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________________ श्री तेरहद्वीप पूजा विधान [133 SararararwarsawarSararaarakshara ता ऊपर सिंहासन रिशाल, तिसबीच कमल अद्भुत विशाल। तहां श्री जिनबिंब विराजमान,सत आठ अधिक भाषे पूरान॥ जै सुर जिन गुण आवै अपार, विद्याधर पूजैं हरष धार। हम पूजत या तनमन लगाय,महिमा तिनकी वरणी न जाय॥ जै जै जिनदेव सुगुण अनंत, तुम मांहि लखै जाको न अंत। जै प्रातिहार्य सोहैं सुसार, तिनकर शोभित महिमा अपार॥ जहां मंगल द्रव्य धरे पवित्र, सब रत्नमई सोहै विचित्र। सुर नर मिलकर तुम करें सेव, जै जै जै जै देवनके देव॥ हैं अरु कुदेव जो जगतमांहि, तिनको नैनन देखै सु नाहिं। यह वान पड़ी तुम दरश पाय जै लाल सदा बल सु जाय॥ दोहा यह गजदन्तनकी बनी, फूजा सरस विशाल। जो बांचै मन लायके तिनके भाग विशाल // 24 // इति जयमाला। अथाशीर्वाद-कुसुमलता छन्द मध्यलोक जिन भवन अकीर्तम ताको पाठ पढ़ें मन लाय। जाके पुन्य तनी अति महिमा, वरणन को कर सके बनाय॥ ताके पुत्र पौत्र अरु संपति, बालै अधिक सरस सुखदाय। यह भव जस पर भव सुखदाई, सुरनर पद ले शिवपुर जाय॥ इत्याशीर्वादः इति श्री अचलमेरुके चार विदिशा मध्ये चार गजदन्त पर सिद्धकूट जिनमंदिर पूजा सम्पूर्णम्।
SR No.032847
Book TitleTerah Dwip Puja Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2000
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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