बनाय, ले जिन चरनन पूजत जाय। परम. // इक्ष्वाकार. // 6 // ॐ ह्रीं. नैवेद्यं॥ मणिमई दीपक जोत जगाय जजत जिनेश्वर मंगल गाय। परम. // इक्ष्वाकार. // 7 // ॐ ह्री. दीपं॥ दस विध धूप सुगंधित लाय, खेवत भवि जिनमंदिर जाय। परम. // इक्ष्वाकार. // 8 // ॐ ह्रीं. धूपं॥ फल सुन्दर नैनन सुखदाय, जिनपद पूजत शिवपद पाय। परम. // इक्ष्वाकार. // 9 // ॐ ह्री. फलं॥ आठ दर्व मिल अर्घ चढ़ाय, बल बल जात लाल सिर नाय। परम. // इक्ष्वाकार. // 10 // ॐ ह्रीं. अर्घ॥ दोहा-पुष्करार्ध जुग मेरुके, दक्षिण दिश सुखकार। इक्ष्वागिरपर जिन भवन, अर्घ जजो पर थार॥११॥ ॐ ह्रीं पुष्करार्ध द्वीपमध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश दोनों भरतक्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा पुष्करार्घ वर दीपमें, दक्षिण दिश सु विशाल। इक्ष्वागिरपर जिन भवन, सुन तिनकी जयमाल // 12 // Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान पद्धडी छन्द जै पुष्करार्ध वर दीप जान, जै जुगम मेरु आगम प्रमान। जै ताकी दक्षिण दिश निहार, दोय भरतक्षेत्र सोहे सिंगार॥ जै दोऊ भरतके बीच सार, गिर इक्ष्वाकार परो निहार। लम्बाई जोजन दो हजार, चौरासी आठ शतक विचार॥ जै कनक वरन सुन्दर स्वरूप, राजत तापर जिनमंदिर अनूप। मनरचितखचितद्युतिजगमगाय,ध्वज पंकतछबिवरनी नजाय॥ जै वेदी पर कलशा उतंग, सिंहासन हेमवरन सुरंग। जै श्री जिनबिंब विराजमान, शतआठ अधिक भाषे पुरान॥ जै समोसरन रचना विचित्र, सब मंगल दर्व धरे पवित्र। सुर विद्याधर पूजैं त्रिकाल, धर भक्त हिये नावत सु भाल॥ प्रभु तुम गुण वरनन अगम सार, धर और ज्ञान पावै न पार। मनवचतन जिनपदशीषनाय,भविलालसदा बलर सुजाय॥ घत्ता-दोहा-यह जिनपूजनकी सुविध, जो वांचे मन लाय। महिमा ताके पुन्यकी रही तिहूँ जग छाय॥ इति जयमाल। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम ताको पाठ पढ़े मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बाढे अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति आशीर्वादः। इति श्री पुष्करार्ध द्वीपमध्ये विद्युन्माली मेरुके दक्षिण दिश दोनों भरत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [287 ShareATSANSawaraaNaraa अथ पुष्करार्ध द्वीप मध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश दोनों ऐरावत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 55 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द मंदिर विद्युन्माली गिरकी, उत्तर दिश ऐरावत दोय। ताके बीच परो गिर सुन्दर इक्ष्वाकार नाम है सोय॥ तापर श्री जिनभवन अनूपम पूजत सुरनर भविजन लोय। हम तिनकी आह्वाननविध कर, निज धरपूजत हर्षित होय॥ __ॐ ह्रीं पुष्करार्ध द्वीपमध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश दोनों ऐरावत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं, स्थापनं। अथाष्टकं-चाल भाषा नन्दीश्वर पूजा द्यानतरायजी कृतकी। उज्वल जल शीतल छान, प्रासुक कर लीजे। जिनराज चरन ढिग जान, धार सु दीजिये। गिर इक्ष्वाकार महान, उत्तर दिश सोहै। तापर जिनराज सुजान पूजत मन मोहै // 2 // ॐ ह्रीं पुष्करार्ध द्वीपमध्ये उत्तर दिश दोनों ऐरावतक्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ जलं॥ चन्दन केसर सु मिलाय, घसकर एक करो। पूजत श्री जिनवर पाय, भव आताप हरो॥ गिर इक्ष्वाकार. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 288] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==================== सुखदास सु अक्षत लाय उज्वल भल थारी। जिन चरन सु पूजत जाय अक्षयपद धारी॥ गिर इक्ष्वाकार. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ बहु फूल अनेक प्रकार, भविजन लावत हैं। जिनराज जजैं हित धार प्रभु गुण गावत हैं। गिर इक्ष्वाकार. // 5 // ॐ ह्री. // पुष्पं // नानाविधके पकवान, सरस बनावत हैं। ले पूजत श्री भगवान, क्षुधा नशावत हैं। गिर इक्ष्वाकार. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // दीपककी जोत विशाल, जगमग मांहि लसैं। पूजत जिनचरण त्रिकाल, मोह विथा जु नसैं॥ गिर इक्ष्वाकार. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ कृश्नागर धूप बनाय खेवत जिन आगै। वसु कर्मन देत जलाय, ज्ञानकला जागै॥ गिर इक्ष्वाकार. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ बादाम सुलौंग मंगाय, पिस्ता धोय धरो। जिनचरन सु पूजत जाय, शिव सुन्दर जु वरो॥ गिर इक्ष्वाकार. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल वसु दर्व मिलाय, अर्घ बनावत हैं। जिन चरनन देत चढ़ाय, मन हरषावत हैं। गिर इक्ष्वाकार. // 3 // ॐ ह्रीं. // अर्घ // Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [289 =========== == ==== दोहा-श्री मंदिर विद्युन मेरुके उत्तर दिश सुखदाय। इक्ष्वागिरपर जिन भवन पूजो अर्घ चढ़ाय॥११॥ ॐ ह्रीं पुष्करार्ध द्वीपमध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश ऐरावत क्षेत्र दोनोंके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा श्री जिनवर पद पूजकैं, बाढ़ो पुन्य विशाल। मन वच शीष नवायकै, अब वरनूं जयमाल॥१२॥ पद्धडी छन्द जै पुष्करार्धवर दीप जान, तामें दो गिर जिनवर वखान। पूरव दिश मंदिर नाम सार, पश्चिम विद्युन्माली निहार // जै ताकी उत्तर दिश विचार, सोहैं सुन्दर महिमा अपार। जै ऐरावत वर क्षेत्र दोय, तहां पुन्यवान उपजै सुलोय॥ ताबीच पडो गिरवर महान जो जन दुइ सहस कहें प्रणाम। चौड़ाई आठ शतक सु होय, जै इक्ष्वाकार सु नाम सोय॥ जैतापर जिनमंदिर विशाल, कंचनमई रत्न जडे सु लाल। जैतहां जिनबिंब विराजमान,शतआठ अधिक प्रतिमा प्रमान॥ जै धनुष पांचसै तन उत्तंग शशिसूर कोटि छवि होय भंग। जै प्रातिहार्य मंगल सु दर्व, जै राजैं तहां अद्भुत जुसर्व // सुर विद्याधरके भूप आय, जिनराज चरनको शीश नाय। वसुदर्व लिए अद्भुत विशाल,प्रभुचरनकमल पूजत त्रिकाल॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ASNNNNNNNNNNNNNNNNNNN हम पूजत निज धर शक्तिहीन, मंगल गावैं जिन भक्ति लीन। सब समोसरन रचना निहार, सुर गुरु वरनत पार्दै न पार॥ घत्ता-दोहा इक्ष्वाकार शिखर कहैं, श्री जिनभवन विशाल। तिनकी यह जयमाल है, सुर धर गावत भाल॥२०॥ इति जयमाला। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढै मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाटै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुर नर पद ले शिवपुर जाय॥ इति इत्याशीर्वादः इति श्री पुष्करार्ध द्वीप मध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरुके उत्तर दिश दोनों ऐरावत क्षेत्रके बीच इक्ष्वाकार पर्वतपर ___ सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। इति पुष्करार्ध द्वीप मध्ये मंदिर विद्युन्माली मेरु संबंधी एकसौ अठ्ठावन जिनमंदिर शाश्वते विराजमान तिनकी पूजा सम्र्पूणम्। इति अढाई द्वीप मध्ये तीनसौ चौरानवें जिनमंदिर शाश्वते विराजमान तिनका पूजन पाठ सम्पूर्णम्। Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [291 NarendraNOTESOSONSrNSSSN अथ मानुषोत्तर पर्वतपर चारों दिश संबंधी चार सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 56 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द दीप अढ़ाई रहो घेरकै, मानुषोत्तर पर्वत सुखदाय। ताको चारों दिशमें इक इक जिनमंदिर भाषे जिनराय॥ तहां जिनबिंब अकीर्तम, सोहैं सुर सुरपति पूजत तहां जाय। हमें शक्ति सो नाहिं जानिये, आह्वानन कर पूजत पाय॥ ___ॐ ह्रीं मानुषोत्तर पर्वतपर चारों दिशा चार जिनमंदिर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं, स्थापनं। अथाष्टकं-चाल छन्द सो गुण हम ध्यावै, सो गुण हम ध्यावै॥ जै पूजत जिनवर शिवपद पावै, सो गुण हम ध्यावै॥टेक॥ जै उज्वल जल सुन्दर सुखदाई, सो गुण हम ध्यावै॥ जै जजत जिनेश्वर भविजन भाई, सो गुण हम ध्यावें। जै मानुषोत्तर चारों दिश सोहै, सो गुण हम ध्यावै॥ जै जिनमंदिर पूजत मन मोहै, सो गुण हम ध्यावें // 2 // ___ॐ ह्रीं मानुषोत्तर पर्वतके पूर्व // 1 // दक्षिण॥२॥ पश्चिम // 3 // उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ जलं॥ जै मलयागिर चंदन घिस लावो, सो गुण हम ध्यावे। जै श्री जिन चरननको सु चढ़ावो, सो गुण हम ध्यावे॥ जै मानुषोत्तर. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ "" मला Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធផលជាផ =========== जै मुक्ताफल सम अक्षत लीजे, सो गुण हम ध्यावे। जै श्री जिन सन्मुख पुञ्ज सु दीजै, सो गुण हम ध्यावे॥ जै मानुषोत्तर. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं // जै नानाविधके फूल मंगावो, सो गुण हम ध्यावे। जै श्री जिन चरनन भेट चढ़ावो, सो गुण हम ध्यावे॥ जै मानुषोत्तर. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // जै फेनी घेवर मोदक खाजे, सो गुण हम ध्यावे। जै जजत जिनेश्वर लेकर ताजे, सो गुण हम ध्यावे॥ जै मानुषोत्तर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ जय मणिमई दीपक जोत सुनीकी, सो गुण हम ध्यावे। जै करत आरती जिनवरजीकी, सो गुण हम ध्यावे॥ जै मानुषोत्तर. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ जै दस विध धूप सुगंधित खेवो, सो गुण हम ध्यावे। जै श्री जिनवर पदको नित सेवो, सो गुण हम ध्यावे॥ जै मानुषोत्तर. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ जै लौंग लायची श्रीफल भारी, सो गुण हम ध्यावे। जै जिनवर पूज वरो शिव नारी, सो गुण हम ध्यावे॥ जै मानुषोत्तर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जै जल फल आठों दर्व मिलावो, सो गुण हम ध्यावे। जै पूजत जिनवर शिवपद पावो, सो गुण हम ध्यावे॥ जै मानुषोत्तर. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [293 SINESSONINriwarirarararNrNare अथ प्रत्येकार्य - दोहा मानुषोत्तर पूरव दिशा श्री जिनवरके धाम। सुर सुरपति पूजत सदा, हम पूजत यह ठाम॥११॥ ____ॐ ह्रीं मानुषोत्तर पर्वतके पूरव दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ मानुषोत्तर दक्षिण दिशा, श्री जिन मंदिर जान। अमर सचीपति नित ज जैं, हम पूजत धर ध्यान // 12 // ___ॐ ह्रीं मानुषोत्तर पर्वतके दक्षिण दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ मानुषोत्तर पर जिनभवन, पश्चिम दिश सुखदाय। देव त्रिदश नितप्रति नमैं हम पूजत सुख पाय॥१३॥ ॐ ह्रीं मानुषोत्तर पर्वतके पश्चिम दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 3 // अर्धं // मानुषोत्तर उत्तर दिशा श्री जिनभवन विशाल। पूजत शक्र सु जायके, अर्घ चढ़ावत लाल // 14 // ___ॐ ह्रीं मानुषोत्तर पर्वतके उत्तर दिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 4 // अर्थ // अथ जयमाला-दोहा मानुषोत्तर पर जिनभवन कहें जिनेश्वर देव। निश दिन शीश नवायकै, कीजै तिनकी सेव॥१५॥ चाल-छन्द जम्बूद्वीप सुहावनो जग सार हो, जोजन लाख रिशाल। ताके मध्य सु जानियो जग सार हो, मेरु सुदर्शन लाल॥ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==== =======gggggge लाल मुकुन्द वरन सोहै , परम छवि मनमोहनो। तीर्थेश श्री जिन न्हवन करत, सुरेश मन आनन्द घनो॥ तहां अगर अपछरा गीत गावै, हाव भाव उछावसों। जै जै करें सुर सबै मुखसों परम सुन्दर भावसों॥ जम्बू द्वीप सु घेरकै जग सार हो पाई वतपरमान। दोय लाख जोजन कहो जग सार हो, लवन उदध धर आन॥ उर आन लवनोदधि सु आगै, दीप दूजो जानिये। जोजन सु चार कहो जिनेश्वर, लाखको परमानिये // ता मध्य विजय अचल मनोहर दोय मेरे सु जिन कहो। कालोदधि वसु लाख जोजन अमल जल कर भर रहो। जोजन सोलह लाख को जग सार हो, पुष्करदीप महा। तामें मंदिर मेरु है जग सागर हो विद्युन्माली मान॥ मान आधो द्वीप इस गिन, और आधो उत्त गिनो। तिस बीच गिरधर मानुषोत्तर तासु वरनन अब भनो॥ चार सै अड़तीस जोजन, कन्द जाको जानिये। जोजन सु सत्रह से अधिक इक्कीस ऊचौ मानिये // ताको चारों दिश कहें जग सार हो, सोलह कूट महान। चार चार चारों दिशा जग सार हो, कंचन वरन सु जान॥ जान कंचन वरन सुन्दर, मनहरन सुरगन तने। तामें जु इक इक सिद्धकूट, अनूप, उपमाको भने / फुन तीन तीन सु और दो दिश, अगन ओर ईशान में। सब बीस कूट सु दोय ऊपर कहे जैन पुरान में // Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [295 Karirararararararararararararararararara पद्धडी छन्द जै सिद्ध कूट रचना विचित्र, जैतापर जिनमंदिर पवित्र। जै लम्बे हैं जोजन पचास, ताते आधे चौडे प्रकाश॥ जै उन्नत साढ़े सात तीस, जोजन महान भाषे गनीस। जै सिंहासन अद्भुत अनूप, तापर सुविराजत जगत भूप॥ जिनबिंब एकसौ आठ सार, अब समोसरन रचना निहार। जिन चरनकमल पूजत सुरेश, मुख जयजय भाषत अशेष॥ घत्ता-दोहा मानुषोत्तर जिन भवन की पूजा बनी विशाल। श्री जिनभवन निहारके, लाल नवावत भाल॥२३॥ इति जयमाला। अथाशीर्वादः - कुसुमलता छन्द / मध्यलोक जिनभवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढ़ अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री पुष्करार्ध द्वीप बीच मानुषोत्तर पर्वतके चारों दिश चार सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम् / Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 8888888888888888889 अथ नन्दीश्वर द्वीप संबंधी पूर्वदिश त्रयोदश पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 57 अथ स्थापना-दोहा नन्दीश्वर पूरव दिशा, तेरह श्री जिनगेह। आह्वानन तिनकी करो, मन वच तन धर नेह॥१॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूर्वदिश एक अंजनगिर चार दधिमुख गिर आठ रतिकरगिर पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापन। अथाष्टकं-जोगीरासा छन्द रतन कटोरी उज्वल जल ले श्री जिनचरण चढ़ावो। जन्म मरणके दूर करनको, यह कारन मन लावो॥ नन्दीश्वरकी पूरव दिश में, तेरह मंदिर सोहै। सुर सुरपति मिल जत जिनको, प्रभु दर्शन मन मोहै॥२॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूर्वदिश संबन्धी अञ्जनगिर // 1 // नन्दी वापी बीच दधिमुखगिर // 2 // नन्दीवापी मुख कौण प्रथम रतिकरगिर // 3 // नन्दीवापी मुख कोण द्वितीय रतिकरगिर // 4 // नन्दवती वापी बीच दधिमुख गिर // 5 // नन्दवती वापी मुख कोण प्रथम रतिकर गिर // 6 // नन्दवती वापी मुख कोण द्वितीय रतिकरगिर॥७॥ नन्दोत्तरा वापी बीच दधिमुखगिर॥८॥ नन्दोत्तरा वापी मुखकोण प्रथम रतिकरगिर॥९॥ नन्दोत्तरा वापी मुख कोण द्वितीय रतिकरगिर // 10 // नन्दपेना वापी बीच दधिमुखगिर // 11 // नंदपेना वापी मुखकोण प्रथम रतिकरगिर // 12 // नन्दपेना वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ जलं॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [297 PrararareNareerNaarararararwarera मलयागिर शीतल ले, चंदन तामें के सर डारी। भव आताप निवारन कारन, श्री जिन पगतल धारी॥ ___ नन्दीश्वर. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं // उज्वल ते उज्वल अक्षत ले, पुंज मनोहर दीजे। भाव भक्तिसों पूजा करकै, निज भव अनुरस पीजे॥ नन्दीश्वर. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल केतकी बेल चमेली, श्री गुलाब ले प्यारो। श्रीजिनचरण चढ़ाय गाय गुण, हे प्रभु अब मोहि तारो॥ नन्दीश्वर. // 5 // ॐ ह्री. // पुष्पं // फेनी खाजा, तुरत सु ताजा, नैननको सुखदाई। क्षुधा रोगके दूर करनको, श्री जिनचरण चढ़ाई॥ नन्दीश्वर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // मणिमई दीप अमोलक लेकर, रतन रकाबी धरिये। जगमग जगमग होत दिवाली, मोह तिमिरको हरिये॥ नन्दीश्वर. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं // कृश्नागर वर धूप दशांगी, प्रभु आगे धर खेवो। अष्ट कर्मके नाश करनको, श्री जिनवर पद सेवो॥ नन्दीश्वर. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं // श्रीफल लौंग छुहारे, पिस्ता, किशमिश दाख मिलावो। श्रीजिन चरण चढ़ावत भविजन, मनवांछित फल पावो॥ नन्दीश्वर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल फल आठों दर्व मिलाकर, अर्घ बनावत भाई। जिन गुण गावत ताल बजावत, पूजत श्री जिन राई॥ नन्दीश्वर. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान =========== ===== अथ प्रत्येकार्घ-अडिल्ल है नन्दीश्वर द्वीप दिशा पूरव जहां। अंजनगिरके शिखर भवन जिनवर तहां॥ सुरपति पूजन जांहि हरष मनमें धरै / हमें शक्ति सो नांहि यहां पूजन करें। ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश अंजनगिरि पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ नंदी वापी बीच सु दधिमुख गिर कहो। तापर श्री जिनभवन सरस उपमा लहो॥ सुरपति.॥१२॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नन्दी वापी बीच दधिमुख गिरि पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 2 // अर्घ // नन्दी वापी कोण प्रथम रतिकर परो। ता ऊपर जिनधाम विराजत है खरो॥ सुरपति.॥१३॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूर्वदिश नन्दी वापी मुख कोण प्रथम रतिकर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // नंदी वापी कोण दुतिय रतिकर महा। मंदिर श्री जिनराज तनो तापर कहा // सुरपति.॥१४॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूर्व दिश नन्दी वापी मुख कोण दुतिय रतिकर गिरपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // नंदवती वापी बीच दधिमुख देखिये। पर जिनवरभवन सु अद्भुत पेखिये॥ सुरपति.॥१५॥ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नंदावती वापीबीच दधिमुख सतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [299 SarararararareersNrwarsawarene नंदवती वापी बीच मुख कोण सु रतिकरा। प्रथम तहां जिनगेह अधिक उपमा धरा॥ सुरपति.॥१६॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नंदवती वापी मुख कोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ नंदवती वापी मुख कोण सु जानिये। दूजे रतिकर पर जिनभवन वखानिये॥ सुरपति.॥१७॥ __ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नंदवती वापी मुख कोण द्वीतिय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्थे / नन्दोत्रा वापी बीच ताके भनो।। दधि मुख गिरके शीश भवन जिनवर तनो॥ सुर. // 18 // ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नन्दोत्रा वापी बीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // नन्दोत्रा वापी सु कोण रतिकर दिपै। आदि श्री जिनधाम देख दिनकर छिपै॥ सुर. // 19 // ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नन्दोत्रा वापी मुख कोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ॥ बारह कोण सु जान वापी नन्दोतरा। रतिकर गिरके शीश, भवन जिन दूसरा॥ सुर. // 20 // ____ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नन्दोतरा वापी मुख कोण तीन रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ वापी नन्दना तसु बीच निहारिये। दधिमुख पर जिनभवन सरस उर धारिये॥ सुर.॥२१॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नन्दलेना वापीबीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ // Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ================ = पहलो कोण सु जान नन्दना तनो। रतिकर पर जिनधाम बहुत अद्भुत बनो। सुर. // 22 // ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नन्दपेना वापी मुख कोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ // नन्दना वापी मुख कोण सु दूसरो। रतिकर पर जिनधाम लाल पांयन परो॥ सुर. // 23 // ___ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पूरवदिश नन्दपेना वापीमुख कोण द्वीतिय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ अथ जयमाला-दोहा श्री नन्दीश्वर द्वीपके, पूरव दिश सु विशाल। तेरह श्री जिनभवन हैं, जय जय जय जयमाल // 24 // पद्धडी छन्द जय जय श्री अष्टम दीप सार, सब दीपनमें महिमा अपार। जै ताकी पूरव दिश मंझार, जै तेरह जिनमंदिर निहार॥ जै प्रथम सु अञ्जनगिर महान, जै श्यामवरन वरनै पुरान। जै उन्नत चौरासी हजार, जोजन जिनभवन तहां निहार॥ ता गिरके चारों दिश सुजान, जै इक इक वापी सजल थान। ता बीचसुदधिमुख गिर विशाल,दधिवरन सुउज्वल है रिशाल॥ जै जोजन उन्नत दश हजार, जें तापर श्री जिनभवन सार। जै वापिनकी विदिशाजु होय,तहां इकर रतिकर गिरजु सोय॥ जै अहन वरन जोजन हजार, उन्नत भावे जिनवर विचार। तापर जिनमंदिर हैं अनूप, जै पूजा करत, सु अमर भूप॥ जै वने अकीर्तम स्वयंसिद्ध जिनभवन विराजित हैं प्रसिद्ध। नानाविध रतन लगे अपार, महिमाकों वरनत लहै पार। Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [301 जै समोसरन रचना समान, सब मङ्गल दर्व धरे प्रमान। जै जै श्रीजिनवर देव सोय, तुम सम नहीं दूजो देव कोय॥ घत्ता-दोहा-नन्दीश्वर पूरव दिशा, वरनी यह जयमाल। मन वच शीश नवायकै, लाल नवावत भाल॥ इति जयमाला। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ __ इति आशीर्वादः इति श्री नन्दीश्वर द्वीपके पूरव दिश संबंधी तेरह जिनमंदिर सिद्धकूट बिराजमान तिनकी पूजा सम्पूर्णम्। अथ नन्दीश्वर द्वीपके दक्षिण दिश त्रयोदश पर्वतपर त्रयोदश सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 58 अथ स्थापना-कुसमलता छन्द है नन्दीश्वर द्वीप आठमों, ताकी दक्षिणदिश सुखदाय। इक अंजनगिर दधिमुख चार, रतिकर आठ कहे जिनराय॥ ताके शिखर श्री जिनमंदिर, स्वयं सिद्ध पूजत सुरराय। हमें शक्तिनाहीं पहुँचनकी, जिनपद जजत सु मंगल गाय॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके दक्षिण दिश एक अंजनगिरि चार दधिमुख आठ रतिकर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान == == == == == संवौषट् आननं, अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापनं। अथाष्टकं सुन्दरी छन्द जल सु पावन प्रासुक लीजिये, धार जिनपद आगै दीजिये। दीप नंदीश्वर सुर जायकै, जजत जिन दक्षिणदिश आयकै॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश संबंधी अंजनगिर // 1 // अरजा वापी बीच दधिमुख गिर॥२॥ अरजा वापी मुख कोण प्रथम रतिकर गिर॥३॥ अरजा वापी मुख कोण द्वीतीय रतिकर गिर॥४॥ विरजा वापी बीच दधिमुख गिर॥५॥ विरजा वापी मुख कोण प्रथम रतिकर गिर // 6 // विरजावापी मुख कोण द्वीतीय रतिकर गिर // 7 // अशोक वापी बीच दधिमुख गिर॥८॥ अशोक वापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिर // 9 // अशोक वापी मुखकोण द्वीतीय रतिकर गिर // 10 // बीच शोकावापी दधिमुख गिर॥११॥ बीच शोकावापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिर॥१२॥ बीच शोकावापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ जलं॥ परम चंदन केसर गारकै, पूजिये जिनचरण निहारकै। दीप नंदीश्वर॥३॥ ॐ ह्रीं. // चंदनं / ले उजल अक्षत सोहनो, देत पुंज सु भविजन मोहनो। दीप नंदीश्वर॥४॥ ॐ ह्री. // अक्षतं॥ फूल सार सुगन्धित लावनो, जिन सु चरणन भेंट चढ़ावनो। दीप नंदीश्वर॥५॥ ॐ ह्रीं. // पुष्पं // परम मोदक बहु पकवान जू, पूजिये ले श्री भगवान जू। दीप नंदीश्वर // 6 // ॐ ह्री. // नैवेद्यं // दीप मणिमई करबीच धारता, करत भव्यसु जिनवर आरती। दीप नंदीश्वर // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ दाप Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [303 ~~~~~~ ~~~~rarerarurvarar धूप दसविध निर्मल खेइये, परम पावन जिनपद सेयिये। दीप नंदीश्वर // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं // फल मनोहर सुन्दर धोयके, जजत जिनपद हर्षित होयकै। दीप नंदीश्वर॥९॥ ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल सु फल वसुदर्व मिलायकै, अर्घ देत सुलाल बनायकै। दीप नंदीश्वर // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ // ___ अथ प्रत्येकार्घ-चौपाई छन्द नंदीश्वर दक्षिणदिश नाम, अञ्जन गिरपर श्री जिनधाम। सुरसुरपतिनित जजत सुजाय, हर निजधर पूजत जिनपाय॥ ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश अंजनगिरि पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // अरजा वापी बीच स नेह, दधिमुख गिरिपर श्री जिनगेह। सुरसुरपतिनित जजत सुजाय, हमनिजधर पूजत जिनपाय॥ ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश अरजा वापी बीच दधि मुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // अरजा वापी कौन सु आदि, रतिकर पर जिनभवन अनादि। सुरसुरपतिनित जजत सुजाय, हमनिजधर पूजत जिनपाय॥ ____ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश अरजा वापी मुखकोण प्रथम रतिकर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ अरजा वापी दूजे कौन रतिकर गिरिपर श्री जिन मौन। सुर सुरपति नितजजत सुजाय, हम निजधर पूजत जिनपाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश अरजा वापी मुखकोण द्वीतीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान == === ==== ==== बिरजा वापी बीच निहार, दधिमुख गिरिपर जिनगृह सार। सुर सुरपति नित जजत सुजाय, हम निज धर पूजत जिनपाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश विरजा वापी बीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ विरजा पहिले कोण विचित्र रतिकरपर जिनभवन विचित्र। सुर सुरपति जजत सुजाय, हम निजधर पूजत जिनपाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश विरजा वापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥६॥ अर्घ॥ विरजा दूजे कोण सु जान, रतिकर गिरपर श्री जिन थान। सुर सुरपति जजत सु जाय, हम निजधर पूजत जिनपाय॥ ____ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश विरजा वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // वापी अशोक बीच जू बनो, दधिमुख पर मंदिर तिन तनो। सुर सुरपति नित जजत सुजाय, हम निजधर पूजत जिनपाय॥ ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश अशोक वापी बीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // पहिलो कोण अशोका दीश, जिनमंदिर रतिकर गिर शीश। सुर सुरपति नितजजत सुजाय, हम निजधर पूजत जिनपाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश अशोका वापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ // वापी अशोका कोण दूसरे, धाम जिनेश्वर रतिकर सिरे। सुर सुरपति नित जजत सुजाय, हम निजधर पूजत जिनपाय॥ ___ ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश अशोका वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [305 ~ ~~ ~~~ ~ ~~~ ~~ ~~ ~~~ ~~~ वापी वीत शोका बीच सोय, दधिमुख पर जिनमंदिर होय। सुर सुरपति नित जजत सुजाय, हमनिजधर पूजत जिनपाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश बीतशोका वापी बीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ // वीत सु शोका कोण गनेह, पहले रतिकर पर जिन गेह। सुर सुरपति नितजजत सुजाय, हमनिजधर पूजत जिनपाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश वीतशोका वापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ॥ कोण वीत शोकाको पेख दूजे रतिकर जिन गृह देख। सुर सुरपति नितजजत सुजाय, हमनिजधर पूजत जिनपाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके दक्षिणदिश वीतशोका वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ // जयमाला-दोहा नंदीश्वर दक्षिण दिशा, तेरह भवन रिशाल। जिनपद शीस नवायक, सरस भनी जयमाल॥२४॥ पद्धडी छन्द जै नन्दीश्वर द्वीप सार, जै ताकी दक्षिण दिश निहार। इकअंजनगिरिदधिमुखसुचार,रतिकरगिरआठकहेविचार॥ जै यही तेरह गिर प्रसिद्ध, तापर जिनमंदिर स्वयं सिद्ध। जै सौ जौजन आयाम जान, जै व्यास तास आधो प्रमान॥ जै पचहत्तर जोजन उत्तंग, मणिजड़ित वरन कंचन सुरंग। जै चारों दिश सोहै जु द्वार, जै मानस थंभ तहां निहार॥ जै प्रातिहार्य वरनन विचित्र, जै मंगल दर्व धरै पवित्र। शत आठ अधिक प्रतिमा विशाल, जै जुदे२ दरौं त्रिकाल॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 306] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==== === = = = = == जै धनुष पांचसै उचित काय, पद्मासन छबि वरनी न जाय। जहां चतुर निकाय सुदेव आय,जिनचरन कमलपूजत बनाय॥ गुण गान करत अतिमुदित अंग, इन्द्रानी इन्द्र न. सुसंग। जै दुंदुभि बाजे बजत जोर, अनहद साढ़ेबारह किरोर॥ हम शक्तिहीन पहूँचो न जाय, निजधर पूजत जिनराज पाय। मनवचनकाय भुवि शीशलाय, भविलालसदा बलर सुजाय। घत्ता-दोहा निज गुणगूंथी माल यह, अक्षत पहुप विशाल। भविजन कण्ठ लगायकैं, सुरधर वांचै लाल॥३२॥ इति जयमाला। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु सम्पति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय। इति इत्याशीर्वादः। इति श्री नन्दीश्वर द्वीपके दक्षिण दिश त्रयोदश जिनमंदिर सिद्धकूट विराजमान तिनकी पूजन पाठ सम्पूर्णम्। अथ नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिमदिश संबंधी त्रयोदश जिनमंदिर सिद्धकूट पूजा नं. 59 अथ स्थापना-कुसुमलता छन्द श्री नंदीश्वर द्वीप आठमो, ताकी उपमा कौन करै। पश्चिम दिशतेरह जिनमंदिर दर्शन देखत पाप हरै॥ अदिश त्रयोद सम्पूर्णम्। उनमंदिर Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [307 orreneurservasnareneurserareer तहां सुरसुरपति नितप्रति पूजत, परम भाव उर मांहि धरै। आह्वानन तिनकी हम करकै, पूजत, पुन्य भंडार भरै॥१॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश एक अंजनगिरि चार दधिमुखगिरि आठ रतिकर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं / अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्। सन्निधिकरणं / स्थापनं। अथाष्टकं - झङ्गला / कंचन शृंगार भराय, तीरथ जल लेकै। भवि पूजत प्रीति लगाय, जिनपद मन देकै॥ नंदीश्वर द्वीप महान, पश्चिम दिस सोहै। तेरह जिनमंदिर जान, सुर नर मन मोहै // 2 // ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश संबंधी अंजनगिर॥१॥ विजया वापी बीच दधिमुख॥२॥ विजया वापी मुखकोण प्रथम रतिकर // 3 // विजया वापीमुख कोण द्वितीय रतिकर॥४॥ वैजयंता वापी मुख बीच दधिमुख // 5 // वैजयंता वापी मुखकोण प्रथम रतिकर // 6 // वैजयंता वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर // 7 // जयन्ता वापी बीच दधिमुख // 8 // जयन्ता वापी मुखकोण प्रथम रतिकर // 9 // जयन्ता वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर॥१०॥ अपराजिता वापी बीच दधिमुख॥११॥अपराजिता वापी मुख कोण प्रथम रतिकर // 12 // अपराजिता वापी मुख कोण द्वितीय रतिकर गिरपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ जलं // केशर चंदन घस लाय, गन्ध सुगन्ध भरी। पूजत श्री जिनवर पाय, भव आताप हरी॥ नंदीश्वर. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ उज्वल शशि किरण समान, अक्षत ले सुथरे। पूजत जिनचरण महान, पाप समूह हरे // नंदीश्वर. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं // Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 308 ] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान PrNTERNANTRVASNASITrir-ASEARN नाना विध फूल सुवास, सब ऋतुके लीजे। जिन चरण महासुख राम, तिनको पूजिजे॥ नंदीश्वर. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं॥ फे नी गोझा पकवान, नैननको प्यारो। धर कनक रकाबी आन, जिन, चरनन बारो॥ नंदीश्वर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ वर दीप अमोलिक लाय, भविनज ध्यावत हैं। प्रभु चरननको सु चढाय निज गुण गावत हैं। ___नंदीश्वर. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ ले दसविध धूप बनाय, खेवत प्रभु आगे। सब कर्मन देत जलाय, ज्ञान कला जागै॥ ___ नंदीश्वर. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं // फल सुरस सुगन्धित देख, जिन आगे धरिये। कर भक्तिभाव सु विशेख, शिव सुन्दर वरिये॥ नंदीश्वर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ वसुविध सब दर्व मिलाय, अर्घ सु दीजिजे। जिनराज सु चरण चढ़ाय, निजरस पीजिजे॥ नंदीश्वर. // 10 // ॐ ह्री. // अर्घ // अथ प्रत्येकार्घ-दोहा नन्दीश्वर पश्चिम दिशा, अञ्जनगिरपर जाय। सुरपति जिनमंदिर जज, हम पूजत जिन पाय॥११॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश अंजनगिरि पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [309 nonnunnnnnnnnnnnnnnn विजया वापी बीचमें, दधिमुखगिर सुखदाय ।।सुरपति.॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश विजया वापी दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ // विजयावापी कोण लख, प्रथम सुरतिकर पाय॥सुरपति.॥ ____ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश विजया वापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // कोण विजयावापी तना, दोय रति करमन लाय।।सुरपति. ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश विजयावापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ॥ वापी वैजयंता विषै, दधिमुख गिर बतलाय॥सुरपति.॥ ___ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश वैजयन्ता वापी बीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 5 // अर्घ // कोण वैजयंता जहां, रतिकर प्रथम लखाय।।सुरपति.॥ ____ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश वैजयंता वापी मुख कोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 6 // अर्घ॥ कौण वैजयंता दुतिय, रतिकर शीस सुहाय।।सुरपति.॥ ____ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश वैजयंता वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // वापी जयंता बीच गिन, दधिमुखगिर चितलाय ।।सुरपति.॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश जयंता वापी बीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ // प्रथम जयन्ता कोणमें रतिकर शिखर सुगाय॥सुरपति.॥ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश जयंता वापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥९॥ अर्घ / Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 310] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान Sarararararararareranarararararanawr कोण जयंता वापीका, रतिकर द्वितीय दिपाय।सुरपति.॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश जयंता वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ॥ बीच वापी अपराजिता, दधिमुख पर हरषाय।।सुरपति.॥ ____ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश अपराजिता वापी बीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥११॥ अर्घ // अपराजिता सु कोणमें, रतिकर प्रथम बताय।।सुरपति.॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश अपराजिता वापीमुख कोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 12 // अर्घ॥ कोन दुतिय अपराजिता, रतिकर लाल सु धाय।सुरपति.॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश अपराजिता वापीमुख कोण द्वितीय रतिकर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ // अथ जयमाला-दोहा पश्चिम दिशा सुहावनी, अष्ट द्वीप सु विशाल। जिनमंदिर तेरह जहां, तिनकी सुन जयमाल // 24 // एकसौ त्रेसठ कोंड़ गिन लाख चौरासी जान। जोजन चौडा द्वीप है, इक इक दिश परमान॥२५॥ चाल-छन्द नंदीश्वर पश्चिम दिशा जगसार हो, तेरह गिर सु महान। गोल ढोल सम बन रहो जगसार हो, ऊपर तल सम जान॥ जान अंजनगिर मनोहर, द्वीप बीच बिराजही। लख लाख जोजन दिशा, चारों ओर वापी राजही॥ वापी प्रमान सु लाख जोजन, गोल रतनन सो जहां। जोजन हजार कही सु गहरी, अमल मीठे जल भरी॥ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [311 areraruaareerNareerNaareerNNNN चारों वापी बीचमें जग सार हो, दधिमुख गिर दीपंत। वापी विदिशामें भली जगसार हो, दोय रतिकर शोभंत॥ शोभंत उपवन दिशा चारों, एक एक वापी परै। जोजन प्रमान सु लाख कानन, देव नित क्रीडा करे॥ यह भांत तेरह गिर कहे, तिस शिखर मंदिर जिन तनो। सब समोसरन समान रचना, स्वयंसिद्ध सुहावनो॥ सिंहासन पर कमल है जगसार हो, तापर श्री जिनराय। मंगल दर्व घरे जग सार हो, प्रातिहार्य सुखदाय॥ सुखदाय रत्नमई सु प्रतिमा, आठ अधिक सु एकसै। आसन कमल वैराग्य भाव सु देव दर्शन अघ नसै॥ सौ पांच धनुष उतंग सोहै इन्द्र नित पूजा करें। हम शक्तिहीन सुदीन है, जिनभक्तिवश पायन परें / घत्तो-दोहा-पश्चिम दिश तेरह भवन, जिनवर बिंव विशाल। तिनकी वर जयमाल यह, बांचत भविक सुलाल॥ इति जयमाल। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़े मनलाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ // इति आशीर्वादः॥ इति श्री नंदीश्वर द्वीपके पश्चिम दिश त्रयोदश जिनमंदिर सिद्धकूट विराजमान ताकी पूजन पाठ सम्पूर्णम्। Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ====== =========== अथ नन्दीश्वरद्वीपके उत्तरदिश संबंधी त्रयोदश सिद्धकूट जिनमंदिर विराजमान ताकी पूजा नं. 60 अथ स्थापना-अडिल्ल छन्द अष्टम द्वीप तनी उत्तर दिश जायजी। तेरह श्री जिनभवन जजत सुररायजी॥ हमें शक्तिसो नांहि करैं यहां थापना। पूजत निज धर प्रतिमा है हित आपना // 1 // ___ ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके उत्तरदिश संबंधी एक अंजनगिरि चार दधिमुखगिरि आठ रतिकरगिर पर्वत पर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं / अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं, स्थापनं। ___ अथाष्टकं-जङ्गला छन्द। उज्वल जल निर्मल लाय, शीतल सुखकारी। पूजत श्री जिनवर पाय, कंचन भर झारी॥ नन्दीश्वर द्वीप महान, उत्तर दिश सोहै। तेरह जिनमंदिर जान, सुरगण मन मोहै // 2 // ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके उत्तर दिश संबंधी अञ्जनगिर॥१॥ रम्या वापी बीच दधिमुखगिर // 2 // रम्या वापी मुख कोन प्रथम रतिकर॥३॥ रम्यावापी मुख कोण द्वितीय रतिकर॥४॥ रमनी वापी बीच दधिमुख // 5 // रमनी वापी मुख कोण प्रथम रतिकर॥६॥ रमनी वापी मुख कोण द्वितीय रतिक र // 7 // सुप्रभा वापीबीच दधिमुख॥८॥ सुप्रभा वापी मुखकोण प्रथम रतिकर // 9 // सुप्रभा वापीमुखकोण द्वितीय रतिकर // 10 // सर्वतोभद्र वापी बीच Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [313 = === = = == == == = ==== दधिमुख॥११॥ सर्वतोभद्र वापी मुखकोण प्रथम रतिकर // 12 // सर्वतोभद्र वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 13 // जलं॥ मलयागिर चन्दन सार केशर रंग भरी। जिनराज चरनपर वार, भव आताप हरी॥ नन्दीश्वर. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ अक्षत शशि किरन समान पुंज सु दीजी जै। धर कनक थार भर आन, जिनपद पूजिजै॥ नन्दीश्वर. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ बहु फूल सुगंधित लाय, जिनमंदिर जइये। प्रभु चरनन भेट चढ़ाय, श्री जिन गुण गइये। नन्दीश्वर. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // फे नी गोझा सु बनाय, रसनाको प्यारे / जिन सनमुख देत चढाय, हर्ष हिये धारे॥ नन्दीश्वर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्य। ले दीप अमोलिक सार जगमग जोति जगी। ले कनक रकाबी धार, प्रभुसों प्रीत लगी॥ नन्दीश्वर. // 7 // ॐ ह्री. // दीपं // दस विधकी धूप बनाय, प्रभु आगै खेवो। कर्मादिक रोग नशाय, श्री जिनपद सेवो॥ नन्दीश्वर. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं // फल परम मनोहर लाय, नैनन सुखकारी। जिन चरण सु पूजत जाय, पावो शिव प्यारी॥ नन्दीश्वर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान SwarsawrsarsawarSESSESSINR जल फल वसु दर्व मिलाय, अर्घ बनावत हैं। जिनराज सु पूजत जाय प्रभु गुण गावत हैं॥ नन्दीश्वर. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ अथ प्रत्येकाघ-पद्धडी नंदीश्वर अष्टम द्वीप सार, उत्तर दिश अंजनगिर निहार। जिनमंदिरसुर पूजत सुजाय,हम जजत सुजिनपद शीश नाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश अंजनगिर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ॥ रम्या वापीबीच जगमगाय, दधिमुखगिर शिखर विर्षे सुहाय। जिनमंदिर सुरपूजत सुजाय, हम जजत सुजिनपद शीशनाय॥ ____ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश रम्या वापीबीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ रम्या वापी मुखकोन जान रतिकरगिर प्रथम शिखर महान। जिनमंदिरसुरपूजत सुजाय, हम जजत सुजिनपद शीश नाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश रम्या वापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ॥ रम्या वापी विदिशा विशाल दूजै रतिकर गिर द्युति रिशाल। जिनमंदिर सुरपूजत सुजाय, हम जजत सुजिनपद शीशनाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश रम्या वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // रमणी वापी बीच है पवित्र,दधिमुखगिर शिखर बनो विचित्र। जिनमंदिर सुरपूजत सुजाय, हम जजत सुजिनपद शीशनाय॥ ____ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश रमणी वापीबीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥५॥ अर्घ // Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [315 = == = = == = === == == == == रमणी वापी मुख कोनजाास,रतिकरगिर शिखरप्रथम प्रकाश। जिनमंदिर सुर पूजत सुजाय, हम जजत सुजिनपद शीशनाय॥ ____ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश रमणी वापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो।६॥ अर्घ॥ रमणी वापी विदिशा विचार, रतिकर गिर दूजो शिखर धार। जिनमंदिरसुर पूजत सुजाय, हम जजत सुजिनपद शीशनाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश रमणी वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥७॥ अर्घ // वापी सुप्रभा बीच है अनूप, दधिमुख गिरस्वेत वरन स्वरूप। जिनमंदिर सुरपूजत सुजाय, हम जजत सुजिनपद शीशनाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश सुप्रभा वापीबीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकट जिनमंदिरेभ्यो॥८॥ अर्घ॥ वापी सुप्रभाविदिशा सुआदि, रतिकर गिरिशिखर बनो आदि। जिनमंदिरसुर पूजतसु जाय, हम जजत सुजिनपद शीशनाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश सुप्रभावापी मुखकोण प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 9 // अर्घ // वापी सुप्रभा मुख कोण देख, दूजे रतिकर गिरिपर सुलेख। जिनमंदिर सुरपूजत सुजाय, हम जजतसु जिनपदशीशनाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश सुप्रभा वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१०॥ अर्घ // सर्वतोभद्र वापी सुजान, तिस बीचसु दधिमुख शिखर आन। जिनमंदिर सुरपूजत सुजाय, हम जजज सुजिनपद शीशनाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश सर्वतोभद्र वापीबीच दधिमुख गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो // 11 // अर्घ // Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ==================== सर्वतोभद्र वापी मुखकोन वेष, रतिकरगिर प्रथम कहो जिनेश। जिनमंदिर सुरपूजत सुजाय, हम जजत सुजिनपद शीशनाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश सर्वतोभद्र वापी मुख प्रथम रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१२॥ अर्घ॥ सर्वतोभद्र वापी विदिशा सुलाल, रतिकरगिरि दूजे त्रिकाल। जिनमंदिर सुरपूजत सुजाय, हम जजतसु जिनपद शीशनाय॥ ___ॐ ह्रीं नंदीश्वर द्वीपके उत्तर दिश सर्वतोभद्र वापी मुखकोण द्वितीय रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१३॥ अर्घ॥ सोरठा अष्टम द्वीप निहार, चारों दिश बावन कहें। जिनमंदिर सुखकार, पूजों वसुविध अर्घसों॥२४॥ ___ॐ ह्रीं नन्दीश्वर द्वीपके चारों दिशा संबंधी चार अंजनगिरि सोलह दधिमुख बत्तिस रतिकर गिरिपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१४॥ पूर्णार्प जयमाला-दोहा नन्दीश्वर उत्तर दिशा जिनमंदिर सु विशाल। बने अकीर्तम साश्वते, तिनकी यह जयमाल॥२५॥ पद्धडी छन्द जै जै श्री अष्ट मद्वीप जान। जै ताकी उत्तर दिश वखान॥ जै तेरह बीच अंजन सु नाम। ता गिरिपर श्री जिनवर सु धाम // 26 // Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ = श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [317 = = = = = = = = = = जै श्यामवरन सोहै सरंग। जै सहस चार अस्सी उत्तंग॥ जै ताकी चारों दिश रिशाल। इक इक वापी सोहै विशाल // 27 // जै एक लाख जोजन प्रमान। जै निर्मल जल भर रहो जान॥ जै ता बिच दधिमुख गिर लसंत। दधिवरन सु उज्वल शोभवंत // 28 // जै उन्नत योजन सौ हजार। जै ता गिर ऊपर भवन सार॥ जै एक बावरी कोन दोय। जै विदिशामें रतिकर जु होय॥२९॥ रतिकर गिर उन्नत इक हजार। ता गिरपर जिनमंदिर निहार // सब समोशरन रचना अनूप। तहां पूजा करत सु अमर भूप // 30 // कर पूजा भक्त हिये सु आन। जिनबिंब निहारत हरष ठान॥ सुर नाचत जिनवरके हजूर / ____ता थेई थेई थेई धुन रही पूर॥३१॥ बहु पुन्य उपार्जन देव आय। नानाविध कर जिन गुण सुगाय॥ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 2222222222222222222 जै तुच्छ बुद्धि भवि लाल पाय। जिनचरण सु सेवत प्रीत लाय॥३२॥ __घत्ता-दोहा नन्दीश्वर उत्तर दिशा, वरनी यह जयमाल। जो वांचैभवि भावसौ, तिनके भाग विशाल // 33 // इति जयमाला। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढे मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढे अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुर नर पद ले शिवपुर जाय॥ ___ इति इत्याशीर्वादः इति श्री नन्दीश्वर द्वीपके उत्तर दिश त्रयोदश सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ कुण्डलद्वीपके बीच कुण्डलगिरिके चारोंदिश चार सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 61 अथ स्थापना-मंदअवलिप्तकपोल छन्द कुण्डल नाम द्वीप ग्यारमो, ताके बीच कहो गण धार। घेरे आधे द्वीप कनक द्युति, कुण्डलगिर कुण्डल आकार॥ चारों दिशा चार जिनमंदिर, सुरपति जजत भक्ति उर धार। हम तिनकी आह्वानन विधकर, जिनपद पूजत अष्ट प्रकार॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [319 222222222222222 ह्रीं कुण्डलद्वीप मध्ये कुण्डलगिरिके चारों दिशा चार जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं, स्थापनं। अथाष्टकं-चाल प्रमादिसूनकी क्षीरोदधि उनहार सु, जल भरि कंचन झारी। जिन सन्मुख दे धार, जरा मरनादि निवारी॥ सुरपति पूजत जाहिं, सिखर कुण्डल गिरवरके। हमें शक्तिसो नाहिं, जजत पद श्री जिनवरके // 2 // ___ॐ ह्रीं कुण्डलद्वीप मध्ये कुण्डलगिरि पर्वतके पूर्वदिश रूचिक नाम // 1 // दक्षिणदिश रूचिक प्रभ नाम // 2 // पश्चिम दिश हिमवन नाम // 3 // उत्तरदिश मंदिर नाम सिद्धकूट पर स्वयंसिद्ध जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ जलं॥ मलयागिर घस लाय सु, चंदन केशर झारी। जजत जिनेश्वर पाय, सो आताप निवारी॥ सुरपति. // 3 // ॐ ह्रीं. // चंदनं॥ चन्द्र किरन सम श्वेत, अमल अक्षत ले ताजे। जिनपद पुज सु देत, अक्षय पद पावन काजे॥ सुरपति. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ वरन वरनके फूल धरे बहु परम लताई। हरत मदन मद शूल चरन, जिनराज चढ़ाई॥ सुरपति. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं॥ नानाविध पकवान, सिताधृत मिश्रित झारी। श्री जिनचरन महान, जजत तन क्षुधा निवारी॥ सुरपति. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं // Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुरमा 320] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान នផលជលផលផលនៅសលផល दीपक ज्योति जगाय, दसों दिश होत उजारा। मोह तिमिर क्षय जाय, जजत पद जिनवर केरा॥ सुरपति. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ दस विध धूप सुगंध, धूम ऊरथ सुखदाई। हरत कर्मको बंध दहत, जिन सन्मुख जाई॥ सुरपति. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं॥ फलकी जात अपार, मधुर गुण कोमल ताई। मोक्ष सुपद दातार, जजत जिनवर पद भाई॥ सुरपति. // 9 // ॐ ह्री. // फलं॥ जल फल दर्व मिलाय, अर्घ भर कंचन थारी। जजत जिनेश्वर पाय, लाल तिनकी बलिहारी॥ सुरपति. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ अथ प्रत्येकार्घ-कुसुमलता छन्द कुण्डलगिरकी पूरव दिशमें, पांच कूट भाषे जिनराय। चार शैलके अन्त बताए, उर ले एक रही द्युति छाय॥ सिद्धकूट तसु नाम रुचिक है, तापर जिनमंदिर सुखदाय। सुरसुरपतिनित पूजत तिनको, हम ले अर्घ जजत जिनपाय॥ ____ॐ ह्रीं कुण्डल द्वीप मध्ये कुण्डलगिरि पर्वतके पूर्व दिश रुचिक नाम सिद्धकूटपर स्वयंसिद्ध जिनमंदिरेभ्यो॥१॥अर्घ॥ दक्षिण दिश कुण्डलगिर केरी, पांच कूट सोहै सुखकार। पर्वत अन्त चार कंचनमई, पहली ओर एक उर धार॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [321 SSSSSSSSSSSSSSSSSSSS सिद्धकूट तसु नाम रुचिक प्रभ, तापर श्री जिनभवन निहार। अमर अमरपति जजत अष्टविध, हम पूजत नित अर्घ संवार॥ ___ॐ ह्रीं कुण्डल द्वीप मध्ये कुण्डलगिरिके बीच दक्षिण दिश रुचिक प्रभनाम सिद्धकूटपर स्वयंसिद्ध जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ कुण्डलगिर पश्चिम दिश सोहै, पांच कूट कंचन धुति ताम। बाहर भाग चार भूपतिके, भीतर एक सरस सुख ठाम॥ तहां जिनभवन अनूपम सुन्दर, सिद्धकूट तसु हिमवन नाम। देव सचीपति वसुविध पूजत, हम ले अर्घ जजत जिनधाम॥ ___ॐ ह्रीं कुण्डलद्विप मध्ये कुण्डल गिरिके पश्चिमदिश हिमवन नाम सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // उत्तर दिशा सु गिर कुण्डलकी, पांच कूट सोहै सु विशाल। गिरके अंत चार सुर निवसैं, भीतर भाग एक सु विशाल॥ मंदिर नाम सु सिद्धकूटपर, जिनमंदिर सुर जजत त्रिकाल। वसुविध अर्घ बनाय गायगुण,निजधर जिन पूजत भविलाल॥ ॐ ह्रीं कुण्डलद्वीप मध्ये कुण्डलगिरिके उत्तर दिश मंदिर नाम सिद्धकूटपर स्वयंसिद्ध जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घ // जयमाला-दोहा कुण्डलगिर चारों दिशा, श्री जिनभवन विशाल। जिनपद शीश नवायकैं, अब वरनूं जयमाल॥१५॥ जै एक सरव वसु अरव जान। जै कोड़ पचासी अधिक मान॥ जोजन सु छिहत्तर लाख सार / इक इक दिशको आयाम धार // 16 // Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 322] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ធផលនននននននននននននន जहाँ कुण्डल दीप दिपै रिशाल। तिस बीच सु कुण्डलगिर विशाल॥ चहुँ ओर दीप आधो सुघेर। कुण्डलवत गोल परो सुहेर // 17 // जोजन पचहत्तर सहस अङ्ग। उन्नत कंचनके वरन रंग॥ जै गिर ऊपर चहूँ दिश सु चार। जै सिद्धकूट जिनभवन सार // 18 // जै रतनमई प्रतिमा जिनेश। शतआठ अधिक वन्दत सुरेश॥ सब समोसरन रचना निहार / वरनत सुर गुरु पावै न पार // 19 // जै चतुरनिकाय जु देव आय। जै जिन गुण गावै प्रीत लाय॥ जै दुन्दुभि शब्द बजे सु जोर / अनहद सारे बारह किरोर // 20 // जै द्रुम द्रुम द्रुम बाजै मृदंग। निरजर निरजरनी नचैं संग॥ ता थेई थेई थेई धुन रही पूर। जगतारन जिनवर के हजूर // 21 // जिन चरन कमल पूजत सुरेन्द्र। सब देव करत जय जय जिनेन्द्र॥ मन वचन काय भुवि शीश लाय। भवि लाल सदा बल बल सुजाय॥२२॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [323 श्री तेरहद्वीप पूजा विधान wwwwwwwwwwNNNNNNNNN घत्ता-दोहा कुण्डलगिर जिनभवनकी, पूजा बनी महान। जो बांचै मन लायकै, पावै अविचल थान // 23 // इति जयमाल। ___अथाशीर्वाद कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस परभव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः। इति श्री नन्दीश्वर द्वीपमध्ये कुण्डलगिरिको चारोदिश चार सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्। अथ रुचिक द्वीप मध्ये रूचिकगिरिके चारोंदिश चार सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा नं. 62 अथ स्थापना-छप्पय छन्द रुचिक द्वीप तेरमो महा सुन्दर द्युति धारी। ताके बीच सु गोल, रुचिक गिर पर्वत भारी॥ चारों दिश जिन भवन, चार सोहैं सुखदाय। पूजत इन्द्र सुजाय, देव मिल चतुरनिकाय॥ घेरे द्वीप समुद्र सब, पहुचन कौन उपाय। याते आह्वानन सु कर पूजत जिनवर पाय॥१॥ ॐ ह्रीं रूचिक द्वीपमध्ये रूचिकगिरि पर्वतपर चारों दिशा चार सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो अत्रावतरावतर संवौषट् आह्वाननं अत्र तिष्ठ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 324 श्री तेरहद्वीप पूजा विधान 2018888888888881 तिष्ठ ठः ठः स्थापनं, अब मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणं स्थापनं। अथाष्टकं-चाल जयमालाकी क्षीरोदधि सम उज्वल महा नीर ले। हेम शृंगार भर धार जिन चरण दे॥ रुचिक गिर चार दिश जिनभवन सुर जजैं। हम सु पूजत यहां ध्यान धर जिन भ6॥२॥ ॐ ह्रीं रुचिकद्वीपके बीच रूचिकगिर पर्वतके पूर्वदिश // 1 // दक्षिण दिश॥२॥ पश्चिमदिश // 3 // उत्तरदिश सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ जलं॥ अधिक धनसार चंदन सु गुण सीयरो। जजत जिनचरण आताप भवकी हरो॥ रूचिकगिर. // 3 // ॐ ह्री. // चंदनं॥ स्वेत शशिकिरण सम धोय तन्दुल धरो। चरण जिनराज ढिग पुज भविजन करो॥ ___ रूचिकगिर. // 4 // ॐ ह्रीं. // अक्षतं॥ कमल और केतकी, वर्ण सम जातकै। पूजा जिनवर सु पद फूल बहु भांतिकै // रूचिकगिर. // 5 // ॐ ह्रीं. // पुष्पं // सद्य पकवान धृत खण्ड, निश्चित लहा। पूज जिनपद कमल, थाल भर रूच महा॥ रूचिकगिर. // 6 // ॐ ह्रीं. // नैवेद्यं॥ रत्नमई दीप तसु, जोत उद्योत है। करत जिन आरती, मोह क्षय होत है // रूचिकगिर. // 7 // ॐ ह्रीं. // दीपं॥ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [325 2222222222222 धूप दस गन्ध ले अग्नि बिच खेईये। हरत वसु कर्म भविजन चरन सेईये // रूचिकगिर. // 8 // ॐ ह्रीं. // धूपं // फल वो उत्कृष्ट मीठे, सु रस लाइये। तुरत शिव रमनी वर, मोक्ष फल पाइये॥ रूचिकगिर. // 9 // ॐ ह्रीं. // फलं॥ जल सु फल आठ विध, दर्व सब धोयके। पूज जिनराज पद, लाल मद खोयके // रूचिकगिर. // 10 // ॐ ह्रीं. // अर्घ॥ अथ प्रत्येकार्घ-सोरठा पूरव दिशा निहार रुचिक नाम गिर शीस पै। / जिनमंदिर सुखकार, पूजो आठों दर्व ले // 11 // ॐ ह्रीं रूचिक द्वीपके पूरव दिश रूचिकगिर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥१॥ अर्घ // दक्षिण दिशा सु जान, सैल रुचिकगिरकी कही। जिनमंदिर धर ध्यान, पूजो मन वच कायसे॥१२॥ ॐ ह्रीं रूचिक द्वीपके दक्षिण दिश रूचिकगिर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥२॥ अर्घ॥ पश्चिम दिश मन लाय, रूचिक सु गिरपर देखिये। जिनमंदिरमें जाय, श्री जिनवर पद पूजकै // 13 // ॐ ह्रीं रूचिक द्वीपके पश्चिम दिश रूचिकगिर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥३॥ अर्घ // Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान उत्तर दिश सु विशाल, रूचिक नाम गिरवर तने। जिनवर भवन त्रिकाल, पूजो भविजन अर्घसों॥१४॥ ___ॐ ह्रीं रूचिक द्वीपके उत्तर दिश रूचिकगिर पर्वतपर सिद्धकूट जिनमंदिरेभ्यो॥४॥ अर्घा अथ जयमाला-दोहा रूचिक द्वीपके बीचमें, पर्वत रूचिक विशाल। जिनमंदिर चारों दिशा, तिनकी सुन जयमाल // 15 // जै जोजन सत्रह सरव गाय, जै अरब सुइकतालिस मिलाय। जै सत्रह दोय कहें किरोर, जै षोड़श सहस सु अधिक जोर॥ यह रूचिक द्वीप आया न जान, इक इकके भाषे हैं पुरान। तिस बीच रुचिकगिर परोफेर, चारों दिशा आधो दीप घेर॥ चवरासी सहस कहें उतंग, जोजन कञ्चनके वरन रंग। दिश आठकूट चालिस सु चार, तहां रहे देव छप्पन कुमार। जिन गर्भजन्मको समय पाय, जिन माताको सेवै सु आय। अर कूट चार गिरके सु अंत, तहां देव चार सु वसो वसंत॥ जै चारों दिशमें कूट चार, है सिद्धकूट तसु नाम सार। तापर जिनमंदिर शोभमान, सब समोसरण रचना समान॥ तहां श्रीजिनबिंब विराजमान,शतआठ अधिक प्रतिमा प्रमान। जै रत्नमई द्युति अतिविशाल, सुरइंद्र चरनपूजत त्रिकाल॥ जै नृत्य करत संगीत सार बाजे बाजत अनहद अपार। जै निजगुण गावै अमर नार, सुरताल मधुर ध्वनिको संवार॥ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [327 worunununRRURNAROUNDUPINDUA जै जै जगतारन जै जिनेश, तुम चरणकमल सेवत सुरेश। हम करत वीनती नमत भाल, भवर तुम सेव करें सुलाल॥ घत्ता-दोहा रूचिक द्वीप जिनभवनकी, पूरन यह जयमाल। जो नर वांचें भाव धर, तिनके भाग विशाल // 24 // इति जयमाल। अथाशीर्वादः कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम, ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्यतनी अति महिमा, वरणन को कर सकै बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरू संपति, बाढ़े अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इति इत्याशीर्वादः इति श्री रुचिक द्वीप मध्ये रूचिकगिर चारों दिशा चार जिनमंदिर सिद्धकूट विराजमान ताको पूजा सम्पूर्णम्। इति श्री तिर्यक क्षेत्र मध्ये चौसठ जिनमंदिर सिद्धकूट तिन विर्षे रतनमई प्रतिमा तिनकी पूजन सम्पूर्णम्। इति श्री तेरहद्वीपके दिशा विदिशा मध्ये चारसौ अट्ठावन सिद्धकूट जिनमंदिर कृत्रिम अकृत्रिम गन्धकुटी और चैत्यालय सहित विराजमान ताकी पूजन पाठ विधान सम्पूर्णम्। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान NNNNNNNNNNNNNNNNNNANE अथ कवित्त नाम॥ सवैया 31 // अष्टादस सात अरु, सत्तर अधिक जान। संवत् शरद रितु, शुक्ल कार्तिक मास है॥ द्वादशी भृगुवार, उत्तर नक्षत्र भाय। हर्ष न सुजोग धारे, चन्द्र अंश भास है। पूजाको आरम्भ ठयो, काशी देश हर्ष भयो। भेलुपुर ग्राम जैनी-जनको निवास है। अकीर्तम मंदिर हैं, चारसै अट्ठावन जे। तिनको सु पाठ लाल-जीत यों प्रकाश है॥१॥ इति श्री तेरहद्वीप जिनमंदिर पूजन पाठ विधान सम्पूर्णम्! // इति समाप्त // Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परस्परोपग्रहो जीवानाम सभी तरहके दिगम्बर जैन धार्मिक ग्रंथ मंगानेका पता दिगम्बर जैन पुस्तकालय खपाटिया चकला, गांधीचौक सूरत :- 3 * Offi 27621