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________________ 112] श्री तेरहद्वीप पूजा विधान ================== जै भरतक्षेत्र सुन्दर अनूप, जै छहों काल करते स्वरूप। जै तीन कालमें भोग भूम, दश कल्पवृक्ष तहां हैं शुभ॥ जहां जुगला धर्म हैं सदीव, सुखमें बहु मगन रहैं सुजीव। जै चौथो जब वरतैसु आय, तब कर्मभूम छवि रहैं छाय॥ जै तीर्थंकर चौवीस जान, चक्री द्वादश भाषे पुरान। जै प्रतिहर हर बलभद्र होय, जैत्रेसठ-पुरुष पवित्र सोय॥ जै मुनिव्रत धारै भव्य जीव, श्रावक व्रत पालैं हैं सदीव। जै चार घातिया करैं नाश, जै केवलज्ञान लहैं प्रकाश॥ यह चौथे काल तनी सूरीत, भाषी जिन आगम कही मीत। जै पंचम छट्ठम दुःख रूप, दुःख रूप सु कारज करैं भूप॥ ता क्षेत्र बीच वैताड लेख, तापर नव कूट रचे विशेष। चारों दिश आठ कहैं सुजान, तिनपर विंतर देवन सुथान॥ श्री सिद्धकूट तिस बीच जान, तापर जिनमंदिर शोभमान। जै रत्नजटित वरनन अपार, वरणत सुरगुरु पावैं न पार॥ सब समोसरण रचना रिशाल, बन रही परम सुन्दर विशाल। वसु प्रातिहार्य द्युत रही छाय, जै मंगल द्रव्य रचे बनाय॥ जै सिंहासनपर कमल सोय, जै जगमग जगमग जोति होय। ता ऊपर श्रीजिनराज देव, सत आठ अधिक सुर करत सेव॥ शत पांच धनुष उन्नत सुकाय, पद्मासन छबि वरणी न जाय। इन्द्रादिक वसुविध दर्व लाय, जिनराज चरण पूजन बनाय॥ खेचर खेचरनी सबै आय, गुण गान करत बाजे बजाय। फुन नृत्य करत संगीत सार, निज जन्म सफल मनमें विचार॥
SR No.032847
Book TitleTerah Dwip Puja Vidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMulchand Kisandas Kapadia
PublisherDigambar Jain Pustakalay
Publication Year2000
Total Pages338
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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