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व्र० दुलीचन्द जैन ग्रन्थमाला पुष्प नं.-११
कविवर श्री वृन्दावनदासजी विरचित
। श्री प्रवचनसार-परमागम
: संशोधक : श्री नथूराम प्रेमी
प्रकाशक :
ब्र० दुलीचन्द जैन ग्रन्थमाला
सोनगढ (सौराष्ट्र)
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प्रथमावृत्ति वीर नि. सं. २४३५, सन् १९०८ द्वितीयावृत्ति वीर नि. सं. २५००, सन् १९७४
प्रतियाँ ११००
व्र. दुलीचन्द जैन ग्रन्थमालाको देहली निवासी श्रीमती कमलाबाई धर्मपत्नी श्रीलाला कृपारामजी जैन द्वारा एक हजार रुपये ज्ञानप्रचार हेतु प्राप्त हुए हैं; तदर्थ धन्यवाद!
मूल्य २-५०
मिलनेका पता: टोडरमल स्मारक भवन ए-४ वापूनगर, जयपुर-३ (राज.)
: मुद्रक : मगनलाल जैन अजित मुद्रणालय सोनगड (सौराष्ट्र)
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-: प्रस्तावना :
[प्रथमावृत्तिसे] पाठक महाशय ! लीजिये, श्री जिनेन्द्रदेवकी कृपासे हम आज वाराणसी निवासी कविवर वावू वृन्दावनदासजीका 'प्रवचनसार परमागम' लेकर उपस्थित हैं। इसका एकवार आद्योपान्त स्वाध्याय करके यदि आप अपनी आत्माका कुछ उपकार कर सकें, तो हम अपने परिश्रमको सफल समझेंगे।
इस ग्रन्थके मूल कर्ता श्री कुन्दकुन्दाचार्य विक्रम संवत् ४९ में नंदिसंघके पट्टपर विद्यमान थे, ऐसा पट्टावलियोंसे पता लगता है। आपके बनाये हुए ८४ प्रामृत (पाहुइ) ग्रन्थ कहे जाते हैं, जिनमेंसे इस समय आठ-पाहुड उपलब्ध हैं। और पंचास्तिकाय, नाटक समयसार तथा प्रवचनसार ये तीन बहुत प्रसिद्ध हैं। इन तीनोंकी द्वितीय सिद्धान्तमें अथवा द्वितीय श्रुतस्कंधमें गणना है।
और इनमें शुद्ध निश्चयनयको प्रधान मानकर कथन किया है। इस प्राभृतत्रयीमेंसे पंचास्तिकाय और नाटक समयसार छप चुके हैं। केवल प्रवचनसार रह गया था, सो आज यह भी मुद्रित होकर तैयार है। यद्यपि भाषा-वचनिका तथा मूल पाठके बिना इस ग्रन्थका सर्वांगपूर्ण उद्धार नहीं कहलायेगा तो भी यह नहीं कहा जा सकेगा कि प्रवचनसार प्रकाशित नहीं हुआ है।
इस ग्रंथकी संस्कृतमें दो टीका उपलब्ध हैं, एक श्री अमृतचंदसूरिकी, तत्त्वदीपिका टीका और दूसरी श्री जयसेनाचार्यकी १. इन दोनों ही टीका के छपनेका प्रबंध हो रहा है। २. श्री कुन्दकुन्दाचार्यके तीनों ग्रन्थ पर श्री अमृतचंद्राचार्यकी टीकायें हैं और वे ____सव प्राप्य हैं । अमृतचन्द्राचार्य संवत् ९६२ में नन्दिसंघके पट्ट पर विद्यमान थे। ३. यह टीका बम्बई यूनीवर्सिटीने अपने एम. ए. के संस्कृत कोर्समें भरती की है।
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[४] टीका। इनमेंसे तत्त्वदीपिका टीकाके आधारसे आगरा निवासी स्वर्गीय पंडित 'हेमराजजीने विक्रम संवत् १७०९ में शाहजहाँ वादशाहके राज्यकालमें भापा-चचनिका बनाई है। और इसी भापा-वचनिकाके आधारसे काशी निवासी कविवर वृन्दावनीने यह पद्यवद्ध टीका बनाई है। यह टीका उन्होंने संवत् १९०५ में अर्थात् आजसे ६० वर्ष पहले पूर्ण की थी। ____ कविवर वृन्दावनजीका जीवन चरित्र और उनके अन्योंकी आलोचना हमने जैन-हितैपीके गतवर्षके उपहार ग्रन्थ वृन्दावनविलासमें खूब विस्तारसे की है। इसलिये अब उनकी पुनरावृत्ति करनेकी आवश्यकता नहीं जान पड़ती। जिन महाशयोंको पढ़नेकी रुचि हो, वे उक्त ग्रन्थ मँगाकर देख लें।
इस ग्रन्थको हमने दो हस्तलिखित प्रतियोंके अनुसार संशोधन करके छपाया है। जिनमेंसे एक तो कविवर वृंदावनजीकी स्वयं हाथकी लिखी हुई प्रथम प्रति थी, जो हमें काशीके सरस्वती भंडारले प्राप्त हुई थी और दूसरी करहल निवासी पंडित धर्मसहायजीके द्वारा प्राप्त हुई थी। यह दूसरी प्रति भी पहलीके समान प्रायः शुद्ध है और शायद पहली प्रति परसे ही नकल की हुई है।
कविवर वृन्दावनजीकी लेखन-शैली आदिसे अन्त तक एक सी नहीं मिलती। उन्होंने एक ही शब्दको कई प्रकारसे लिखा है। मैं में, हैं हे, तें तें तै, के के, नहिं नहि नहीं, होहिं होहिं होहि, लों सौं, त्यों त्यौं, कह्यो कह्यौ, विषै वि विपें, आदि जहाँ जैसा जीमें आया है इस प्रकार लिखा है। जान पड़ता है कि ऐसे शब्दोंके लिखनेका उन्होंने कोई नियम नहीं बनाया था, विकल्पसे वे सवको शुद्ध मानते थे। उनके लेखमें श, प और स की भी १ हेमराजजीने भी तीने ग्रन्थोंकी भाषा-वचनिका बनाई है।
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[५] ऐसी ही गड़बड़ थी। जहाँ कविताके अनुप्रासादि गुणोंका कोई प्रतिबन्ध नहीं था, वहां उन्होंने शुद्ध शब्द पर ध्यान देकर आकारादिका प्रयोग नहीं किया है। सर्वत्र इच्छानुसार ही किया है। वर्तमान लेखन शैलीसे विरुद्ध होनेके कारण हमने ऐसे स्थानोंमें जहाँ कि तुकान्त अनुप्रासादिकी कोई हानि नहीं होती थी, शुद्ध शब्दोंके अनुसार ही शकार सकारका संशोधन कर दिया है। तें ते के के आदिके संशोधनमें कहीं कहीं भूल प्रतिके समान ही विकल्प हो गये है, तो भी जहां तक हमसे बन पड़ा है आदिसे अन्त तक एक ही प्रकारसे लिखा है। ___ कविवरकी भापामें जहां-तहां पुलिंगके स्थानमें स्त्रीलिंगका प्रयोग किया गया है। सो भी ऐसी जगह जहां हमारे पाठकोंको अटपटा जान पड़ेगा। हमारे कई मित्रोंका कथन था कि, इसका संशोधन कर देना चाहिये। परन्तु हमने इसे अच्छा न समझा। ऐसा करनेसे ग्रन्थकर्ताके देशकी तथा समयकी भाषाका क्या रूप था, इसके जाननेका साधन नष्ट हो जाता है। संशोधन' कर्ताका यही कार्य है कि, वह दो-चार प्रतियों परसे लेखकोंकी भूलसे जो मशुद्धियाँ हो गई हैं, उनका संशोधन कर देवे। यह नहीं कि, मूल कर्ताकी कृतिमें ही फेरफार कर डाले। खेद है कि, आजकल बहुतसे ग्रन्थप्रकाशक इस नियम पर विलकुल ध्यान नहीं देते हैं।
पहले यह ग्रन्थ मूल, संस्कृत टीका और भापा-चचनिकाके साथ छपनेके लिये श्री रायचन्द जैन शास्त्रमालाके प्रवन्धकर्ताओंने लिखवाया था। परन्तु जब टीका तैयार न हो सकी और शास्त्रमालाके दूसरे संचालककी इच्छा इसे प्रकाशित करनेकी न दिखी, तब इसे पृथक् छपानेका प्रवन्ध किया गया। केवल गाथा और उनकी संस्कृत छाया देनेसे संस्कृत नहीं जाननेवालेको कुछ लाभ
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[६] नहीं होगा, ऐसा सोचकर इसमें केवल मूल गाथाओंका नंवर दे दिया है। इससे जो लोग मूल ग्रन्थ तथा संस्कृत टीकासे अर्थ समझना चाहेंगे उन्हें लाभ होगा। ____ इस ग्रन्थकी टीकाओं में प्रत्येक गाथाके प्रारम्भमें शीर्पकके रूपमें छोटी छोटीसी उत्थानिकायें हैं। यदि वे इसके साथ लगा दी जाती, तो बहुत लाभ होता। परन्तु ग्रन्थके कई फार्म छप चुकने पर यह वात हमारे ध्यानमें आई, इसलिये फिर कुछ न कर सके । पाठकगण इसके लिये हमें क्षमा करेंगे। यदि कभी इसकी दूसरी आवृत्ति प्रकाशित करनेका सौभाग्य प्राप्त हुआ, तो यह त्रुटि पूर्ण कर दी जायेगी , परन्तु जैनसमाजमें ग्रन्थोंका इतना आदर ही कहाँ है, जो ऐसे ग्रन्थोंकी दूसरी आवृत्तिकी आशा की जावे।
हम ऊपर कह चुके हैं कि यह ग्रन्थ मूल ग्रन्थका अनुवाद नहीं, किन्तु टीकाका पद्यानुवाद अथवा पद्यमयी टीका है। इसमें पंडित हेमराजजीकी वचनिकाका प्रायः अनुवाद किया गया है। कहीं कहीं तो वचनिकाका एक शब्द भी नहीं छोड़ा है। हमारी इस बात पर विश्वास करनेके लिये पाठकोंको तीसरे अधिकारकी २३ वीं गाथाकी कविता पंडित हेमराजजीकी वचनिकासे देखना चाहिये । वचनिकाके साथ इस अनुवादके दो-चार स्थान मिलाकर दिखाने और उनकी आलोचना करनेका हमारा विचार था, जिससे यह ज्ञात हो जाता कि कविवर वृन्दावनजीने मूल ग्रन्थके तथा टीकाओंके अभिप्रायोंको कहांतक समझकर यह अनुवाद किया है। परन्तु खेद है कि अवकाश न मिलनेसे यह विचार मनका मनमें ही रह गया।
इस ग्रन्थमें शुद्ध निश्चयनयका कथन है। इसलिये इस ग्रन्थके स्वाध्याय करनेके अधिकारी वे ही लोग हैं, जो जैनधर्मके निश्चय
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[७] और व्यवहारमार्गके मर्मज्ञ हैं। व्यवहार और निश्चयका स्वरूप समझे विना इस ग्रन्थके पाठक अर्थका अनर्थ कर सकते । और उनकी वही गति हो सकती है, जैसी समयसारके अध्ययनसे बनारसीदासजीकी हुई थी। अतएव पाठकोंको चाहिये कि, नयमार्गका भली भाँति विचार करके इसका स्वाध्याय करें, जिसमें मात्माका यथार्थ कल्याण हो ।
इस ग्रन्थके संशोधनमें जहाँतक हमसे हो सका है, किसी प्रकारकी त्रुटि नहीं की है। तो भी भूल होना मनुष्यके लिये एक सामान्य बात है। इसलिये यदि कुछ अशुद्धियाँ रह गई हों, तो विशेपशोको सुधार करके पढ़ना चाहिये। और हम पर क्षमाभाव पारण करना चाहिये। अलमतिविस्तरेण विशेषु
सरस्वती सेवकचम्बई
नाथूराम प्रेमी १०-१०-०८
देवरी (सागर) निवासी ।
पत)
।
भक्तकवि वृन्दावनजी (डॉ. नरेन्द्र भनावत)
आपका जन्म सं० १८४८ माघ शुक्ला १४ सोमवार पुष्य नक्षत्रमें जि. शहावादके बारा नामक ग्राममें हुआ था। आप गोयलगोत्री अग्रवाल थे। सं. १७६० में श्री वृन्दावन बारह वर्पकी अवस्थामें काशी आ गये थे। काशीमें काशीनाथ आदि विद्वानोंकी संगतिसे अध्यात्मिक और वैचारिक विकास हुआ। वे स्वभावसे संत एवं सरलताकी प्रतिमूर्ति थे । जीवनके अन्तिम वर्षों में भगवान के प्रेममें इतनी तन्मयता थी कि वाह्य वेशभूपाकी परवाह नहीं रही। केवल एक कोपीन और चादरसे ही काम चलने लगा, पैरोंमें जूते भी न रहे।
पद्यानुवादः-कविमें अनुवादकी प्रतिभा थी। पन्द्रह वर्षकी
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[८] अवस्थासे ही उन्होंने श्री कुन्दकुन्दाचार्य विरचित 'प्रवचनसार'का श्री अमृतचंद्रसूरिकी संस्कृत टीका तथा पांडे श्री हेमराजकी भाषाटीकाके अनुसार पद्यानुवाद करना आरम्भ कर दिया था। यह मूल ग्रन्थका हूबहू अनुवाद है। कविधीने इस ग्रन्यके प्रणयनमें जितना परिश्रम किया उतना अन्य ग्रंथोंमें नहीं। इसे पहलीवार सं. १८६३ में प्रारम्भ कर सं. १९०५ में तीसरी बार पूर्ण किया। इस प्रकार इसमें कविकी ४२ वाँकी साधनाका नवनीत और अनुभवका निचोड़ भरा गया है।
-डॉ. नरेन्द्र भनावत
१ से
१
-: अनुक्रमणिका : - अध्याय पीठिका १. ज्ञानाधिकार २. सुखाधिकार ३. ज्ञानतत्त्वाधिकार ४. ज्ञेयतत्त्वाधिकार ५. विशेप ज्ञेयतत्त्वाधिकार ६. व्यावहारिक जीव तत्त्वाधिकार ७. चारित्राधिकार ८. एकाग्ररूप मोक्षमार्गाधिकार ९. शुभोपयोगरूप मुनिपदाधिकार १०. पंचरत्न तत्त्वस्वरूप ११. कवि व्यवस्था तथा वंशावली आदि
१२ से ५६ ५७ से ६७ ६८ से ८४ ८५ से ११६ ११७ से १३८ १३९ ले १७४ १७९ ले २०३
२०४
२१७ से २३४ २३४ से २३८ २३९ से २४२
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ॐ नमः सिद्धेभ्यो ॐ नमोऽनेकान्तवादिने जिनाय .: *पीठिका ।
मंगलाचरण-षट्पद। . . [ नोंध:-यह छह पंक्तियां (षट्पद) पं. हेमराजजी कृत हैं। ] सिद्धि सदन बुद्धिवदन, मदनमद कदन दहन रज । लब्धि लसन्त अनन्त, चारु गुनवंत सन्त अज ॥ दुविधि धरमविधि कथन, अविधि-तम-मथन-दिवाकर । विघ्नः निघ्नकरतार, सकल-सुख-उदय-सुधाधर ॥ .
-मंगलाचरणपूर्वक कविवरका प्रारम्भशतइन्द्रवृन्दपदवंद भव, दन्द फन्द निःकन्द कर । अरि शोष-मोक्षमग-पोष निर-दोष जयति जिनराज वर ॥ १॥
- दोहा। .. . सिद्ध शिरोमनि सिद्धपद, शुद्धचिदातम भूप । . . . ज्ञानानंद सुभावमय, वंदन करहुं अनूप ॥२॥
* अय श्री. प्रक्वनसारपरमागम अध्यात्मविद्या श्रीमत्कुमकुन्दाचार्यकृत
मूल गाथा ताकी संस्कृत टोका श्री अमृतचन्द्राचार्य की है ताकी देशवचनिका पांडे . हेमराजनीने रची है। ताहीके अनुसारसों वृन्दावन छन्द लिखे है. (प्रथम प्रति)। ........
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पीठिका
नमों देव अरहंतको, सहित अनन्त चतुष्ट । दोष रहित जो मोक्ष-मग, भाखि करत सुख पुष्ट ॥ ३ ॥ आचारज उवझाय मुनि, तीनों सुगुरु मनाय । शिवमग साधत जतनजुत, बंदों मनवचकाय |॥ ४ ॥ सीमंधरको आदि जे, तीर्थकर जिन वीस । अब विदेहमें हैं तिन्हैं, नमों समवसृतईश ॥ ५ ॥ वानी खिरत त्रिकाल जसु, सुनहिं सकल चहुँसंग । केई मुनिव्रत अनुव्रत, धारहिं पुलकित अंग ॥ ६ ॥ केई सहज सुभावमें, लीन होय मुनिवृन्द ।। तीनों जोग निरोधिके, पावै सहजानन्द ॥ ७ ॥ वृषभादिक चौवीस जे, वर्तमान तीर्थेश । तिनको बंदत वृंद अब, मेटो कुमति फलेश ॥ ८॥. वृषभसैनको आदि जे, अतिम गौतमस्वामि । चौदहसै त्रेपन सुगुरु, गणधरदेव नमामि ॥९॥ अनेकान्तवानी नमों, वर्जित सकल विरोध । वस्तु जथारथ सिद्धिकर, डारत मन-मल शोध ॥ १० ॥ जोई केवलज्ञान है, स्यादवाद है सोय । भेद प्रत्यक्ष परोक्षको, वरतत है भ्रम खोय ॥ ११ ॥ वस्तु अनंत धरममयी, स्याद्वादके रूप ।
सो इकंत सों सघत नहि, यों भाखी जिनभूप ॥ १२ ॥ . . जेते. धरम तिते पृथक्, गहें अपेक्षा सिद्ध ।
रहित अपेक्षा सपत नहिं, होत विरुद्ध असिद्ध ॥ १३ ॥
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'पोठिका
सहित अपेक्षा जो वचन, सो सत्र वस्तुस्वरूप । रहित अपेक्षा जो वचन, सो सब अमतमकूप ॥ १४ ॥ अनेकान्त एकान्तकी, इतनी है पहिचान । एक पक्ष एकान्त मत, अनेकान्त सब थान ॥ १५ ॥ अनेकान्त मतकी यहाँ, वरतै नहिं एकान्त । अनेकान्त ह है यहां, अनेकान्त निरभ्रांत ॥ १६ ॥ सम्यग्ज्ञान प्रमान है, नय हैं ताके अंग । । साधनसाध्य दशावि, इनकी उठत तरंग ॥ १७ ॥ वस्तुरूप साधन विपं, करत प्रमान प्रवेश । नयके द्वारन वरनियत, ताके सकल विशेष ॥ १८ ॥ लक्ष्यवि जो वसत मित, लक्षण ताको नाम । जाके द्वार विलोकिये, लक्ष्य अबाध ललाय ॥ १९ ॥ इत्यादिक जे न्याय-मग, नय निक्षेप विधान । जिनवाणी सो मिलत सब, स्व-पर भेदविज्ञान ॥२०॥ ताते जिनवानी नों, अभिमतफल दातार । मो मनमन्दिरमें सदा, करो प्रकाश उदार ॥ २१ ॥
द्रु मिलावृत । (आठ सगण) सब वस्तु अनन्त गुनातमको, जु यथास्थरूप सुसिद्ध करै । परमान'नयौर निक्षेपदशा करि, मोहमहाश्रमभाव हरै ॥
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.15
“पीठिका जसु आदिसु अंत विरोध नहीं, नित लक्षण स्याद सुवाद धरै ।। वह श्री जिनशासनको भवि वृंद, अराधत प्रीति प्रतीति भरै ॥ २२ ॥
दोहा । . .: पुनि प्रनों परब्रह्ममय, पंच परमगुरु रूप । जासु ध्यानसे पाइये, सहज सुखामृत कूप ॥ २३ ॥ : 'आदि अकार हकार सिर, रेकनाद जुतपिंदु । सिद्धवीज जपि सिद्धिप्रद, पूरन शारदइन्दु ॥ २४ ॥ 'माया वीज नमो सहित, पंचवरन अमिराम । मध्य वीज अरहंत जसु, स्वधा सुधारस घाम ॥ २५ ॥ निजघट-क्षीर समुद्रमधि, मन अंबुज निरमाप । वर्ग पत्र प्रति मध्य तसु, श्री अरहंत सुथाप ॥ २६ ॥ स्वासोस्वास निरोधिके, पूरनचन्द्र समान । करो ध्यान भवि वृन्द जहँ, झरत सुधा अमलान ॥ २७ ॥ पुनि वाचक इहि वरनको, शुद्धब्रह्म अरहन्त । सहित अनन्त चतुष्ट तिहिँ, ध्यावो थिर चित्त संत ॥ २८ ॥ . इमि दृढतर अभ्यास करि, पुनि तिहि सम निजरूप । ध्यावो एकाकार थिर, तबहिं होहु शिवभूप ॥ २९॥ . ये ही मङ्गलमूल जग, सर्वोत्तम हैं येह । . इनकी शरनागत रहो, उर धरि परम सनेह ॥ ३० ॥
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१-अहँ । २-ह्रीं ।
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पौठिका५ - सत्यार्थ मोक्षमार्ग प्रवृत्तिका कथन । श्रीमत वीर जिनिंद जब, किन्हों शिवपुर गौन। तब इत वासट वरस लगि, खुल्यो रयो शिव भौन ॥ ३१ ।। गौतम स्वामी शिव गये, फेरि सुधीम्याम । पुनि जग्यू स्वामी लही, मुक्तिधाम अभिराम ॥ ३२ ॥ ऐसे पंचमकालमें, वासट वरस प्रमान । राह्मो केवलज्ञान इत, अमतम-मंजन-मान ॥ ३३ ॥ ता पायें शुतकेवली भये पञ्च परधान । .. वरण एक शतके विप, पूरन ज्ञाननिधान ॥ ३४ ॥ तिस पीछेसो एकसौ. व्यासी वरण मझार । ग्यार अन्न दशपूर्वधर, भये ग्यान अनगार ॥ ३५ ॥ वरस दोयसौ बीसमें, तिन पीछे मुनि पञ्च । मये इकादश अमके, पाठी समकित संच । ३६ ॥ . तिस पीछेसों एकसौ, ठारे वरण मझार । चार भये अनगार वर, एक अनके धार ।। ३७ ।।
श्री जन सिद्धान्तोंकी रचना सम्बन्धी कथन
कवित्त छन्द (३१ मात्रा) भद्रबाहु अन्तिम श्रुतकेवलि, जब लग रहे यहां परधान । तबला द्वादशांग शासनको, रह्यो प्ररूपन पूरनज्ञान ॥ तर निश्चय व्यवहाररूप जो, शिवमारगका सुखद विधान । . . सो परिवर्तन रह्यो जथारथ, यों भवि वृन्द करो 'श्रद्धान ॥ ३८॥ • mr.me.... :57.sxe.o r meric
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पोक्षिका तिस पीछे इत काल दोष तें, अङ्गज्ञानकी भई विछित्ति । तब कितेक मुनि शिथिलाचारी, भये किई तिन पृथक् प्रवृनि ॥ तिनसों श्वेतांबर मत प्रगट्यो, रचे सूत्र विपरीत अहित । सो अब ताई प्रगट देखियत, यह विरोध मारगकी रित्त ॥ ३९ ॥
दोहा । । अब वरनों जिहि भांति इत, रह्यो जथारथ पन्थ । श्रीजिनसूत्र प्रमाण करि, सुखददशा निरन्थ ॥ ४० ॥
चोपाई। है जे जिनसूत्र सीखं उर धारी, रहे आचरन करत उदारी । तिनकी रही जथारथ चरिया, तथा प्ररूपन श्रुत अनुसरिया ॥४१॥ है तेई परम दिगम्बर जानो, सांचे ग्रन्थ पन्थ ठहरानो। वर्धमान शिवथान लहीते, छसौ तिरासी वरप वितीते ॥ ४२ ॥ है दूजे भद्रवाहु आचारज, प्रगटे तिहि मगमें गुनमारज । तिनकी परिपाटीमें भाई, किते वरप पीछे मुनिराई ॥ ४३ ॥ है जिन सिद्धान्तनकी परिवृत्ती, करी जाहि विधि सुनो सुवृती । जियशशि रचित वचनिका पावन, समयसारतें लिखों सुहावन ।। ४४ ॥
दोहा । एक भये 'धरसेन गुरु, तिनको सुनो वखात । जसो ज्ञान रह्यो तिन्हें, श्रुतपथतें परमान ॥४५॥
करखा छन्द (मात्रा ३७) . अग्रणीपूर्वकै, पांचवें वस्तुका, · महाकरमप्रकृति, नाम चौथा ।
इस पराभृतका, ज्ञान तिनको रहा, यहां लग अङ्गका, अंश तौ था । ४ ५-पं. जयचन्द्रजीकृत समयसारकी भाषा टीका।
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पीठिका.
[७..
A CHESHEELERTRENESHPALACanumarimm-
सो पराभृतको भूतबलि पुष्पदन्त,
दोयमुनिको सुगुरुने पढ़ाया । तास अनुसार, पटखण्डके सूत्रको,
वांधिके पुस्तकोंमें मढ़ाया ॥ १६ ॥ फिर तिसी सूत्रको, और मुनिवृन्द पढि,
रच विस्तार सों तासु टीका । धवल महाधवल जयधवल आदिक सु
सिद्धांतवृत्तान्तपरमान टीका ॥ तिन हि सिद्धांतको, नेमिचन्द्रादि
आचार्य, अभ्यास करिके पुनीता । रचे गोम्मटसारादि बहु शास्त्र यह प्रथम सिद्धांत-उतपत्ति-गीता ॥ १७ ॥
दोहा । नीव करम संजोगसे, जो संसृति परजाय । तास सुगुरु विस्तार करि, इहां रूप दरसाय ॥ १८ ॥ गुणथानक अरु मार्गना, वरनन कीन्ह दयाल । भविबनके उद्धारको, यह मग सुखद विशाल ।। ४९ ॥
कवित्त छन्द (३१ मात्र) पर्यायार्थिक नय प्रधान कर, यहां कथन कीन्हो गुरुदेव । याहीको अशुद्धद्रव्यार्थिक, नय कहियत है यो लखिलेव ॥ तथा अध्यातमीक भाषा करि, यह अशुद्ध निहचै नय मेव । तथा याहि विवहारहु कहिये, यह सब अनेकांतकी देव ॥५०॥
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पीठिका
द्वितीय सिद्धान्तोत्पत्ति (कवित छन्द) बहुरि एक गुणधर नामा मुनि, भये तिसी पथमें परधान । तिनको ज्ञानप्रवादपूर्वका, दशम वस्तुका त्रितिय विधान ।। तिस प्राभृतका ज्ञान रहा तव, तिनसों नागहस्ति मुनि जान । तिन दोउनतें यतिनायक मुनि, तिस प्राभृतको पढ़ा निदान..॥५१॥ तब यतिनायक सुगुरु कृपाकर, तिसही प्राभृतके अनुसार । । सूत्र चूर्णिकारूप रचा सो, ह हजारका शास्त्र उदार ॥
ताकी टीका समुद्धरन गुरु, रची सु बारह सहस विचार । । यो आचारज परम्पराते, कुन्दकुन्द मुनि ताहि निहार ॥५२॥
दोहा। इस सिद्धान्तरहस्यके, कुन्दकुन्द गुरुदेव । रसिक भये ज्ञाता भये, नमो तिन्हे वसुमेव ॥ ५३ ॥ यों दुतीय सिद्धांतकी, है उतपत्ति पुनीत । परिपाटी परमान करि, लिखी इहां निरनीत ॥ ५४ ॥
मनहरण ( ३१ वर्ण) यामें ज्ञानको प्रधान करिके प्रगटपने, :
शुद्ध दरंबारथीक नयको कथन है ।. . . अध्यातमबानी आतमाको अधिकार यातें, . ___ याको शुद्ध निश्चैनय नाम हू कथन है ॥ वथा परमारथ हू नाम याको जथारथ,
' इहां परजाय नय गौनता गथन है ।। परबुद्धित्यागी जो स्वरूप शुद्धहीमें रमें, .. ...... सोई कर्म नाशं शिव होत यो मथन है ॥.५५ ॥ .
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पोठिका
कवित्त । या प्रकार गुरुपरम्पराते, मह दुतीय सिद्धान्त प्रमान । शुद्ध सुनयके उपदेशक इत, शास्त्र विराजत हैं परधान ।। समयसार पंचास्तिकाय श्री, प्रवचनसार आदि सुमहान । कुन्दकुन्दगुरु मूल बखाने, टीका अमृतचन्द्रकृत जान ॥५६॥
कवि प्रार्थना।
. तामें प्रवचनसारकी, बांचि वचनिका मंजु ।
छन्दरूप रचना रचों, उर धरि गुरुपदकंजु ॥ ५७ ॥
कहँ परमागम अगम यह, कहँ मम मति भतिहीन । शशि सपरशके हेतु जिमि, शिशु कर ऊंचौ कीन ॥ ५८ ॥ तिमि मम निरख सुधीरता, हंसि कहिहैं परवीन । काक चहत पिक-मधुर-धुनि, मूक चहत कवि कीन ॥ ५९ ॥
चौपाई। यह परमागम अगम बताई । मो मति अल्प रचत कविताई । सो लख हसि कहिहैं मति धीरा । शिरिष सुमन करि वेधत हीरा ॥६०॥
cacanaakasmirtan-arm.maran
दोहा । वाल मराल चहै जथा, मन्दिर मेरु उठाव । . बालबुद्धि भवि वृन्द तिमि, करन चहत कविताव ॥६१॥ . पूरख सुकवि सहायतें, जिनशासनकी छोहिं । हूं यह साहस कीन है, सुमरि सुगुरु मानांहि ॥ ६२ ॥
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पीठिका
मूलप्रन्य अनुसार जो, भाषा तौ उपमा सांची फवै, "सोना
वनं और
प्रबंध । मुगंध " ॥ ६३ ॥
चौपाई।
मैं तो बहुत जतन चित गन्दी । रचिह्नों छंद जिनागन शाली। उप प्रमादतें लन्नि नहुँ दूषन । शोधि शुद्ध कीजे गुनभूपन ॥ ६४
दोहा ।
सज्जन चाल मगल सम, औगुन तज गुन लेत । 'शारदवाहन वारि तज, ज्यों पयपान करेत ॥ ६५ ॥
KHAORAMARSWERTOONAMECERCOPERATORAACHANALANVICHAEESCORRENSinuinterco
पट्पद ।
जब लगि वन्तु विचार करत, कवि काव्य करनहित । । तब लगि विषयविकार कत, शुभध्यान म्हत चित ॥
ऐसे निजहित जान, बहुरि जब जगमें व्यापत । तव जे वाचहिं सुनहिं, तिन्हें है झन पगपत ॥ यों निज परको हित हंत लस्त्रि, वृन्दावन उद्यम करत । परमागम प्रवचनसारकी, छंदवद्ध टीचा घरत ॥६६॥
प्रवचनसारग्रन्यस्तुति ।
नय नय अनेकान्त दुतिधार । पय पय सुपरवोष करतार । ___ लय लय करत 'मुबारस धार । जय जय नो श्रीप्रवचनसार ॥ ६७॥
१. हंस। २ दूसरी प्रतिमें 'समानृनु' पाठ है।
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पोठिका
भरिल्ल छन्द । द्वादशांगको सार जु सुपरविचार है।
सो संजमजुत गहत होत भवपार है ॥ तास हेत यह शासन परम उदार है ।
यातें प्रवचनसार नामनिरधार है ॥ ६८ ॥
मूलगन्थकर्ता श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकी स्तुति ।
अशोकपुष्पमंजरी। जासके मुखारविंदतें प्रकाश भास वृन्द ।
_स्यादवाद जैन वैन इन्दु कुन्दकुन्दसे ॥ तासके अभ्यासतें विकास भेदज्ञान होत ।
मूढ सो लखै नहीं कुबुद्धि कुन्दकुन्दसे ॥ देत ई अशीस शीस नाय इन्द्र चन्द्र जाहि ।
मोह-मार-खंड मारतंड कुन्दकुन्दसे ॥ शुद्धबुद्धिवृद्धिदा प्रसिद्ध रिद्धिसिद्धिदा ।
हुए, न हैं, न होहिंगे, मुनिंद कुंदकुंदसे ॥ ६९ ॥
इति भूमिका ।
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ओं नमः सिद्धेभ्यः काशीनिवासी कविवरवृन्दावनविरचित
प्रवचनसार
मंगलाचरण । पट्पद । स्वयं सिद्धिकरतार, करे निज कर्म शर्मनधि । ओपै करण स्वरूप, होय साधन सोधै विधि । संप्रदानता धेरै, आपको आप समप्पै ।
अपादानतें आप, आपको थिर कर थप्पै ॥ अधिकरण होय आधार निज, वरतै पूरणब्रह्म पर । इमि षट्विधिकारकमय रहित, विविध एक विधि अज अमर ॥१॥
दोहा। महततत्त्व महनीय मह, महाधाम गुणधाम । चिदानन्द परमातमा, बंदौं रमताराम ॥ २ ॥ कुनयदमनि सुवचन अवनि, रमन स्यातपद शुद्धि । जिनवानी मानी मुनिप, घटमें करहु सुबुद्धि ॥ ३ ॥
चौपाई। पंच इष्ट पदके पद वन्दों। सत्यरूप गुरुगुण अमिनन्दों । प्रवचनसार ग्रंथकी टीका । बालबोध भाषामय नीका ॥४॥
१. यह प्रथम मंगलाचरण षट्पद पं. हेमराजजी कृत है। २. तेज। ३. मुनिराज ।
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EMES
प्रवचनसार
[ १३ रचौं आप परको हितकारी । भव्य जीव आनन्दविथारी । प्रवचन जलघि अर्थ जल लैहै । मति-भासन-समान जल पेहै ॥५॥
दोहा। अमृतचंद्रकृत संसकृत, टीका अगम अपार । तिन अनुसार कहौं कडू, सुगम अल्प विसतार ॥ ६ ॥
(१) गाथा १ से ५ तक मंगलाचरण सहित नमस्कार
तथा चारित्रका फल
(१)
मतगयन्द । श्रीमत वीर जिनेश यही, तिनके पद वंदत हौं लवलाई । वन्दत वृन्द सुरिन्द जिन्हें, असुरिन्द नरिन्द सदा हरषाई ॥ जो चउ घातिय कर्म महामल, धोइ अनन्त चतुष्टय पाई । धर्म दुधातमके करता प्रभु, तीरथरूप त्रिलोकके राई ॥ ७ ॥
चौपाई। वरतत है शासन अब जिनको । उचित प्रनाम प्रथम लिख तिनको । कुंदकुंद गुरु वन्दन कीना । स्यादवादविद्या परवीना ॥ ८॥
(२)
मनहरण । शेष तीरथेश वृषभादि आदि तेईस औ,
सिद्ध सर्व शुद्ध बुद्धिके करंडवत हैं । जिनको सदैव सदभाव शुद्धसत्ताहीमें,
तारनतरनको तेई तरंडवत हैं ।
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१४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
आचारज उवझाय साधुके सुगुन ध्याय,
पंचाचारमांहि वृन्द जे अखंडवत है ।। येई पंच पर्म इष्ट देत हैं अमिष्ट शिष्ट, तिनें भक्ति भावसों हमारी दंडवत है ॥ ९ ॥
दोहा । देव सिद्ध अरहंतको, निज सत्ता आधार । सूर साधु उवझाय थित, पंचाचारमझार ॥ १० ॥
ज्ञान दरंश चारित्र तप, वीरज परम पुनीत । येही पंचाचारमें, विचरहिं श्रमण सनीत ॥ ११ ॥
(३)
अशोकपुष्पमंजरी । पंच शून्य पंच चार योजन प्रमान जे,
मनुण्यक्षेत्रके विषै जिनेश वर्तमान हैं। तासके पदारविंद एक ही सु वार वृन्द,
फेर भिन्न भिन्न वंदि भव्य-अब्ज-भान हैं । वर्तमान भर्तमें अबै सुवर्तमान नाहिं,
श्रीविदेहथानमें सदैव राजमान हैं । द्वैत औ अद्वैतरूप वन्दना करौं त्रिकाल, सो दयाल देत रिद्धि सिद्धिके निधान हैं ॥ १२ ॥
. दोहा। आठौं अंग नवाइकै, भूमें दंडाकार । मुखकर सुजस उचारिये, सो वन्दन विवहार ॥ १३ ॥
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प्रवचनसार
[१५
निज चैतन्य सुभावकरि, तिनसों है लवलीन । सो अद्वैत सुवन्दना, भेदरहित परवीन ॥ १४ ॥
(४)
माधवी। करि वंदन देव जिनिंदनकी, ध्रुव सिद्ध विशुद्धनको उर ध्यावों । तिमि सर्व गनिंद गुनिंद नमों, उदघाट कपाटक ठाट मनावों ।। मुनि वृन्द जिते नरलोकवि, अमिनंदित है तिनके गुन गावों । यह पंच पदस्त प्रशस्त समस्त, तिन्हें निज मस्तक हस्त लगावों ॥ १५॥
। इनके विसरामको धाम लसै, अति उज्ज्वल दर्शनज्ञानप्रधाना ।
जहं शुद्धपयोग सुधारस वृन्द, समाधि समृद्धिकी वृद्धि वखाना ॥ तिहिको अवलंबि गहों समता, भवताप मिटावन मेघ महाना, लिहितें निरवान सुथान मिले, अमलान अनूपम चेतन वाना ॥१६
(६) दो प्रकार-चारित्र और फल ।
चौवोला ।' जो जन श्री जिनराजकथित नित, चित्तवि, चारित्त धरै । सम्यकदर्शनज्ञान जहां, अमलान विराजित जोति भएँ । सो सुर इन्द वृन्द सुख भोगे, असुर इन्दको विभव रै । होय नरिंद सिद्धपद पावै, फेरि न जगमें जन्म धरै ॥१७
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१६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
(७)
___ सत्यचारित्र । हैं निहचै निज सुभावमें थिरता, तिहि चरित कहँ धरम कहै । है सोई पर्म धर्म समतामय, यो सर्वज्ञ कृगल महे ॥ ६ जामें मोह क्षोभ नहिं व्यापत, चिद्विल्यास दुति वृन्द गहै । सो परिनामसहित आतमको, शाम नाम अमिराम अहे ॥१८॥
दोहा । चिदानन्द चिद्रूपको, परम धरम शमभाव । जामें मोह न राग रिस, अमल अचल थिर भाव ॥ १९ ।। सोई विमल चरित्र है, शुद्ध सिद्धपदहेत । शामसरूपी आतमा, भविक वृन्द लखि लेत ॥ २० ॥
(८) आत्मा ही चारित्र है।
सवैया छंद । है जब जिहि परनति दरव परनमत, तव तासों तन्मय तिहि काल । हु श्रीसर्वज्ञकथित यह मारग, मथित गुरु गनधर गुनमाल || हैं तातें धरम स्वभाव परिनवत, आतमहका धरम सम्हाल । धरमी घरम एकता नयकी, इहां अपेक्षा वृन्द विशाल ।२१ ॥
दोहा। है वीतराग चारित्र है, परम धरम निजरूप । हैं ताके धारत जीवको, धर्म कह्यो जिनम्प ।। २२ ॥
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प्रवचनसार
[१७
एक एक धरमीवि, वसत अनन्ते धर्म । मिलत न काहूसों कोई, यह सुभावगति पर्म ॥ २३ ॥ जब धरमी जिहि धरमकी, प्रनवत जुत निज शक्त । तव तासों तन्मय तहां, होत शक्ति करि व्यक्त ॥ २४ ॥ तातें आतमराम जब, धेरै शुद्ध निज धर्म । तब ताइको नाम गुरु, कह्यो धर्म तजि भर्म ॥ २५ ॥ 'अयमय गोला अगनिते, लाल होत जिहि काल । अनल ताहि तव सब कहत, देखो बुद्धि विशाल ।। २६ ।। तैसे जिन जिन धर्म करि, प्रणवहि वस्त समस्त । तन्मय तासों होहिं तब, यह सुभाव अनअस्त ॥ २७ ॥ अग्नि पृथक गोला पृथक, यह सजोगसंबंध । त्यों धर्मी अरु धर्ममें, भेद नहीं है खंध ॥ २८ ॥ सिख संबोधनको सुगुरु, देत विदित दृष्टांत । एकदेश सो व्यापता, सुनों भविक तजि भ्रांत ॥ २९ ॥ धर्मी धर्म दुहूनको तादात्मक सम्बन्ध । है प्रदेश प्रति एकता, सहज सुभाव असंघ ॥ ३० ॥
जीवके परिणाम-उपयोगमें तीन प्रकार ।
षट्पद । जब यह प्रनवत जीव, दयादिक शुभपयोग मय । अथवा अशुभ स्वभाव गहत, जहँ विषय भोग लय ।।
-
-
लोहमयी।
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१८]
कविवर वृन्दावन विरचित
किंवा शुद्धपयोगमयी, जहँ सुधा बहावत ।
जुत परिनामिक भाव, नाम तहँ तैसो पावत ॥ जिमि सेत फटिक वश झांकके, झांक वृन्द रंगत गहत । तजि झांक झांक जब झांकियत, तब अटांक सदपद महत ॥३१॥
(१०) . परिणाम वस्तुका स्वभाव है।
सोरठा। दरबन विन परिनाम, परनति दरब बिना नहीं । दरब गुनपरजधाम, सहित अस्ति जिनवर कही ॥ ३२ ॥
मनहरण । केई मूढमती कहें द्रव्यमें न गुन होत,
द्रव्य और गुननको न्यारो न्यारो थान है । गुनके गहन · कहावै द्रव्य गुनी नाम, - जैसे दंड धारै तब दंडी परधान है ॥ तासौं स्यादवादी कहै यह तो विरोध बात,
: विना गुन द्रव्य जैसे खरको विषान है । बिन परिनाम तैने द्रव्य पहिचाने कैसे,
परिनामहूको कहा थान विद्यमान है ॥ ३३ ॥ देखो एक गोरस त्रिविधि परिनाम धरै,
दूध दघि घृतमें ही ताको विस्तार है । तैसे ही दरब परिनाम विना रहै नाहिं, .
परिनामहूको वृन्द दरब अधार है ॥ .
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प्रवचनसार
[ १९
गुनपरजायवन्त द्रव्य भगवन्त कहीं,
सुभाव सुमात्री ऐसे गही 'गनधार है । जैसे हेम द्रव्य गुन गौरव सुपीततादि,
परजाय कुण्डलादिमई निरधार है ॥ ३४ ॥ जैसे जो दरब ताको तेसो परिनाम होत,
देखो भेदज्ञानसों न परौ दौर धूपमें । ताते जब आतमा प्रनवै शुभ वा अशुभ,
अथवा विशुद्धभाव सहज स्वरूपमें ॥ तहां तिन भावनिसों तदाकार होत तव,
व्याप्य अरु व्यापकको यही धर्म रूपमें । कुन्दकुन्द स्वामीके वचन कुन्द इन्दुसे हैं,
घरो उर वृन्द तो न परौ भवकू में ॥ ३५ ॥
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है दो प्रकारके चारित्रका (शुद्ध और शुभ) परस्पर विरुद्ध फल
मत्तगयन्द । है धर्म सरूप जबै प्रनवै यह, आतम आप अध्यातम ध्याता । है शुद्धुपयोग दशा गहिकै, सु लहै निरवान सुखामृत ख्याता ॥ है होत जबै शुभरूपपयोग, तबै सुरगादि विभौ मिलि जाता । आपहि है अपने परिनामनिको फल भोगनहार विधाता ॥ ३६॥
मोतीदाम । हैं जबै जिय धारत चारित शुद्ध । तवै पद पावत सिद्ध विशुद्ध । है सराग चरित्त धरै जब चित, लहे सुरगादि विर्षे वर वित्त ॥ ३७॥ है १ गणघरदेव ।
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२० ],
कविवर वृन्दावन विरचित
दोहा । .. ताते शुद्धपयोगके, जे सम्मुख हैं जीव । तिनको शुभ चारित्रमहँ, रमनो नाहिं सदीव ॥ ३८ ॥
(१४) अशुभ परिणामोंका फल
माधवी। अशुभोदयसे यह आतमराम, अनंत कलेश निरंतर पायो । कुमनुण्य तथा तिरजंचनिमें, बहुधा नरकानलमें पचि आयो ।
नहिं पार मिल्यो परिवर्तनको, इहि भांति अनादि कुकाल गमायो । ६ अब आतम धर्म गहो सुखकन्द, जिनिंद जथा भवि वृन्द बतायो ॥३९॥
दोहा । महा दुःखको बीज है, अशुभरूप परिणाम । याके.. उदय अनन्त दुख भुगते आतमराम ॥ ४० ॥ दारिद दुखनर नीचपद, इत्यादिक फल देत् । नारकगति तिरजंचगति, याको सहज निकेत ॥ ४१ ॥ तातै तजिये सर्वथां, अव्रत विषय-कषाय । .. याके उदय न बनि सकत, एको धर्म उपाय ॥ ४२ ॥ शुभ परिनामनके विय, है विवहारिक धर्म । दया दान पूजादि बहु, तप संयम शुभकर्म ॥ ४३ ॥ ताहि कथंचित धारिये, लखिये आतमरूप । शिवमगको सहकार यह, यों भाखी जिनभूप ॥ ४४ ॥
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प्रवचनसार
[२१
४५॥
(१३) शुभ-अशुभ वृत्तिका तिरस्कार और शुद्धोपयोगका सन्मान
मनहरण । शुद्ध उपयोग सिद्ध भयो हैं प्रसिद्ध जिन्हें । एसो सिद्ध अरहंतनके गाययतु है ।। आतम सुभावतै उपजो साहजिक सुख । सवतें अधिक अनाकुल पाइयतु है । अक्ष पक्ष विलक्ष विषसों रहित स्वच्छ । उपमाकी गच्छसों अलक्ष ध्याहयतु है ।। .. निरावाध हैं अनन्त एकरस रहैं संत । ऐसे शिवकंतकी शरन जाइयतु है ॥ ४५ ॥
(१४) - : शुद्धोपयोग परिणतिका स्वरूप- . . शुद्धउपयोग जुक्त जति जे विराजत हैं । सुनो तासु लच्छन विचच्छन बुधारसी ॥ भलीभांति जानत यथारथ · पदारथको । तथा श्रुतसिंधु मथि धारत सुधारसी ॥ . संजमसों पंडित तपोनिधान पंडित हैं। राग-दोष खंडिके बिहंडत. मुधारसी ।। जाके सुख-दुखमें न हर्ष-विषाद चन्द । सोई पर्म धर्म धार धीर मो उधारसी।।। ४६ । ।
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२२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
दोहा । जो मुनि सुपरविभेद धरि, करे शुद्ध सग्धान । निजस्वरूप आचरनमें, गाड़े अचल निशान ॥ १७ ॥ सकल सूत्र सिद्धान्तको, भलिभांति रस लेत । तप संजम साथै सुधी, गग दोष तजिदेन ॥ १८ ॥ जिवन मरण विपै नहीं, जाके हरप दिपाद । शुद्धपयोगी साधु सो, रहित संकल अपवाद ॥ ४९ ॥
-
(१५)
शुद्धोपयोगकी पूर्णता केवलज्ञानकी प्राप्ति
मत्तगयंद। जो उपयोग विशुद्ध विभाकर, मंडित है चिन्मूरतराई । सो वह केवलज्ञान धनि, सव ज्ञेयके पार ततच्छन जाई ।। घाति चतुष्टय तास तहाँ, स्वयमेव विनाश लहैं दुखदाई । शुद्धपयोग परापति प्राप्ति की महिमा यह वृन्द मुनिंद न गाई ॥५०॥
. षट्पद । जिस आतमके परम सुद्ध, उपयोग सिद्ध हुव । तिसके जुग आवरन, मोहमल विधन नास धुव ॥ सकल ज्ञेयके पार जात सो, आप ततच्छन ।
ज्ञान फुरन्त अनन्त, सोई अरहंत सुलच्छन ॥ महिमा महान अमलान नव, केवल लाभ सुधाकरन । शिवथानदान भगवानके, वृन्दावन वंदत चरन ॥ ५१ ॥
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प्रवचनसार
[२३
Mama
(१६) अन्य कारकोंसे निरपेक्ष-स्वयंभू आत्मा
मनहरण । ताही भांति विमल भये जे आप चिदानन्द । तासको स्वयंभू नाम ऐसो दरसायो है ॥ प्रापत भये अनन्त ज्ञानादि स्वभावगुन । आपहीते आपमाहिं सुधा बरसायों है । सोई सरवज्ञ तिहूँकालके समस्त वस्त । हस्तरेखसे प्रशस्त लखै सरसायो है ॥ ताहीके पदारविंद देवइन्द नागइन्द । मानुषेद वृन्द बंदि पूज हरषायो है ॥ ५२ ॥
पटकारक निरूपण . .
दोहा। निजस्वरूप प्रापतिविपैं, पर सहाय नहिं कोय । षट्मक र कारकनिमें, यह आतम थिर होय ॥ ५३ ॥ तासु नाम लक्षण सुगम, कहों जथारथरूप । जैननकी रीतिसों, ज्यों गुरु कथित अनूप ॥ ५४ ॥ करता करम करन तथा, संप्रदान उर आन । अपादान पुनि अधिकरन, ये षटकारक मान ॥ ५५ ॥
गीतिका । । स्वाधीन होइ कहै सोई, करतार ताको जानिये । करतारंकी करतृतिको, कहि करम कारक मानिये ।।
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२४ ]
. कविवर वृन्दावन विरचित
है जाकरि करमको करत कता, करन ताको नाम है । वह करम जाको देत संप्रदानसो सरनाम है ।। ५६ ।।
पूरव अवस्था त्याग कर जो, होत नूतन काज है । सो जानियो पंचमों कारक अपादान समाज है ॥ जाके अधार वनै करम, अधिकरन सोई ठीक है । यह नाम लक्षण है विचच्छन छहोंकी तहकीक है ॥ ५७ ।।
भुजंगी। है जहां औरकी मान नैमित्तत्ता, करै है सुधी काजकी सिद्धता । है तहां है असद्भूतुपचारता, कोई द्रव्य काहूको ना धारता ॥ ५८ ॥
मनहरन । जैसे कुम्भकार करतार घट कर्म करें । दंड चक्र आदि ताके साधन करन है ।। जब घट कर्मको वनाय जलहेत देत । तहाँ संप्रदान नाम कारकं वरन है ॥ पूरव अवस्था मृतपिंडको विनाश भये । घट निरमये अपादानता धरन है ॥ भूमिके अधार घट कर्मको बनावत है, तहाँ अधिक होत संशय हरन है ॥ ५९॥
. दोहा। यामें करतादिक पृथक्, यातें यह व्यवहार । सम्यकबुद्धि :पसारकें समझ लेहु श्रुतिद्वार ॥६०॥
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प्रवचनसार
[२५
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लक्ष्मीधरा। आप ही आपतें आपको साधता, औरकी नाहि, आधार आराधता । नाम निश्चै यही सत्य है सासता, स्यादवादी विना कौनको भासता ॥ ६१ ॥
षट्पद । ज्यों माटी करतार, सहज सत्ता प्रमानमय । अपने घट परिनाम, करमको आप करत हय ॥ आपहि अपने कुम्भकरनको, साधन हो है । आप होय घट कर्म, आपको देत सु सोहै । आप ही अवस्था पूर्वकी, त्यागि होत घटरूप चट ।
अपने अधार करि आप ही, होत प्रगट घटरूप ठट ॥ ६२ ॥ सहज सकति स्वाधीन, सहिंत करतार जीव ध्रुव । करत शुद्ध सरवंग, आपको यही करम हुव ।। निज परनतिकरि करत, आपको शुद्ध करन तित । सो गुन आपहि आप, देत यह संप्रदान हित । तजि समल विमल आपहि वनत, अपादान तब उर धरन । करि निजाधार निजगुन अमल, तहां आप सो अधिकरन ॥६३ ॥
- चौबोला। जब संसार दशा तज चेतन, शुद्धपयोग स्वभाव गहै तब आपहि पट्कारकमय है, केवलपद परकाश लहै ।। तहां स्वयंम् आप कहावत, सकल शक्ति निज व्यक्त अहै । चिद्विलास आनन्दकन्द पद, वंदि वृन्द दुखद्वंद दहै ॥ ६४ ॥
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२६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
(१७) इस स्वयंभू आत्माको शुद्धत्व प्राप्तिका अत्यंत अविनाशीपना
और कथंचित् उत्पाद-व्यय-ध्रुवत्व
द्र मिला। तिस ही अमलान चिदातमके, निहचै करि वर्तत है जु यही । है उतपात भयो जो विशुद्ध दशा, तिसको न विनाश लहै कब ही ।।
अरु भंग भये परसंगिक भावनिको उतपाद नहीं जो नहीं । है पुनि है तिनके ध्रुव वै उतपाद, सदीव सुंभाविकमाहिं सही ॥ ६५ ॥
दोहा । शुद्धपयोग अराधिके, सिद्ध भये सरवंग । जे अनन्त ज्ञानादिगुन, तिनको कबहुँ न भग ॥ ६६ ॥ अरु अनादिके करम मल, तिनको भयो विनाश । सो फिर कबहुं न ऊपज, जहां शुद्ध परकाश ॥ ६७ ॥ पुनि ताही - चिद्रूपके वर्तते है यह धर्म । उपजन विनशन ध्रुव रहन, साहजीक पद पर्म ॥ ६८ ॥ द्रव्यदृष्टिकर ध्रौव्य है, उपजत विनशत पर्ज । षट्गुनहानरु वृद्धि करि, वरनत श्रुति भ्रम वर्ज ॥ ६९ ॥
(१८) उत्पादादि. तीनों प्रकार सिद्ध भगवानको भी हैं।
मनहरण । जेते हैं पदारथके जातं विद्यमान तेते,
___ उतपाद व्यय भाव धेरै सदाकाल है ।
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प्रवचनसार
[ २७
अर्थ परजायमें कि विजन परजमाहिं,
अथवा विभावकै स्वभाव पर्जपाल है ॥ याहीके अधार निराधार निज सत्ताधार,
निजाधार निराबाध द्रव्य गुनमाल है। कुन्दकुन्द इन्दुके वचन अमी वृन्द पियो, __जाको इन्द-चन्द-वृंद वंदत त्रिकाल है ॥७० ॥
किरीट । जो जगमें सब वस्तु विराजत, सो उतपादरु व्यै ध्रुव धारक ।। हैं हैं परजाय सुभावमई कि विभाव कि अर्थ कि विंजन कारक ॥ है है है इनही करके तिनकी, तिल्काल वि. सदभाव उदारक । है या विन द्रव्य सधै न किसी विधि, यों श्रुतिसिन्धु मथी गनधारक ।। ७१ ॥
मत्तगयन्द । है कुण्डलरूप भयो जब कंचन, कंकनता तब ही तज दीनों । १ ध्रौव्य दुहमहँ आपहि है, गुन गौरव पीत सचिकन लीनों ॥ हूँ त्यों सब द्रव्य सदा प्रनवै, परजाय विर्षे गुन संग धरीनो । है तीन विहीन नहीं कोउ वस्तु, यही उनको सदभाव प्रवीनो ॥७२॥
मनहरण । धरम अधरम अकाश काल चारों द्रव्य,
सहज सुभाव , परजायमाहिं रहे हैं। . षटगुनी हानि वृद्धि करें समै समै माहिं, . .
अगुरुलघुगुनके द्वार ऐसे कहै हैं. ॥ . गतिथिति अवकाश वर्तना गुन निवास, . __. चारोंमें यथोचित स्वसत्ताही को गहै हैं ।
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२८ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
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जीव पुदगलमें विराजें दोऊ परजाय, ___ विभाव तथा सुभाव जब जैसो लहै हैं ॥ ७३ ॥
दोहा । ज्यों मानुष तन त्यागिकै, उपजत सुरपुर जीव । दुहूँ दशामें आप ध्रुव, इमि तिहु सधत सदीव ॥ ७४ ।। अथवा सिद्धदशा विपैं, ऐसे साधी साध । समल दशा तजि अमल हुव, वह ध्रुव जीव अबाध ॥ ७५ ॥ अथवा ज्ञानादर्शमें दरसि रहै सब ज्ञेय । । ज्ञेयाकार सुज्ञान तहँ, होत प्रतच्छ प्रमेय ॥ ७६ ॥ तिन ज्ञेयनकी त्रिविध गति, जिह जिह भांति सुहोत ।। तिहि तिहि भांति सुज्ञान वह, प्रनवत सहज उदोत ॥ ७७ ॥ याही भांति प्ररूपना, सिद्ध दशाके महि । उतपतव्ययध्रुवक्री सधत, अनेकांतकी छांह ॥ ७८ ॥ षटगुनि हानिरु वृद्धिकी, जा विधि उठत तरंग । सहज सुभाविक भावमें, सोऊ सधत अभंग ॥ ७९ ॥ उपजन विनशन ध्रौव्यके, विना द्रव्य नहिं होय ।
साधी गुरु सिद्धान्तमें, वाधी तहाँ न कोय ॥ ८० ॥ प्रश्न-
शिखरिणी। कहो उत्पादादी त्रिविधिकर अस्तित्व तुमने । सुनी मैंने नीके उठत तब शंका. मुझ मने ॥
त्रिधा काहे भाषो, ध्रुवहि करिके क्यों नहिं कहो । ___ कहा यातें नाहीं सधत ? सब वस्तें मुनि महो ॥ ८१ ॥
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-प्रवचनसार
[ २९
उत्तर- अनङ्गशेखर । (दंडक ३२ वर्ण) पदार्थको जु ध्रौव्यरूप एक पच्छ मानिये,
तु तासुमें प्रतच्छ दोष लच्छ लच्छ जानिये । कुटस्थ रूप राजतौ प्रवृत्त त्याजि भाजतौ,
विराजतौ सदैव एक रूप ही बखानिये ॥ सु तो नहीं विलोकिये विलोकिये त्रिधातमीक, ___ एक वस्तुकी दशा अनेक होत मानिये । सुवर्ण कुण्डलादि होत दूधत घृतादि जोत,
मृत्तिका घटादिको तथैव सो प्रमानिये ॥ ८२ ॥
दोहा ।
दरवमाहिं दो शक्ति हैं, भाषी गुन परजाय । इन विन कबहुँ न सधि सकत, कीजे कोटि उपाय ॥ ८३ ॥ नित्य तदातमरूपमय, ताको गुन है नाम । जो क्रमकरि वरतै दशा, सो परजाय ललाम ॥ ८४ ॥ कहीं कहीं है द्रव्यकी, दोइ भांति परजाय । नित्यभूत तद्रूप इक, दुतिय अनित्य बताय ॥ ८५ ।। नित्यभूतको गुन कहैं, दुतिय अनित्य विभेद । ताहि कही परजाय गुरु, यह मत प्रबल अछेद ॥ ८६ ।। तिन परजायकरि दरव, उपजत विनशत मान । धौव्यरूप निजगुणसहित, दुहूँ दशामें जान ॥ ८७ ॥ याही कर सद्भाव तसु, यह है सहज स्वभाव । यहां तर्क लागै नहीं, वृथा न गाल बजाव ।। ८८ ॥
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३० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
' उक्त च देवागमे-चोपाई । श्रीगुरु त्रिविधि तत्त्वको साधत । प्रगट दिखावत हैं निरवाधत । है घट परजाय धरै जो सोना । ताहि नाशि करि मुकुट सु होना ।। ८९ ॥ हैं तहां कुम्भ सो जो रुचि रेखी । ताके होत विषाद विशेखी । १ मौलि बनेंतें जाके प्रीती । ताके हरष होत निरनीती ॥९० ॥ जाके सोनाहीसों काजा । सो दुहुमें मध्यस्थ विराजा । तब कहु दरव त्रिविधि नहिं कैसे ? प्रगट विलोक हेतु जुत ऐसे ॥ ९१ ॥ गोरस एक त्रिविधि परनवै । दूध दधी घृत जग वरनवै । प्रनवन सकति नहीं तामाहिं । तब किहि भाँति त्रिविधि हो जाहिं ।। ९२ ॥ देखो ! प्रथम दूध रस रहा। दधि होते गुन औरै गहा।।
घृत होते फिर औरहि भयो। स्वाद भेद गुन औरहि लयो ॥९३ ॥ ६ दूधव्रती दधि घृतको खाता। दधिवती घृत दूध लहाता । ।
घृतव्रतधारी पय दधि गहै । पृथक तत्त्व तब क्यों नहिं अहै ।। ९४ ॥ एकै रूप जु गोरस होतो । तीन दशा तब किमि उद्दोतो । है तातें तत्त्व निधातम सही । न्यायसिंधु मथिं श्रीगुरु कही ॥९५ ॥
(१९), उसको इन्द्रियोंके बिना ज्ञान-सुख कैसे ? समाधान ।
___ मत्तगयंद। . . . . हूँ जो चहु घातिय कर्म विनाशि, अतिंद्रियरूप भयो अमलाना । हैं ताहि अनन्त जगे वर चीजरु, तेज अनन्त अपार महाना ॥
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। सो वह आपहि ज्ञान सुखादि, सरूपमयी प्रनयौ भगवाना । जासु विनाश नहीं कवहीं, गुन वृन्द चिदानंदकंद प्रधाना ॥ ९६ ।।
(२०) केवलीको शारीरिक सुख-दुःख नहीं है। केवल ज्ञानधनी भगवानकी, रीति प्रधान अलौकिक गई । । देह धरें तउ देहज दुःख, सुखादि तिन्हें नहिं होत कदाई ।।
जातें अतिद्रिय रूप भये सुख, छायक कुन्द सुभायक पाई । तातें तिन्हें न विकार कछु, अविकार अनन्तप्रकार बताई । ९७ ।।
दोहा । सकल घात संघात हत, प्रगट्यो बीज अनन्त । परम अतिंद्रिय सुखमयी, जाको कबहुँ न अनन्त ।। ९८ ॥ ताको जे मतिमंद शठ, भा कवलाहार । धिग है तिनकी समुझिको, बार बार धिक्कार ।। ९९ ।। गुनथानक छट्टम विर्षे होत अहार विहार । ताके ऊपर ध्यानगत, तहां न भुक्ति लगार ॥ १०० ॥ जे तेरम गुनथानमें, अचल चहूँ अरि जार । छायकलब्धित्वभाव जहँ, तहँ किमि कवलाहार ? ।। १०१॥ क्षुधा त्रपा बाधा करै, इन्द्री पीडै प्रान । यह तो गति . संसारमें, जगजीवनकी जान ॥ १०२ ।। जहां अतिंद्रिय सुखसहित, चिदानन्द चिद्रूप । तहां कहां बांधा जहां, प्रगटी शकति अनूप ॥ १०३ ॥
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३२] कविवर वृन्दावन विरचित Homemocratermerazzar.srorexnorrorizer
मोह करम विन वेदनी, निरविष विषधर जेम । जरी जेवरी बलरहिन, अबल अघाती तेम ॥ १०४ ॥ सकत अनंतानंत जस, प्रगट भयो निरवाध । तहँ चेतन तनसहित कहँ, लगत न तनिक उपाध ॥ १०५॥ निजानन्द रसपान तहँ, चिदानन्द कहँ होत । नोतनकरमसुवरगना, तिनकरि काय उदोत ।। १०६ ॥ कर्मवरगना प्रति समय, पूर्वबंध संजोग । आय लगहिं पुनि झरपरहिं टिकहिं न बिन उपयोग ॥ १०७ ॥ निविड़ मोहनी विघन अरु, ज्ञान दर्शनावर्न । इनहिं नाशि निर्मल भये, अमल अचल पद धर्न ॥ १०८ ॥ ते सांचे सर्वज्ञ हैं, तेई आप्त प्रधान । तिनके वचन प्रमान हैं, भवि-उर-भ्रम-तम भान ॥ १०९ ॥
(२१) वहाँ पूर्ण ज्ञान और सुख ।
षट्पद । ज्ञानरूप परिनये, आपु जे केवलज्ञानी । तिनके सकलप्रतच्छ, द्रव्य गुन-परज-प्रमानी ॥ सो नहिं जानहिं ताहि, अवग्रह आदि क्रियाकर । जातें यह छदमस्थ, ज्ञानकी रीति प्रगट तर ॥ निहचै सो श्रीभगवानके, सकल आवरन नाश हुव । सर्वावभास निज ज्ञानमें, लोकालोक प्रतच्छ धुव ।। ११० ।।
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(२२) उन्हें कुछ भी परोक्ष नहीं ।
षट्पद । इस भगवान महान, केवलज्ञान धनीकहँ । रह्यो न कछू परोक्ष, वस्तुके जानपने महँ ॥ जातें इन्द्रियरहित, अतीन्द्रियरूप विराजै ।
अरु सरवंग समस्त, अच्छके गुन छवि छाजै ॥ स्वयमेव हि ज्ञान सुभावकी, प्रापति है जिनके विमल । तिनको प्रतच्छ तिहुँ लोकके, वस्तु वृन्द झलकहिं सकल || १११ ॥ (२३) प्रमाणज्ञान सर्वगत ।
मनहरण । ज्ञान गुनके प्रमान आतमा विराजमान,
जैसे हेम गुन पीत गौरवादिको धरै । सोई ज्ञानगुन ज्ञेयके प्रमान भापै जथा,
अनि गुन उष्ण जितौ ईंधन तितो जरै ॥ ज्ञेयको प्रमान वृन्द, लोक औ अलोक सर्व,
तासुको विलोकत प्रतच्छरेखा ज्यों करै । ताहीतें सरवगति ज्ञानको सुसिद्ध करी, स्वामीके वचन अनेकान्त रससों भरै ॥११२ ॥
(२४-२५) उनमें दोप कल्पनाका निराकरण ज्ञान गुनके प्रमान आतमा न मानत हैं,
ऐसे जो अजान इस लोकमें कुमती हैं ।
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कविवर वृन्दावन विरचित
ताके मतमाहिं गुन ज्ञानतें अधिक हीन,
होत ध्रुवरूप वह आतमाकी गती है ॥ से तो ज्ञानहीन ते तो जड़के समान भयो,
अचेतन तामें कहां ज्ञायक-शकती है। अधिक बखाने तो प्रमाने कैसे ज्ञान चिना, ऐसे परतच्छ स्वामी दोनों पच्छ हती हैं ॥ ११३ ॥
दोहा । जथा अगनि गुन उष्णते, हीन अधिक नहिं होत । तथा आतमा ज्ञान गुन, सहित बरावर जोत ॥ ११४ ॥ अन्वय अरु व्यतिरेकता, ज्ञान आतमामाहिं । विना ज्ञान आतम नहीं, आतम विनु सो नाहिं ॥ ११५॥ जहां जहां है आतमा, तहां तहां है ज्ञान | जहां जहां है ज्ञान गुन, तहां तहां जिय मान ॥ ११६ ॥ तातें हीनाधिक नहीं, ज्ञान सुगुनते जीव । हीनाधिकके मानतें, बाधा लगत सदीव ॥ ११७ ॥ कछु प्रदेशपै ज्ञान है, कछु प्रदेशपै नाहिं । यों मानत जड़ चेतना, दोनों सम है जाहिं ॥ ११८॥ तव किमि शुद्ध समाधिमें, निरविकल्प थिर होय । द्विधा दशा निमि अनुभवै, किहि विधि शिवसुख होय ॥ ११९ ।। तातें दृष्टि प्रमारतें, बाधित है यह पच्छ । साधित है निराध ध्रुव, जीव ज्ञन यह स्वच्छ ॥ १२० ॥
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(२६) ज्ञान-आत्मा दोनों प्रकार सर्वगतपना ।
गीतिका । सर्वगत भगवानको, इस हेतुसों गुरु कहत हैं।
तास ज्ञान प्रकाशमें, सब जगत दरसत रहत हैं । गुन ज्ञानमय है रूप जिनका, ज्ञेय ज्ञानविर्षे मथा । तासतें सर्वज्ञ सब व्यापक, जथारथ यो कथा ॥ १२१ ॥
पट्पद । शुचि दरपनमें जथा, प्रगट घट पट प्रतिभासत । मुकुर जात नहिं तहां, तीन नहिं मुकुर अवासत ॥ तथा शुद्ध परकाग, ज्ञान सब ज्ञेयमाहिं गत । ज्ञेय तहां थित करहिं, यहू उपचार मानियत ॥ वह ज्ञान धरम है जीवको, धरमी धरम ल एक अत । या नयतें श्री सर्वज्ञको, कहें जथारथ सर्वगत ॥ १२२ ।।
दोहा । एक ब्रह्म सब जगतमें, व्यापि रयो सरवंग । अपनेही परदेशकरि, · नानारंग उमंग ॥ १२३ ॥ ऐसी जिनके कुमतिकी, उपज रही है पच्छ ।। तिनको मत शतखंडकरि, दूपत हैं परतच्छ ॥ १२४ ॥ निज परदेशनिकरि जौ, जगमें व्यापी आप । तब वह अमल समल भयो, यह तो अमिल मिलाप ॥१२५॥ कछुक अमल कछुक समल है, तो भी.वनै न बात । एक वस्तुमें दो दशा, क्यों करि चित्त समात ॥ १२६ ।।
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कविवर वृन्दावन विरचित
तातें ज्ञान प्रकाशमें, जेय सकल झलकंन । सो निजज्ञान सुभावमय, आय प्रगट भगवंत ॥ १२७॥ यातें श्रीसरवज्ञको, यो सर्वगत नाम । अन्तरछेदी ज्ञानमय, जगणपक जगधाम ॥ १२८ ॥ यातें जो विपरीत मत, ते सत्र सकल असिद्ध । स्यादवादतें सर्वगत... श्रीमहंत सु सिद्ध ॥ १२९॥
(२७) एकत्व-अन्यत्व?
मनहर। जोई ज्ञान गुन सोई आतमा बखाने जाते,
दोऊमें कथंचित न मेद व्हरात है । आवमा विना न और द्रव्यमाहि ज्ञान लस,
ज्ञान गुन जीवमें ही दीखे जहरात है ॥ तथा जसे ज्ञान गुन जीवमें विराजे तैसे,
और ह अनन्त गुन तामें गहरात है । गुनको समूह इन्च अपेक्षासों सिद्ध सव्व, ऐसो स्यादवादको पताका फहरात है ॥१३०॥
मिला। है गुण ज्ञानाहिको नदि जीव कहें, तदि और अनन्त जिते गुन हैं । ६ तिनको तय कौन अधार वने, निरवार विना कहु को सुन है ? n है गुनमाहिं नहीं गुन और वसे, श्रुति साधत श्रीजिनकी धुन है । तिसत गुन पर्न अनंतमर्या, चिनमूरति य सु आपुन है ॥ १३१ ॥
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(२८) ज्ञानमें परज्ञेयोंका प्रवेश नहीं है ।
षट्पद । ज्ञानी अपने ज्ञानभाव, ही माहिं विराजै । ज्ञेयरूप सब वस्तु, आपने छाज ॥ मिलिकर बरतें नाहि, परस्पर ज्ञेयरु ज्ञानी ।
ऐसी ही मर्याद, वस्तुकी बनी प्रमानी ॥ जिमि रूपीदरवनि को प्रगट, देखत नयन प्रमानकर । तिमि तहां जथारथ जानिके, वृन्दावन परतीति धर ॥ १३२ ॥
(२९) स्व-सामर्थ्यसे ही ज्ञाता-दृष्टा ।
मनहर । ज्ञानी ना प्रदेशतें प्रवेश करै ज्ञेयमाहिं,
तथा व्यवहारसे प्रवेश हू सो करै है । अच्छातीत ज्ञानतें समस्त वस्तु देखे जानें,
पाथरकी रेख ज्यों न संग परिहरै है ॥ जैसे नैन रूपक पदारथ विलोकै वृन्द,
तैसे शुद्ध ज्ञानसों अमल छटा भरै है । मानों सर्व ज्ञेयको उखारिके निगलि जात,
शक्त व्यक्त तासको विचित्र एसो धेरै है ॥ १३३ (३०) ज्ञान-ज्ञेयका दृष्टान्त जैसे इस लोकमें महान इन्द्रनील रत्न,
दूधमाहिं डार तब ऐसो विरतंत है । Saamwamanaraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaaam
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३८ ]
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आपनी आभासतें सफेदी भेद दूधकी सो,
नीलवर्न दूधको करत दरसन है ॥ ताही भांति केवलीके ज्ञानकी शकति वृन्द,
ज्ञेयनको ज्ञानाकार करत लसंत है । निहचै निहारे दोऊ आपसमें न्यारे तौऊ, . व्याप्य अरु व्यापकको यही विरतंत है ॥ १३४ ॥
(३१) उपरोक्त प्रकार पदार्थों कथंचित् ज्ञानमें ।
षट्पद । जो सब वस्तु न लसें, ज्ञान केवलमहँ आनी । तो तब कैसे होय, सर्वगत केवलज्ञानी ॥ जो श्रीकेवलज्ञान, सर्वगत पदवी पायो ।
तो किमि वस्तु न बसहि, तहां सब यो दरसायो । उपचार द्वारतें ज्ञान जिमि, ज्ञेयमाहिं प्रापति कही ।। ताही प्रकारतें ज्ञानमें, वस्तु वृन्द वासा लही ।। १३५ ।
(३२) सभीको जानता, फिर भी सवसे भिन्न ।
___ मनहरण । केवली जिनेश परवस्तुको न गहै तजै,
तथा पररूप न प्रनवै तिहूँ कालमें । जातें ताकी ज्ञानजोति जगी है अकंपरूप,
छायक स्वभावसुख वेवै सर्व हालमें ॥
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सोई सर्व वस्तुको विलोकै जाने सरवंग,
रंच हु न बाकी रहै ज्ञानके उजालमें । आरसीकी इच्छा विना जैसे घटपटादिक, होत प्रतिबिंबित त्यों ज्ञानी गुनमालमें ।। १३६ ॥
दोहा । राग उदयतें संगरह, दोप भावतें त्याग । मोहउदय पर-परिनमन, ऐसे तीन विभाग ॥ १३७ ।। गहन-तजन-परपरिनमन, इनहीतें नित होत । . तास नाशकरिके भयो, केवल जोत उदोत ॥ १३८ । जिनकी ज्ञानप्रभा अचल, यथा महामनि-जोत । प्रथमहिं जो सब लखि लियो, सो न अन्यथा होत ॥ १३९ ॥ जथा आरसी स्वच्छके, इच्छाको नहिं लेश । लसत तहाँ घंटपट प्रगट, यही सुभाव विशेष ॥ १४० । तैसे श्रीसरवज्ञके, इच्छाको नहिं अस । निरइच्छा जानत सकल, शुद्धचिदातम हंस ॥ १४१॥ ऐसे श्रीसर्वज्ञ हैं, ज्ञान भान अमलान । वृन्दावन तिनको नमत, सदा जोरि जुगपान ॥ १४२ ॥
श्रुतज्ञानी-केवलज्ञानीमें कथंचित् समानता ।
। मत्तगयन्द । जो भवि भावमई श्रुतिते, निज आतमरूप लखै सरवंगा.। ज्ञायकभावमई वह आप, निजौ-परको पहिचानत चंगा ।
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कविवर वृन्दावन विरचित
सो श्रुतिकेवली नाम कहावत, जानत वस्तु जथावत अंगा । लोकप्रदीप रिपीपुरने, इहिभांति भनी भ्रमभान प्रसंगा । १४३॥
मनहरण । निरदोष गुनके निधान निरावनज्ञान,
ऐसे भगवान ताकी वानी सोई वेद है । ताके अनुसार जिन जान्यो निजआतमाको,
सहित विशेष अनुभवत अखेद है ॥ सोई ध्रुतिकेवली कहावै जिन आगममें,
आपापर जाने भले भरम उछेद है । केवली प्रभूके पत्तच्छ इनके पगेच्छ,
ज्ञायक शकतिमाहिं इतनो ही भेद है !!१४४ ॥ केवलीके आवरन नाशते प्रतच्छ ज्ञान,
वेदे एक काल सुन्दसंपत अनंत है । इनके करम आवरनत करम लिये,
जेतो जानपनो तेतो वेदै सुखसंत है ॥ कोऊ भानु उदै देख सकल पदारथको,
कोऊ दीखे दीपद्वार थोरी वस्तु तंत है । जानत जथारथ पदारथको दोऊ वृन्द,
प्रतच्छ परोच्छहीको मेद वरतंत है ।।१४५।। जैसे मेघावर्नतें वखाने भानुविभाभेद,
जोतिमें विमेद माने प्रगट लवेद है। एक ज्ञानवारामें नियारा पंचभेद तैसे,
नानत क्रिया में तहाँ भेदको निषेद है ॥
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केवलीके आवरन नाशतें प्रतच्छ ज्ञान,
इनके परोच्छ श्रुतिद्वारतें सुवेद है । सांचे सरधानी दोऊ राचे रामरंगमाहिं, कोऊ परतच्छ कोऊ परोच्छ अछेद है ॥ १४६ ॥
तोटक । हूँ इहि भांति जिनागममाहिं कही। श्रुतिकेवलि लच्छन दच्छ गही ॥ निज आतमको दरसे परसै । अनुभौ रसरंग तहां बरसें ॥ १४७ ॥ है
दोहा। शब्दब्रह्मकरि जिन लख्यो, ज्ञानब्रह्म निजरूप । ताहीको श्रुतिकेवली, भाषतु हैं जिनभूप ॥ १४८॥ (३४ ) श्रुतज्ञान भी ज्ञान ही है ।
मत्तगयन्द । है श्री सरवज्ञहदम्बुधितें, उपजी धुनि जो शुचि शारद गंगा । है सो वह पुग्गलद्रव्यमई, भई अंग उपंग अभंग तरंगा ॥ है ताकहँ जो पहिचानत है, सोइ ज्ञान कहावत भावश्रुतंगा । सूत्रहुको गुरुज्ञान कहैं, सो विचार यहाँ उपचार प्रसंगा ॥१४९॥ (३५) ज्ञान और आत्माका एकत्व ।
षट्पद । जो जाने सो ज्ञान, जुदो कछु वस्तु न जानो । आतम आपहि ज्ञान, धर्मकरि ज्ञायक' मानो ॥ ज्ञानरूप परिनचे, स्वयं यह आतमरामा । सकल वस्तु तसु बोधमाहिं, निवसैं करि धामा ॥
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जद्यपि संज्ञा संख्यादित, भेद प्रयोजनक्श कहा । तद्यपि प्रदेशते मेद नहिं, एक पिंड चेतन महा ॥१५०॥
मनहरण । जैसे घसिहारो घास काट लोह दांतलेसों,
तहां करतार क्रिश साधन नियाग़ है । तैसे आतमावि न मेद है त्रिभेदरूप,
यहाँ तो प्रदेशतें अमेद निराधारा है ॥ संज्ञा संख्या लच्छन प्रयोजन वस्तुको,
अनन्तधर्मरूप सिद्ध साधन उचारा है । गुणी गुणमाहिं जो सरवथा विमेद माने, तहां तो प्रतच्छ दोष लागत अपारा है ॥ १५१ ॥
मत्तगयन्द। १ आतमको गुन ज्ञानते मिन्न, वखानत हैं केई मृट्ट अभागे । है दो विधि बात कहो तिनसों, वह ज्ञान विराजत है किहि जागे । हैं जो जड़ों गुन ज्ञान बसै, तब तो जड़ चेतनता-पढ़ पागे । जीवहिमें जो बसै गुन ज्ञान, तो क्यों तुम गाल बजावन लागे ॥१५२॥ ।
मनहरण । जैसे आग दाहक-क्रियाको करतार ताको,
उप्णगुन दाहक-क्रियाको सिद्ध करे है । तैसे आतमाकी क्रिया ज्ञायकसुभाव तासु,
ज्ञानगुन साधन प्रधानता आचरै है ॥ विवहार दिष्टते विशिष्ट है विभेदं वृन्द,
निहचै सुदिष्टसों अमेद मुधा झरै है ।
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__ आप चिन्मूरत अखंड द्रव्यदृष्टि ताके, । सत्ता गुन भेदतें अनंत धारा धेरै है ॥ १५३ ।।
दोहा । निरविकल्प आतम दरब, द्रव्यदृष्टिके द्वार । जब गुन परज विचारिये, तब बहु भेद पसार ॥ १५४ ॥ जेते वचनविकल्प हैं, ते ते नयके भेद । सहित अपेच्छा सिद्ध सब, रहित अपेच्छ निषेद ॥ १५५ ।। जहां सरवथा पच्छकरि, गहत वचनकी टेक । तहाँ होत मिथ्यात मत, सधत न वस्तु विवेक || १५६ ॥. तातें दोनों नयनिको, दोनों नयनसमान । जथाथान सरधानकरि, वृन्दावन सुख मान. ॥ १५७ ॥ जहां अपेच्छा जासुकी, तहां ताहि करि मुख्य । करो सत्य सरधान दिढ़, स्यादवाद रस चुख्य ॥ १५८॥ . है सामान्य विशेषमय, वस्तु सकल तिहि काल । सो इकंतसों सधत नहिं, दूषन लगत विशाल ॥ १५९ ॥ . तातें यह चिद्रूपको, प्रनवन है गुन ज्ञान । ज्ञानरूप वह आप है, चिदानंद भगवान ॥ १६० ।। (३६ ) ज्ञान-ज्ञेयका वर्णन ।
षट्पद । - पूरवकथित प्रमान, जीव ही ज्ञान सिद्ध हुव । . ज्ञेय द्रव्य कहि त्रिविधि, विविध विधि भेद तासु ध्रुव ॥ चिदानंदमें द्रव्य, ज्ञेय दोनों पद सोहै ।। अन्य पंच जड़वर्ग, ज्ञेय पदवी तिनको है ॥
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४४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
यह आतम जानत सुपरको, ज्ञान वृन्द परकाश धर ।। परिनामरूप सनबंध है, ज्ञाता ज्ञेय अनादिकर ॥ १६१॥
जदपि होय नट निपुन, तदपि निजकंध चढे किमि । तिमि चिनमूरति ज्ञेय, लखहु नहिं लखत आप इमि || यों संशय जो करै, तासुको उत्तर दीजे ।
सुपर प्रकाशकशक्ति, जीवमें सहज लखीजे ॥ जिमि दीप प्रकाशत सुघटपट, तथा आप दुति जगमगत । तिमि चिदानंद गुन वृन्दमें, स्वपरप्रकाशक पद पगत ॥ १६२ ।।
चौपाई। हैं ज्ञेय त्रिधातमको यह अर्थ । भाषा श्रीगुरुदेव समर्थ ॥ है भूत अनागत वरतत जेह । परजय भेद अनंते तेह ॥ १६३ ।। है अथवा उतपतिव्ययध्रुवरूप । तथा द्रव्यगुनपरज. प्ररूप ॥
सुपर ज्ञेयके जे ते भेद । सो सब जानत ज्ञान अखेद ॥ १६४ ॥ है ज्ञानरूप . अरु ज्ञेयस्वरूप । द्रव्यरूप यह है चिद्रूप ॥ है और पंच जड़वर्जित ज्ञान । सदा ज्ञेयपद धरै निदान ॥ १६५॥ है आतमज्ञान जोतिमय स्वच्छ । स्वपर ज्ञेय तहँ लसत प्रतच्छ । हैं वंदो कुन्दकुन्द मुनिराय । जिन यह सुगम- सुमग दरसाय ॥ १६६ ॥ है (३७) द्रव्योंकी भूत-भावी पर्यायें भी वर्तमानवत
और ज्ञानमें : पृथक्-पृथक् ज्ञात होती है ।
मनहरण:! . जेते परजाय षद्रव्यनके होय गये,
अथवा भविष्यत जे सत्तामें विराजें हैं । . है. ते ते सब भिन्न भिन्न सकल विशेषजुत,
शुद्ध ज्ञान भूमिकामें ऐसे छबि छाजें हैं ।
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प्रवचनसार
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जैसे ततकाल वर्तमानको विलोकै ज्ञान, .. तैसे भगवान अविलोक महाराजै हैं। भूतभावी वस्तु चित्रपटमें निहारें जैसे, गहै ज्ञान ताको तैसे तहां भ्रम भाजें हैं ॥१६७।
दोहा । .. वर्तमानके. ज्ञेयको, जो · जानत है ज्ञान । तामें तो शंका नहीं, देखत प्रगट प्रमान ॥१६८॥ भूत भविण्यत पर्ज तो, है ही नाही मित्त ! तब ताको कैसे लखै, यह भ्रम उपजत चित्त -॥ १६९॥ • वाल अवस्थाकी कथा, जब उर करिये याद । तब प्रतच्छवत होत सव, यामें नाहिं विवाद ॥ १७०॥ . अथवा भावी वस्तु जे, वेदविदित सवं ठौर । . तिनहिं विचारत ज्ञान तहँ, होत तदाकृति दौर ॥१७१॥ बाहूबलि भरतादि जे, ऽतीत पुरुष परधान। . अथवा श्रेणिक आदि जे, होनहार भगवान ॥ १७२ ॥ तिनको चित्र विलोकतै, ऐसो उपजत ज्ञान । ' . जैसे ज्ञेय प्रतच्छको, जानत ज्ञान महान। १७३ । छंदमस्थनिके ज्ञानकी, जहँ ऐसी गति होय । जानहिं भूत भविष्यको, वर्तमानवत · सोय ॥ १७४ ॥ तव जिनके आवरनको, भयौ सरवथा नाश । प्रगट्यो ज्ञान अनंतगत, सहजः शुद्ध परकाश ॥१७५॥ तिनके भूत भविष्यं जे, 'परजै भेद अनंत । छहों दरवके लखनमें, शंका ' कहा रहंत ॥१७६।।
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यह सुभाव है ज्ञानको, जब प्रनवत निजरूप । तब जानत जुगपत जगत, त्रिविधि विकालिकभूर ॥१७७ । ऐसे पग्म प्रकाशमहँ, शुद्ध बुद्ध जिमि अर्क । तास प्रगट जानन विपैं, कैसे उपजै तर्क ॥ १७८॥ अपने वस्तुस्वभावमें, राजै वस्तु समस्त । निज सुभावमें तर्क नहिं, यह मत सकल प्रशस्त ॥ १७९ ॥ (३८) अविद्यमान पर्यायोंका भी कथंचित् विद्यमानत्व ।
दोहा । जे परजे उपजे नहीं, होय गये पुनि जेह । असद्भूत है नाम तसु, यो भगवान भनेह ॥१८०॥ ते सब केवलज्ञानमें, हैं प्रतच्छ गुनमाल । ज्यों चौबीसी थंभमें, लिखी त्रिकालिक हाल ॥ १८१॥ (३९) उनके भी ज्ञान प्रत्यक्षत्व ।
द्र मिला। जिस ज्ञानविर्षे परतच्छ समान, भविष्यत भूत नहीं झलकै । परजाय छहों विधि द्रव्यनके, निहचै करके सब ही थलकै ॥ तिस ज्ञानकों कौन प्रधान कहै, भवि वृन्द विचार करो भलकै । वह तो नहिं पूज पदस्थ लहै, न निकालिकज्ञेय जहाँ ललकै ।
(४०) इन्द्रियज्ञानकी तुच्छता ।
_ काव्य ( मात्रा २६) जो इन्द्रिनसों भये आप सनबन्ध पदारथ । तिनको ईहादिकन सहित, जो जानत सारथ ॥
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सो जन वस्तु परोच्छ तथा, सूच्छिम नहिं जाने । मतिज्ञानीकी यही शकति, जिनदेव बखाने ॥ १८३ ॥
मनहरण । इन्द्रिनके विषय जे विराजत हैं थूलरूप,
तिनसों मिलाप जब होय तब जाने हैं। अवग्रह ईहा औ अवाय धारणादि लिये,
क्रमसों विकल्पकरि ठीकता सो माने हैं ॥ . भूतभावी परजै प्रमान औ अरूपी वस्तु,
इन्द्रिनतें सर्व ये अगोचर प्रमाने हैं। जातें इन गच्छिनिको अच्छतें न ज्ञान होत,
ताहीसेती अच्छज्ञान तुच्छ ठहराने है ॥ १८४ ।।
(४१) अतीन्द्रिय ज्ञानकी महानता । अप्रदेशी कालानु प्रदेशी पंच अस्तिकाय,
मूरतीक पुग्गल अमूरतीक पांच है । तिनके अनागत अतीत परजाय भेद,
नाना भेद लिये निज निज थल माच है ।। सर्वको प्रतच्छ एक समैहीमें जाने स्वच्छ,
अतीन्द्रियज्ञान सोई महिमा अवाच है । वारबार बंदत पदारविंदताको वृन्द, जाको पद, जानेंतें न नाचै कर्मनाच है ॥ १८५॥
सर्वया छन्द । इन्द्रियजनित ज्ञानहीने जे, मतवाले माने सरवज्ञ । सो तौ प्रगट विरोध बात है, पच्छ छांडि परखौ किन तज्ञ ॥
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सूक्ष्मान्तरित दूरके द्रव्यनि, सों न प्रतच्छ लखै अलपज्ञ । यातें निरावरन निरदूपित, छायक ही ज्ञानी सारन ॥ १८६ । (४२) उस ज्ञानमें ज्ञेयार्थ परिणमन लक्षण क्रिया नहीं है।
षट्पद । जो ज्ञाता परिनवे, ज्ञेयमें विकलप धारै । तिहिको छायकज्ञान, नाहिं यों जिन उच्चारै ।। वह विकलपजुत वस्तु, वृन्द अनुभव न कर है ।
मृगतृष्णा इव फिरत, नाहिं संतोप धेरै है ॥ तातै विकलपजुतज्ञानको, नहिं छायकपदवी परम । यह पराधीन इन्द्रियजनित, वह सुबोध आतमधरम || १८७ ॥ (४३) संसारीके दोष वहाँ नहीं है।
मिला। भगवन्त भनी जगजंतुनिको, जब कर्मउदै इत आवत है । । तब राग विरोध विमोहि दशा करि, नूतन वंध बढ़ावत है दिढ़ आतम जोति जगै जिनको, तिनको रस दै खिर जावत है । नहिं नूतन बंध बंधै तिनको, इमि श्रीगुरु वन्द बतावत है ॥१८८॥ (४४) केवली भगवान अबंध ही हैं।
मनहरण । तिन अरहंतनिके इच्छाविना क्रिया होत,
___ कायजोग बैठन उठन डग भरनो । दिव्यध्वनि धारासों दुधारा धर्म भेद भने, .
____ताहीके अधारा भवपारावार तरनो ॥
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मायाचार नारिनिमें नारिवेद-उदै जैसे । . , केवलीके तैसे औदयिकक्रिया वरनो ॥ देखो ! मेघमाला नाद करत रसाला उठि । चलत विशाला तैसे तहाँ उर धरनो ॥ १८९ ॥
दोहा । . प्रश्नः--पूछत शिष्य विनीत इत, विन इच्छा भगवान ।
दिच्छा शिच्छा देत किमि, उठत चलत थितिठान ।। १९०॥ उत्तरः-सुविहायोगत कर्म है, चलन-फिरनको हेत ।
सोई निज रस दै खिरत, उठत चलत थिति लेत ॥ १९१॥ बिन इच्छा जिमि चलत है, मेघ पवनके जोग । आरज श्रीअरहंत तिमि, विहरहिं कर्म-नियोग ।। १९२ ॥ भाषा-प्रकृति उदोत लगु, वानी खिरत त्रिकाल । स्वतः अनिच्छा रूपते, तहाँ अलौकिक चाल ॥ १९३ ।। रसन दशन हालै न कछु, लगत न ओठ लगार । विकृति होत नहि अंगको, महिमा अपरंपार ॥ १९४ ॥
अष्ट स्थानकतै 'वरन, · उपजत संजुतशोर । जिनध्वनि वर्जित तासते, जथा मेघ घनघोर ॥ १९५॥ सो जब तहाँ पुनीत जन, पूछहिं सन्मुख आय । दिव्यध्वनि तब खिरत है, निमित तासुको पाय ॥ १९६ ॥ निमित और नैमितकको, बन्यो बनाव अनाद । . सब मत मानत बात यह, यामें नाहिं विवाद ॥ १९७ ॥
९ १: वर्ण अक्षर ।
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५० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
चिंतामनि अरु कल्पतरु, ये जड़ प्रगट कहाहिं । मनवांछित संकल्प किमि, सिद्धि करहिं पलमाहि ॥ १९८ ॥ पारस निज गुन देत नहिं, नहिं परौगुन लेत । किमि ताको परसत तुरत, लोह कनकछवि देत ॥ १९९ ॥ इच्छारहित अनच्छरी, ऐसे जिनधुनि होय । उठन चलन थितिकरनमें, यहां न संशय कोय ॥ २०० ॥ (४५) कर्म विपाकका अकिंचित्करत्व
मनहरण । पुण्यहीको फल है शरीर अरहंतनिको, ____ फेरि तिन्हैं सोई कर्म उदै जब आवै है ।
तबै काय वैन जोग क्रियाको उदोत होत, ___ जथा मेघ बोले डोलै वारि बरसावै है ॥
जाते मोह आदिको सरवथा अभाव तहाँ, ___ तातै वह क्रिया वृन्द छायकी कहावै है ।
पूर्वबंध खिरो जात नूतन न बँधे पात, ___ छायकीको ऐसोई सुमेद वेद गावै है ॥ २०१॥ है
चौपाई। है चार भांति करि वंध विभागा। प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभागा ।
जोगद्वारतें प्रकृति प्रदेशा। थिति अनुभाग मोहकृत भेपा ॥ है है जहां मूलते मोह विनाशै। तहँ किमि थिति अनुभाग प्रकाशै । हूँ पूरवबंध उदै जो आवै । सो निज रस दैके खिरि नावै ॥२०३॥
दोहा। भानु वसत आकाशमें, जलमें जलन वसंत । किमि ताको अवलोकते, विकसित होत तुरन्त ।।२०४ ॥
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प्रवचनसार
[ ५१
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अस्त गभस्त विलोकते, चकवा तिय तजि देत । लखहु निमित नैमतिकको, प्रगट अनाहत हेत ॥२०५॥ तैसे पुण्यनिधानके, प्रश्न होत परमान । जिनधुनि खिरत अनच्छरी, इच्छारहित महान ॥ २०६॥ जैसे शयन दशावि0 कोड करि उठत प्रलाप । विनु इच्छा तमु वचन तहँ खिरत आपतै आप ॥२०७॥ जब इच्छाजुतको वचन, खिरत अनिच्छा येम । तब सो वचनखिग्न विपैं, इच्छाको नहिं नेम ॥ २०८ ॥ चिंतामनि सुरवृच्छतें, गुनित अनंतानंत । शक्ति सुखद जिनदेहमें, सहज सुभाव लसंत ॥२०९ ।। जैसी जिनकी भावना, तैसी तिनकों दीस । धुनि धारासों विस्तरत, इन्द्र धरत सत शीस ॥२१० ॥ अब जिहि विधि वरनातमक, होत सुधारण धार । ताको सुनि शरधा करो, ज्यों पावो भवपार ।। २११ ।। श्रीगनधर वर रिद्धिधर, सुनहिं सुधुनि अमलान । तिनहकी मतिमें सकल, बानी नाहिं समान ॥२१२ ॥ जेतो मतिभाजन तितो, 'वयन गही गनईश । वीस अंक परमान श्रुति रची ताहि नुतशीस ॥ २.१३ ॥ ताहीके अनुसार पुनि, और सुगुरु निरग्रंथ ।
रचना जिनसिद्धांतकी, रचहिं सुखद शिवपंथ ॥२१४ ॥ १. वचन ।
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५२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
चौपाई। हूँ आतमराम शुद्ध उपयोगी । अमल आतंद्री आनंदभोगी । है तिनकी क्रिया छापकी वरनी । 'वृन्दावन' बन्दत भक्तरनी ॥२१५ ॥ (४६) संसारी और केवलीमें असमानत्व
माधवी। है नदि आतम आप सुभावहिते, स्वयमेव शुभाशुभरूप न होई । है तदि तौ न चहै सब जीवनिके, जगजाल दशा चहिये नहिं कोई ॥ १ नत्र वंध नहीं तव भोग कहां. जो वैधै सोई मोगवै भोग तितोई । है यह पच्छ प्राच्छ प्रमानतें साधते. खंडन सांख्यमतीनिकी होई ।२१६॥
छन्द सवैया (सांत्यमतीका लक्षण)। है सांख्य कहै संगरवि थित, जीव शुभाशुभ करै न भाव । हैं प्रकृति करै करमनिको ताजौ, फल भुगतै चिन्मूरति-व ।। ई तहां विरोध प्रगट प्रतिभासत, विना किये कैसे फल पात्र । है जातें जो करता सो मुक्ता, यही राजमारगको न्याव ॥ २१७ ॥ (४७) सर्वज्ञपनेसे अतीन्द्रियज्ञानकी महिमा
अशोक पुष्प मंजरी । वर्तमानके गुनौ समस्त पर्ज वा,
मविष्य भूतकालके जिते अनंतनंत हैं। सच दबके सवंग जे विचित्रता तरंग,
अंतरंग चिन्ह मिन्न मिन्न सो दिपंत हैं | एक ही समै सु एक बार ही लख्यौ तिन्हें,
प्रतच्छ अंतग छेद स्वच्छता घरंत हैं।
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प्रवचनसार
[५३
छायकीय ज्ञान है यही त्रिलोकवंद वृन्द, जो समौ विषम्यमें समान भासवंत है ॥२१८ ।।
(समविषमकथन )-मनहरण । कोऊ द्रव्य काइके समान न विराजत है,
याहीत विषम सो वखानै गुरु ग्रंथमें । मति श्रुति औघ मनपर्जके विषय तेऊ,
विषम कहावत छयोपशम पंथमें ॥ सर्व कर्म सर्वथा विनाशिके प्रतच्छ स्वच्छ,
छायक ही ज्ञान सिद्ध भयौ श्रुति मंथमें । सोई सर्व दर्वको विलोकै एकै समैमाहि, महिमा न जासकी समात 'ग्रंथकथमें ।२१९ ॥
(४८) जो सभीको नहीं जानता वह एकको भी नहिं जानता।
मनहरण । तीनोंले.कमाहिं जे पदारथ विराज तिहूँ,
कालके अनंतानंत जासुमें विमेद है। तिनको प्रतच्छ एक समैहीमें एक बार,
जो न जानि सके स्वच्छ अंतर उछेद है। सो न एक दर्वहूको सर्व परजायजुत,
जानिवेकी शक्ति धेरै ऐसे भने वेद है। ताः ज्ञान छायककी शक्ति व्यक्त वृन्दावन,
सोई लखै आप-पर सर्वभेद छेद है ॥ २२० ॥ १. अवधिज्ञान । २. ग्रंथरूपी कथामें-वस्त्रमें ।
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५४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
(४९) एकको नहीं जानता वह सभीको भी नहीं जान सकता।
मत्तगयन्द। है जो यह एक चिदातम द्रव्य, अनन्त धरै गुनपर्यय सारो । है ताकहँ जो नहिं जानतु है, परतच्छपने सरवंग सुधारो । है सो तब क्यों करिके सब द्रव्य, अनंत अनंत दशाजुत न्यारो । १ एकहि कालमें जानि सकै यह, ज्ञानकी रीतिको क्यों न विचारो ॥२२१॥
मनहरण । घातिकर्म घातके प्रगट्यो ज्ञान छायक सो,
दर्वदिष्टि देखते अमेद सरवंग है । ज्ञेयनिके जानिवतें सोई है अनंत रूप,
ऐसे एक औ अनेक ज्ञानकी तरंग है ॥ तातें एक आतमाके जानेहीतें वृन्दावन, ___ सर्व दर्व जाने जात ऐसोई प्रसंग है। केवलीके ज्ञानकी अपेच्छाते कथन यह,
मथन करी है कुन्दकुन्दजी अभंग है ॥ २२२ ॥ (५०) क्रमिक ज्ञानमें सर्वज्ञताका अभाव
अरिल्ल । जो ज्ञाताको ज्ञान अनुक्रमको गंही,
वस्तुनिको अवलंबत उपजत है सही । सो नहिं नित्य न छायक नहिं सरवज्ञ है,
पराधीन तमु ज्ञान सो जन अलपज्ञ है ।। २२३ ॥
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प्रवचनसार
[ ५५
(५१) सर्वज्ञ ज्ञानकी महिमा
मनहरण । तिहूँकालमाहिं नित विषम पदारथ जे, ____सर्व सर्वलोकमें विराजे नाना रूप है। एकै बार जानै फेरि छाँडै नाहिं संग ताको, ___ 'संगकी सी रेखा तथा सदा संगभूप है ॥ अमल अचल अविनाशी ज्ञानपरकाश,
सहज सुभाविक सुधारसको कूप है। श्री जिनिंददेवजूके ज्ञान गुन छायककी, ___ अहो भविवृन्द यह महिमा अनूप है ॥ २२४ ॥
कोऊ मूरतीक कोऊ मूरतिरहित द्रव्य, ___ काहुके न काय कोऊ द्रव्य कायवंत है । कोऊ जरूप कोऊ चिदानंदरूप याते, __सर्व दर्व सम नाहिं विषम भनंत है ॥ तिनके त्रिकालके अनंत गुनपरजाय,
नित्यानित्यरूप जे विचित्रता धरंत है । सर्वको प्रतच्छ एक समैमें ही जाने ऐसे ___ ज्ञानगुन छायककी महिमा अनंत है ॥ २२५॥
सर्वज्ञतारूप ज्ञप्तिक्रिया होने पर भी वन्धनका अभाव
मनहरण । शुद्ध ज्ञानरूप सरवंग जिनभूप आप,
सहज-सुभाव-सुखसिंधुमें मगन है ॥ १. पत्यरकी रेखा। ।
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५६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
तिन्हैं परवस्तुके न जानिवेकी इच्छा होत, ___ जाते तहाँ मोहादि विभावकी भगन है । तातै पररूप न प्रनवै न गहन करे, ___ पराधीन ज्ञानकी न कबहूँ जगन है ॥ ताहीत अबंध वह ज्ञानक्रिया सदाकाल, आतमप्रकाशहीमें नासकी लगन है ॥२२६ ॥
दोहा । क्रिया दोइ विधि वरनई, प्रथम प्रज्ञप्ती जानि । ज्ञेयारथ परिवरतनी, दूजी क्रिया वखानि ॥ २२७ ॥ अमलज्ञानदरपन वि., ज्ञेय सकल झलकंत । प्रज्ञप्ती है नाम तसु, तहां न बंध लसंत ॥ २२८ ॥ ज्ञेयारथ परिवरतनी, रागादिकजुत होत । जैसो भावविकार तहँ, तैसो बंधउदोत ॥ २२९ ॥
पद्धतिका-पद्धड़ी। (अधिकारान्त मंगल) ज्ञानाधिकार यह मुकतिपंथ । गुरु कथी सारश्रुतिसिंधु मंथ ।। मुनि कुदकुंदके जुगल पांय । वृन्दावन वन्दत शीस नाय । इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारजीकी
वृन्दावनकृत भाषामें प्रथम ज्ञानाधिकार पूरा भया ।
ASHOMEZAGALIZAZAEREASIZEDAZOLICIZE5:37AMZ6352252CTICARCIRZZX23:2033zczzes.
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१. (फ प्रतिमें) " मिती कार्तिक कृष्णा १४ चौदश संवत् १९०५
वुधवारे (ख प्रतिमें) संवत् १९०६ चैत्र शुक्ला पूर्णमास्याम् मन्दवासरे।" इस प्रकार लिखा है ।
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प्रवचनसार
[५७
अथ द्वितीयसुखाधिकारः प्रारभ्यते ।
मंगलाचरण । चरनकमल कमला बसत, सारद सुमुखनिवास । देवदेव सो देव मो, कमला वागविलास ॥१॥ श्रीसरवज्ञ प्रनाम करि, कुन्दकुन्द मुनि वंदि । वरनों सुखअधिकार अब, भवि उर-भरम निकंदि ॥ २॥ (१) गाथा-५३ कौनसा ज्ञान, सुख और हेय
उपादेय है ?
मनहरण । 'अर्थनिकेमाहिं जो अतीन्द्रीज्ञान राजत है,
सोई तो अमूरतीक अचल अमल है । बहुरि जो इन्द्रिय जनित ज्ञान उपजत,
सोई मूरतीक नाम पावत समल है ॥ ताही भांति सुखहू अतीन्द्री है अमूरतीक,
इन्द्रीसुखमूरतीक सोऊ न विमल है। दोऊमें परम उतकृष्ट होय गहो ताहि,
सोई ज्ञान सुख शिवरमाको .कमल है ॥ ३ ॥ अतीन्द्रियज्ञान सुख आतमसुभाविक है,
एक रस सासतो अखण्ड धार बहै है । शत्रुको विनाशिके उपज्यो है अवाधरूप, . __ सर्वथा निजातमीक-धर्मको गहै है ॥
१. पदार्थोमें।
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५८]
कविवर वृन्दावन विरचित
इन्द्रीज्ञानसुख पराधीन है विनाशिक है,
ताते याको हेय जानि ऐसो गुरु कहे है । ज्ञानसुखपिंड चिनमूरति है वृन्दावन,
धर्मीमें अनंत धर्म जुदे-जुदे रहे है ॥ ४ ॥ (२) गाथा-५४ अतीन्द्रिय मुखके कारणरूप
__ अतीन्द्रिय ज्ञानकी उपादेयता और प्रशंसा । जाकी ज्ञानप्रभामें अमूरतीक सर्व दव, ____तथा जे अतीन्द्रीगग्य अनू पुद्गलके । तथा जे प्रछन्न द्रव्य क्षेत्र काल भाव चार, ___सहितविशेष वृन्द निज निज थलके ॥
और निज आतमके सकल विमेद भाव, ___ तथा परद्रव्यनिके जेते मेद ललके । ताही ज्ञानवंतको प्रतच्छ स्वच्छ ज्ञान जानो,
जामें ये समस्त एक समेहीमें झलके ॥५॥ (३) गाथा-५५ इन्द्रियसुखका कारणस्प ज्ञान
हेय है-निंद्य है । जीव है मुभावहीत स्वयंसिद्ध अमूरत, ___द्रव्य द्वार देखते न यामें कछु फेर है ।
सोई फेर निश्चैसों अनादि कर्मबंध जोग, ___ मरतीक दीखे जैसो देहको गहे · रहै ॥ ताही मूरतीकतें मुजोग मूर्त पदारथ, __ तिनको अवग्रहादिकते जानते रहै ॥
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प्रवचनसार
[ ५९
अथवा छयोपशममन्दता भयेते सोई,
थूल मूरतीक हू न जानत किते रहै ॥ ६ ॥
दोहा । देह घरेसे आतमा, द्रव्येद्रिनिके द्वार । निकट थूल मूरत दरव; तिनको जाननिहार ॥ ७ ॥
अथवा छय उपशम धेरै, निपट निकट जे वस्त । . तिनहुँ न जानि सकै कभी, यह जगविदित समस्त ॥ ८ ॥ पंचिन्द्रिनिके विषयको, जानि अनुभवै सोय । इन्द्रियसुख सो जानियो, मूरतीकमें होय ॥९॥ यातें ज्ञानी सुख दोऊ, वसहिं सदा इक संग ।। मूरतिमाहिं मूरतिक, इतरमाहिं तदरंग ॥ १० ॥ फरस रूप रस गंध अरु, श्रवनिद्रिनिके भोग । ज्ञानद्वारतें जानिके, सुख अनुभव तपयोग ॥ ११ ॥ यात ज्ञानरु सौख्यको, अविनाभावी संग । चिद्विलासहीमें बसत, उपजहि संग उमंग ॥ १२ ॥ इन्द्रियज्ञानरु सौख्य जिमि, मूरतीकमें जान । तथा अतिन्द्रियज्ञान सुख, वसत अतिंद्रियथान ॥ १३ ॥ कहा कहों नहिं कहि सकों, वचनगम्य नहिं येह । अनुभव नयन उघारि घट, वृन्दावन लखि लेह ॥ १४ ॥
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फविवर वृन्दावन विरचित
(जीवदशा ) मनहरण । अनादित महामोह मदिराको पान किये, ___ठौर टौर करत राहनेको काम है ।
अज्ञान अँघारमें सँभार न शकति निज, ___ इन्द्रिनिके लारे किये देहहीमें धाम है ॥ लपटि झपटि गहे मूरतीक भोगनिको, ___ शुद्धज्ञान दशा सेती भई बुद्धि, वाम है । ऐसी मूरतीक ज्ञान परोच्छकी लीला वृन्द,
भापी कुन्दकुन्द गुरु तिनको प्रनाम है ॥ १५ ॥ (४) गाथा-५६ इन्द्रियाँ मात्र अपने विपयोंमें भी एक साथ अपना काम नहिं कर सकती
अतः वह हेय ही हैं।
पट्पद । फरस रूप रस गंध, शब्द ये पुग्गलीक है। पंचेन्द्रिनिके जथाजोग ये, भोग ठीक हैं । सब इन्द्री निजभोगन, जुगपत गहन कर है ।
छय उपशम क्रमसहित, भोग अनुभवत रहें है ॥ ज्यों काक लखत दो नग्नतें, एक पूतली फिरनिकर । जुगपत नव मेदि सलखि सकत, त्यों इन्द्रिनिकी रीति तर ॥ १६ ।
जीव जीभके स्वादमाहिं, जिहिकाल पगें है । अन्येंद्रिनिके मोगमें न, तत्र भाव लो है ॥ निज निज रस सब गहें, जदपि यह सकति अच्छमह । तदपि न एक काल, सकल रस अनुभवते तहँ ॥
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प्रवचनसार
[ ६१
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रस वेदहिं क्रमहीसों सभी, छ्य उपशमकी सकति यहि । जांत परोच्छ यह ज्ञान है, पराधीन मूरति सु गहि ॥ १७ ॥
दोहा । यह परोच्छ ही ज्ञानतें, इन्द्रिनिको रस जान । चिदानंद सुख अनुभवहि, जेतो ज्ञान प्रमान ॥ १८ ॥ तात ज्ञानरु सुख दोऊ, हैं परोच्छ परतंत । मूगतीक बाधा सहित, यातें हेय भनंत ॥ १९ ॥ (५) गाथा-५७ इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है।
छन्द सवैया। जे परदस्खमई हैं इन्द्री, ते पुद्गलके वने वनाव । चिदानंद चिद्रूप भूपको, यामें नाहीं कहूं सुभाव ॥ तिन करि जो जानत है आतम, सो कि.मि होय प्रतच्छ लखाव । पराधीन तात परोच्छ यह, इन्द्रीजनित ज्ञान ठहराव ॥२०॥
मत्तगयन्द । हूँ पुद्गलदर्वमई सव इन्द्रिय, तासु सुभाव सदा जड़ जानो । है आतमको तिहुंकाल वि, नित चेतनवंत सुभाव प्रमानो ॥ है तो यह इन्द्रियज्ञान कहो, किहि भांति प्रतच्छ कहाँ ठहरानो । है तातै परोच्छ तथा परतंत्र, सु इन्द्रियज्ञान भनौ भगवानो ॥२१॥ (६) गाथा-५८ परोक्ष-प्रत्यक्षके लक्षण ।
मनहरण । परके सहायतें जो वस्तुमें उपजै ज्ञान,
सोई है परोच्छ तासु मेद सुनो कानते । जथा उपदेश वा ज्योपशम लाभ तथा,
पूर्वके अभ्यास वा प्रकाशादिक भानते ॥
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६२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
और जो अकेले निज ज्ञानहीतें जानें जीव,
सोइ है प्रतच्छ ज्ञान साधित प्रमानते । जातें यह परकी सहाय विन होत वृन्द, ___ अतिंद्रिय आनंदको कंद अमलानते ॥ २२ ॥ (७) गाथा-५९ अब प्रत्यक्षज्ञानको पारमार्थिक सुख दिखाते हैं।
मनहरण । ऐसो ज्ञानहीको 'सुख' नाम जिनराज कह्यो,
जौन ज्ञान आपने सुभावहीसों जगा है । निरावर्नताई सरवंग नामें आई औ जु,
अनंते पदारथमें फैलि जगमगा है ॥ विमल सरूप है अभंग सरवंग जाको,
जामें अवग्रहादि क्रियाको क्रम भगा है । सोई है प्रतच्छ ज्ञान अतिंद्री अनाकुलित,
याहीतै अतिंद्रियसुख याको नाम पगा है ॥ २३ ॥ (८) गाथा-६० अब केवलज्ञानको भी परिणामके द्वारा दुःख होगा ? समाधान
मत्तगयन्द । १ केवलनाम जो ज्ञान कहावत, है सुखरूप निराकुल सोई । हैं ज्ञायकरूप वही परिनाम, न खेद कहूं तिन्हिके मधि होई ।। ई खेदको कारण घातिय कर्म, सो मूल नाश भयो मल धोई । १ यात अतिन्द्रिय ज्ञान सोई, सुख है निहचै नहिं संशय कोई ॥ २४ ॥
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प्रवचनसार
मनहरण । घातिया करम यही ज्ञानमाहिं खेद करै ___ जात मोहउदै मतवालो होत आतमा । झूठी वस्तुमाहि बुद्धि सांची करि धावतु है,
खेदजुत इन्द्री विषै जानै बहु भातमा ॥ जाके घाति कर्मको सरवथा विनाश भयो, ___ नग्यो ज्ञान केवल अनाकुल विख्यातमा । त्रिकालके ज्ञेय एक बार चित्रभीतवत, ___ जानै जोई ज्ञान सोई सुख है अध्यातमा ॥ २५॥ (९) गाथा-६१ केवलज्ञान सुख स्वरूप है।
मत्तगयन्द । केवलज्ञान अनन्तप्रभात, पदारथके सब पार गया है । लोक अलोकविष जसु दिष्टि, विशिष्टपनें विसतार लया है ॥ सर्व अनिष्ट विनष्ट भये, औ जु इष्ट सुभाव सो लाभ लया है । यात अभेद दशा करिकै यह, ज्ञानहिको सुख सिद्ध ठया है ॥२६॥
दोहा । जब ही घाति विघातिके, शुद्ध होय सरवंग । ज्ञानादिक गुन जीवके, सोई सौख्य अभंग ॥२७॥ निजाधीन जानै लखै, सकल पदारथ वृन्द । खेद न तामैं होत कछु, केवलजोति सुछन्द ॥२८॥ तात याही ज्ञानको, सुखकरि बरनन कीन । भेदविविच्छा छांडिके, कुन्दकुन्द परवीन ॥ २९ ॥
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कविदर वृन्दावन विरचित
(१०) नाया-६२ कंवलियोंके ही पारमार्थिक
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नावी। है जिनको यह बानियक्रम विधानिक, केवल जोति अनन्त फुरी है । है उखने उजनिष्ट अतीन्द्रिय सौन्थ्य, निन्, मन्वंग ममंग पुरी है । हैं जिसनो न अमत्र्य प्रतीत करें, पुनि दूर हु मध्यकी बुद्धि दुरी है । है यह बात कही शरवा परि हैं, जिनके मक्की यिनि आनि जुरी है। ३०॥
दोहा। इन्द्रीमुखजुन मुक्ति ने, नानहिं मह अयान । तिनको मत अनन्दंड रि, श्रीगुरु हनी निशान ॥ ३१ ।। (११) गाया-६३ अपारमार्थिक इन्द्रियमुख ।
मावनी । नर इन्द्र सुगर इन्द्रनिको, सहजे जब इन्द्रियरोग सजावे । तब पीड़ित होनर गोगनको, नित मोग मनोगननाहिं ना ॥ तहाँ चाहकी वाह नवीन वई, वृतआहुनिमें जिनि आगि जगावे । सहजानंद व विलस विना, नहिं मोशने सो प्यास बुझाने ।
हा । वर्गविमें इन्द्रादिको इन्द्रियमुन्न भरपूर । लोउ द बाधासहित, सहजानने दूर .। ३३ ॥ चा इन्त्रीजनित सुद्ध हेयल्प पहिचान । ज्ञानानन्द अनच्चमुत, करो मुबारस पान ॥ ३४ ॥
४ १. इन्द्रियों को । २. मनोज । ३. त्याव्य ।
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प्रवचनसार
[६५
(१२) गाथा-६४ इन्द्रियोंके आलंवनमें स्वाभाविक
दुःख ही है।
पट्पद । . जिन जीवनिको विषयमाहि, रतिरूप भाव है । तिनके उरमें सहज, दुःख दीखत जनाव है ॥ जो सुभावतें दुःखरूप, इन्द्री नहिं होई ।
तो विषयनिके हेत, करत. व्यापार न कोई ॥ _ 'करि 'मच्छ द्विरेफ "शलभ, हरिन, विषयनि-वश तन परहरहिं ।
यातें इन्द्रीसुख दुखमई, कही सुगुरु भवि उर धरहिं ॥ ३५॥ (१३) गाथा-६५ सिद्धभगवानको शरीर विना भी सुख है, संसारदशामें शरीर सुखका साधन नहीं ।
मनहरण । संसार अवस्थामें विभाव सुभावहीसों,
यही जीव आप सुखरूप छवि देत है । जाते पंच इन्द्रिनिको पायकै मनोग भोग,
ताको रस ज्ञायक सुभावहीसों लेत है । देह तो प्रगट जड़ पुग्गलको पिंड तामें,
ज्ञायकता कहां जाको सुभाव अचेत है । ताते जक्त मुक्त दोऊ दशामाहिं वृन्दावन,
. सुखरूप भावनिको आतमा निकेत है ॥ ३६॥
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१ त्याज्य । २ हाथी । ३ मछली । ४ प्रमर । ५ पतंग । ६ भव्यजीव ।
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कविवर वृन्दावन विरचित
(१४) गाथा-६६ यही बात दृढ़ करते हैं। सर्वथा प्रकार देवलोकहूमें देखिये तो,
देह ही चिदातमाको सुख नाहिं करै है । जद्दपि सुरग उतकिष्ट भोग उत्तम औ,
वैक्रियक काय सर्व पुण्य जोग मरै है ॥ तहाँ विषयनिके विवश भयो जीव आप,
आप ही सुखासुखादि भावनि आदरै है । ज्ञायक सुभाव चिदानंदकंदहीमें वृन्द, '
ताँत चिदानंद दोऊ दशा आप धरै है ॥ ३७॥ है १५) गाथा-६७ जीव स्वयमेव सुख परिणामकी शक्तिवान् होनेसे विपयोंका अकिंचनत्व ।
चौबोला। जिन जीवनिकी तिमिर हरनकी, जो सुभावसों दृष्टि.... ।। तौ तिनको दीपक प्रकाशतें, रंच प्रयोजन नाहिं चहै ॥ तैसे सुखसुरूप यह आतम, आप स्वयं सरवंग लहै ।। तहाँ विषय कहा करहिं वृन्द जहँ, सुधा सुभाविकसिंधु बहै ॥३८॥ (१६) गाथा-६८ आत्माका सुखस्वभाव है-दृष्टान्त ।
मत्तगयन्द । है ज्यों नभमें रवि आपुहितै, धरै तेज प्रकाश तथा गरमाई । हैं देवप्रकृत्ति उदै करिकै, इस लोकविपैं वह देव कहाई ॥ है ताही प्रकार विशुद्ध दशा करि, सिद्धनिके मुनिवृन्द बताई ।
ज्ञानरु सौख्य लसे सरवंग, सो देव अभंग नमों सिरनाई ॥३९॥
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प्रवचनसार .
प्रवचनसार
[६७
__ मनहरण । प्रभा और उष्ण तथा देवपद, तीनों ही विशेषनिको ,धेरै मारतंड है । तैसे परमातममें सुपरप्रकाशक,
अनंतशक्ति चेतन सो ज्ञानगुनमंड है ॥ तथा आतमीक तृप्ति अनाकुल थिरतासों,
सहज सुभाव सुखसुधाको, उमंड है। आतमानुभवीके सुभाव शिलामाहिं सो, उकीरमान, जक्तपूज्य देवता अखंड है ॥१०॥
दोहा । अतिइन्द्री सुखको परम, पूरन भयो विधान । कुन्दकुन्द मुनिको करत, वृन्दावन नित ध्यान ॥४१॥ इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारजीकी
वृन्दावनकृतभाषामें दूसरा सुखअधिकार पूर्ण भया ।
१ संवत् १९०५ कार्तिक शुक्ला ५ बुधवासरे । १ १ ऐसा ही ख प्रतिमें है।
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६८]
कविवर वृन्दावन विरचित
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ओनमः सिद्धेभ्यः । अथ तृतीयज्ञानतत्त्वाधिकारः लिख्यते ।
__ मंगलाचरण । दोहा । वंदों - श्रीसर्वज्ञपदं, ज्ञानानंद सुचेत ।
जसु प्रसाद वरनन करों, इन्द्रिय सुखको हेत ॥ (१) गाथा-६९ इन्द्रियसुख और उसके साधन (शुभोपयोग)का स्वरूप ।
मत्तगयन्द । जो जन श्रीजिनदेव-जती-गुरु, -पूजनमाहिं रहै अनुरागी । चार प्रकारके दान कर नित, शील विपैं दिढ़ता मन पागी ॥ आदरसों उपवास करै, समता परिकै ममता मद त्यागी। सो शुभरूपपयोग धनी, वर पुण्यको वीज चवै बड़भागी ॥१॥ (२) गाथा-७० शुभोपयोग साधन उनका साध्य
इन्द्रियसुख।
- कवित्त (३१ मात्रा) शुभपरिनामसहित आतमकी, दशा सुनो भवि वृन्द सयान । उत्तम पशु अथवा उत्तम नर, तथा देवपद लहै सुजान ॥ थिति परिमान पंच इन्द्रिनिके, सुख विलसै तित विविध विधान । फेरि भ्रमै भवसागरहीमें, तात शुद्धपयोग प्रधान ॥२॥ (३) गाथा-७१ इसप्रकार उसे दुःखमें ही डालते हैं।
__ मत्तगयन्द । देवनिके अनिमादिक रिद्धिकी, वृद्धि अनेक प्रकार कही है । तौ भी अतिंद्रियरूप अनाकुल, ताहि सुभाविक सौख्य नहीं है।
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प्रवचनसार
[ ६९
। यो परमागममाहिं कही गुरु, और सुनो जो तहाँ नित ही है । १ देहवियाकरि भोग मनोगनिमाहि, रमै समता न लही है ॥ ३ ॥ है (४) गाथा ७२ अब शुद्धोपयोगसे विलक्षण अशुद्ध उपयोग अतः शुभ-अशुभमें अविशेषता ।
मत्तगयन्द । है जो नर नारक देव पशू सब, देहज दुःखवि अकुलाही ।
तो तिनके उपयोग शुभाशुभको, फल क्यों करिकै विलगाहीं ॥
जाते निजातम पर्म सुधर्म, अतिंद्रिय शर्म नहीं तिनपाहीं । है तो भविवृन्द विचार करो अब, कौन विशेष शुभाशुभंमाहीं ॥ ४ ॥
दोहा । शुभपयोग देवादि फल, अशुभ दुखदफल नर्क । शुद्धातम सुखको नहीं, दोनों में संपर्क ॥५॥ तव शुभ अशुभपयोगको, फल समान पहिचान । कारजको सम देखिकै, कारन हू सम मान ॥६॥ ताते इन्द्रीजनित सुख, साधक शुभउपयोग । अशुभपयोग समान गुरु, वरनी शुद्ध नियोग ॥ ७ ॥ (५) गाथा-७३ सुखाभासकी अस्ति ।
अशोक पुष्पमंजरी। वज्रपानि चक्रपानि. जे प्रधान जिक्तमानि,
ते शुभोपयोगनै भये जु सार भोग है । तासुते शरीर और पंच अच्छपच्छको,
सुपोपते बढ़ाते रमावते मनोग है ॥ १. जगन्मान्य ।
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७० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
लोकमें विलोकते सुखी समान भासते,
जिथैव जोंक रोगके विकारि रक्तको गहै । चाह दाहसों दहै न सामभावको लहै,
निजातमीक धर्मको तहां नहीं संजोग है ॥ ८ ॥ (६) गाथा ७४ पुण्य तृप्णा-दुःखकारी है।
कवित्त (३१ मात्रा) जो निहचै करि शुभपयोग , उपजत विविध पुण्यकी रास । । स्वर्गवर्गमें देवनिके वा, भवनत्रिकमें प्रगट प्रकास ॥ । तहाँ तिन्हें तृष्णानल वाढत, पाय भोग-घृत आहुति ग्रास । । जातै वृन्द सुधा-समरस विन, कबहुँ न मिटत जीवकी प्यास ॥९॥ __ (७) गाथा ७५ पुण्यमें तृष्णा बीज वृद्धिको
प्राप्त होते हैं।
___ मनहरण । देवनिको आदि लै जितेक जीवराशि ते ते,
विषैसुख आयुपरजंत सब चाहें हैं। . वहुरि सो भोगनिको बार वार भोगत हैं,
तिशना तरंग तिन्हैं उठत अथाहैं हैं ॥ आगामीक भोगनिकी चाह दुख दाह बढ़ी,
तासुकी सदैव पीर भरी उर माहैं हैं। जथा जोंक रकत विकारको तब लों गहै,
जौलों शठ प्राणांतदशाको आय गाहैं हैं ॥१०॥
१. यथा एव = जैसे ही। २. साम्यभाव = समता।
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प्रवचनसार
[७१
(८) गाथा-७६ पुण्यजन्य इन्द्रियसुखका बहुत
प्रकारसे दुखत्व।
कुण्डलिया। इन्द्रियजनित जितेक सुख, तामें पंच विशेष । पराधीन वाधासहित, छिन्नरूप तमु भेष ॥ छिन्नरूप तसु भेष, विषम अरु बंध बढ़ावै । यही विशेषन पंच, पापहमें ठहरावै ॥ तब अबको बुधिमान, चहै इन्द्रीसुख गिंदी । तातें मजत विवेकवान, सुख अमल अतिंदी ॥ ११ ॥ (९) गाथा-७७ पुण्य-पाप कथंचित् समान हैं।
मत्तगयन्द । पुण्यरु पापवि नहिं मेद, कछू परमारथौं ठहरै है। हैं जो इस भांत न मानत है, बहिरातम बुद्धि वही गहरे है ॥ है सो जन मोह अछादित होय, भवोदधि घोर विर्षे लहरै है । है ताहि न वार न पार मिले, दुखरूप चहूंगतिमें हहरै है ।। १२ ।। है जैसे शुभाशुभमें नहिं भेद, न भेद भने सुख दुःखकेमाहीं । ताही प्रकारतें पुण्यरु पापमें, भेद नहीं परमारथठाहीं ॥
जाते जहाँ न निजातम धर्म, तहां चित्त चाहकी दाह सदाहीं । है तातें सुरिंदहिमिंद नरिंदकी, संपतिको चित्त चाहत नाहीं ॥ १३ ॥
पद्धतिका । (पद्धरी छंद) १ जे जीव पुण्य अरु पापमाहिं । माने विभेद हंकार गाहिं । है 'हेमाहनकी बेड़ी समान । हैं बंध प्रगट दोनों निदान ॥ १४ ॥ १ १. मुवर्ण और लोहा।
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७२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
र परिपूरन जे धर्मानुराग । अवलंबै शुद्धपयोग त्याग ।
ताके फलते अहमिन्द इन्द । नर इन्द संपदा हैं वृन्द । १५ । तहाँ भोग मनोग शरीर पाय । विलसे, सुख बहुविधि प्रमित आय । तित आकुलता दुःख मिटें नाहिं । तब कहो कहाँ” सुखी आहिं ॥१६॥ (१०) गाथा-७८ पुण्य-पापमें बंधनत्व समान ही है। निर्णय करके राग-द्वेष-दुखको हटानेकी ।
दृढता-शुद्धोपयोगका ग्रहण । .
. मत्तगयन्द। . . . : . १ जो नर या परकार जथारथ,-रूप पदारथको उर आनै ।. । रागविरोधमई परिनाम, कभी परद्रव्य वि नहिं ठाने ।। । सो उपयोग विशुद्ध धरे, सब देहज दुःखनिको नित माने । A आनंदकंद-भाव-सुधामधि, लीन रहै तिहि वृन्द प्रमानै ॥ १७ ॥
दोहा। 'आहनते 'दाहन विलग, खात न घनकी घात । त्यों चेतन तनराग विनु, दुखलव दहत न गात । १८ ॥ तातें मुझ चिद्रूपको, शरन शुद्धउपयोग । होहु सदा जानै मिटै, सकल दुखद. भवरोग ॥ १९ ॥ (११) गाथा-७९ मोहक्षयकी तैयारी
मत्तगयन्दः । पाप अरंभ सभी परित्यागिके, जो शुभचारितमें वरतंता । है जो यह मोहको आदि अनादिके, शत्रुनिको नहिं त्यागत. संता ॥
१. लोहा। २. अग्नि।
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प्रवचनसार
[ ७३
* तो वह शुद्ध चिदानंद संपति,-को तिरकाल विौं न लहन्ता । । याही से मोह महारिपुकी, रमनी दुरखुद्धिको त्यागहिं संता ॥ २० ॥
दोहा । तात साध्यसरूप है, शुद्धरूप उपयोग ताके बाधक मोहको, दिढ़तर तजिवो जोग ॥२१॥ जो शुभ ही चारित्रको, जाने शिवपद हेत । तो वह कबहुं न पाय है, अमल निजातम चेत ॥ २२ ॥ (१२) गाथा-८० उसे जीतनेका उपाय
हरिगीतिका । दरव-गुन-परजायकरि, अरहंतको जो जानई । घातिदल दलमल सकल, तसु अमलपद पहिचानई ।। सो पुरुष निज नित आत-भीक स्वरूपको जान सही । तासके निहचैपनैसों, मोह नाश लहै यही ॥२३॥
मनहरण । जैसे चारै बानीको पकायो भयौ चामीकर, ___ सर्वथा प्रकार होत शुद्ध निकलंक है ।
तैसे शुद्ध ध्यानानल जोगते करममल, ___ नासिके अमल अरहंत जू अटंक है ॥ तिनके दरवमें जु ज्ञानादि विशेषन हैं,
तिनहीको गुन नाम भाषत निशंक है। एक समै मात्र कालके प्रमान चेतनके, . __ पर्नतिको भेद परजाय सो अवंक है ॥ २४ ॥
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७४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
ऐसे द्रव्य गुन परजाय अरहंतजूको, .
प्रथम अपाने. मनमाहिं अवधारै है । पीछे निज आतमको ताही भांति जानिकै, ___ अभेदरूप अनुभव दशा विसतारै है ॥ त्रिकालके जेते परजाय गुन आतमाके,
तेते एके कालमाहिं ध्यावत उदौर है । ऐसे जब ध्याता होय ध्यावै निज आतमाको,
वृन्दावन सोई मोह कर्मको विदारै है ॥२५ ।। जैसे कोऊ मोतिनिको हार उर धोरै ताको, ___ भेद छांडि शोभाको अभेद सुख लेत है । तैसे अरहंतके समान जान आपरूप, __ अभेद सरूप अनुभवत सचेत है ॥ चेतना परजके प्रवाहतें अभेद ध्यावे,
तथा चित्प्रकाशगुनहको गोपि देत है ॥ केवल अभेद आतमीक सुख वेदै तहां,
करता करम क्रिया भेद न धरेत है ॥२६॥ जैसें चोखे रत्नको अकप निर्मल प्रकाश,
तैसे चित्प्रकाश तहाँ निश्चल लहत है। जब ऐसी होत है अवस्था तब भेद छेद,
चेतनता मात्र ही सुभावको गहत है ॥ मोह अंधकार तहां रहै कौनके अधार, ___ भानुको उजास तथा तिमिर दहत है । यही है उपाय मोह बाहिनीके जीतिबेको,
वृन्दावन ताको शरनागत चहत है ॥२७॥
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प्रवचनसार
[७५
१ (१३) गाथा-८१ चिंतामणि प्राप्त किया किन्तु है प्रमाद-जो चोर है-इसप्रकार विचार कर
विशेष जागृत रहता है।
माधवी। है जिस जीवके अंतर तिहुरंतर, दूर भया यह मोह मलाना । ई निज आतमतत्व जथारथकी, तिनके भई प्रापति वृन्द निधाना ॥
बदि जो वह रागरु दोष प्रमाद, कुमावहुको तजि देत सयाना । सदि सो वह शुद्ध निजातमको, निहचै करि पावत है परधाना ।।
दोहा। यात मोह निवारिके, पायौ करि बहु जल । आतमरूप अमोल निधि, जो चिन्तामणि रत्न ।। २९ ।। ताके अनुभवसिद्धके, बाधक रागरु दोष । इनहूँको जब परिहर, तब अनुभवमुख पोष ॥ ३०॥ नाहीं तो ये चोर ठग, लटें अनुभव रत्न । फिर पीछे पछिताय है, तातें करु यह जन ॥ ३१॥ सावधान वरतौ सदा, आतम अनुभवमाहिं ।
राग-द्वेपको परिहरो, नहिं तो ठग ठगि जाहिं ॥ ३२ ।। (१४) गाथा-८२ यह एक उपाय है जोकि भगवन्तोंने __ स्वयं अनुभव करके दर्शाया वही मोक्षका
सत्यार्थ पंथ है।
मनहरण । ताही सुविधान करि तीरथेश अरहंत, ___ सर्व कर्म शत्रुनिको मूलते विदारी है ।
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कविवर वृन्दावन विरचित
तिसी भांति देय उपदेश भव्य वृन्दनिको, ___ आप शुद्ध सिद्ध होय वरी शिवनारी है । सोई शिवमाला विराजतु है आज लगु,
अनादिसों सिद्ध पंथ यही सुखकारी है । ऐसे उपकारी सुखकारी अरहंतदेव,
मनवचकाय तिन्हैं वन्दना हमारी है ॥ ३३ ॥ (७५) गाथा-८३ लूटेरा मोह उसका स्वभाव और भेद है
मनहरण । जीवको जो दवगुनपर्जविर्षे विपरीत,
अज्ञानता भाव सोई मोह नाम कहा है । किनकके खाये बउरायेके समान होय,
जथारथज्ञान सरधान नाहिं लहा है ॥ ताही 'हगमोहत अछादित हो चिदानंद, ___पर द्रव्यहीको निजरूप जानि गहा है । तामें रागद्वेषरूप भाव धरै धाय धाय, ___ याहीते जगतमें अनादिहीसों रहा है ॥ ३४ ॥ अनादि अविद्या विसारि निजरूप मूढ़,
परदर्व देहादिको जानै रूप अपना । इष्टानिष्ट . भाव परवस्तुमें सदैव करे,
वे तो ये स्वरूप याकी झूठी है कलपना ॥ जथा नदीमाहिं पुल पानीकी प्रबलतासों,
दोय खंड होत तथा भावकी जलपना । १. धतूरा । २. दर्शन मोहिनीसे।
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प्रवचनसार
[७७
एक मोह त्रिविध त्रिकंटक सुभाव धेरै,
झूठी वस्तु सांची दरसाव जथा सपना ।। ३५।। (१६) गाथा-८४ तीनों प्रकारके मोहको अनिष्ट कार्यका कारण मानकर क्षय करनेका
कहा जाता है।
पट्पद ।
मोह भावकरि तथा, राग अरु दोष भावकर । जब प्रनयत है जीव, तबहि बंधन लहंत तर ॥ विविधांतिके भेद, तासु बंधनके भाखे । जाके पल संसार, चतुर्गतिमें दुख चाखे । तात मोहादि त्रिभावकों, सत्तासों अब छय करौ । है जोग यही उपदेश सुनि, भविक वृन्द निज उर धरौ ॥ ३६॥
पुनः । दृष्टान्त । जथा मोहकरि अध, वनज गज मत्त होत जब । आलिंगन जुतप्रीति, करिनिको धाय करत तब ॥ तहां और गज देखि, द्वेषकरि सनमुखधावत । तृणादित तब कृपमाहिं, परि संकट पावत || यह मोह गग अरु द्वेष पुनि, बंध दशाको प्रगट फल । गजपर निहारि निजपरपाखि, तनहु त्रिकंटक मोह मल ।। ३७ ॥
दोहा । तांति इस उपदेशको, सुनो मूल सिद्धंत ।
मोह राग अरु द्वेषको, करौ भली विधि अंत |॥ ३८ ॥ १. जंगली हाथी । २. हस्तिनी ।
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७८ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
(१७) गाथा-८५ उनके चिन्ह यह हैं--पहिचानकर
नष्ट करने योग्य ।
द्रु मिला। अजथारथरूप पदारथको, गहिकै निहचे सरधा करिवो । है पशुमानुषमें ममता करिकै, अपने मनमें फरुना घरियो । है पुनि भोगवि मह इष्ट-अनिष्ट, विभावप्रसंगनिको भरियो । हैं यह लच्छन मोहको जानि भले, मिल्यौ जोग है इन्हें हरिवो ॥३९॥
दोहा । तीन चिह्न यह मोहके, सुगुरु दई दरसाय । 'वृन्दावन ' अव चूक मति, जड़तें इन्हें खपाय ॥ ४० ॥ (१८) गाथा-८६ मोहक्षयका अन्य उपाय ।
मनहरण । परतच्छ आदिक प्रमानरूप ज्ञानकरि,
सरवज्ञकथित जो आगमनै जाने है । सत्यारथरूप सर्व पदारथ 'वृन्दावन',
ताको सरधान ज्ञान हिरदैमें आने है ॥ नेमकरि ताको मोह संचित खिपत जात, ___जाको भेद विपरीत अज्ञान विधान है। तातै मोह शुत्रुके विनासिवेको भलीभांति, __आगम अभ्यासिवो ही 'जोगता वखानै है ॥ ४१ ॥
१. योग्यता ।
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प्रवचनसार
[७९
(१९) गाथा-८७ जिनागममें पदार्थोंकी व्यवस्था ।
. मनहरण। सर्व दर्वमाहिं गुन परजाय राजत हैं, ___ तहां गुन सदा संग वसत अनंत है । क्रमकरि वर्तत कहावै परजाय सोई,
इन तिनहूको नाम अरथ अनंत है । तामें गुन पर्जको जो सरव अधारभूत, ___ताहीको दरव नाम भापी भगवंत है ।। येही तीनों भेदरूप आतमा विलोको वृन्द,
'जैसे कुन्दकुन्दजीने भाषी विरतंत है ॥ ४२ ॥ द्रव्य गुन पर्जको कहावत अरथ नाम, ___ तहाँ गुन पर्ज करै द्रव्यमें गमन है ॥ तथा द्रव्य निज गुनपर्नमें गमन करे,
ऐसे अर्थ' नाम इन तीनोंको अमन है ॥ जैसे हेम निज गुंन पर्नमें रमन कर, ___ गुन परजाय करें हेममें रमन है । ऐसो मेदाभेद निजआतममें जानो वृन्द,
स्यादवाद सिद्धांतमें दोषको दमन है ॥ ४३ ।।
दोहा।
यातें जिन सिद्धांतको, करो भले अभ्यास । मिटै मोहमल मूलतें, होय शुद्ध परकास ॥ ४४ ॥
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८० 1
कविवर वृन्दावन विरचित
है
(२०) गाथा-८८ मोहक्षयका उपदेशकी प्राप्ति तो है किन्तु पुरुषार्थ अर्थ क्रियाकारी होनेसे
पुरुषार्थ करते हैं।
पटपद । जो जन श्रीजिनराजकथित, उपदेश पाय करि । मोह राग अरु द्वेष, इन्हें घात उपाय धरि ॥ सो जन उद्यमवान, बहुत थोरे दिनमाहीं । सकल दुःखसों मुक्त, होय भवि शिवपुर जाहीं ।। यातें जिनशासन कथनका, सार सुधारस पीजिये । वृन्दावन ज्ञानानंदपद, ज्यों उतावली लीजिये ॥ १५ ॥ (२१) गाथा-८९ भेदज्ञानसे ही मोहका क्षय है अतः स्व-पर विभागकी सिद्धि अर्थ प्रयत्न ।
मनहरण । आतमा दरव ही है ज्ञानरूप सदाकाल, __ज्ञान आतमीक यह आतमा ही आप है । ऐसी एकताई ज्ञान आतमकी वृन्दावन, ___ताको जो प्रतीति प्रीति करै जपै जाप है ॥ तथा पुग्गलादिको सुभाव भलीभांति जाने, ___ जान भेद जैसे जीव कर्मको मिलाप है । सोई भेदज्ञानी निजरूपमें सुथिर होय, ___ मोहको विनासै जात नसै तीनों ताप है ॥ ४६॥ (२२) गाथा-९० यह आगमानुसार करने योग्य है।
तातें जिन आगमतें द्रव्यको विशेष गुन, ____ जथारथ जानो भले भेदज्ञान करिकै । .
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प्रवचनसार
[८१
तामें निज आतमके गुन निजमाहि जानो,
परगुन भिन्न जानो भर्मभाव हरिकै ।। नाना दीप जोत एक भौनमें भरे हे पे,
नियारे सर्व तैसे सर्व दर्व मिन्न भरिक । जो तू मोह नासिके अबाध सुख चाहै तौ तो, ___ आपहीमें आप देख ऐसे ध्यान धरिकै ॥ १७ ॥
दोहा। दरवनिमें दो भांतिके, गुन वरतंत सदीव । हे सामान्य स्वरूप इक, एक विशेष अतीव ॥४८॥ तामें आतमरसिक जन, गुन विशेष उरधार । द्रव्यनिको निरधार करि, सरघा धेरै उदार ॥ ४९ ।। एकक्षेत्र अवगाहमें, हैं पड्दव्य अनाद । निज निज सत्त को धेरै, जुदे जुदे मरजाद ॥ ५० ॥ ज्यों का त्यों जानों तिन्हैं, तामें सों निजरूप । मिन्न लवी सब दर्वत, चिदानंद चिद्रूप ॥५१॥ ताके अनुभवरंगमें, पगो 'वृन्द' सरवंग । मोह महारिपु तुरत तब, होय मूलतें भंग ॥ ५२ ॥ (२३) गाथा-९१ जिन कथित अर्थोकी श्रद्धा विना
धर्मलाभ नहीं होता।
मनहरण । सत्ता सनबंध दोय भांति है दरवमाहिं,
सामान्य विशेष जो कुतर्कसों अबाध है ।
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८२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
जैसे वृच्छजातितै समान सर्व वृच्छ और,
आमनिंब आदितै विशेषता अगाध है ॥ तैसें सत्ता भावकरि सव्व दन अस्ति औ,
विशेष सत्ता लियें सब जुदे निरुपाध है । साधु होय याको जो न निह प्रतीत करे, ताको शुद्ध धर्मको न लाभ सो न साध है ॥५३॥ .
नरेन्द्र । यों सामान्य-विशेष-भावजुत, दरवनिको नहिं जाने । स्वपरभेदविज्ञान विना तब, निज निधि क्यों पहिचान ॥ तो सम्यक्त भाव विनु केवल, दरवलिंगको धारी । तप संजमकरि खेदित हो है, बरै नाहिं शिवनारी ॥५४॥
मनहरण। जैसें रजसोधा रज सोधत सुवर्न हेत,
जो न ताहि सोनाको पिछांन उरमाहीं है । तौ तो खेद वृथा तैसें यहाँ भेदज्ञान विनु,
सुपर पिछा. मुनिमुद्रा जे धराहीं है ।। तप संजमादिक कलेश करै कायकरि,
सो तो शुद्ध आतमीक धर्म न लहाही है । ताके भावरूप मुनिमुद्रा नाहिं वृन्दावन, ऐसे कुन्दकुन्द स्वामी विदित कहा ही है ॥ ५५ ॥
चौपाई। प्रथमाह श्रीगुरुदेव कहा था। १"उवसंपयामी सम्म" गाथा ।
ताकरि साम्यभाव शिव कारन । यह निहचै कीन्हों उर धारन ॥५६॥ ई १-पांचवीं गाथा।
MMMMM
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प्रवचनसार
है फिर कहि सुगुरु सुहित अभिलाषा ।"चारित्त खलुधम्मो" भाषा ।
जोई सामभाव थिर पर्म । शुद्धपयोगरूप सो धर्म ॥५७॥ है ६ पुनि गुरुदेव कही करि करना। "परिणमदि जेण दव्य' विवरुना । हैं ताकरि सामभाव सोई आतम । अति एकतामई परमातम ॥५८॥ हैं फिर गुरु दीनदयाल उदारा । ४'धम्मेण परिणदप्पा' उचारा ।
ताकरि सिद्ध कियो पद पर्म । साम्य शुद्ध उपयोग सुधर्म ॥५९।। ६ इहि विधि शुद्ध धरम परशंसा | शुभ औ अशुभपयोग विध्वंसा । हैं परम अतिन्द्री ज्ञानानंदा। निज स्वरूप पायो निर्वदा ॥६०॥ हूँ अति हि अनाकुल अचल महा है। शुद्धधर्म निजरूप गहा है। तहाँ अकंप जोति निज जागै । वृन्दावन तासों अनुरागै ॥६१॥ (२४) गाथा-९२ आगमकुशल, निहतमोहदृष्टि,
वीतराग चारित्रवतको धर्म कहा है।
मनहरण । जाने मोहदृष्टिको विशिष्टपने घातकरि,
पायो निजरूप भयो सांचो समकिती है । सरवज्ञभाषित सिद्धांतमें प्रवीन अति,
जथारथ ज्ञान जाके हियेमें जगती है ॥ वीतराग चारितमें सदा सावधान रहै,
सोई महामुनि शिवसाधक सुमती है । ताही भावलिंगी मुनिराजको धरम नाम,
विशेषपनेंतें कयो सोई शुद्ध जती है ।। ६२ ।। २-सातवी गाथा । ३-आठवीं गाथा । ४-ग्यारहवीं गाथा ।
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८४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
अनेकांतरूप जिनराजको शबद ब्रह्म,
होउ जयवंत जामें सांचो शिवपंथ है । अनादिकी मोह-गांठि भेदके किनोर करै,
आतमस्वरूप जहाँ पावै भ्रम मंथ है ॥ शुद्ध उपयोग पर्म धर्म जामें लाभ होत,
छूट जाते सर्व कर्म बंधनको कंथ है । वृन्दावन वंदत मुनिंद कुन्दकुन्दजूको, से शिव होत प्रवचनसार ग्रंथ है ॥ ६३॥
दोहा। वंदों श्री जिनराजपद, शुद्ध चिदानन्दकन्द । ज्ञानतत्त्व अधिकार ग्रह, पूरन भयो अमंद ॥ ६४ ॥ इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्री प्रवचनसारजीकी वृन्दावनअग्रवाल गोइलगोत्री काशीवासिकृत भाषामें तीसरा
ज्ञानतत्त्व अधिकार संपूर्ण भया ।। . 'संवत् १९०५ कार्तिक शुक्ला द्वादशी बुधवासरे वृन्दावनने लिखी, प्रथम प्रति है, सो जयवंती वरतौ । श्रीरस्तु।
१. दूसरी प्रतिमें भी इस प्रकार लिखा है।
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प्रवचनसार
५
ओ नमः सिद्धेभ्यः । - अथ चतुर्थ-ज्ञेयतत्त्वाधिकारः ।
तत्र इष्टदेव वन्दना ।
दोहा ।
वन्दों श्रीसर्वज्ञ जो, वर्जित सकलविकार । विधनहरन मंगलकरन, मनवांछित-दातार ॥१॥ ज्ञेयतत्त्वके कथनका, अब अधिकार अरंभ । भीगुरु करत दयालचित, त्यागि मोह मद दंभ ॥२॥ कुन्दकुन्द गुरुदेवके, चरनकमल सिर नाय ।
वृन्दावन भाषा लिखत, निज परको सुखदाय ॥ ३ ॥ (१) गाथा-९३ ज्ञेयतत्व पदार्थका द्रव्य-गुण-पर्याय
स्वरूप वर्णन ।
मनहरण । जेते ज्ञानगोचर पदारथ हैं ते ते सर्व,
दर्व नाम निहचैसों पा, सरवंग हैं । फेरि तिन द्रव्यनिमें अनंत अनंत गुण,
भाषे जिनदेव जाके वचन अभंग हैं ॥ पुनि सो दरव और गुननिमें वृन्दावन,
परजाय जुदी-जुदी वसैं सदा संग हैं । ऐसी दोई भांति परजायको न जानै जोई, सोई मिथ्यामती परसमयी कुढंग हैं ॥४॥
विशेषवर्णन-दोहा ज्ञेय पदारथ है सकल, गुन-परजै संजुक्त । तातें दरव कहावहीं, यह जिनवकी उक्त ॥ ५॥
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८६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
गुन कहिये विस्तारकों, जो चौड़ाईरूप । ___ संग वसत नित दरवके, अविनाभावसरूप ॥ ६॥ .
परजकों आयत कहैं, ज्यों लम्बाई होय । घटै वढे कमसों रहै, भेद तासुके दोय ॥७॥ एक दरव परजाय है, गुनकी परज़ दुतीय । दो दो भेद दुहूनमें, सुनो समरसी जीय ! ॥ ८ ॥
अथ पर्यायभेद कथन-मनहरण । दर्वकी परज दोय भांति यो कथन करी,
एक है समान जाति दूजी असमान है । पुग्गलानु अनेकको खंघ सो समानजाति,
जीव पुदगल मिलें असमानवान है ॥ गुनहूकी दोय परजाय एक सुभाविक,
षटगुनी हानि-वृद्धि जथा जोग ठान है। दूसरो विभाव वरनादि गुन खंधविपैं,
ज्ञानादिक पुग्गलके जोग ज्यों मलान है ॥९॥ वस्त्रहीको पाट जोड़ें होतु है समानजाति,
तथा पुग्गलानु मिलें खंध परजाय है । रेशमी कपासी मिलें होत असमान चीर,
तथा देह जीव पुदगल मिले पाय है ॥ जथा वस्त्र सेत है सुभाव गुन परजाय,
तथा षटगुनी हानि-वृद्धि भेद गाय है । परके प्रसंगसे तरंग ज्यों विभाव त्यों ही,
_ ज्ञानादि परके संग विभाव कहाय है ॥१०॥
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प्रवचनसार
[ ८७
कवित्त । (३० मांत्रा) है इहि विधि दरवनिके गुन परज, मनी जिनागममें तहकीक ।
मेदज्ञानकरि भविक वृन्द दिन, सरधा रुचिसों धैर अधीक ॥ मिथ्यामती न जानै याकों, एक एक नव गहै अठीक । शिवहित हेत अफल करनी तसु, "पीट मूढ़ सांपकी लीक" ॥११॥ (२) गाथा-९४ अब आनुवंगिक ऐसी यह ही स्वंसमयपरसमयकी व्यवस्था (भेद) उपसंहार ।
पट्पद । जे अज्ञानी जीव, देहहीमें रति राचे । अहंकार ममकार घरे, मिथ्यामद माचे ॥ तिनहीको परसमय नाम, भगवंत कहा है ।
अरु जो आतमभाव विर्षे, लवलीन रहा है । तिन आतमज्ञानी जीवको, स्वसमयरत जानो सही । वह चिद्विलास निजरूपमें, रमत वृन्द निज निधि लही ॥ १२ ॥
मनहरण । अनादि अविद्याते आच्छादित है सांचो ज्ञान,
असमान देहहीको जानै रूप अपना । नाना निंद्यक्रियामाहिं अहंममकार करै,
सोई परसमै ताकी झूठी है जलपना । जिनके स्वरूपज्ञान भयो है जथारथं औ, .
मिटी मोह राग दोष भावकी कलपना । एकरूप ज्ञानजोति जगी है अकंप जाके, .
सोई स्वसमंयको न भवाताप तपना ॥ १३ ॥
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कविवर वृन्दावन विरचित
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(३) गाथा-९५ द्रव्यका लक्षण ।
काव्य । जो स्वभाव नहिं तजै, सदा अस्तित्व गहै है ।
औ उतपत व्यय ध्रौव्य,-सहित सब काल रहै है ॥ पुनि अनंतगुणरूप, तथा जो परज नई है । . ताहीको गुरुदेव, दरव यह नाम दई है ॥ १४ ॥
सोरठा । गुन है दोय प्रकार, इक सामान्य विशेष इकं । मुनि समुझो निरधार, सरधा धरि भवदधि तरो ॥ १५ ॥
मनहरण । अस्ति नास्ति एकानेक दम्वत्त परजवत्त,
सर्वासर्वगत सप्रदेशी अप्रदेशी है। मूरत-अमूरत सक्रिया औ अक्रियावान,
चेतन-अचेतन सकर्ता-कर्ता तेसी है ।। भोगता-अभोगता अगुरुलघु ए समान,
दनिके गुन वृन्द गुरु उपदेशी है । अवगाह गति थिति वर्तना मूरतवंत, चेतनता गुन कहे लच्छन विशेषी है ॥ १६ ॥
दोहा। दरवनिके अरु गुननिके, परनतिके जे भेद । , सो परजाय कहावई, समुझो भवि भ्रमछेद ॥ १७ ॥
मनहरण उत्पाद-व्यय धुव गुन' परजाय यही, . . ..लच्छनको धेरै द्रव्य लच्छ नाम पावै है।
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प्रवचनसार
[ ८९
ताहि उतपादादि औ गुन परजायहीतें, ___ लखिये है यानै यह लच्छन कहावै है ॥ किरतार साधन अधार दर्व इनको है, __इन विना द्रव्यहू न सिद्धिता लहावे है । "लच्छ और लच्छनमें जद्यपि विविच्छाभेद,
तथापि स्वरूपते अभेद ठहरा है ॥ १८ ॥ (४) गाथा-९६ दो प्रकार अस्तित्व-स्वरूपास्तित्व,
__ सादृश्यास्तित्व, स्वरूपास्तित्वका कथन । दर्वका सरखकालमाहिं असतित्व सोई,
निहचैसों मूलभूत सहज सुभाव है । सोई निज गुण औ स्वकीय नाना पर्जकरि,
औ उतपाद-व्यय-ध्रौवता लहाव है ॥ करतार साधन अधार दर्व इनको है,
इन विना यह न सिद्धिताकों पाव है। द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकरि सदा एक ही है, __ साधिवेके हेत लच्छ-लच्छन जनाव है ॥१९॥ जैसे द्रव्य-छेत्र-काल-भावकरि कंचनतें, __पीततादि गुन पर्ज कुण्डल न जुदै हैं । करतार साधन अधार याको 'हेम ही है, ___ जाते हेमसत्ता विना इनको न उदै है ॥ कुण्डलको नाश उतपाद होत कंकनको,
• हेमद्रव्य ध्रौव्य गुन पीतादि समुदै है । १. कर्ता। २. करण। ३. अधिकरण। ४. जिसका लक्षण किया
जावे । ५. पर्याय । ६. सुवर्ण-मोना ।
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९० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
तैसे सर्व दर्व निज गुन परजाय तथा, ___ उतपाद व्यय ध्रुव सहित प्रमुदै है ॥२०॥
दोहा। । दरव स्वगुनपरजायकरि, उतपत-चय,-धुव-जुत्त । रहत अनाहतरूप नित, यही स्वरूपास्तित्त ॥ २१ ॥ पर दरवनिके गुन २परज, तिनसों मिलती नाहिं ।। निज स्वभावसत्ताविपैं, प्रनमन सदा कराहिं ॥ २२ ॥ (५) गाथा-९७ सादृश्य-अस्तित्वका कथन ।
मनहरण। नाना परकार यहां लच्छनके भेद राजै, ___ तामें एक सत सर्व दर्वमाहिं व्याप है ।
ऐसे सरवज्ञ वस्तुको स्वभाव धर्म कह्यो, ___ जो सरव दर्वको सदृशकरि थापे है ॥ जैसे वृच्छ जातिकी सदृश और सत्ता और, __ लच्छन विशेषकरि जुदी-जुदी तापै है । मुख्य मौन द्वारतें अदोष वन्द सर्व सधै, सामान्य विशेष धर्मधारी दर्व आपै है:॥ २३ ॥
दोहा। . सहजस्वरूपास्तित्वकरि, जुदे-जुदे सब दर्व । निज-निज गुन लच्छन धरै, है विचित्र गति पर्व ॥ २४ ॥ अरु सादृश्यास्तित्वकरि, सब थिर थपन अबाध ।
सत लच्छनके गहनतें, यही एक निरुपाध ॥२५॥ १. स्वरूपास्तित्व । २. पर्याय । .
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प्रवचनसार
[ ९१
तिहूँकालमें जासको, बाधा लगै न कोय । सोई सतलच्छन प्रबल, सब दरवनिमें होय ॥२६॥
(६) गाथा-९८ किसी द्रव्य से अन्य द्रव्यकी उत्पत्ति नहीं और द्रव्यसे अस्तित्व कोई पृथक् नहीं है ।
__ मनहरण । अपने सुभावहीसों स्वयंसिद्ध द्रव्य नित,
निजाधार निजगुणपरजको मूल है । सोई है सत्तास्वरूप ऐसे जिनभूप कयौ,
तत्त्वभूत वस्तुको स्वभाव अनुकूल है ॥ द्रव्यको स्वभावरूप सत्ता गुन 'वृन्दावन',
प्रदेशते मेद नाहिं दोऊ समतुल है । आगम प्रमान जो न कर सरधान याको, सोई परसमयी मिथ्याती ताकी भूल है ॥२७॥
दोहा । जदपि जीव पुदगल मिले, उपजहिं बहु परजाय । तदपि न नूतन दरवकी, उतपति वरनी जाय ॥२८॥
मनहरण। द्रव्य गुनखान तामें सत्ता गुन है प्रधान,
गुनी-गुनको यहाँ प्रदेशभेद नाहीं है। . संज्ञा संख्या लच्छन प्रयोजन” द्रव्यमाहिं,
कथंचित भेद पै न सर्वथा कहाहीं है ॥
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९२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
दंडके धरेतें जैसे दंडी तैसे यहां नाहिं, ___ यहां तो स्वरूपते अभेद ठहराही है । दर्वको सुभाव है अनंत गुनपर्जवंत, ___ताको सांचो ज्ञान भेदज्ञानी वृन्दपाही है ॥ २९ ॥ जब परजायद्वार दरव विलोकिये तो, ____ गुनी गुन भेदनिकी उठत तरंग है ॥ और जब दर्वदिष्ट देखिये तो गुनीगुन,
भेदभाव डूबै रहै एक रस रंग है ॥ जैसे सिन्धुमाहिं भेद जद्दपि कलोलिनितें,
निहचै निहारै वारि सिंधुहीको अंग है । तैसे दोनों नैनके समान दोनों नयननितें,
वस्तुको न देखै सोई मिथ्याती कुढंग है ॥ ३० ॥
(७).गाथा-९९ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होने पर
भी द्रव्य 'सत्' है। अपने सुभावपरनतिविधै सदाकाल,
तिष्ठतु है सत्तारूप वस्तु सोई दर्व है। द्रव्यको जो गुनपरजायवि. परिनाम,
निश्चैकरि ताहीको स्वभाव नाम सर्व है ॥ सोई धुव-उतपाद-वय इन भावनित, ___ सदा सनबंधजुत राजत सुपर्व है। ऐसी एकताई कुन्दकुन्दजी बताई वृन्द, ___ वन्दतु है तिन्हैं सदा त्यागि उर गर्व है ॥३१॥
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प्रवचनसार
विशेष वर्णन। चौपाई। दरवनिको गुनपरजयरूप । जो परिनाम होत तद्रूप । ताको नाम सुभाव भनन्त । सो धुव-उतपत-वयजुत तंत ॥ ३२ ॥ एक दरवके जथा कहेस । चौड़े सूक्ष्म अनेक प्रदेश । त्यों प्रनवनरूपी परवाह | लंबाई क्रमसहित अथाह ॥ ३३ ॥
मनहरण । दनिके परदेश चौड़ाई समान कहे, ___ जाते ये प्रदेश सदाकाल स्थायीरूप हैं।
पर्नत प्रवाह ताकी क्रमहीत होत तातें, ___ लम्बाई समान याको सुगुरु प्ररूप हैं । जेते हैं प्रदेश ते ते निज-निज थानहीमें,
पुम्बकी अपेच्छा उतपन्नमान भूप हैं। आगेकी अपेच्छा व्ययरूप औ दरव एक, सर्वमाहि यातें ध्रुव अचल अनूप है ॥ ३४ ॥
दोहा । या प्रकार परदेशको, उतपत-वय-ध्रुव जान । जथाजोग सरधा धरो, अब सुन और वखान ॥ ३५ ॥
मनहरण । जैसे परदेशनिको त्रिधारूप सिद्ध करी,
तैसे परिनामहूको ऐसे भेद कहा है । पहिले समैके परिनाम उतपादरूप,
पीछेकी अपेच्छा सोई वयभाव गहा है ॥
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९४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
सदा एक दर्वके अधार परवाह वहै, ___ तातै द्रव्य द्वारतें सो ध्रौव्य सरदहा है। ऐसे उतपाद-वय-धुवरूप परिनाम, ___ दर्वको सुभाव निरुपाय सिद्ध लहा है ॥ ३६॥ . जैसे मुकताफलकी माला सूतमाहि पोयें,
तेजपुंज मंजु नाना मोतिनिकी दाना है । पुत्र-पुत्र दानेकी अपेच्छा आगे आगेवाले,
उतपाद पाछेवाले वयकरि माना है ॥ एकै सूत सर्वमाहिं तासकी अपेच्छा धुव,
तैसे दर्वमाहिं तीनों साधत सयाना है। ऐसे नित्यानित्य लच्छ लच्छन अबाध सधैं,
धन्य जैनवैन स्यादवाद जाको वाना है ॥३७॥ (८) गाथा-१०० उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका परस्पर
अविनाभाव दृढ़ करते हैं ।
मत्तगयन्द । अभंग विना न वनै कहुं 'संभव, संभव हू विन भंग न हो है । 0 औ निहचै विनु ध्रौव पदारथ, व्यै उतपाद कहूँ नहिं सोहै ॥
ज्यों मृतपिंडते कुंभ बने, धुव दर्व दोऊमहूँ .. एकहि हो है ।। त्यों सब दर्व निधातम लच्छन, जानत वृन्द विचच्छन जो है ॥३८॥
चौपाई। वय विनु नाहिं होत उतपादं । उतपत विना:न व्यय मरजादं । उतपत वय विनु ध्रौव्य न होई । धुव विन उतपत वय हुन जोई ॥३९॥ १. व्यय ( नाश ) । २. उत्पाद ।
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पवचनसार
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नते जो उनग्न मोई । बोई नाश मोई उतपन है । ओ उनपर कम है धुव मेई । जो धुव सो उनपत व्यय होई ॥१०॥
मनहरण । से 'मृपिटको विनाम 'कंग उनपात,
दोनों परजाय भरे दर्य 'धुव देखिये । पिना पाडाय पहूँ दर्व नादि सरवथा,
दस मिना पाजाय हुन हूँ पेखिये ॥ तति उनादादि म्वरूप दर्व आपही है,
स्वयंसिद्ध भलीभांति सिद्ध होत लेन्विये । यामें एक एक ग म लन्छ दोष लगे, चन्दावन तात त्रिधा लच्छन परेखिये ॥४१॥
पट्पद । केवल ही उनपाद कहैं. दो दूपन गा । उपादान काग्न-विहीन, घट कर्म न छाजे ।। प्रौव्य यन्तु विनु जो मूरख, उतपाद बताये।
सो अकागके फूल, बांझमुन मौर बनात्र ।। जो केवल ही वय मानिये, नौ उत्पति विनु नास किमि । पुनि धौव्यवस्नक नासन, ज्ञानादिक गुन नास तिमि ।। ४२ ॥
जो केवल धुद ही प्रमान, इक पच्छ मानिये । तो दो दुपन ताममाहिं, परन्तच्छ जानिय ।। प्रथम नास पाजाय, घरमको नाश होत है । बिनु परजाय न दरव, कहूं निहच उदोत है ।
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१. पय काम। २. मिट्टीगा पिंट। ३. घमा।
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९६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित '
है जो है अनित्त कह नित्त पद, तो मनकी गति नित्त गन । । यात निरविधन त्रिधातमक, लच्छन द्रव्य प्रतच्छ भन ।। ४३ ॥
(९) गाथा-१०१ उत्पादादि द्रव्यसे पृथक
पदार्थ नहीं ।
दु मिला।
परजायविर्षे उतपादरु व्यै धुव,
____ वर्ततु हैं क्रमही करिके । निहकरि सो परजाय सदा,
नित दर्वहिमाहिं रहै भरिके ।। तिहितें सबमें वह द्रव्यहि है, .
सरवंग दशा अपनी धरिके । जिमि वृच्छत मूल न शाखा जुदे, तिमि द्रव्य लखो श्रमको इरिके ॥ ४४ ।।
मनहरण । जसे वृच्छ अंशी ताके अंश वीज, अंकुरादि ___ तामें तीनों भेद भाव ऐसे लखि लीजिये । वीजको विनाश उतपाद होत अंकुरको,
वृच्छ धुवताई ऐसी सरधा घरीजिये ॥ नूतन दरवको न होत उतपाद कहूँ, ___ यह तो असंभौ कभी चितमें न दीजिये । दर्वकी स्वभावरूप परजाय पर्नतिमें,
तीनों दशा होत वृन्द याहीको पतीजिये ॥४५॥
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प्रवचनसार
[९७
। (१०) गाथा-१०२ अब उत्सादादिका क्षण भेद खंडित करके यह समझाते हैं कि वह द्रव्य है।
काव्य । उतरत-वय-धुव नाम सहित, जो भाव कहा है । दरव तासुते एकमेक ही, होय रहा है ॥ पुनि सो एकहि समय, त्रिविध परनवति अभेदं । तात त्रिविघसरूप, दरख निहचै निरवेदं ॥४६॥
दोहा । यहाँ प्रश्न कोई करत, उतपादादिक तीन । जुदे-जुदे समयनिवि, क्यों नहिं कहत प्रवीन || ४७ ॥ तीन काज एकै समे, कैसे हो है सिद्ध । समाधान याको करौ, हे आचारज वृद्ध ॥ ४८ ॥ उतपादिकके पृथक, पृथक दरव जो होय । तब तो तीनों समयमें, तीन संभ सोय || ४९ ॥ जहां एक ही दरव है, तहँ इक समयमैंझार । तीनों होते संभवत, दखदिष्टि के द्वार ॥ ५० ॥
मनहरण । दहीकी निज परजाय औ सु पर्नतिरौं,
उतपाद-धुव-वय दशा होत वरनी । दर्व दोनों रूप परिनवै आप आपहीमें,
ताहीकी अपेक्षा एकै समै तीनों करनी ॥ मृत्तिकातें कुंभ जथा माटी धुव दोनोंमाहिं,
द्रव्य द्वार एकै समै ऐसे उर धरनी ।
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९८ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
स्यादवादवानीकी अपेच्छासेती एकै समै,
ऐसे तीनों साधी हैं मिथ्यातकी कतरनी ॥५१॥ (११) गाथा-१०३ अब द्रव्यके उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यका अनेक द्रव्य-पर्यायके द्वारा विचार करते हैं।
काव्य । दरवनिका परजाय, एक प्रगटत उदोत है। . बहुरि अन्य परजाय, दशा जहँ नाश होत है ॥ . तदपि दरव नहिं नसे, नहीं उपजै तहँ जानो । सदा ध्रौव्य ही आपु रहै, निहचै परमानो ॥५२॥
छप्पय । संजोगिक परजाय, दोय परकार कहा है । इक समान जातीय, दुतिय असमान गहा है ॥ पुग्गलानु मिलि खंघ, होत सोई समान है ।
जिय पुदगल मिलि देह, सु तो असमान मान है ॥ इन परजैके उपजत नसत, दरव न उपजत नहिं नसत ।। नित ध्रौव दशा निज धारिके, सदा एक रस ही लसत ॥५३॥ (१२) गाथा-१०४ उनका एक द्रव्य-पर्यायके
द्वारा विचार ।
मनहरण । दरव स्वयमेव ही सरब काल आपहीसों,
गुनसों गुनंतर प्रनवत रहत है ! सत्त," अभिन्न तात गुननिकी परजाय,
दर्व ही है निश्चै एसे सुगुरु कहत है ॥
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प्रवचनसार
असे आम हरित चरन गुण त्याग सोई,
पीत गुण आप ही मुभावसों लहत है । धौवरूप आम दोड दशामाह वृन्दावन,
तैसे दर्व सदा त्रिया लच्छन लहत है ॥ ५४॥ (१३) गाथा-१०५ सत्ता और द्रव्यमें पृथक्त्व नहीं ।
छप्पय । जो यह दरव न होय, आपु सत्ताको धारक । तौ तामें धुवभाव, कहा आवै थितिकारक || जो धुवता नहिं धरै, कहो तब दरव होय किमि । तात सत्तारूर दरव, स्वयमेव आयु इमि ॥ है दरव गुनी सत्ता मुगुन, सदा एकता भाव धरि । परदेश मेद इनमें नहीं, यो भवि वृन्द प्रतीत करि ॥५५॥ (१४) गाथा-१०६ पृथक्त्व और अन्यत्वका लक्षण ।
___ मनहरण । जहाँ पादेशकी जुदागीरूर भेद सो तौ,
प्रविभक्त जानों जथा दंडी दंडवान है। संज्ञा लच्छनादित दरव सत्तामाहिं भेद,
वीरस्वामी ताको नाम अन्यत्व बखान है ।। अन्यके अधार तो अनंत गुन तामें एक,
सत्ताहू वसत सु विशेषन प्रमान है। सत्तामाहिं नाहिं और गुनको निवास वृन्द,
ऐसे द्रव्य सत्तामें विभेद ठहरान है ॥५६॥
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१०० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
जैसे वस्त्र द्रव्य सेत गुनको धेरै है आपु, ____ जदपि प्रदेश एक तदपि विभेद है । वम्को तो बोध फरसादि इन्द्रीहनें होत,
पै सुपेद गुन नैन द्वाहीत वेद है ॥ तैं सुपेद गुन जुदो जो न माने तो, ____ फरस आदि इंद्री क्यों न जानत सुपेद है । । दर्व गुनमें हैं भेद संज्ञालच्छनत, ____ नाना भाँति साध स्यादवादी ही अखेद है ॥५७ ॥
दोहा । जा दरववि सुगुरु, ज्यों प्रदेश नहिं भेद । । स्वरूपहूके विपैं, कीजे मेद निखेद ।। ५८ ॥
छप्पय । सत्ता दरववि. विभेद, कहु क्यों न मानिये । दरववि, गुनगन अनंत, थिति पृथक जानिये ॥ निजाधार है दरव, विविध परजायवंत है ।
गुनपरजै सब जुदे-जुदे, जामें वसंत है ॥ औं सत्ता दरवाधीन है, तासुमाहिं नहिं अपर गुन । है एक विशेषन दरवको, तातै भेद अवश्य सुन ॥५६ ॥ (१५) गाथा-१०७ अतद्भावको उदाहरण द्वारा समझाते हैं।
सत्ता तीन प्रकार सहित, विस्तार कहा है । दरवसत्त गुनसत्त, सत्त परजाय गहा है ॥ जो तीनोंके माहिं, परस्पर भेद विराजै । सोई है अन्यत्व भेद, इमि जिन धुनि गाजै ॥
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प्रवचनसार
[ १०१
है दरवसत्त गुन-परज-गत, गुनसत एक सुधरम-रत । परजायसत्त क्रमको धरै, यात भेद प्रमानियत ॥ ६०॥
मनहरण । जैसे एक मोतीमाल तामें तीन भांत सेत,
'सेत हार सेत सूत सेतरूप मनिया । तैसे एक दर्वमाहिं सत्ता तीन भांत सोहै,
दर्वसत्ता गुनसत्ता पर्जसत्ता भनिया । दरवकी सत्ता है अनंत धर्म सर्वगत,
गुनकी है एक ही धरमरूप गनिया । परजकी सत्ता क्रमधारी ऐसी भेदाभेद,
साधी मुनि वृन्द श्रुतसिंधुके मथनिया ॥ ६१ ॥ (१६) गाथा-१०८ सर्वथा अभाव अतद्भावका लक्षण
नहीं है। दर्व जो है अनंत धरमको आधारभूत,
सो न गुन होत यों विचार उर रखिये । तथा जो है गुन एक धर्म निजरूप करि,
सोऊ दर्व नाहीं होत निहचै निरखिये ॥ ऐसे गुन-गुनीमें विभेद है सुरूप करि,
सर्वथा जुदागी न अभाव ही करखिये । द्रव्य और गुनमें विभेद विवहार तसो, . . अनेकान्त पच्छसों विलच्छके हरखिये ॥ ६२ ॥
१ श्वेत-सफेद । २ गुरिया । .३ मयनेवाले ।
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१०२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
दोहा । दरव और गुनके विय, है अन्यचविभेद ! जुदे दोउ नहिं सावया, श्रीगुरु करी निघद ॥ ६३ !!
मनहरण । गुन-गुनीमाहिं सावथा ही अभावरूप,
भेद माने दोनहीको नाम सम्वधा है । जाते जेते गुन ते जुदे-जुड़े इवे होई,
सो बान संघ नाहिं कहिवौ विकया है । गुन के अमाव भ गुनको अभाव होत,
सोनेनाहिं साधि दी साधी साध जया है । ताते व्यवहार कथंचित विभेद मानो,
वस्तुसिद्धिन श्रुतिमाहि जया मथा है । ६४ ॥
(१७) गाथा-१०९ सचा और द्रव्यका गुण-गुणीन्य
सिद्ध करते हैं। द्रव्यको मुमत्र परिनाम जु है निश्चै चरि,
अन्तिन स्वरूप सोई सत्ता नाम गुन है । सर्व गुनमें प्रवान फहरे निशान जाको,
उत्पादवयवुवसंजुत सुगुन है । ताही असतिरूप सत्त में विराजे दुर्व,
यातें सत नाम द्रव्य पावत अयुन है । ऐसे सज गुन औ दस गुनी एकाई,
साधी कुन्दकुन्द वृन्द वन्दत निपुन है ।। ६५ ।।
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प्रवचनसार
[ १०३
(१८) गाथा-११० गुण-गुणीके अनेकत्वका खंडन करते हैं।
- कुण्डलिया। ऐसो गुन कोऊ नहीं, दरव विना जो होय । विना दरव परजाय हू, जगमें लख न कोय ।। जगमें लखै न कोय, बहुरि दिढ़तर ऐसे सुन । दरवहिका अस्तित्वभाव; सोई सत्ता गुन ॥ . तिस कारन स्वयमेव, दरव सत्ता ही है सो ।
अनेकांतते सधत, वृन्द निरदूषन ऐसो ॥ ६६ ॥ (१९) गाथा-१११ द्रव्य के सत् उत्पाद, असत् उत्पाद
होनेमें अविरोध सिद्ध करते हैं ।
छप्पय । ' या विधि सहजसुभावविर्षे, जो दरव विराजै ।
सो दरखौ परजाय, दोउ नयमय छबि छाजै ॥ दरवार्थिकनय द्वार, सदा सदभावरूप है ।
परजद्वारतें असदभाव, सोई प्ररूप है ॥ इन दो भावनिसंजुक्त नित, उतपत होत बखानिये । नयद्वार विविच्छाभेद है, वस्तु अभेद प्रमानिये ॥६७ ॥
. दोहा । । दो प्रकार उतपादजुत, दव रहत सब काल । सद उतपाद प्रथम कह्यो, दुतिय असतकी चाल ॥ ६८ ॥ दरव अनादि अनंत जो, निज परजैकेमाहि । उपजत हैं सो दरवग, सद उतपाद कहाहि ॥ ६९ ॥
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१०४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
जो पूरव ही थो नहीं, ताको जो उतपाद ।
सो परजय-नयद्वारते, असदभाव निरवाद ॥ ७० ॥ (२०) गाथा-११२ सत् उत्पादको अनन्यत्वके द्वारा
निश्चित करते हैं।
मनहरण । जीव दर्व आपने सुभाव प्रनवंत संत, ___ मानुष अमर वा अपर पर्ज धारैगो । तिन परजायनिसों नानारूप होय तऊ, ___ कहा तहाँ आपनी दरवशक्ति छोरैगो । जो न कहूं आपनी दरख शक्ति छोड़े तब,
कैसे और रूप भयो निहचै विचारगो । ऐसे दर्व शक्ति नानारूप परजाय व्यक्त,
जथारथ जाने वृन्द सोई आप तारेंगो ॥ ७१ ॥ (२१) गाथा-११३ अव असत् उत्पादको अन्यत्वके
द्वारा निश्चित करते हैं। एक परजाय जिहिकाल परिनवै जीव,
तिहिकाल और परजायरूप नहीं है। मानुष परज परिनयौ तब देव तथा,
सिद्धपरजाय तहाँ कहां ठहराही है ।। देव परजायमें : मनुषसिद्ध पज कहाँ,
ऐसे परजाय द्वार भेद विलगाही है। या प्रकार एकता न आई तब कैसे नाहिं,
पजद्वार नाना नाम दरवलहाही है ॥ ७२ ॥
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प्रवचनसार
[ १०५
(२२) गाथा-११४ उसमें अविरोध ही है। दर्वार्थिकनय नैन खोलकर देखिये तो,
सोई दर्व और रूप भयो नाहिं कबही । फेर परजायनय नैन तैं निहारिये तो, ___ सोई नानारूप भयो जैसो पर्ज जब ही ॥ जात नर नारकादि काय लिहि काल लहै, . ____ तासों तनमई होय रहै तेसो तवही ।
जैसे आगि एक पै प्रवेश नाना ईंधनमें,
__ ईधन अकारतें भयौ है मेद सब ही ॥७३ ॥ (२३) गाथा-११५ सप्तभंगीसे ही सर्व विवाद-शांति ।
छप्पय । दरव कथंचित अस्तिरूप, राजे इमि जानो । बहुर कथंचित नास्तिरूप, सोई परमानो ॥ होत सोई पुनि अवक्तव्य, ऐसे उर धरनी । फिर काहू परकार सोइ, उभयातम वरनी ॥ पुनि और सुभंगनिकेविपैं, जथाजोग सोई दरव । निरवाध वसत निजरूपजुत, श्रीगुरु भेद भने सरव ।। ७४ ॥
मनहरण । आपनी चतुष्टै दर्व-क्षेत्र-काल-भावकरि, __तिहूँकालमाहिं दरव अस्तित-सरूप है। सोई परद्रव्य के चतुष्टै करि नास्ति सदा,
फेर सोई एक काल उभैरूप भूप है ॥
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१०६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
__एके काल नाहिं जात कह्यो तातें अकथ है,
फेर सोई अस्ति अवक्तव्य सु अनूप है । फेर नास्ति अकथ औ अस्ति नास्ति अकथ है, कथंचित्वानी सो सुधारसको कूप है ॥ ७५ ॥
तथा चोक्तं देवागमकारिकायांभावैकान्ते पदार्थानामभावानामपद वात् ।
सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥ ९ ॥ कार्यद्रव्यमनादि स्यात्प्रागभावस्य निन्हवे । प्रध्वंसस्य च धर्मस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत ॥ १०॥ सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे । अन्यत्र समवायेन व्यपदिश्येत सर्वथा ॥ ११ ॥ अभावकान्तपक्षेऽपि भावापह्नववादिनाम् । बोधवाक्यं प्रमाणं न केन साधनदूषणम् ॥ १२ ॥
दोहा । एक अरथवाचक शबद, भावअस्ति ये जान । कहु अभाव के नास्ति बहु, दोनों अग्थ समान ॥ ७६ ॥ जो पदार्थ सब सर्वथा, गहिये भावहिरूप । अरु अभाव सब लोपिये, तो तित दूषना ॥ ७७ ।। एक दरव सरवातमक, तब निह है जाय । आदि अंत पुनि नहिं बन, कीजे कोटि उपाय ॥ ७८ ॥ ज्यों माटीमें पुध ही, कुंभ नहीं है रोप । प्रागभाव याको कहत, ताको है है लोप ॥ ७९ ॥
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प्रवचनसार
[ १०७
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जो प्रध्वंसाभावको, लोप करै तब येह । कुंभकर्मको नाश नहिं, औ अनंतता लेह ॥ ८०॥ जो अन्योन्य अभाव है, धरम दरवकेमाहि । ताहि लोपते सब दरव, एक रूप है जाहिं ॥ ८१॥ नो अत्यंताभाव है, ताहि विलो मैं ठीक । दरव न कैस हु सधि सके, दूपन लगै अधीक ॥ ८२ ॥ ताते दरवहिकेविपैं, बसै अभाव सुधर्म । वहां सहज सत्ताविपैं, थाप थिर तजि भर्म ॥ ८३ ॥ धरम अभाव जु वस्तुमें, बसत सोइ सुन मीत । पर-सरूप नहिं होत है, यह दिढ़ कर परतीत ।। ८४ ।। जो अभाव ही सरवथा, माने तु समस्त । भाव धरमको लोपिके, जो सबमें परशस्त ॥ ८५ ॥ तौ ताके मतके विपैं, ज्ञान तथा सब वैन । अप्रमान सब ही भये, साधै बाधै केन ॥ ८६ ॥ इत्यादिक दूपन लगैं, ताते हे भवि वृन्द । वस्तु अनंत धरममई, भाषी श्रीजिनचन्द ॥८७ ॥ सो सब सातों भंगते, साधो भ्रमतम त्यागि ।
अनेकांत रसमें पगो, निज-सरूप अनुरागि । ८८ ॥ (२४) गाथा-११६ वे पर्यायें बदलती रहती हैं।
मनहरण । ऐसी परजाय कोऊ नाहीं है जगतमें जो,
रागादि विभाव विना भई उतपन है ।
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१०८ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
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रागादि विभाव क्रिया अफल न होय कहूं,
याको फल चारों गतिमाहिं भरमन है ॥ जैसे परमानू रूछ चीकन सुभावहीसों, ___बंध खंधमाहिं तैसे जानो जगजन है । जाते वीतराग आतमीक पर्म धर्म सो तो,
बंधफलसों रहित तिहुँकाल धन है ॥ ८९ ॥ (२५) गा.-११७ मनुष्यादि पर्यायें जीवको क्रियाके फल
नाम कर्म आपनै सुभावसों चिदातमाके, ___ सहज सुभावको आच्छाद करि लेत, है ।
नर तिरजंच नरकौर देवगतिमाहि, ___ नाना परकार काय सोई निरमेत है ॥
जैसे दीप अगनिसुभावकरि तेलको सु-, __भाव दूर करिके प्रकाशित धरेत है। ज्ञानावरनादिकर्म जीवको सुभाव घाति,
मनुण्यादि परजाय तैसे ही करेत है ॥९० ॥ (२६) गाथा-११८ जीवस्वभावका घात कैसे ? नामकर्म निश्चे यह जीवको मनुष्य पशु.
नारकी सु देवरूप देहको बनावै है । तहां कर्मरूप उपयोग परिनवै जीव, ___ सहज सुमाव शुद्ध कहूँ न लहावै है ॥ .
जैसे जल नीम चंदनादि-माहिं गयौ सो __ प्रदेश और स्वाद निज दोनों न गहावै है ।
। नरक और । २ निर्माण करता है, बनाना है ३ करता है।
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प्रवचनसार
[ १०९
तैसे कमभाव परिनयौ जीव अमूरत,
चिदानंद वीतराग भाव नाहिं पावै है ॥९१ ॥ (२७) गाथा-११९ द्रव्यरूपसे अवस्थितपना होने पर
भी पर्यायसे अनवस्थितपना ।
छप्पय । इमि संसारमझार, दरवके द्वार जु देखा । तौ कोऊ नहिं नसत, न उपजत यही विशेखा ॥ जो परजै उतपाद होत, सोई वय हो है ।
उतपत वयकी दशा, विविध परजयमें सोहै ॥ धुव दरव स्वांग बहु धारिके, गत गतमें नाचत विगत । परजयअधार निरधार यह, दरव एक निजरस पगत ॥९२ ॥
(२८) गाथा-१२० अनवस्थितताका हेतु । तिस कारन संसारमाहिं, थिर दशा न कोई । अथिररूप परजैसुभाव, चहुंगतिमें होई ॥ दरवनिकी संपरन क्रिया, संसार कहावै । एक दशाको त्यागि, दुतिय जो दशा गहावै ॥ या विधि अनादित जगतमें, तन धरि चेतन भमत है । निज चिदानंद चिद्रूपके, ज्ञान भये दुख दमत है ॥९३ ॥
विशेषवर्णन-मनहरण । ताहीत जगतमाहिं ऐसो कोऊ काय नाहिं, ___जाको अवधारि जीव एक रूप रहैगो । याको तो सुभाव है अथिररूप सदाहीको,
ऐसे सरधान धरै मिथ्यामत बहँगो ॥
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११० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
जीवकी अशुद्ध परनतिरूप क्रिया होत, ___ताको फल देह धारि चारों गति लहैगो ॥ याको नाम संसार बखाने सारथक जिन, ___ जाकी भवथिति घटी सोई 'सरदहैगो ॥ ९४ ॥ (२९) गाथा-१२१ किस कारणसे संसारीको
पुद्गलका संबंध होता है ? अनादित पुग्गलीक कर्मसों मलीन जीव,
रागादि विकार भाव कर्मको लहत है । ताही परिनामनित पुग्गलीक दर्व कर्म, ___ आयके प्रदेशनिसों बंधन गहत है ॥ तातें राग आदिक विकारभाव भावकर्म, ___नयो दर्वकरमको कारन कहत है। ऐसो बंधभेद भेदज्ञानतै विवेद वृन्द, साधी है सिद्धांतमाहिं सुगुरु महत है ॥९५॥
प्रश्न-दोहा। दरख करमतें भावमल, भाव करमतें दव्व । यामैं पहिले कौन है, मोहि बतावो अव्व ।। ९६ ॥ इतरेतर आश्रय यहां, आवत दोष प्रसंग । ताको उत्तर दीजिये, ज्यों होवै भ्रम भंग ॥९७ ॥
उत्तर । उत्तर सुनो! अनादित, दरव करम करि जीय ।
है प्रबंध ताको सुगुरु, कारन पुन्च गहीय ॥९८॥ ई १. श्रद्धान करेगा।
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प्रवचनसार
[ १११
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ताही पूरदवंध करि, होहि विभाव विकार । ताकरि नूतन बँधत है, यहाँ न दोष लगार ॥ ९९ ।। जगदागमहूते यही, सिद्ध होत सुखधाम । जो है करम निमित्त विनु, रागादिक परिनाम ॥ १० ॥ तो, वह सहज सुभाव है, मिटै न कवहूं येव । तारौं दरवकरम निमित, प्रथम गही गुरुदेव ।। १०१ ॥ दरवकरम पुदगलमई, पुदगल करता तास । भावकरम आतम करै, यह निहचै परकास ॥१०२ ।।
पुनः प्रश्न । तुम भापत हौ हे सुगुरु, 'जीवकरमसंजोग' । सो क्या प्रथम पृथक हुते, पाछे भयो नियोग ॥ १०३ ॥ जासु नाम 'संजोग' है, ताको तो यह अर्थ । जुदी वस्तु मिलि एक है, कीजे अर्थ समर्थ ॥ १०४ ।।
उत्तर-मनहरन । जैसे तिलीमाहिं तैल आगि है पखानमाहिं,
छीरमाहिं नीर हेम खानिमें समल है । इन्हें जब कारन” जुदे होत देखें तब, ___जान जो मिलापहमें जुदे ही जुगल है ॥ तैसेही अनादि पुग्गलीक दर्व करमसों,
जीवको संबंध लसे एक थल रल है । मेदज्ञान आदि शिव साधनते न्यारो होत,
ऐसे निखाध संग सधत विमल है ।। १०५ ॥
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११२ ]
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मतांतर । दोहा। केई मतवाले कहैं, प्रथम अमल थो जीव । माया जडसों मलिन है, चहुँगति भमत सदीव ।। १०६ ॥ प्रगट असंभव बात यह, शुद्ध अमल चिद्रूप । क्योंकरि बंध दशा लहै, परै केम भवकूप । १०७ ।। विमलभाव तब बंधको, कारन भयो प्रतच्छ । मोच्छ अमलता तब कहो, कैसे सधै विलच्छ ॥ १०८ ॥ गाथा-१२२ अव परमार्थसे आत्माके द्रव्य कर्मका
__ अकर्तृत्व । (३०)
मनहरण । परिनामरूप स्वयमेव आप आतमा है,
जातै परिनाम परिनामीमें न भेद है। सोई परिनामरूप क्रिया जीवमयी होत, ___ आपनी क्रियात तनमयता अछेद है ॥
जीवकी जो क्रिया ताको भावकर्म नाम कह्यौ, ___याको करतार जीव निहचै निवेद है ॥ तात दर्व करमको आतमा अकरता है । ___याको करतार पुदगल कर्म वेद है । १०९॥
प्रश्न-दोहा । भावकरम आतम करै, यह हम जानी ठीक । दरव करम अबको करै, यह संदेह अधीक ॥११० ॥
उत्तर-मनहरण । जैसे भाव कर्मको करैया जीव राजत है,
पुग्गल न ताको करै कभी यों पिछानियो ।
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प्रवचनसार
सब
निज निज भावके दख सब करता हैं,
परके सुभावको न करै कोऊ मानियो । यह तो प्रतच्छ भेद ज्ञानतें विलच्छ देखो,
सवै निज कारजके करता प्रमानियो । दरव करम पुदगल पिंड ताते याको,
करतार पुग्गल दरव सरधानियौ ॥ १११ (३१) गाथा-१२३ तीन प्रकारकी चेतना ।
सवैया (३१ मात्रा) आतम निज चेतन सुभाव करि, प्रनवतु है निहचै निरधार । सो चेतनता तीन भाँति है, यो वरनी जिनचंद उदार ॥ ज्ञानचेतना प्रथम वखानी, दुतिय करमचेतना विचार ।। त्रितियकरमफलचेतनता है, वृन्दावन ऐसे उद्धार ॥ ११२ ॥
(३२) गाथा-१२४ उनका स्वरूप ।
मनहरण । जीवादिक सुपर पदारथको भेदजुत,
तदाकार एक काल जानै जो प्रतच्छ है । सोई ज्ञानचेतना कहावत अमलरूप,
वृन्दावन तिहूँकाल विशद विलच्छ है ॥ जीवके विभावको अरंभ कर्मचेतना है,
दर्वकर्मद्वार जामें भेदनको गच्छ है । सुख-दुखरूप कर्मफल अनुभवै जीव,
कर्मफलचेतना सो भाषी श्रुति स्वच्छ है ।। ११३ ॥
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११४ ]
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1 (३३) गाथा-१२५ ज्ञान, कर्म और कर्मफलका स्वरूप । परिनाम आतमीक आप यह आतना है,
सदा बाल एकाई तानों दवाकार है। सोई परिनाम ज्ञान कर्म कर्नफल तीनों,
चेतनता होनको सनस्य उदार है। याही एकताईते ज्ञान कर्न कर्मफल.
तीनोंरूप आतमा ही जानो निखार है। अमेद विवच्चात दरवहीक अंतरनें,
मेव सर्व लीन होत मापी गनधार है ॥ ११४ ॥
(३४) गाथा-१२६ उसका ठीक निश्चयवाला होकर
अन्यथा न परिणमन करे तो शुद्ध आत्माको प्राप्त करता है।
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करता करन तथा करम करमफल,
चारोंरूप आतना विराज तिहुँपनमें । ऐसे जिन निह कियो है भलीभांतिकरि,
एकता मुभाव अनुभवें आपु मनमें ॥ परवरूप न प्रनवे काहू कालमाहि,
लागी है लगन बाकी आत्मीक धननें । सोई मुनि परम धरम शिवमुख लहै,
वृन्दावन कबहूँ न आवे भक्वनमें ॥ ११५ ॥
१. गपवरदेवने । २. करण!
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प्रवचनसार
[ ११५
दोहा । मेदभाव जेते कहे, तेते वचनविलास । निरविकलप चिद्रूप है, गुन अनंतकी रास ॥ ११६ ॥ समल अमल दोनों दशा, तामें आतम आप । चार मेदमय सुथिर है, देखो निजघट व्याप ॥ ११७ ॥ यों जब उर सरधा धरै, तजि परसों अनुराग । परममोखसुख तव लहै, चिदानंदरस पाग ।। ११८ ।।
. मनहरण । जैसे लाल फूलके उपाधों फटिकमाहिं,
लालरूप लसत विशाल ताकी छटा है । तैसे ही अनादि पुदगल कर्मबंधके,
संजोगसों उपज्यौ जीवमाहिं राग ठदा है ।। जबै उपाधीक रंग संगते नियारौ होत,
तबै शुद्ध जोति जगै फटै मोहघटा है। एक परनत परमानू ज्यों न बँधै त्यों ही,
रागादि विभाव विना बंधभाव कटा है ॥ ११९ ॥
छप्पय ।
जब यह आतम आप, भेदविज्ञान धार करि । निज सरूपकों लग्दै, सकल भ्रमभाव टार करि ।। करता करम सुकर्म, कर्मफल चारभेदमय ।
चिदविलास ही समल, अमल दोउ दशामाहिं हय । इमि जानि तब हि परवस्तुते, रागादिक ममता हरै । निज शुद्ध चेतनाभावमें, सुथिर होय शिवतिय वरै ॥ १२० ॥
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कविवर वृन्दावन विरचित
कवित्त । (३१ मात्रा) है इहि प्रकार निरदोष बतायो, शिवपुरको मग सुखद सदीव । है ताहि त्यागि जो आन जतनसों, चाहत होन मूढ़ शिवपीव ॥
सो मूरख परधान जगतमें, तोस आश विपरीत अतीव । जीभ स्वादके कारन सो शट, पानी मथिके चाहत घीव ।। १२१॥
अधिकारान्तमंगल । मत्तगयन्द । श्रीजिनचंद सुखाम्बुधिवर्द्धन, भव्यकुमोदप्रमोदक नीको । जन्मजरामृततापविनाशन, शासन है जनके हितहीको । शुद्धपयोग निरोग सु भेषज, पोषनको समरत्थ अधीको । सो इत मंगल भूरि भरो प्रभु, वंदत वृन्द सदा तुमही को ।। १२२ ॥
दोहा । वंदों श्रीसरवज्ञपद, भ्रमतमभंजनभान । विधनहरन मंगलकरन, देत विमल कल्यान ॥ १२३ ॥ श्रीमत्प्रवचनसारकी, भाषाटीकामाहिं । दरवनिको सामान्यतः, कथन समाप्त कराहिं ।। १२४ ॥
इतिश्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृतपरमागमश्रीप्रवचनसारजी ताकी वृन्दावनकृतभाषाविर्षे दरवनिका सामान्यवर्णनका अधिकार चौथा पूरा भया। ___ इहां ताई सर्व गाथा १२७ एक सौ सत्ताईस भई और
भाषाके छंद सर्व ४६२ चारिसौ बासष्ठ भये सो जयवंत होऊ । लिखी वृन्दावनने यही प्रथम प्रति है । मंगलमस्तु । श्रीरस्तु । मिती मार्गशीर्ष कृष्णा १३ ॥ गुरुवार संवत् १९०५॥ काशीजीमें, निज परोपकारार्थ । भूल चूक विशेपीजन शोषि शुद्ध कीजो॥
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प्रवचनसार
[११७
अथ पंचमोविशेषज्ञेयतत्त्वाधिकारः।
मंगलाचरण-दोहा । वंदों आतम जो त्रिविध, वर्जित कर्मविकार । नेत मेत ज्ञातृत्व जुत, सब विधि मंगलकार ॥१॥ अब विशेषता दरखका, कथनरूप अधिकार । श्रीगुरु करत अरंभ सो, नैवंतो सुखकार ॥ २ ॥ (१) गाथा-१२७ द्रव्य विशेपोंके भेद ।
मनहरण । सत्तारूप दर्व दोय भांति है अनादि सिद्ध,
जीव औ अजीव यही साधी श्रुति मंथ है । तामें जीव लच्छन विलच्छन है चेतनता, ..
जासको प्रकाश अविनाशी पूंज पंथ है। ताहीको प्रवाह ज्ञान दर्शनोपयोग दोय, ।
सामान्य विशेष वस्तु जानिवतें कंथ है। पुग्गलप्रमुख दर्व अजीव अचेतन हैं,
ऐसे वृन्द भापी कुन्दकुन्द निरगंथ है ॥ ३ ॥ (२) गाथा-१२८ आकाश एक उसके दो भेद ।
. छप्पय । जो नभको परदेश नीव, पुदगल समेत है । धर्माधर्म सु अस्तिकाय,-को जो निकेत है ॥ कालानूजुत पंच दरव, परिपूरन जामें । सोई लोकाकाश जानु, संशय नहिं या ॥
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११८ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
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सब कालमाहिं सो अचल है, अवगाहन गुनको धेरै । तसु परे अलोकाकाश जहँ, पंच रंच नहि संच॥ ४ ॥ (३) गाथा-१२९ क्रियावती-भाववतीरूप द्रव्यके भाव हैं उनकी अपेक्षासे द्रव्यके भेद ।
दोहा। पुदगल अरु जीवातमक, जो यह लोकाकाश । ताके थिति उतपाद वय, परनति होत प्रकाश ॥५॥ भेद तथा संघाततै, ज्यों श्रुति करत बखान । ताको उर सरधा धरो, त्यागो कुमत-वितान ॥ ६ ॥
मनहरण । क्रियावंत भाववंत ऐसे दोय भेदनितें,
दर्वनिमें भेद दोय भाषी भगवंत है । मिलि विठुरन हलचलन क्रिया है औ,
सुभाव परनति गहै सोई भाववंत है ॥ जीव . पुदगलमाहिं दोनों पद पाइयत,
धर्माधर्म काल नभ भाव ही गहत है । धन्य धन्य केवलीके ज्ञानको प्रकाश चन्द,
एकै वार सर्व सदा जामें झलकत है ॥७॥ (४) गाथा-१३० अव यह बताते हैं कि-गुण-विशेष (गुणोंके भेद ) से द्रव्योंका भेद ।
मनहरण। जीवाजीव दर्व जिन चिह्ननितें भलिभांति,
चीहे जाने जाहिं सोई लच्छन बखाना है ।
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प्रवचनसार
[ ११९
सो है वह दर्वके सरूपकी विशेषताई, .
जुदो कछु वस्तु नाहिं ऐसे परमाना है । मूरतीक दरवको लच्छन हू मूरतीक,
__ अमरतिवंतनिको अमूरत वाना है । लच्छके जनायवेतै लच्छन कहावै वृन्द, प्रदेशते एकमेक सिद्ध ठहराना है ॥ ८ ॥
लक्षण यथा-दोहा। मिली परस्पर वस्तुको, जाकरि लखिये मिन्न । लच्छन ताहीको कहत, न्यायमती परविन्न ॥९॥ जो सुकीय नित दरवके, है अधार निरवाध । सोई गुन कहलावई, वर्जित दोष उपाध ॥ १० ॥ तेई दरवनिके सुगुन, लच्छन नाम कहाहि । जाते तिनकरि जानिये, लच्छ दरव सब ठाहिं ॥११॥ मेद विवच्छातें कहे, गुनी सुगुनमें भेद । वस्तु विचारत एक है, ज्ञानी लखत अखेद ।। १२ ।। (५) गाथा-१३१ मूर्त-अमूर्त गुण वे किन द्रव्योंमें हैं।
छप्पय । मूरतीक गुनगन इंद्रिनिके, गहन जोग है । सो वह पुग्गल दरबमई, निहचे प्रयोग है ॥ वरन गंध रस फांस, आदि बहु भेद तासके । अब सुनि मेद अमूरत, दरवनिके प्रकाशके ।।
१ प्रवीण = चतुर ।
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१२० ]
. कविवर वृन्दावन विरचित
जो दरव अमूरतवंत है, तासु अमूरत गुन लसत । सो ज्ञान आतंद्रीके वि., प्रतिबिंबित जुगपत बसत ॥ १३ ॥ (६) गाथा-१३२ मूर्त पुद्गल द्रव्यका गुण है।
मतगयन्द । पुग्गलदर्ववि0 गुन चार, सदां निरधार विराजि रहे हैं । वन तथा रस गंध 'सपर्स, सुभाविक संग अभंग लहे हैं ।। पर्मअनू अति सूच्छिमतें, पृथिवी परजत समस्त गहे हैं । और जु शब्द सो पुग्गलकी, परजाय विचित्त अनित्त कहे हैं।
षट्प्रकार पुद्गल वर्णन-दोहा। षटप्रकार पुदगल कहे, सुनो तासुके मेद । जथा भनी सिद्धांतमें, संशयभाव विछेद ॥ १५॥ सूच्छिम सूच्छिम प्रथम है, सूच्छिम दूजो भेद ।। सूक्ष्मथूल तीजो कह्यौ, थूलसूक्ष्म है वेद ॥ १६ ॥ थूल पंचों जानिये, थूलथूल षट एम। अब इनको लच्छन - सुनो, श्रुति मथि भाषत जेम ॥ १७ ॥
मनहरण । प्रथम विभेद परमानू परमान मान,
कारमानवर्गना दुतीय सरधान है। नैन नाहिं गहैं चार इंद्री जाहि गहैं सोई,
तीजो भद विषके विवशतें निदान है ॥
१ स्पर्श । २. परमाणु । ३. चौथा ।
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प्रवचनसार
[ १२१
चौथो भेद नैनतें निहारिये जु छायादि सो,
हस्तादिसों नाहिं गयौ जात परमान है । पांचमो विभेद जल तेल मिलै छेरै भेर्दै, छठो भूमि भूधरादि संधि न मिलान है ॥ १८ ॥
वर्णभेद-दोहा। अरुन पीत कारो हरो, सेत वरन ये पंच । . इनके अंतरके विपैं, भेद अनंते संच ॥ १९॥
रसभेद । खाटा मीठा चिरपिग, करुआ और कपाय । पांच मेद रसके कहे, तासु भेद बहु भाय ॥२०॥
गंधभेद । गंध दोय परकार है, प्रथम सुगंध पुनीत । दुतिय भेद दुरगंध है, यो समुझो उर मीत ॥२१॥
स्पर्शभेद । तपत शीत हरुवो गरू, नग्म कठोर कहाय । रुच्छ चीकनो फरसके, आठ मेद दरसाय ॥ २२ ॥
प्रश्न-चौपाई। पुदगलके गुन वरने जिते । इंद्रीगम्य कहे तुम तिते ॥ तहां होत शंका मनमाहिं । सुनिये कहों वेदकी छाहि ॥ २३ ॥ परमानू अति सूच्छिम भना | कारमानकी पुनि वरगना ॥ तिनमें चारों गुन वसैं । क्यों नहिं इन्द्री ग्राहै तिसै ॥ २४ ॥
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१२२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
उत्तर-कवित्त (३१ मात्रा)। परमानू आदिक पुदगलको, इन्द्रीगम्य कहे रस हेत । जब वह खंध बंधमें ऐहै, शक्त व्यक्त करि सुगुन समेत ॥ तव सो इन्द्रीगम्य होइगो, व्यक्तरूप यो लखो सचेत । इन्द्रीनिके हैं विषय तासु गुन, तिसी अपेच्छा कथन कथेत ॥२५॥
पुनः प्रश्न-दोहा। पुदगल मूरतिवंत जिमि, तीमि है शब्द प्रतीत । तौ पुदगलको गुन कहो, परज कहौ मति मीत ॥२६॥
उत्तर।
गुनको लच्छन नित्त है, परज अनित्त प्रतच्छ । गुन होते तित शबद नित, हावा करतो दच्छ ॥ २७ ॥ जो होती गुम तो सुनो, अनू आदिके माहिं । सदा शबद उपजत रहत, सो तौ लखियत नाहिं ॥ २८ ॥ खंधनिके व्याघाततै, होत शवद परजाय । प्रथम भेद भाषामई, दुतिय अभाषा गाय ॥ २९॥
मनहरण । केई मतवाले कहैं शब्द गुन अकाशको,
तासों स्यादवादी कहै यह तो असंभौ है । आकाश अमूरतीक इन्द्रिनिके गम्य नाहिं
शब्द तो श्रवणसेती होत उपालंभी है। कारन अमूरतको कारजहू तैसो होत, ..
यह तो सिद्धांत वृन्द ज्यों सुमेरु थंभौ है ।
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प्रवचनसार
[ १२३
सर्व ही अकाशतें शबद सदा चाहियत, गुनी गुन तजे कैसे बड़ो ही अचंभी है ॥ ३० ॥
दोहा । तात शवद प्रतन्छ है, पुद्गलको परजाय । खंध जोगते उपजत, वरन अवरन सुभाय ॥ ३१ ।
प्रश्न
पुदगलकी पराजय तुम, शबद कही सो ठीक । श्रवन हि ताकों गहत है, यही सनातन लीक ॥ ३२ ॥
और चार इन्द्रीनि करि, क्यों नहिं लखियै ताहि । मूरतीक तो सब गहें; याको करो निबाह ॥ ३३ ॥
उत्तरपांचो इन्द्रिनिके विषय, जुदे कहे श्रुतिमाहिं । तहां न एसो नेम की, सब सब विषय गहाहिं ॥ ३४ ।। नेम यही जानो प्रगट, निज-निज विषयनि अच्छ । गहन करहिं नहिं अपरके, विषय गहहिं परतच्छ ॥ ३५ ॥ ताहीत वह श्रवनको, शबद विषय दिढ़ जान । श्रवन हि ताको गहत है, और न गहत निदान ॥ ३६॥
प्रश्न-छप्पय । इहां प्रश्न कोउ करत, गंध गुन नीरमाहिं नहिं । ताहीत नाशिका नाहि, . संग्रहत तासुकहि ॥
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कविवर वृन्दावन विरचित
अगनि गंब रस रहित, प्रान रखना नहि है। पौनमें न दरसात, गंध नस कुए कहां है। नाहीनान-नयन-नसन, मालतको नई गहि सकत । गुन होत नहहि निज निज विषय, यही अच्छकी रीति अत:।
उत्तर-दोहा । पुद्गल दरख धेरै सदा, फन्स रूप रस गंध । सब परजायनिक विषे, परमानू, लगि संब ।। ३८ !!
हूँ कोई गुन मुख्य है, कई कोउ गुन गौन । चारनाहिं कमी नहीं, यह निइचे चितौन ।। ३९ ।। एक परजमें में अनू, प्रनई हैं पायान ! दुनिय रूप सो परिनहि, देवन दृष्टि प्रनान !! १० ॥ वरनौत बरनांतर, रसते पुनि रस और । इत्यादिक प्रनत्रत रहत, जयाजोग सब ठौर ।। ४१ !
छप्पय । चंद्रकांत पापानकाय, पृथिवी पृयित्रीतल । अत्रन ना मंत्रु, गंवगुनरहित मुशीतल . लतो वारितें होत काय पुहनी नुकताफल ।
अाणि दाल अनल होत, जर सु वायुबल ॥ इत्यादि अनेक प्रकारको, प्रनवन बहुन विवान है । बात सब परनेके विर्षे, चारों गुन परधान है ।।४२ ।।
दोहा । बातें पृथ्वी आदिके, पुद्गल्में नहिं मेद । प्रनबनमाहिं विमेद है, को गुरु करी निवेद ॥ १३ ॥
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प्रवचनसार
[ १२५
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सत्रहीमें .फरसादि गुन, चारों हैं निरधार ।
वृन्दावन सरधा घरो, सब संशय परिहार ॥ ४४ ।। (७-८) गाथा-१३३-१३४ शेप अमूर्त द्रव्योंके गुण । है
मनहरण । एके काल सरव दरवनिको थान दान,
कारन विशेष गुन राजत अकासमें । धरम दरवको गमन हेत कारन है,
जीव पुदगलके विचरन विलासमें ।। अधरम दर्वको विशेष गुन थिति होत,
दोनों क्रियावंतनिके थित परकासमें । कालको सुभाव गुन वरतनाहेत करो, आतमाको गुन उपयोग प्रतिभासमें ॥ ४५ ॥
दोहा । ऐसे मूरतिरहितके, गुन संक्षेप भनंत । वृन्दावन तामें सदा, हैं गुन और अनंत ॥ ४६॥ जो गुन जासु सुभाव है, सो गुन ताहीमाहिं । औरनिके गुन औरमें, कबहूं व्यापैं नाहिं ॥ ४७ ॥ नमको तो उपकार है, पांचोपर सुन मीत । धर्माधर्मनिको लसै, जिय पुदगलसों रीत ।। ४८ ।। काल सबनिपै करतु है, निज गुनते उपकार । नव जीरन परिनमनको, यात होत विचार ॥ ४९ ॥
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१२६ ]
कविवर वृन्दाधन विरचिः
जीव लखै जुगपत सकल, केवलदृष्टि पसार । याहीते सब वस्तुको, होत ज्ञान अविकार ॥ ५० ॥
(९) गाथा-१३५ प्रदेश-अप्रदेशत्व । जीवरु पुदगल काय नभ, धरम अधरम तथेस । हैं असंख परदेशजुत, 'काल' रहित परदेस ॥ ५१ ॥
मनहरण । एक जीव दर्वके असंख परदेश कहे,
संकोच विथार जथा दीपकपै ढपना । पुग्गल प्रमान एक अप्रदेशी है तथापि,
मिलन शकतिसों बढ़ावै वंश अपना ॥ धर्माधर्म अखंड असंख परदेशी नभ,
सर्वगत अनंत प्रदेशी वृन्द जपना । कालानूमें मिलन शकतिको अभाव तात,
अप्रदेशी ऐसे जानें मिटै ताप तपना ॥ ५२ ॥ (१०) गाथा-१२६ वे द्रव्य कहाँ रहते हैं। लोक औ अलोकमें आकाश ही दरव और,
धर्माधर्म जहां लगु पूरित सो लोक है । ताही विष जीव पुदगलको प्रतीत करो,
कालकी असंख जुदी अनू हूको थोक है ॥ समयादि परजाय जीव पुदगलहीके,
परिनामनिसों परगटत सुतोक है ।
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प्रवचनसार
[१२७
कजरकी रेनुकरि भरी कजरौटी जथा, . तथा वृन्द लोकमें विराजै दर्वथोक है ॥ ५३ ।।
दोहा । धर्माधर्म दरव दोऊ, गति थितिके सहकार । ये दोनों जहँ लगु सोई, लोकसीम निरधार ॥ ५४ ।।
(११) गाथा-१३७ यह किस प्रकारसे संभव है ?
दोहा । ज्यों नभके परदेश हैं, त्यों औरनिके मान । ' अपदेशी परमानु ते, होत प्रदेश प्रमान । ५५ ॥
मनहरण । एक परमानूके बराबर अकाश छेत्र,
ताहीको प्रदेश नाम ज्ञानी सिद्ध करी है । परमानु आप अपदेशी है सुभावहीते,
सूछिम न यातें और ऐसी दिढ़तरी है । ताही परदेशते अनंत परदेशी नभ,
धर्माधर्म एक जीव असंख प्रसरी है । ऐसे परदेशको प्रमान औ विधान करो, स्वामी कुन्दकुन्द वृन्द बंदै मोह भरी है ॥ ५६ ॥
प्रश्न-दोहा। नभ पुनि धर्माधर्मके, कहे प्रदेश जितेक । सो तो हम सरधा करी, ये अखंड थिर टेक || ५७ ॥
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१२८ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
जीव अमूरत तन धर, तासु असंख प्रदेश । सो केसे करि संभवे, लघु दीरघ जसु मेस ।। ५८ ॥
संकोचन अरु विस्तग्न, दोइ शकति जियमाहि । जहँ जसे तनको धेरै, तहँ तैसो ई जाहि ॥ ५९ ॥ ज्यों दीपक परदेशकरि, जो कछु घरत प्रमान । लघु दीरघ ढकना ढके, तजत न अपनो बान ।। ६० ।। वालक वयतै तरुन जब, होत प्रगट यह देह । बढ़त प्रदेश समेत तन, यामें कह संदेह ।। ६१ ॥ थूल अंग रुज संगत, जालु कृशित व्है जात । तहँ प्रदेश संकोचता, विदित विलोको भात ॥ ६२ ॥
(१२) गाथा-१३८ कालाणु अप्रदेशी ही है ।
___ मनहरण । कालानू दरव अप्रदेशी है असंख अनू, '
मिलन सुभावके सरवथा अभावते । सो प्रदेश मात्र पुग्गलानूके निमित्तसेती,
समै पर्ज प्रगटिकै वर्तत वतावते । आकाशके एक परदेशतें दुतीयपर,
जवै पुगलानु चले मंदगति दावत । ऐसे निश्च विवहारकालको सरूप भेद,
ज्ञानी जीव जानिके प्रतीत चित लावते ।। ६३॥ है
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प्रवचनसार
[ १२९
दोहा । लोकाकाश प्रदेश प्रति, कालानू परिपूर । हैं असंख निरवाध नित, मिलन शकति दूर ।। ६४ ॥ ताही एक प्रदेशतें, जब पुदगल परमानु । चलै मंदगति दुतियपर, तब सो समय बखान ॥ ६५ ॥ याही समय प्रमानकरि, है धुव वय उतपाद । वरतमान सब दरवमें, विवहारिक मरजाद ॥६६॥ (१३) गाथा-१३९ उनके द्रव्य और पर्याय ।
मनहरण । एक कालअनूतँ दुतीय कालअनूपर,
जात नवे पुग्गलानु मंदगति करिकै । तामें नो विलंब होत सोई काल दरवको,
समै नाम परजाय जानो भर्म हरिकै ॥ ताके पुल परे जो पदारथ हैं नितभूत,
सोई काल दरव है धौव धर्म धरिकै । समय परजाय उतपाद १५९५ कहे,
ऐसे सरधान करो शंका परिहरिकै ॥ ६७ ॥
. दोहा । जो अखंड ब्रहमंडवत, काल दरवहू होत । समय नाम परजाय तब, कबहुं न होत उदोत ॥ ६८ ॥ मिन्न-भिन्न कालानु जब, अमिल सु....भी होय । गनितरीतिगत कर्ममें, तब ही बनै बनोय ॥ ६९ ॥
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१३० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
इक कालानू छांडिकै, जब दुतीयपर जात । पुग्गलानु गति मंद करि, तब सो समय कहात ॥ ७० ॥ सो निरंश अति सूक्ष्म है, काल दरवकी पर्ज । याहीत क्रम चढ़ि बढ़त, सागरांत लगु सर्न ॥ ७१ ।।
प्रश्न
पुग्गलानु गति शीघ्र करि, चौदहराजू जात । समय एकमें हे सुगुरु, यह तो बात विख्यात ॥ ७२ ।। तहां संपरसत कालके, अनु असंख मगमाहिं । याहूमें शंका नहीं, श्रेणीबद्ध रहाहिं ।। ७३ ॥ पुव्वापरके भेदतें, समयमाहिं तित भेद । असंख्यातं क्यों नहि कहत, यामें कहा निषेद ॥ ७४ ॥
उत्तरजिमि प्रदेश आकाशको, परमानू परमान । अति सूच्छिम निरअंश है, मापन गज परधान ॥ ७५ ॥ ताहीमें नित बसत है, अनु अनंतको खंध । अंश अनंत न होत तसु, लहि तिनको सनबंध ॥ ७६ ॥ यह अवगाहन शकतिकी, है विशेषता रीत । तिमि तित गति परिनामकी, है विचित्रता मीत ॥ ७७ ॥ समय निरंश सरूप है, वीजभूत मरजाद । सरव- दरव परवरतई, धुव वय पुनि उतपाद ॥ ७८ ।।
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प्रवचनसार
[१३१
(१४) गाथा-१४० आकाशके प्रदेशका लक्षण ।
मनहरण । एक पुग्गलानु ‘अविभागी जिते आकाशमें,
बैठे सोई अकाशको प्रदेश बखान है । ताही परदेशमाहिं और पंच द्रव्यनिके,
प्रदेशको थान दान देइवेको बान है। तथा पर्म सूच्छिम प्रमानके अनंत खंध, . तेऊ ताही थानमें विराज थिति ठान है । निरवाध सर्व निज निज गुन पर्ज लिये, ऐसी अवगाहनकी शकति प्रधान है ॥ ७९ ॥
प्रश्न-छन्द नराच । अकाश दर्व तो अखंड एकरूप राजई । सु तासुमें प्रदेश मंगभेद क्यों विराजई ।। अखंड वस्तुमाहिं अंशकल्पना बनै नहीं । करै सुशिप्य प्रश्न ताहि श्रीगुरु कहैं यही ॥ ८० ॥
उसर-दोहा। निरविभाग इक वस्तुमें, अंश फल्पना होय । ' नय विवहार अधारतें, लौ न बाधा कोय ॥ ८१ । निजकरकी दो आंगुरी, नभमें देखी उठाव । .. . क्षेत्र दोको एक है, के दो जुदे . बतावः ॥ ८२ ।। नो कहि है की एक है, तो कहु कौन अपेच्छ । एक अखंड अकाशकी, के अंशनिके सेच्छ ।। ८३ ॥ .
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१३२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
जो कहि है नभपच्छ गहि, तब तो सांची बात है. जो अंशनिकरि एक कहि, तब विरोध दरसात ।। ८४ ॥ इक अगुरीके छेत्रसों, दूजेसों नहि मेल । अंश अपेच्छा इक कहें, यह 'लरिकनिको खेल ॥ ८५ । जुदे जुदे जो अंश कहि, नभ अखंडता त्याग । तौ प्रति अंश असंख नभ, चहियत तितौ विभाग ।। ८६ ॥ ताते नय विवहारत, अंश कथा उर आन | कारज विदित विलोकिक, जिन आगम परमान ।। ८७ ॥ (१५) गाथा-१४१ तिर्यक्प्रचय तथा ऊर्ध्वप्रचय ।
मनहरण । काल बिना बाकी पंच दर्वनिके परदेश,
ऐसे जैनवैनसों प्रतीति कीजियतु है। एक तथा दोय वा अनेक विधि संख्या लिय,
अथवा असंख तक चित दीजियतु है । ताके आगे अनंत प्रदेश लगु मेद वृन्द,
जयाजोग सबमें - विचार लीजियतु है । काल दर्व एक ही प्रदेशमात्र राजनु है,..
__ ऐसो सरधान सुद्ध सुधा पीजियतु है ।। ८८ ॥ अकाशके अनंत प्रदेश हैं अचल तैसे,
धर्माधर्म दोऊके असंख थिर थपा है।
POTTPOSTMCRIRAMINETROPOESPram+10mAmteTROTROPIOIRATIRECTORRAIMER:COPEECXICORCE:307.
१. बालकोंका ।
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प्रवचनसार
[ १३३
AVAVAVA
एक जीव दर्वके असंख परदेश कहे,
सो तो घटें बढ़े जथा देह दा ढपा है ।। एक पुग्गलानु है प्रदेश मात्र दर्व तऊ,
मिलन सुभावसों बढ़ावै वंश 'अपा है। संख्यासंख्य अनंत विभेद लगु ऐसें पंच, दर्वके प्रदेशको अनादि नाप नपा है ।। ८९ ॥
दोहा । जिनके बहुत प्रदेश हैं, तिर्यकप्रचई सोय । सो पांचों ही दरवमें, व्यापत हैं भ्रम खोय ॥९० ॥ कालानमें मिलनकी, शकति नाहिं तिस हेत । तिर्यक परचैके विपैं, गनती नाहिं करेत ॥ ९१ ॥ 'समयनिके समुदायको, ऊरधपश्चै नाम ।
सो यह सब दरवनिवि, व्यापत है अभिराम ॥ ९२ ॥ काल दरवके निमितः, ऊरधपरचै होत । ताहीते सब दरवको, परनत होत उदोत ॥९३ ॥ पंचनिके उरधनचर्य, काल दरवतै जानु । कालमाहिं ऊरधप्रचय, निजाधार परमानु ॥ ९४ ॥ "तीरक-परचै पांचमें, निजप्रदेश सरग । निजाधीन धारे. सदा, जथाजोग बहुरंग ॥ ९५ ॥
१. अपना। २. प्रचय-समूह · ३. कर्वप्रचय । . ४. तियंकप्रचय ।
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१३४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
(१६) गाथा-१४२ काल पदार्थका उध्वंप्रचय निरन्वय है,
इसका खंडन ।
माधवी। जिस काल समैकहँ एक सभे,
महँ वै उतपाद विराजि रहा है । तव ह वह आपु सुभावविप,
__समवस्थित है धुवरूप गहा है । परजाय समै उपजै विनश,
अनु पुग्गलकी गति रीति जहा है । यह लच्छन काल पदारथको, . सुविलच्छन श्रीगुरुदेव कहा है ॥ ९६ ॥
दोहा । कालदरवको क्यों कहो, उपजनविनशनरूप । समय परजहीकों कहो, वयउतपादसरूप ॥ ९७ ॥ और दरवको छांटिके एकै समयमँझार । उतपत धुव वय सधत नहिं, कीजै कोट विचार ॥ ९८ ॥ उतपत अरु वयके विषै, राजत विदित विरोध । अंधकार परकाशवत, देखो निज घट शोध ॥ ९९ ॥ ताः कालानू दरव, धौव गहोगे जब्ब । निरावाध एकै समय, तीनों सधि है तन्न ॥ १० ॥
१. पथा।
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प्रवचनसार
[ १३५
छप्पय । जब पुग्गल परमानु, पुवकालानु त्याग करि । अगिलीपर वह गमन करत, गति मंद तासु धरि ।। समय कहावत सोय, तहां आधार दरव गहु ।
तब तीनों निरवाघ सधैं, इक समयमांहिं बहु ।। लखि निजकर अंगुरी वक्र करि, एक समय तीनों दिखें । उतपाद वक्र वय सरलता, भ्रा अँगुरी देनों विखे ॥ १०१ ॥ (१७) गाथा-१४३ प्रत्येक समयमें कालपदार्थ
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यवाला है।
मनहरण । एकही समैमें उतपाद ध्रुव वय नाम,
ऐसे तीनों अर्थनिको काल दर्व धार है। निश्वकरि यही सदभावरूप सत्ता लिये,
. निजाधीन निरावाध वर्तत उचारै है। जैसे एक समैमें त्रिभेदरूप राजत है, ..
तैसे सर्वकाल सर्व कालान पसार है । समें परजाय उतपाद वयरूप राजै,
दर्वकी अपेच्छा ध्रुव धरम उदारै है ॥ १०२ ॥ (१८) गाथा-१४४ प्रत्येक कालाणु द्रव्यका एक
प्रदेशमात्रपना। वस्तुको सरूप असतित्वको निवासभूत,
सत्ता रसकूपको अधार परदेस है ।।
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१३६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
ऐसो परदेस जाके येकी नाहिं पाइये तो,
बिना परदेस कहो कसो ताको भैस है । सो तो परतच्छ ही अवस्तु कन्यरूप भयो,
कैसे करि जाने ताके सामान्य विशेत है । अस्तिरूप वस्तुहीके होत उतपाद वय, गुन परजायमाहिं गसो उपदेस है ॥ १०३ ।।
दोहा । जो प्रदेश” रहित है, सो तो भयो अवस्त । ताके धुव उतपाद वय, लोपित होत समस्त । १०४ ॥ ताते काल दरव गहो, अनुप्रदेश परमान । तब तामें तीनों सधैं निरावाघ परधान ॥ १०५॥
मनहरण । केई कह समय परजायहीको दर्व कहो,
प्रदेशप्रमान कालअनू कहा करसै । समै ही अनादित निरंतर अनेक अंश,
परजायसेती उतपाद-पद परसें ।। तामें पुन्वको विनाश उत्तरको उतपाद,
पर्जपरंपरा सोई धौव धारा वरस । ऐसे तीनों मेद भले सधे परजायहीमें, तासों स्यादवादी कहै यामें दोष दरसै ॥ १०६ ।।
गीता । जिस समयका है नाश तिसका, तो सरवथा नाश है। जिस समयका उतपाद सो, भी सुतह विनशत जात है ।
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१३६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
ऐसो परदेस जाके येकी नाहिं पाइये तो,
बिना परदेस कहो कसो ताको भैस है । सो तो परतच्छ ही अवस्तु कन्यरूप भयो,
कैसे करि जाने ताके सामान्य विशेत है । अस्तिरूप वस्तुहीके होत उतपाद वय, गुन परजायमाहिं गसो उपदेस है ॥ १०३ ।।
दोहा । जो प्रदेश” रहित है, सो तो भयो अवस्त । ताके धुव उतपाद वय, लोपित होत समस्त । १०४ ॥ ताते काल दरव गहो, अनुप्रदेश परमान । तब तामें तीनों सधैं निरावाघ परधान ॥ १०५॥
मनहरण । केई कह समय परजायहीको दर्व कहो,
प्रदेशप्रमान कालअनू कहा करसै । समै ही अनादित निरंतर अनेक अंश,
परजायसेती उतपाद-पद परसें ।। तामें पुन्वको विनाश उत्तरको उतपाद,
पर्जपरंपरा सोई धौव धारा वरस । ऐसे तीनों मेद भले सधे परजायहीमें, तासों स्यादवादी कहै यामें दोष दरसै ॥ १०६ ।।
गीता । जिस समयका है नाश तिसका, तो सरवथा नाश है। जिस समयका उतपाद सो, भी सुतह विनशत जात है ।
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प्रवचनसार
[ १३७
धुर कौन इनमें है जिसे, आधार घरि हो3 यही । यों कइत छिनछायी दरवमें, दोष लागगो सही ॥१०७॥
दोहा । तात कालानू दरव, ध्रौव गहोगे जव्य । निरावाध एकै समय, तीनों सधि हैं तब्ब ॥१०८॥
मदावलिप्तकपोल । फाल दग्वमें जो प्रदेशको थापन कीना । तो असंख कालानु, मिन्न मति कहो प्रवीना ॥ कहो अखंडप्रदेश, लोकपरमान तासु कहँ । ताहीत उतपन्न समय, परजाय कहो तह ॥१०९॥
मनहरण । कालको अखंड मानें समय नाहिं सिद्ध होत,
समय परजाय तो तय ही उपजत है। जब कालअनू भिन्न भिन्न होहिं सुभावते,
तहां पुगलानू जब चले मंदगत है ॥ एकको उलंघि जब दूजे कालअनूपर,
तामें जो विलंब लग सोई समै जत है । अखंडप्रदेशी मानें कैसे . गतिरीति गर्न, फैसे करै कालको प्रमान कहु सत है ॥११॥
दोहा। तासे कालानू दरव, मिन्न गहोगे जव्य । निरावाध एक समय, तीनों सधि हैं तब्य ॥११॥
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१३८ ]
फविवर वृन्दावन विरचित
काल अखंडित मानतें, समय भेद मिटि जाय । तथा सरव परदेशतें, जगै समय परजाय ॥११२॥ तथा कालके है नहीं, तिर्यक-परचें रूप । एक यहू दूपन लगै, यों भापी जिनम्प ॥११३॥ काल असंख अनू-हको, सुनो वरतना भेद । प्रथमहिं एक प्रदेशतें, वरततु है निरखेद ॥११॥ पुनि तसु आगेकी अनू, तिनसों वर्तत सोय । पुनि तसु आगे और सो, वर्तत है अनु जोय ॥११५॥ असंख्यात अनु-रूपकरि, ऐसे वरतत नित्त । काल दरवकी वरतना, यो जिन भापी मित्त ॥११६ । याके ऊरध ऊरधे, होहि समय परजाय । सब दरवनिपर करत है, वर्तनमाहिं सहाय ॥११७ ।
कवित्त ( ३१ मात्रा) ताः तत्त्वारथके मरमी, तिनको प्रथमहिं यह उपदेश । कालदरव परदेशमात्र है, ध्रौवप्रमान रूप तसु मेश ॥ नित्तभूत निरवाध असंखा, अनु अनमिलन सुभाव हमेश । ताहीकी परजाय समय है, यों भाषी सरवज्ञ जिनेश ।११८॥
दोहा। मंगलमूल जिनिंदको, वदों वारंवार । जसु प्रसाद पूरन भयो, बड़ो ज्ञेयअधिकार ॥११९ ।
इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारजी ताको वृन्दावनकृतभाषाविषं विशेषज्ञेयाधिकार नामा पांचमा अधिकार पूरा भया।
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प्रवचनसार
[ १३९
इहां ताई सर्व गाथा १४६ और भाषाके छंद सर्व ५८१ । पांचसौ इक्यासी भये. सो समस्त जयवंत होहु । मिती मार्गशीर्ष
शुक्ल पष्ठी ६ शुक्रवारे संवत् १९०५ । काशीजीमें वृन्दावनने लिखो मूल प्रति । सो जयवंत होहु ।
भों नमः सिद्ध भ्यः । अथ षष्ठ ज्ञेयतत्त्वान्तर्गत-व्यावहारिक
जीवद्रव्याधिकारः
मंगलाचरण-दोहा । श्रीमत तीरथनाथ नमि, सुमरि सारदा 'संत ।
जीवदरवको लिखत हों, विवहारिक विरतंत ॥१॥ (१) गाथा-१४५ व्यवहार जीवत्वका हेतु ।
मनहरण । सहित प्रदेश सर्व दर्व जामें पूरि रहे,
एसो जो अकाश सो तो अनादि अनंत है । नित्त नूतन निराबाध अकृत अमिट,
अनरच्छित सुभाव सिद्ध सर्वगतिवंत है । तिस पटदर्वजुत लोकको जो जानत है,
सोई जीवदर्व जानो चेतनामहंत है । वही चार प्रानजुत जगतमें राजे वृन्द,
अनादि संबंध पुद्गलको धरत है ॥२॥ . साधु-मुनि । २ नित्य-अविनाशी ।
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१४० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
दोहा । पंच दरव सब ज्ञेय हैं, ज्ञाता आतमराम । सो अनादि चहु प्रान जुत, जगमें कियो 'मुकाम ।। ३ ।।
(२) गाथा-१४६ प्राण । इन्द्रीवल तिमि आयु पुनि, सासउसासरु प्रान । जीवनिके संसारमें, होहिं सदीव प्रमान || ४ ..
छप्पय । 'फास जीभ नासिका, नैन श्रुति पंच अच्छ गहु । काय वचन मन सु बल, तीन परतीति मान यहु ॥ आयु चार गति थिति, तथैव सासो उसास गनि ।
ये दशहूं विवहार-प्रान, जग जीवनिके भनि । निहचैकरि सुख सत्ता तथा, अयोधन चैतन्नता ।। यह चार प्रान धारै सदा, सहज सुभाव अमिन्नता । ५॥ (३) गाथा-१४७ प्राणोंको जीवत्वका हेतुत्व और
पौद्गलिन ।
मत्तगयन्द । नो जगमें निहचै करिके, धरि चार प्रकारके प्रान प्रधानो । जीवतु है पुनि जीवत थौ, अरु आगे हु मैं वही जीवे निदानो ।। सो वह जीव पदारथ है, चिनमूरति आनंदकंद सयानो ।
औ 'चहु प्रान कहे वह तो, उपजे सब पुग्गलत परमानो ॥६॥ १ स्थिति । २ स्पर्श । ३ अक्ष-इन्द्रियं । ४. चउ-चार।
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प्रवचनसार
[१४१
(४) गाथा-१४८ उनकी सिद्धि .
मनहरण । अनादित पुग्गल प्रसंगसों चिदंगजूके,
चढ्यो है कुढंग मोह रंग सरवंग है । -ताही कर्मबंधों निबद्ध चार प्राननिसों,
कर्मनिको उदैफल भोगै बहुरंग है । तहां और नूतन करमको प्रबंध बधै,
जाते मोह रागादि कुभावको तरंग है । ऐसे पुग्गलीक कर्म उदै जगजीवनिके, पुग्गलीक कर्मबंध उदैको प्रसंग है ॥ ७ ॥
दोहा । कारनके साहश जगत, कारज होत प्रमान ।
तातै पुदगल करमकरि, पुदगल वैधत निदान ॥ ८॥ (५) गाथा-१४९ उसे पौद्गलिक कर्मका कारणत्व ।
मिला। . जगजीव निरंतर मोहरु दोष, कुभाव विकारनिको करिकै । परजीवनिके चहु प्राननिको, 'विनिपात करें 'अदया धरिकै ॥ तबही निह हद कर्मनिसों, प्रतिबंधित होहिं मुधा भरिकै ।। जसुं भेद हैं ज्ञान-अवनको आदिक, यो लखिये भ्रमको हरिकै ॥९॥
दोहा। मोहादिककरि आपनो, करत अमलगुन घात ।।
ता पीछे परप्रानको, करत मूढ़ विनिपात ॥१०॥ १. घात-नाश। २. निर्दयता-कठोरता। ३. ज्ञानावरणादि। .
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१४२ ]
फविवर वृन्दावन विरचित
परप्राननिको घात तौ, होहु तथा मति होहु ।। पै निज ज्ञान-प्रान तिन, निहचै घाते सोहु ॥ ११ ॥ तव ज्ञानावरनादि तहँ, वर्धे करम दिन आय । ।
प्रकृति प्रदेशनुभाग थिति, जथाजोग समुदाय ॥ १२ ॥ (६) गाथा-१५० प्राणों की संततिकी प्रवृत्तिका अंतरंग हेतु ।
मत्तगयन्द । कर्म महामलसों जगमें, जगजीव मलीन रहै तब ताई । चार प्रकारके प्राननिको, वह धारत वार हि बार तहाई ॥ जावत देह प्रधानविपैं, ममता-मतिको नहिं त्याग कराई । या विधि बंधविधान कथा, गुरुदेव जथारथ वृन्द बताई ॥१३॥
दोहा । पजावत ममता भाव है, देहादिककेमाहि ।
तावत चार सुपान धरि, जगतमांहि भरमाहिं ॥ १४ ॥ तातें ममताभावको, करो सरवथा त्याग । निज समतारसरंगमें, वृन्दावन अनुराग ॥१५॥ (७) गाथा-१५१ उनकी निवृत्तिका अंतरंग हेतु ।
मतगयन्द । जो भवि इन्द्रियआदि विजैकरि, ध्यावत शुद्धपयोग अभंगा । कर्मनिसों तजि राग रहै, निरलेप जथा जल कंज प्रसंगा ॥
झांक-विहीन जथा फटिकप्रभ, त्यों उर जोतकी वृन्द तरंगा ।। क्यों मल प्रान बँधै वह तो, नित न्हात विशुद्ध सुभाविक गंगा ॥१६॥ १. यावत्-जब तक । २. तावत्-जब तक । ३. कमल । ४. छायारहित।
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प्रवचनसार
[१४३
माधवी। अपने असतित्व सुभावविपैं, नित निश्चलरूप पदारथ जो है। चिनमूरत आप अमूरत जीव, असंख प्रदेश धरै वह तो है ॥ तिसके पर पुग्गलके परसंगते, सो परजाय अनेकनि हो है। हूँ जसु संहननौर अकार अनेक, प्रकार विभेद सुवेद भनो है ॥१७॥ (८) गाथा-१५२ आत्माकी अत्यंत भिन्नता सिद्ध करने के लिये व्यवहार जींवत्लकी हेतुभून मनुष्यादि पर्यायोंका स्वरूप।
मनहरण । संसार अवस्थामाहिं जीवनिके निश्चैकरि,
पुग्गलविपाकी नामकर्म उदै आयेते । नर नारकौर तिरजंच देवगति विपैं,
जथाजोग देह वनै परजाय, , पायेते ॥ संसथान संहनन आदि बहु भेद जाके,
पुग्गलदरवकरि रचित बतायेतै । जैसे एक आगि है अनेक रूप ईधनतें,
नानाकार से तहां चेतन सुभायेते ॥१८॥ (९) गाथा-१५३ अब पर्यायके भेद ।
मत्तगयन्द । जे भवि भेदविज्ञान धरै, सब दर्वनिको जुत भेद सुजाने । ने अपनो सदभाव धरै, निज भाववि थिर हैं परघाने ॥ द्रव्य गुनौ परजायमई, तिनको धुव व उतपाद पिछाने ।
सो परदर्वविर्षे कबहूँ नहिं, मोहित होत सुबुद्धिनिधाने ॥१९॥ है १. संहनन-और। २. मारफ + और । ३. व्यय-नाश ।
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१४४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
मनहरण । जाने काललब्ध पाय दर्श मोहको खिगाय,
उपशमवाय वा सुश्रद्धा यों लहाही है । मेरो चिदानंदको दरव गुन परजाय,
उतपाद वय धुव सदा मेरे पाहीं है ॥ और परदर्व सर्व निज निज सत्ताहीमें,
कोऊ दर्व काहूको सुभाव न गहाही है । तातें जो प्रगट यह देह खेह-खान दीसे,
___ सो तो मेरो रूप कहूं नाहीं नाहीं नाहीं है । २०॥ म (१०) गाथा-१५४ अब आत्माकी अन्य द्रव्य के साथ
संयुक्तता होनेपर भी अर्थ निश्चायक अस्तित्व के स्व-पर विभागके हेतु रूपमें समझाते हैं।
मिला। उपयोगसरूप चिदातम सो, उपयोग 'दुधा छवि छाजत है। नित जानन देखन भेद लिये, सो शुभाशुभ होय विराजत है ॥ तिनही करि कर्मप्रबंध बँधै , इमि श्रीजिनकी धुनि गाजत है।
जब आपमें आपुहि बाजत है, तब श्योपुर नौबत वाजत है ॥२१॥ (११) गाथा-१५५-१५६ आत्माको अत्यन्त विभक्त करनेके लिये परद्रव्यके संयोगके कारणका स्वरूप कहते हैं।
मनहरण । जब इस आतमाके पूजा दान शील तप,
__संजम क्रियादिरूप शुभ उपयोग है । १. मलकी खानि । २. द्विधा-दो प्रकार । ३. शिवपुर-मोक्ष ।
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प्रवचनसार
[ १४५
___ तव शुभ आयु नाम गोत पुन्यवर्गनाको,
कर्मपिंड बँधै यह सहज नियोग है ॥ अथवा मिथ्यातविर्षे अव्रत कषायरूप,
__ अशुभोपयोग भये पापको संजोग है । दोऊके अभावतें विशुद्ध उपयोग वृन्द, ___ तहां बंध खंडके अखंड. सुख भोग है ॥२२॥ (१२) गाथा-१५७ शुभोपयोगका कथन ।
मतगयन्द । जो जन श्री जिनदेवको जानत, प्रीतिसों वृन्द तहाँ लब लावै । सिद्धनिको निज ज्ञानतै देखिकै, ध्यापक होयके ध्यानमें ध्यावै ॥ । औ 'अनगार गुरूनिमें भक्ति, दया सब जीवनिमाहिं दिहावै । ताकहँ श्रीगुरुदेव वखानत, सो 'शुभरूपपयोग कहावै ॥२३॥ (१३) गाथा-१५८ अशुभोपयोग ।
मनहरण । इंद्रिनिके विषै और क्रोधादि कषायनिमें,
जाको परिनाम अवगाढागाढ़ रुखिया । मिथ्याशास्त्र सुनै सदा चित्तमें कुभाव गुने,
दुष्ट संग रंगको उमंग रस चुखिया । जीवनिके • घातको जतन करत नित,
कुमारग चलिमें उप्रमुख मुखिया । ऐसो उपयोग ' सोई अशुभ कहावत है,
जाके उरवसै वह कैसे होय मुखिया ॥२४॥ १. दिगम्बर । २. शुभोपयोग ।
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१४६ ]
फविवर वृन्दावन विरचित
(१४) गाथा-१५९ अशुद्धोपयोग (शुभ-अशुम) जो कि
परद्रव्य के संयोगके कारण हैं, उनके विनाशका अभ्यास बताते हैं।
मत्तगयन्द । मैं निज ज्ञानसरूप चिदातम, ताहि सुध्यावत हौं भ्रम टारी । भाव शुभाशुभ बंधके करन, तातै तिन्हैं तजि दीनों विचारी ॥ होय मधस्थ विराजत हों, परदर्व वि. ममता परिहारी । सो सुख क्यों मुखसों बरनौं, जो चखै सो लखै यह वात हमारी ॥२५॥
दोहा । . तातै यह उपदेश अव, सुनो भविक बुधिवान । ___ उदिम करि जिन वचन सुनि, ल्यो निजरूप पिछान ॥२६॥
ताहीको अनुभव करो, तजि प्रमाद उनमाद । देखो तो तिहि अनुभवत, कैसो उपजत स्वाद ॥२७॥ जाके स्वादत ही तुम्हें, मिले अतुल सुख पर्म । पुनि शिवपुरमें जाहुगे, परिहरि अरि वसु कर्म ॥२८॥ यही शुद्ध उपयोग है, जीवन-मोच्छसरूप ।
यही मोखमग धर्म यहि, यहि शुद्धचिद्रूप ॥२९॥ । (१५) गाथा-१६० शरीरादि परद्रव्यके प्रति भी मध्यस्थता ।
मनहरण । मैं जो हों शुद्ध चिनमूरत दरव सो,
त्रिकालमें त्रिजोगरूप भयो नाहि काही ।
१. उद्यम ।
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प्रवचनसार
[ १४७
तन मन 'वैन ये प्रगट पुदगल यातें, - मैं तो याको कारन हू बन्यौ नाहिं तब ही ॥ तथा करतार औ करावनहार नाहिं, ___ करताको अनुमोदक हूं नाहिं जब ही । ये अनादि पुग्गलकरमही" होते आये,
ऐसी वृन्द जानी- जिनवानी सुनी अब ही ॥३०॥ (१६) गाथा-१६१ तन-वचन-मनका भी पुद्गलस्व । तन मन वचन त्रिजोग है. पुदगलदरवसरूप । ऐसें दयानिधान वर, दरसाई जिनभूप ॥ ३१ ॥ सो वह पुदगल दरवके, अविभागी परमानु । तासु खंधको पिंड है, यो निहचै उर आनु ॥ ३२ ॥ (१७) गाथा-१६२ आत्माके परका तथा परके कर्तृत्वका
अभाव ।
मनहरण । मैं जो हो विशुद्ध चेतनत्वगुनधारी सो तो,
पुग्गल दरवरूप कभी नाहिं भासतो । तथा देह पुग्गलको पिंड है 'सुखंध बंध,
सोउ मैंने कीनों नाहिं निहचे प्रकासतो ॥ ये तो है अचेतन औ मूरतीक जड़ दर्व,
मेरो चिच्चमतकार जोत है चकासतो । तातें मैं शरीर नाहिं करता हूँ ताको नाहि,
मैं तो चिदानंद वृन्द अमूरत सासतो ॥३३॥ १. वचन । २. स्कंध-परमाणुप्रोंका समूह । ।
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१४८ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
(१८) गाथा-१६३ परमाणुओं मिलकर पिंडरूप पर्याय । अप्रदेशी अनू परदेशपरमान दर्व,
सो तो स्वयमेव शब्द-'परजरहत है । तामै चिकनाई वा रुखाई परिनाम बस,
सोई बंध जोग भाव तासमें कहत है ॥ ताहीसेती दोय आदि अनेक प्रदेशनिकी, .
दशाको बढ़ावत सुपावत महत है । ऐसे पुदगलको सुपिंडरूप खंध बँधे, यासों चिदानंदकंद जुदोई लहत है ॥३४॥
दोहा। अविभागी परमानु वह, शुद्ध दरव है सोय । वरनादिक गुन पंच तो, सदा धेरै ही होय ॥३५॥ एक वरन इक गंध इक, रस दो फासमझार । अंतर मेदनिमें धरे, श्रुति लखि लेहु विचार ॥३६॥ (१९) गाथा-१६४ परमाणुके स्निग्ध-रूक्षत्व कैसा ।
मनहरण । पुग्गलअनूमें चिकनाई वा रुखाई भाव,
एक अंश” लगाय भाषे मैदरास है। एकै एक बढ़त अनंत लौं विभेद बढ़े,
जातै परिनामकी शकति ताके पास है ॥ जैसे छेरी गाय भैंस ऊंटनीके दूध घृत,
तामें चिकनाई वृद्धि क्रमः प्रकास है । १. पर्याय-रहित । २. स्पर्शमें । ३. पुद्गलाणुमें ।
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प्रवचनसार
[ १४९
धूलि राख रेतकी रुखाईमें विभेद जैसे,
तैसे दोनों भावमें अनंत भेद भास है ॥३७॥ (२०) गाथा-१६५ स्निग्धत्व, रूक्षत्वसे पिंडता कारण ।
मनहरण । पुग्गलकी अनू चीकनाई वा रुखाईरूप,
आपने सुभाव परिनाम होय 'परनी । अंशनिकी संख्या तामें सम वा विषम होय,
दोय अंश बाढ़हीसों बंधजोग वरनी ॥ एक अंश घटे बढ़े बँषत कदापि नाहि,
ऐसो नेम निहचे प्रतीति उर धरनी । पीकन रुखाई अनुबंध हू बधत ऐसे, . आगमप्रमानत प्रमान वन्द करनी ॥३८॥
दोहा । दोय चार पट आठ दश, इत्यादिक सम जान । तीन पांच पुनि सात नव, यह क्रम विषम बखान ॥३९॥ चीकनताईकी अनू, सम अंशनि परमान । दोय अधिक होतें बंधे, यह प्रतीत उर आन ॥४०॥
रुच्छ भावकी जे अनू, . ते विपमंश प्रधान । दोय अधिकतें बंधत हैं, ऐसे लखो सयान. ॥११॥ अथवा . चीकन रूक्षको, बंध परस्पर होय । दोय अंशकी अधिकता, जोग मिलै जब. सोय ॥४२॥
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१. भम्म । २. परिणमन किया, परिनमी । ३. रूक्ष ।
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१५० ]
कविवर घृन्दावन विरचित
NM
एक अनू इक अंशजुन, दुतिय तीनजुत होय । जदपि जोग है बंधके, तदपि बंधैं नहिं सोय । ४३॥ एक अंश अति जघन है, सो नहिं बंधै कदाप । नेमरूप यह कथन है, श्रीजिन भापी आप ॥१४॥ (२१) गाथा-१६६ वही नियम ।
मनहरण । चीकन सुभाव दोय अंश परनई अनू,
ताको बंध चार अंशवालीहीसों होत है । और जो रुग्वाई तीन अंश अनू धारे होय,
पंच अंशवालीसेती बाको बंध होत है । ऐसे ही अनंत लगु भेद सम विषमके,
दोय अंश अधिकतै बंधको उदोत है । रुच्छचीकनीहू बँधै खधहूसों खंध बँधै, याही रीतिसेती लखें ज्ञानी ज्ञान जोत है ॥४५||
दोहा। चीकनकी सम अंशतै, विषम अंशतै रुच्छ । दोय अधिक होतें बँधैं, पुग्गलानुके गुच्छ ॥४६॥ चीकनता गुनकी अनू, पांच अंशजुत जौन । सात अंश चीकन मिलै, बंध होतु है तौन ॥४७॥ चार अंशत्रुत रुच्छसों, षट जुतसों बँध जात । यही भांति अनंत लगु, जानों भेद विख्यात ॥४८॥ दोय अनू अंशनि गिनें, होहिं बराबरं जेह । ताको बँध बँधै नहीं; यों जिनवैन · भनेह ॥४९॥ . .
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प्रवचनसार
[ १५१
(२२) गाथा-१६७ आत्माका उनका कर्तापनाका अभाव है।
छप्पय । दो प्रदेश आदिक अनंत, परमानु खंध लग । सूच्छिम बादररूप, जिते आकार घरे जग ॥ तथा अवनि जल अनल, अनिल परजाय विविधगन ।
ते सब निग्ध रु रुच्छ, सुभावहित उपजे भन ॥ यह पुदगलदरवरचित सरव, पुग्गल करता जानिये । चिनमूरति यात मिन्न है, ताहि तुरित पहिचानिये ॥५०॥ (२३) गाथा-१६८ आत्मा उसको लानेवाला भी
नहीं है।
मनहरण । लोकाकाशके असंख प्रदेश प्रदेश प्रति,
कारमानवर्गना भरी है पुदगलकी । सूच्छिम और बादर अनंतानंत सर्वठौर,
अति अवगादागाढ़ संधिमाहिं झलकी ।। आठ कर्मरूप परिनमन सुभाव लिये,
आतमाके गहन करन जोग बलकी । तेईस विकार उपयोगको संजोग पाय, कर्मपिंड होय बंधैं रहै संग ललकी ॥५१ ।।
दोहा । तातै पुदगल करमको, आतम करता नाहिं । भूल भावः जीवकै, करम धूलि लपटाहि ।। ५२ ॥
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१. स्निग्ध-चिकना ।
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१५२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
है (२४) गाथा-१६९ आन्मा उसे कर्मरूप नहिं करता।
मनहरण । कर्मरूप होनकी सुभावशक्ति गमै वसे,
ऐसे जे जगत माहिं पुग्गलके खंध हैं । तेई जब जगतनिवासी जग जीवनिके,
परिनाम अशुद्धको पा सनबंध है ॥ तबै ताई काल कर्मरूप परिन सोई,
एसो वृन्द अनादित चलो आवै धंध है । ते वै कर्मपिंड आतमाने प्रनवाये नाहिं,
पुग्गलके खंधहीसौं पुग्गलको बंध है ॥५३॥ (२५) गाथा-१७० शरीरका कर्ता आत्मा नहीं है । जे जे दर्वकर्म परिनये रहे पुग्गलके, "
कारमानवगना सुशक्ति गुप्त धरिके । तेई फेर जीवके शरीराकार होहि सब,
देहांतर जोग पाये शक्त व्यक्त करिके ॥ जैसे वटवीजमें सुभाव शक्ति वृच्छकी सो,
वटाकार होत वही शक्तिको उछरिके । ऐसे दर्वकर्म वीजरूप लखो वृन्दावन,
ताहीको सुफल देह जानों भर्म हरिके ॥५४॥ (२६) गाथा-१७१ आत्माके शरीरका अभाव है। औदारिक देह जो विराजै नरतीरकके,
नानाभांति तासके अकारकी है रचना । १. नर-तियंचके।
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प्रवचनसार
[ १५३
तथा वैयक्रीयक शरीर देवनारकीके,
जथाजोग ताहूके अकारकी है रचना ॥ तैजस शरीर जो शुभाशुभ विभेद औ,
अहारक तथैव कारमानकी विरचना । ये तो सर्व पुग्गल दरवके बने हैं पिंड,
__ यातै चिदानंद मिन्न ताहीसों परचना ॥ ५५ ॥ (२७) गाथा-१७२ जीवका असाधारण स्वलक्षण जो
परद्रव्योंसे विभागका साधन है वह क्या है ?
चेतनालक्षणवाली अलिंग-ग्रहणकी गाथा । अहो भव्यजीव तुम आतमाको एसो जानो,
जाके रस रूप गंध फास नाहिं पाइये । शब्द परजायसों रहित नित राजत है,
अलिंगग्रहन निराकार दरसाइये ॥ चेतना सुभावहीमें राजे तिहूँकाल सदा,
आनंदको कंद जगवंद वृन्द ध्याइये । भेदज्ञान नैनते निहारिये जतनहीसों, ताके अनुभव रसहीमें झर लाइये ॥ ५६ ॥
दोहा। शब्द अलिंगग्गहन गुरु, लिख्यौ जु गाथामाहिं । कछुक अस्थ तसु लिखत हों, जुगतागमकी छांहिं ॥ ५७ ॥
१. वैक्रियक ।
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१५४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
चौपाई। चिब सुपुदगलके हैं जिते । फरस रूप रस गंध जु तिते । तिन करि तासु लखिय नहि चिह । बाहूत सु आलंगरगहन ॥१८॥ अथवा तीन लिंग जगमाहिं । नारि नपुंसक नर ठहराहिं ।। ताहूकरि न लखिय तमु चिह्न । याहूत सु अलिंगरगहन ॥५१॥ अथवा लिंग जु इंद्रिय पंच । ताइकरि न लखिय तिहि रंच । अतिइन्द्रियकरि जानन सहन । य हूते सु अलिंगरगहन ॥६०॥ अथवा इन्द्रियजनित जु ज्ञान । ताकरि है न प्रतच्छ प्रमान । की है आतमको यह चिह। याहूत सु अलिंगगहन ॥६१॥ अथवा लिंग नाम यह जुप्त ! लच्छन प्रगट लच्छ जसु गुप्त । घूम अग्नि जिमि तिमि नहिं चिह्न । याहूत सु अलिंगग्गहन ॥३२॥ अथवा आनमती बहु के । दोपसहित लच्छन अन तकें । ताहकरि न लखिय तसु चिह्न । याहूते सु अलिंगरगहन ॥६॥ इत्यादिक बहु अस्यविधान । शन्द अलिंगगहनको जान । सो विशाल टीकाते देखि | पंडित मनमें दियौ विशेखि ॥६॥ यह चेतन चिद्रूप अनूप । शुद्ध सुभाव सुधारसकूप । स्वसंवेदनहिकरि सो गम्य । लखहिं अनुभवी समरसरम्य ॥६५|| शब्दवनको पाय सहाय । करि उदिम मन-वचन-काय । काललब्धिको लहि संजोग । पा निकटमव्य ही लोग ॥६६॥ तातें गुन अनंतको धाम । वचन अगोचर आतमराम । चन्दावन उर नयन उघारि । देखो ज्ञानज्योति अविकारी ॥६७॥
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प्रवचनसार
प्रवचनसार
[१५५
(२८) गाथा-१७३ आत्माके अमूर्त-मूर्तका अभाव है
तो बंध कैसे?
मनहरण । मूरतीक रूप आदि गुनको धरैया यह,
पुग्गल दरवसों फरस आदिवानसों । आपुसमें वं नाना भांति परमानू खंध,
सो तो हम जानी सरधानी परमानसों ॥ तासों विपरीत जो अमूरत चिदातमा सो,
कैसे बधै पुग्गल दग्व मूर्तिनानसों । यह तो अचंभौ मोहि ऐसो प्रतिभा वृन्द,
अमल मिलाप ज्यों "नितंब जु कानमों" ||६८॥ (२९) गाथा-१७४ आत्माके अमूतत्व होने पर भी इस
प्रकार बंध होता है। रूपादिक जे हैं मूरतीक गुन पुग्गलके,
तिनसों रहित जीव सर्वथा प्रमानसों । ऐसो है तथापि वह अन्यरूर होत नाहि,
आपनी सुसत्तामें विराजे परधानसों ॥ सर्व दर्व सदा निज दर्वित आकार धरे,
काहूको आकार कभी मिलै नाहिं आनसों । तैसे ही अरूपी चिदाकार वन्द आतमा है,
ताके अब सुनो जैसे वैधत विधानसौ ॥६९ ॥ रूपी दर्व घटपट आदिक अनेक तथा,
ताके गुनपरजाय विविध वितानसों ।
नार
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१५६ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
MAHEMAR
ALLACh2RNALISMALLIATRAMMCalchhanep
तिनको मल्पी जीव देते जाने भलीभांत,
यह तो मवाघ सिद्ध प्रान्छ प्रनानसों ॥ जो न होत अल्प वन्त यह मान्मा तौ,
कैसे ताहि देखती औ जानन महानों । वैसे ताके वंचको विधान हू मुजानी बन्द, सनिल मिलाप ज्यों "शबद जुरे कानसों" |७.1
दोहा । देखन जाननकी शाति, जो न जीवनहँ होत । तब निहि विवि संसारमें, वचन होत उदोन ७१| मोह राग ल नावारि, देवत जानत जीव 1 . नाही मात्र विकारों, आयु हि बंधन सदीत्र ७२॥ राग चिकनाई नई, दोष रच्छता माय । बाहीके सुनिमित्ता, पुद्गलमान बघाय १७३!! आत्मके परदेश प्रति, दक्ति कर्म अनाद । तिनसों नूतन मननो, वंव परत निवाद । ७४ यह विवहारिक बंधविधि, निहत्रे व न सोय । जहूँ अशुद्ध उपयोग है, नोइ त्रिकंटक जोय !७
मनहरण । जैसे वाल्वालगन के सांचे नाटीनिके,
देति जानि तिन्हें अपनाये राग जोगनों । तिनके निकट कोऊ नार लोरै बेलनिनो.
तवे ते अधीर होय रौवें वो शोरों ! तहां अब भो तो विचार मेवज्ञानी वृन्द, __ ये बयल सोड़ी नमनाकी डोरमों ।
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प्रवचनसार
[ १५७
तैसें पुदगल कर्म वाहिज निमित्त जानो, ___ बंध्यौ जीव निडचे अशुद्धता-मरोरसों ॥७६ । (३०) गाथा-१७५ भाववन्धका स्वरूप ।
माधवी। उपयोगसरूप चिदातम सो, इन इन्द्रिनिकी सतसंगति पाई । । बहु भांतिके इष्ट अनिष्ट विपैं, तिनको तित जोग मिले जब आई ॥ हूँ तब राग रु दोष विमोह विभावनि, -सों तिनमें प्रनवै लपटाई । है तिनही करि फेरि वधै तहँ आपु, यों भाविकबंधकी रीति बताई ||७७|| (३१) गाथा-१७६ भाववन्धकी युक्ति और द्रव्यवन्ध ।
मनहरण । रागादि विभावनिमें जौन भावकरि जीव,
देखे जाने इन्द्रिनिके विषय जे आये हैं । ताही भावनिसों तामें तदाकार होय रमै,
तासों फेरी बँधै यही भावबंध भाये हैं । सोई भावबंध मानों चीकन रुखाई भयो,
ताहीके निमित्त सेती दर्वबंध गाये हैं । जामें भाठ कर्मरूप कारमानवर्गना है,
ऐसे सर्वज्ञ भनि बुन्दको बताये हैं ||७८॥ (३२) गाथा-१७७ बन्धके तीन प्रकार । पुवबंध पुग्गलसों फरस विभेद करि,
नयो कर्मवर्गनाके पिंडको गथन है ।
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कविवर वृन्दावन विरचित
जीवके अशुद्ध उपयोग राग आदिकरि,
होत मोह रागादि विभावको नथन है ॥ दोऊको परस्पर संजोग एक थान सोई, ___जीव पुग्गलातमके बंधको कथन है । ऐसे तीन बंधभेद वेदमें निवेद वृन्द,
भेदज्ञानीजनित सिद्धांतको मथन है ॥७९॥ .. (३३) गाथा-१७८ द्रव्यबंधके हेतु भाववन्ध । ' असंख्यात प्रदेश प्रमान यह आतमा सो,
ताके परदेश विप से उर आनिये । पुग्गलीक कारमान वर्गनाको पिंड आय,
करत प्रवेश जथाजोग सग्धानिये ॥ फेरि एक छेत्र अवगाहकरि बंधत है,
थिति परमान संग हैं ते सुजानिये । देय निज रस खि! जाहिं पुनि आपुहिमों, ___ ऐसो भेद भर्म छेद भव्य वृन्द मानिये ॥८०॥
दोहा । कायवचनमन जोगकरि, जो आतम पन्देश । कंपरूप होवें तहां, जोग वध कहि तेस ॥ ८१ ।। तासु निमित्ततें आवही; करमवरगना खंध । सो ईर्यापथ नाम कहि, प्रकृति प्रदेश सुबंध ॥ ८२ ॥ रागविरोध विमोहके, जैसे भाव रहाहि । ताहिके अनुसारतें, थिति अनुभाग बघाहिं ॥ ८३ ॥
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प्रवचनसार
[ १५:
04.
Comme
(३४) गाथा-१७९ गग परिणाम मात्र जो भाव बन्ध है सो द्रव्य बन्धका हेतु होनेसे वहीं निश्चय बंध है।
द्रुमिला। परदविर्षे अनुराग धेरै, वसु कर्मनिको सोइ बंध करै । अरु जो जिय रागविकार तजै, वह मुक्तवधूकहं वेगि वरै ।। यह बंध रु मोच्छमरूप जथारथ, थोरहिमें निरधार धेरै । निहचै करिके जगजीवनिके, तुम जानहु वृन्द प्रतीन भरै ॥८४॥ .
चौपाई। रागभाव प्रनवे जे आंधे । नूतन दरव करम ते बांधे ॥ वीतरागपद जो भवि परसै । ताको मुक्त अवस्था सरसै ॥८५॥
दोहा। रागादिकको त्यागि जे, वीतराग हो जाहँ ।
चले जाहिं वैकुंठमें, कोइ न पकर बाहँ ॥ ८६ ॥ (३५) गाथा-१८० राग द्वेष-मोह युक्त परिणामसे बन्ध है। राग शुभ या अशुभ होता है ।
मनहरण । परिनाम अशुद्ध” पुग्गलकरम बंधे,
सोई परिनाम रागदोषमोहमई है। तामें मोह दोप तो अशुभ ही है सदा कालं,
रागमें दुभेद वृन्द वेद वरनई है ॥ पंच' परमेश्वरकी भक्ति' घरमानुराग, ___ यह शुभराग भाव कथंचित लई है ।
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१६० ]
__ कविवर वृन्दावन विरचित
विषय कषायादिक तामें रतिरूप सो,
अशुभ राग सरवथा त्यागजोग तई है ॥८७|| (३६) गाथा-१८१ शुभाशुभ परिणामके रहित परके प्रति है
प्रचात्त नहीं होती ऐसा परिणाम शुद्ध होनेसे कर्म
क्षयरूप मोक्ष है। परवस्तुमाहिं जो पुनीत परिनाम होत,
ताको पुन्य नाम वृन्द जानो हुलसंत है । तैसे ही अशुभ परिनाम परवस्तुविष,
ताको नाम पाप संकलेशरूप तंत है ॥ जहां परवस्तुविर्षं दोऊ परिनाम नहिं,
केवल सुसत्ताहीमें शुद्ध वरतंत है ।। सोई परिनाम सब दुःखके विनाशनको, कारन है ऐसे जिन शासन भनत है -॥८८ ।
चौपाई। पर परनतित रहित विचच्छन । सकल दुःख खयकारन लच्छन । मोच्छवृच्छत्तरुवीज विलच्छन । शुद्धपयोग गर्दै शिवगच्छन ।।८९।। (३७) गाथा-१८२ स्वाश्रयकी प्रवृत्ति और पराश्रयकी निवृत्तिकी सिद्धिके लिये स्वपरका विभाग बतलाते हैं।
मतगयन्द । है थावर जीव निकायनिके, पृथिवी प्रमुखादिक भेद घने हैं। है औ सरासि निवासिनके, तनके कितनेक न भेद बने हैं । है सो सब पुग्गलदर्वमई, चिनमूरतिते सब मिन्न ठने हैं । है चेतन हू तिन देहनितें, निहचै करि भिन्न जिनिंद भने हैं ॥९०॥ है
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प्रवचनसार
[ १६१
(३८) गाथा १८३ वैसा ही सम्पज्ञान और मिथ्या
ज्ञानरूप अज्ञान। जो जन या परकारकरी, निज औ परको नहिं जानत नीके । . आपसरूप चिदानंद वृन्द, तिसे न गहै मदमोह वीके । सो नित मैं तनरूप तथा, तन है हमरो इमि मानत ठीके । भूरि भवावलिमाहिं भमै, निहचै वह मोह महामद पीके ॥९१॥ है (३९) गाथा-१८४ आत्माका कर्म क्या है ?
मनहरण । . आतमा दरव निज चेतन सुपरिनाम,
ताहीको करत सदा ताहीमें रमत है । आपने सुभावहीको करता है निइचै सो,
निजाधीन भाव भूमिकाहीमें गमत है ॥ पुग्गलदरवमई जेते हैं प्रपंच संच,
देहादिक तिनको अकरता समत है । ऐसो भेद भेदज्ञान नैनतें विलोको वृन्द,
याही विना जीव भव भाँवरी भमत है ॥९२॥ (४०) गाथा-१८५ पुद्गल परिणाम आत्माका कर्म
क्यों नहीं?
द्रुमिला। यह जीव पदारथकी महिमा, जगमें निरखो भ्रमको हरिके । है मधि पुग्गलके परिवर्ततु है, सब कालवि निहचै करिके ॥
तब हू तिन पुग्गल कर्मनिको, न गहै न त न करै धरिके । है वह आपुहि आप सुभावहितै, प्रनवे सतसंगतिमें परिके ॥९३॥ हैं
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१६२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
(४१) गाथा-१८६ पुद्गलोंको आत्मा यदि कर्मरूप
परिणमित नहीं करता तो आत्मा जड़ काँके द्वारा कैसे ग्रहण या त्यागरूप किया जाता !
मनहरण । सोई जीवदर्व अब संसार अवस्थामांहि,
अशुद्ध चेतना जो विभावकी ढरनि है । ताहीको वन्यौ है करतार ताके निमितसों,
याके आठ कर्मरूप धूलिकी धरनि है ॥ • सोई कर्म धूल मूल भूलको सुफल देहि,
फेरी काहू कालमाहिं तिनकी करनि है । ऐसे बंधजोग भाव आपनो विभाव जानि,
त्याग मेदज्ञानी जासों संमृत तरनि है ॥९॥ (४२) गाथा-१८७ पुद्गलकर्मीकी विचित्रताका (ज्ञाना
वरणीय आदिरूप.) कर्ता कौन ? जबै जीव राग-दोष समल विभावजुत,
शुभाशुभरूप परिनामको ठटत है । तबै ज्ञानावरनादि कर्मरूप परज याके,
. जोग द्वार आयकै प्रदेशपै पटत है ॥ जैसे रितु पावसमें धाराधर धारनितें,
धरनिमें नूतन अंकुगदि अटत है । तैसे ही शुभाशुभ अशुद्ध रागदोषनितें,
पुग्गलीक नयो कर्म बंधन वटत है ॥९५॥ .
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प्रवचनसार
[१६३
दोहा। . तातै पुदगल दरव ही, निज सुभावते मीत । अति विचित्रगति कर्मको, कर्ता होत प्रतीत ॥ ९६ ॥ (४३) गाथा-१८८ अकेला आत्मा ही बंध है।
मनहरण । सो असंख प्रदेश प्रमान जगजीवनिके, .
मोह राग दोप ये कपायभाव संग है । ताहीत करमरूप रजकरि बधै ऐसे,
सिद्धांतमें कही वृन्द बंधकी प्रसंग है ॥ जैसे पट लोध फटकड़ी आदितै कसैलो,
चढ़त मजीठ रंग तापै सरवंग है । तैसे चिदानंदके असंख्ख परदेशपर,
चढ़त कपायतै फरम रज रंग है ॥९७ ॥ (४४) गाथा-१८९ निश्चय-व्यवहारका अविरोध । बंधको कथन यह थोरेमें गथन निहचै, .
मथनकरि ज्ञान तुलामें तुलतु है । जीवनिके होत सो दिखाई जिनराज मुनि,
मंडलीको जाने उरलोचन खुलतु है ॥ यासों विपरीत जो है पुद्गलीक कर्मवंध,
सो है विवहार बन्द काहेको भुलतु है । निज-निज भावहीके करता सरव दर्व,
___ यही भूले जीव कर्मझूलना झुलतु है ॥ ९८॥
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१६४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
पुण्य-पापरूप परिनाम जो हैं आतमाके,
रागादि सहित ताको आपु ही है करता । तिन परिनामनिकों आप ही गहन करे,
आपु ही जतन करें ऐसी रीति धरता ॥ तातें इस कथनको कथंचित शुद्ध दरवारयीक,
नय ऐसे भनी भर्महरता । पुग्गलीक दर्व कर्मको है करतार सो, __ अशुद्ध विवहारनयद्वारतें उचरता ॥१९॥
प्रश्न-छप्पय । रागादिक परिनाम बंध, निहचै तुम गाये । फेरि शुद्ध दरवारथीक नय, विषय बताये ॥ पुनि सो गहने जोग, कहत हौ हे मुनिराई ।
वह रागादि अशुद्ध, दरवको करत सदाई ॥ यह तो कथनी नहिं संभवत, क्यों अशुद्धको गाहिये । याको उत्तर अब देयके, संशय मैटो चाहिये ॥१०॥
उत्तर-दोहा। रागादिक परिनाम तौ, है अशुद्धतारूप । याहीकरि संसारमें, है अशुद्ध चिद्रूप ॥१०१॥ यामें तौ संदेह नहिं, है परंतु संकेत । यहाँ विविच्छामेदतें, कथन करी जिहि हेत ॥ १०२ ॥
छप्पय ।
शुद्ध दरवका कथन, एक दरवाश्रित जानो । और दरवका और मो(?), अशुद्धता सो(?) मानो ॥
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प्रवचनसार
[ १६५
यही अपेच्छा यहां, कथनका जोग बना है ।
औ पुनि निह, बंध, नियत नय गहन भना है ॥ ताको मुहेत अब कहत हौं, सुनो गुनो मन लायकै । जाते सब संशय दूर है, सुथिर होहु शिव पायकै ॥१०३॥
चौबोला। जो यह जीव लखै अपनेको, निज विकारतें बंध धरै । तौ विकार तजि वीतराग है, छूटन हेत उपाय करै ॥ . जो पाकृत बंधन समुझे तव, वेदांतीवत नाहिं डरै । यही अपेच्छा यहां कथन है, समुझे सो भवसिंधु तरै ॥१०॥ (४५) गाथा-१९० अशुद्धनयसे अशुद्ध आत्माकी ही
प्राप्ति होती है ।
मनहरण । जाकी मति मैली ऐसी फैली जो शरीरपर,
दहीको कहै की हमारो यही रूप है । तथा यह मेरो ऐसो चेरो भयो मोहहीको,
छोड़े न ममत्व बुद्धि ,धेरै दौरधूप है ॥ सो तो साम्यरसरूप शुद्ध मुनिपद ताको,
त्यागिके कुमारगमें चलत कुरूप है । ताको ज्ञानानंदकंद शुद्ध निरद्वंद सुख, मिल न कदापि वह परै भवकूप है ॥१०५॥
दोहा । है अशुद्ध नयको विषय, ममता मोह विकार । ताहि धरे वरतै सु तौ, लहै न पद अविकार ||१०६॥
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१६६ ]
फविवर वृन्दावन विरचित
(४६) गाथा-१९१ शुद्धनयसे ही शुद्धात्माकी प्राप्ति
होती है।
मनहरण । में जो शुद्ध बुद्ध चिनमूरत दरव सो तो,
परदर्वनिको न भयो हो काहू कालमें । देहादिक परदर्व मेरे ये कदापि नाहिं,
ये तो निजसत्ताहीमें रहे सब हालमें । मैं तो एक ज्ञानपिंड' अखंड परमजोत,
निर्विकल्प चिदाकार चिदानंद चालमें । ऐसें ध्यानमाहिं जो सुध्यावत स्वरूप वृन्द, सोई होत आतमाको ध्याता वर भालमें ॥१०७॥
दोहा । शुद्ध दरवनयको गहै, निहचैरूप अराध ।
शुद्ध चिदातम सो लहै, मैट कर्म उपाध ॥१०८॥ (४७) गाथा-१९२ ध्रु वत्व के कारण शुद्धात्मा ही प्राप्त
करने योग्य है।
मनहरण । हूं जो हो विशुद्ध भेदज्ञान नैनधारी सो,
निजातमा दरव ताहि ऐसे करि जानौ हौं । सहज सुभाव निज सत्ताहीमें ध्रौव सदा,
ज्ञानके सरूप दरसनमई मानौ हौं ॥ परभाव तजे तातें शुद्ध औ अतिंद्री सर्व, ।
पदारथ जानेंतें महारथ प्रमानौ हौं ।
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प्रवचनसार
[ १६७
आपने सरूपमें अचल परवस्तुकों न, अवलंब करै यात अनालंब ठानौ हौं ॥१०९॥
दोहा। ज्ञानरूप दरसनमई, अतिइन्द्री धुवः धार । महा अरथ पुनि अचलवर, अनालंब अविकार ॥११०॥ सात विशेषनि सहित इमि, लख्यौ आतमाराम । ताही शुद्ध सरूपमें, हम कीनों विसराम ॥१११॥ पंच विशेषनिको कथन, फरि माये बहु थान । मनालंब अरु महारथ, इनको · सुनो वखान ॥११२॥
मनहरण । कर्ममल नासिके प्रकाश होत ज्ञान जोत,
सो तो एकरूप ही अभेद, चिदानंद है । तासमें सभेद वृन्द ज्ञेय प्रतिबिंब सब,
तासकी सपेच्छ भेद अनंत सुछन्द है ।। पांचों जड़दके सरूपको दिखावै सोई,
याहीते महारथ कहावत अमंद है । परवस्तुको सुभाव कभी न अलंब करे,
तात अनालंय याकों भाषं जिनचंद है ॥११३॥ (४८) गाथा-१९३ निजात्माके अतिरिक्त दूसरा कुछ भी
प्राप्त करने योग्य नहीं है।
दोहा। तन धन सुख दुख मित्र अरि, अधुव भने जिनभूप । धौव निजातम ताहि गहु, जो उपयोगसरूप ॥११४॥
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१६८ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
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(४९) गाथा-१९४ इससे क्या होता है ?
मतगयन्द । है जो भवि होय महाव्रतधारक, या सु अनुव्रतकारक कोई ।
या परकारसों जो परमातम, जानिके ध्यावत है थिर होई ॥ है सो सुविशुद्ध सुभाव अराधक, मोहकी गांठि खपावत सोई । हैं ग्रंथनिको सब मंथनिकै, निरग्रंथ कथ्यौ रससार इतोई ॥११५॥ (५०) गाथा-१९५ मोहग्रन्थी टूटनेसे क्या-क्या होता है? _
मनहर । । अनादिकी मोह दुखुद्धिमई गांठि ताहि,
जाने दूर किया. निज भेदज्ञान चलने । ऐसो होत संत वह इन्द्रिनिके सुख दुख,
सम नानि न्यारे रहै तिनके विकलते ॥ सोई महाभाग मुनिराजकी अवस्थामाहिं,
राग दोष भावको विनाशै मूल थलने । पावै सो अखंड अतिइन्द्रिय अनंत सुख, . ____एक रस वृन्दावन रहै सो अचलते ॥११६॥ (५१) गाथा-सुध्यानसे अशुद्धता नहीं आती। मोहरूप मैलको खिपावै मेदज्ञानी जीव,
इन्द्रिनिके विषैसों विरागता सु पुरी है । मनको निरोधिके सुभावमें सुथिर होत,
जहां शुद्ध चेतनाकी ज्ञानजोत फुरी है ।। सोई चिनमूरत चिदातमाको ध्याता जानो,
पर वस्तुसे भी जाकी प्रीति रीति दुरी है।
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प्रवचनसार
[१६९
ResTERSarszzars.szess.orSTRExax.
ऐसे कुन्दकुन्दजी बखानी ध्यान ध्याता वृन्द, सोई सरधानै जाकी मिथ्यामति चुरी है ॥११७||
प्रश्न-दोहा जो मन चपल पताकपट, पवन दीपसम ख्यात । सो मन कसे होय थिर, उत्तर दीजे भात ॥११८॥
उत्तरपांचों इन्द्रिनके जिते, विषय भोग जगमाहिं । तिनहीसों मन रातदिन, ममतो सदा रहाहि ॥११९॥ मोह घटे वैशगता, होत तजे सब भोग । निज सुभाव मुखमाहिं तब, लीन होय उपयोग ॥१२०॥ तहां सुमनको संचके, एक निजातम भाव । तामधि आनि झुकाइये, मेदज्ञानपरमाव ॥१२११ तहां सो मनकी यह दशा, होत औरसे और । जैसे काग-जहाजको, सूझै और न ठौर ॥१२२॥ जो कहुँ इत उतको लखै, तौ न कई विसराम । तब हि होय एकाग्र मन, ध्यावे आतमराम ||१२३॥ ऐसे आतमध्यानतें, मिल अतिन्द्री शर्म । शुद्ध बुद्ध चिद्रूपमय, सहज अनाकुल धर्म ॥१२४॥ (५२) गाथा-१९७ सर्वज्ञ भगवान क्या ध्याने है ?
मनहरण । घातिकर्म घाति भलीभांत जो प्रतच्छ सर्व,
___ वस्तुको सरूप निज ज्ञानमाहिं धरै है । १. पताका-निशानका वस्त्र ।
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१७० ]
फविवर वृन्दावन विरचित
ज्ञेयनिके सत्तामें अनंत गुन-पर्ज शक्ति,
ताहूको प्रमानकरि आगे विसनर है ॥ असंदेहरूप आप ज्ञाता सिरताज बन्द,
संशय विमोह सब विभ्रमको हरे है। एसो जो श्रमण सरवज्ञ वीतराग सो,
बतावो अब कौन हेत काको ध्यान कर है ॥१२५॥ मोह उदै अथवा अज्ञानतासों जीवनिके,
सकल पदारथ प्रतच्छ नाहि दरसे । यात चित चाहकी निवाह हेत ध्यान करे,
अथवा संदेहके निवारिवेको तरसै ॥ सो तो सरवज्ञ वीतरागजूके मूल नहि,
घातिविधि घातें ज्ञानानंद सुधा वरसै । इच्छा आवरन अभिलाष न संदेह तव,
कौन हेत ताको ध्यावै ऐसो संशै परसै ॥१२६॥ ज्ञानावरनादि सर्व वाधासों विमुक्त होय,
___ पायो है अबाध निज आतम धरम है । ज्ञान और सुख सरवंग सब आतमाके,
जासों परिपूरित सो राजे अभरम है ॥ इन्द्रीसों रहित उतकिष्ट अतिइन्द्री सुख,
ताहीको एकाग्ररूप ध्यावत परम है। ये ही उपचारकरि केवलीके ध्यान कह्यौ, ___ मेदज्ञानी जानै यह भेदको मरम है ॥१२७॥
१. घातियाकर्म।
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प्रवचनसार
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(५३) गाथा-१९८ उन्हें परम सौख्यका ध्यान है।
दोहा । अतिइन्द्री उतकिष्ट सुख, सहज अनाकुलरूप ।। ताहीको एकाग्र निज, अनुभवते जिनम्प ॥१२८॥ अनइच्छक बाधा रहित, सदा एक रस धार । यही ध्यान तिनके कह्यौ, नय उपचार अधार ॥१२९॥ पुत्र कर्मकी निरजरा, नूतन बंधै नाहिं । यही ध्यानको फल लखौ, वृन्दावन मनमाहिं ॥१३०॥ (५४) गाथा-१९९ माक्षमार्ग शुद्धात्माकी उपलब्धि
लक्षणवाला है।
मनहरण । या प्रकार पूरवकथित शिवमारगमें,
सावधान होय जो विशुद्धता संभारी है । चरमशरीरी जिन तथा तीरथंकर,
जिनिंददेव सिद्ध होय वरी शिवनारी है ॥ तथा एक दोय भवमाहिं जे मुकत जाहिं,
ऐसे श्रमन शुद्ध भाव अधिकारी है । तिन्हैं तथा ताही शिवमारगको वृन्दावन, वार चार भली भांति वंदना हमारी है ॥१३१॥
दोहा । बहुत कथन कहँ लगु करों, जो शुद्धातम तत्त ।
ताहीमें 'परवर्त करि, भये जु तदगत-रत्त ॥१३२॥ १. तत्त्व । २. प्रवृत्ति । ३. तद्गतरक्त-लवलीन ।
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१७२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
ऐसे सिद्धनिकों तथा, आतम अनुभवरूप ।
शुद्ध मोख-मगको नमों, दरवितभाव सरूप ॥१३३॥ (५५) गाथा-२०० स्वयं हो मोक्षमार्गरूप शुद्धात्म
प्रवृत्ति करते हैं।
__ मनहरण । तातें जैसे तीरथेश आदि निजरूप जानि,
शुद्ध सरधान ज्ञान आचरन कीना है । कुन्दकुन्द स्वामी कहैं ताही परकार हम,
ज्ञायक सुभावकरि आप आप चीना है । सर्व परवस्तुसों ममत्वबुद्धि त्यागकरि,
निर्ममत्व भावमें सु विसराम लीना है । सोई समरसी वीतराग साम्यभाव वृन्द,
मुकतको मारग प्रमानत प्रवीना है ॥१३४॥ मेरो यह ज्ञायक सुभाव जो विराजत है,
तासों और ज्ञेयनिसों ऐसो हेत झलकै । कैधों वे पदारथ उकीरे ज्ञान थंभमाहिं,
कैंधों ज्ञान पटवि. लिखे हैं अचलकै । कैधों ज्ञान कूपमें समानै हैं सकल ज्ञेय,
कैधों काहू कीलि राखे त्याग तन पलकै । कैधों ज्ञानसिंधुमाहिं डूवे धो लपटि रहे,
कंधों प्रतिबिंबत हैं सीसेके महलके ॥१३५॥
१. कांचके।
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प्रवचनसार
[ १७३
ऐसो ज्ञान ज्ञेयको बन्यो है सनबंध तऊ, ' मेरो रूप न्यारो जैसें चंद्रमा फलकमें । अनादिसों और रूप भयो है कदापि नाहिं,
ज्ञायक सुभाव लिये राजत खलकमें ॥ ताको अब निहचे प्रमान करि वृन्दावन,
अंगीकार कियौ मेदज्ञानकी झलकमें । त्यागी परमाद परमोद धारी ध्यावत हों, जातै पर्म धर्म शर्म पाइये पलकमें ॥१३६॥
दोहा । मेरो रूप अनादितै, थो याही परकार । मोहि न सूझ्यो मोहवश, ज्यों मृग 'मृगमद धार ॥१३.७।। अब जिनप्रवचन दीपकरि, आप रूप लखि लीन ।। तजि आकुल भ्रम मोहमल, भये तासुमें लीन ॥१३८॥ अब वंदों शिवपंथ जो, शुद्धपयोग सरूप । इक अखंड वरतत त्रिविधि, अमल अचल चिद्रूप ॥१३९॥ भये जासु परसादतै, शुद्ध सिद्ध भगवान । 'सुमग सहित वन्दों तिन्हें, भावसहित धरि ध्यान ।।१४० ।
और जीव तिहि मगविपैं, जे वरतत उमगाय । भावभगतजुत प्रीतिसों, तिन्हें नमों सिरनाय ॥१४१।। कुन्दकुन्द श्रीगुरु भये, भवदधितरन जिहाज ।
प्रवचनसार प्रकाशके, सारे भविजन काज । १४२॥ १. कस्तूरी। २. जैन आगम। ३. पूर्ण किये ।
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१७४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
ते गुरु मो मन मल हरो, प्रगटो स्वपरविवेक । आपा पर पहिचानमें, रहै न भर्म परतेक ॥१४३॥
चौपाई। पूरन होत अवै अविकार । हेयादेय छठो अधिकार । आगे चारितको अधिकार । होत अरंभ शुद्ध सुखकार ॥१४४॥
छन्द कवित्त । PL मोह भरम तम भर्यो अभिंतर, होत न आपा पर निरधार । पुगल-जनित ठाठ बहुविधि लखि, ताकों आपा लखत गवार ॥ आपरूप जो वस्तु विलच्छन, ज्ञायक लच्छन धेरै उदार । भेदज्ञान विन सो नहिं सूझत, है वह "तिनके ओट पहार" ॥१४५||
दोहा। जैवतो जिनदेव जो, पायौ शुद्ध सरूप । कर्म कलंक विनाशिके, भये अमल चिद्रूप ॥१४६।। सो इत नित मंगल करो, सुखसागरके इन्दु । वृन्दावन वंदन करत, अर्ह वरन जुत विंदु ॥१४७ ___ इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्री प्रवचनसारजीकी वृन्दावनकृत भाषाविर्षे द्रव्यनिका विशेषरूप कथनका अधिकारके पीछे विवहारिक जीवदशा ज्ञेयतत्त्वकथन ऐसा छठ्यो अधिकार सम्पूर्णम् ।
मिती पौष वदी ९ भौम संवत् १९०५ काशीजीमें वृन्दावनने लिखी स्वपरोपकाराय । इहांताई गाथा २०२ । और भाषाके छंद सब ७२८ भये सो जयवंत होहु१. रती भर भी। २. तृणके अर्थात् तिनकाके ।
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प्रवचनसार
[ १७५
, ओं नमः सिद्धेभ्यः अथ सप्तमश्चारित्राधिकारः ।
मंगलाचरण-दोहा । श्री अरहंत प्रनाम करि, सारद सुगुरु मनाय ।। विधनकोट जातें करें, नित नव मंगलदाय ।। १ ।। चारितको अधिकार अब, शिवसुखसाधनहेत । लिखों ग्रंथ-पथ पेखकै, जो अबाध सुख देत ।। २ ।
अथ मोक्षाभिलाषीका लक्षण-मनहरण । मोच्छअमिलाषी भव्य जीवको प्रथम- सर्व,
दर्वनिको जथारथ ज्ञान भयो चहिये । . तैसेंही चारित्रको स्वरूप भले जान करि,
ज्ञानके सुफलहेत ताकों तब गहिये । आतमीक ज्ञानसेती जेती अविरोध क्रिया,
इच्छा अहंकार तजि ताहीको निबहिये । ऐसे ज्ञान आचरन दोनोंमाहिं वृन्दावन,
एकताई भयेहीसों अखै सुख लहिये । ३ ।। (१) गाथा-२०१ अब इस अधिकारकी गाथाओंका प्रारंभ । . चरणानुयोग सूचक चूलिका ।
दोहा । ग्रंथारभ विर्षे सुगुरु, जिहिकारि बंदे इष्ट । तिनही गाथनिसों यहां, नमें पंचपरमिष्ट ॥ ४॥ फिर गुरु कहत दयाल वर, जिमि हम इष्ट मनाय । अमलज्ञान दरसनमई, पायौ साम्य सुभाय । ५ ॥
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कविवर वृन्दावन विरचित
तैसेही भवि वृन्द तुम, दुखसों छूटन हेत ।
यह मुनिमारग आचरौ, जो सुभावनिधि देत ॥६॥ (२) गाथा-२०२ श्रमण होनेका इच्छुक पहले क्या-क्या
करता है उसका उपदेश ।
द्रुमिला। अपने सुकुटंब समूहनिसों, वह पूछिकै भेदविज्ञानधनी । गुरु मात पिता रमनी सुतसों, निरमोहित होय विराग भनी ॥ तव दर्शन ज्ञान चरित्र तथा, तप वीरज पंच अचार गनी । इनको दिढ़ताजुत धारत है विधि, सों सविवेक प्रमाद हनी ॥ ७ ॥
अथ वन्धुवर्ग संबोधन-विधि-चौपाई। मुनिमुद्रा जो धारन चहै । सो इमिसव कुटुम्बसों कहै । जो यह तनमें चेतनराई । सो आतम तुम्हारो नहिं भाई ॥ ८॥ यह निहचैकरि तुम अवधारो । तातै मोसों ममता छोरो । मो उर ज्ञानजोत परकासे । आपुहि आप बंधु ढिग भासे ॥ ९ ॥
मातुपिता-संबोधन । इस जनके तनके पितुमाता । अहो सुनो तुम वचन विख्याता । इस तनको तुमने उपजाया । आतमको तुम नहिं निपजाया ॥१०॥ यह निहचै करके अवधारो। तातै मोसों ममता छौं । ज्ञानजोतिजुत आतमरामा । यह प्रगट्यो है चिदगुनग्रामा ।११॥ अपनो सहज सुभाव सु सत्ता । सोई मातपिता धुववत्ता । तासों यह अब प्रापत हो है । यात मोसों तजिये मोहै ॥१२॥
स्त्रीसंबोधन-वचन । हे इस चेतन तनकी नारी । रमी तु तनसों बहुत प्रकारी । आतमसो तू नाहिं रमी है । यह निहचकरि जानि सही है ॥१३॥
को
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प्रवचनसार
[१७७
तातें इस आतमसों ममता । तजि करि तू अब धरि उर समता ॥ मम घट ज्ञानजोत अब जागा । विषयभोग विषप्तम मोहि लागा ॥१४॥ निजअनुभूतरूप वरनारी । तासों रमन चहत अविकारी। । इहि विधि परविरागजुत वानी । कहै नारिसों भेदविज्ञानी ॥१५॥
पुत्रसंबोधन-वचन । हो इस जनके तनके जाये । पुत्र सुनो मम वचन सुहाये ॥ तू इस आतमसों नहिं जाया । यह निहचै करि समुझ सु भाया ॥१६॥ तात तुम मम ममता त्यागो । समताभाव-सुधारस पागो ॥ यह आतम निज ज्ञानजोतिकर । प्रगट भयो उर-मोह-तिमिर-हर ॥१७॥ याके सुगुन सुपूत सयाने। हैं अनादित संग प्रधाने ॥ तिनसों प्रापति होन चहै है। तुमसों यह समुझाय कहै है ॥१८॥
दोहा । बन्धुवरगसों आपुको, या विधि लेय छुड़ाय । कहि विरागके वचन बर, मुनिपद धौर जाय ॥ १९ ॥ जो आतमदरसी पुरुष, चाहै मुनिपद लीन । सो सहजहि सुकुटुम्बसों, है विरकत परवीन ॥२०॥ ताहि जु आय पर कहूँ, कहिवेको सनबंध । तो पूर्व परकारसों, कहै वचन निरबंध ॥ २१ ॥ कछु ऐसो नहिं नियम जो, सब कुटुम्ब समुझाय । तवही मुनिमुद्रा धेरै, बसै सु वनमें जाय ॥ २२ ॥ सब कुटुम्ब काहू सुविधि, राजी नाहीं होय । गृह तजि मुनिपद धरनमैं, यह निहचै करि जोय ॥ २३ ॥
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१७४ ]
फविवर वृन्दावन विरचित
जो कहुं बने बनाव तो, पूरवकथित प्रकार । कहि विरागजुत वचन वर, आप होय अनगार ।। २४ ॥ तहां बन्धुके वर्गमें, निकटभव्य कोइ होय । सुनि विरागजुत वचन तित, मुनिव्रत धार सोय ॥२५॥
अथ पंचाचारग्रहण विधि । अब जिस विधिसों गहत हैं, पंचाचार पुनीत । लिखों सुपरिपाटीसहित, जथा सनातनरीत ॥ २६ ॥
मनहरण । आतमविज्ञानी जीव आपने सरूपको,
सुसिद्धके समान देखि जानि अनुभवता । उपाधीक भावनितें आपुको नियारो मानि,
शुभाशुभक्रिया हेय जानिके न भवता ॥ पुवबद्ध उदैते विकारपरिनाम होत,
रहै उदासीन तहां आकुल न पवता । सो तो परदर्बनिको त्यागी है मुभावहीत, गहै ज्ञानगुन वृन्द तामें लवलवता ॥२७॥
दोहा। ऐसे ज्ञानी जीवको, अब क्या त्यागन जोग । अंगीकार करै कहा, जहं सुभावरस भोग ॥ २८ ॥ पै चारित्रसुमोहवश, होहिं शुभाशुभभाव । तासु अपेच्छा” तिन्है, त्याग गहन दरसाव ॥२९॥ प्रथमहि गुनथानकनिकी, परिपाटी परमान । अशुभरूप परनति तजे, निहचै सो बुधिवान ॥ ३० ॥
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प्रवचनसार
[ १७९
पीछे शुभ परनतिविपैं, रतनत्रय विवहार । पंचाचार गहन करै, सो जतिमति अनुसार ॥ ३१ ॥
चापाई। है अहो आठविधि ज्ञानाचार | कालाध्ययन विनय हितकार ॥
उपाधान बहुमान विधान । और अनिहव मेद प्रमान ॥३२॥ है अरथ तथा विजन उर आन । तदुभय सहित आठ इमि जान ॥ है मैं निहचै तोहि जानों सही । शुद्धातम सुभाव तू नहीं ॥३३॥ हैं पै तथापि तवलों तोहि गहों। जबलों शुद्धातम निज लहों ॥ तुवप्रसाद सीझै मम काज । यो कहि विनय गहै गुन साज ॥३४॥ हैं
अथ दर्शनाचार धारण विधि । अहो आठ दरशनआचारा । निःशंकित निकांछित धारा ॥ निरविचिकित्सा निरमूढ़ता। उपगृहन 'थिति वाच्छल्लता।३५/ है मैं निहचै तोहि जानों सही । शुद्धातम सुभाव तू नही । है पै तथापि तवलों तोहि गहों । जबलों शुद्धातम निज लहों ॥३६॥
तुवप्रसाद सीझै मम काज । यों करि विनय गहै गुन साज ॥ समदिष्टी भविजीव प्रवीन । हिये विवेकदशा अमलीन ॥३७॥
अथ चारित्राचार धारण विधि । है अहो मुकतिमगसाधनहार । तेरहविधि चारित्राचार ||
पांच महाव्रत गुपति सु तीन । पांचों समिति मेद अमलीन ॥३८॥ है मैं निहच तोहि जानों सही। शुद्धातम सुभाव तू नही ॥ है पै तथापि तबलों तोहि गहों । जब लों-शुद्धातम निज लहों ॥३९ । १ १. स्थितिकरण । २. वात्सल्य ।
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१८० ]
कविवर वृन्दावन विरचित
है तुव प्रसाद सीझै ममकाज । यो करि विनय गहै गुन साज ।। सुपरदया दोनों उर धेरै । होय दिगंबर शिवतिय वरै ॥४०॥
अथ तपाचार धारण विधि ।। अहो दुवादश तप आचाग । अनशन अवमोदर्य उदारा ॥ व्रतपरिसंख्यारसपरित्यागी। 'विवक्तिसज्यासन बड़भ.गी।४१। कायकलेश छ वाहिज येहा। प्राच्छित विनय सकल गुनगेहा ।।।
वैयाव्रत रत नित स्वाध्याये । ध्यानसहित 'व्युतसर्ग बताये ॥४२॥ । मैं निहचै तोहि जानों सही | शुद्धातम सुभाव तू नहीं ॥
पै तथापि तबलों तोहि गहों । जबलों शुद्धातम निज लहों ॥४३॥ तुव प्रसाद सीझैं मम काज । यो करि विनय गहै गुन साज ॥ उभयभेद तप खेद न धेरै । महा हरप मनमें विसतरै । ४४॥
अथ', वीर्याचारावधारण विधि । , अहो सुशकत्ति बढ़ावनिहार । वीर्याचार अचारअधार ।। । मैं निहचै तोहि जानों सही । शुद्धातमसुभाव तू नही ॥४५॥
पै तथापि तबलों तोहि गहों । जबलों शुद्धातम निज लहों ॥ तुव प्रसाद सीझै मम काज । यों करि विनय गहै गुन साज ॥४६॥
दोहा । पंचाचार पुनीतको, इहिविधि धारै धीर । और कथन आगे सुनो, जो मेटै भवपीर ।। ४७॥ (३) गाथा-२०३ वह कैसा है उसका वर्णन ।
मनहरण । पंचाचारविधिमें प्रवीन जे अचारज जो,
__ मूलोत्तर गुनकरि पूरित अभंग है । १. विविक्तशय्यासन । २. बाह्य । ३. प्रायश्चित । ४. कायोत्सर्ग ।
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प्रवचनसार
[ १८१
कुल रूप वयकी विशेषताई लिये वृन्द,
मुनिनिको प्रियतर लगे सरवंग है ।। तापै यह जाय सिर नाय कर जोरि कहै,
स्वामी मोहि अंगीकार कीजिये उमंग है । ऐसे जब कहै तव स्वामी अंगीकार करें, तबै वह नयो मुनि रहै संग संग है । ४८॥
अथ आचार्य लक्षण-चौपाई । पंचाचार आप आचरहीं । औरनिको तामें थिर करहीं ।
दोनोंविधिमें परम प्रवीने । निज अनुभव समतारस भीने ॥४९॥ है जे उत्तमकुलके अवतारी । जिनहिं निशंक नमहिं नरनारी ।। है रहितकलंक करता त्यागी । सरल सुभाव सुजसि बड़भागी ॥५०॥
हीनकुली नहिं वंदनजोगू । ताके होहि न शुद्धपयोगू । है कुलक्रमके - कूरादि कुभावें । हीनकुलीमें अबशि रहावें ॥५१।। ई यात कुलविशेषताधारी । उचितकुली पावै पद भारी ।। है अरु जिनकी बाहिज छबि देखी । यह प्रतीति उर होत विशेखी ॥५२॥ है है इनके घट शुद्धप्रकासा । साम्यभाव अनुभव अभ्यासा ।
अंतरंगगत : वाहिज दरसे । रूपविशेष 'यही सुख सरसै ॥५३॥ हैं बालक तथा बुढ़ापामाहीं । बुद्धि चपल अरु विकल रहाहीं । है तिनसों रहित सूरि परधाना । धीर बुद्धि गुन कृपानिधाना ॥५४॥
जोवनदशा काममद व्यापै । तासों वर्जित अचलित आपै ।। यह विशेषता वयक्रमकेरी । ताहि धरै आचारज हेरी ॥५५।।
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१४२ ]
फविवर वृन्दावन विरचित
। धेरै सुष्टुवय वर्जितदूपन । शीलसिंधु गुनरतनविभूपन । क्रियाकांड सिद्धांतनिके मत | कहि समुझावहिं मुनिजनको सत ॥५६॥ जो मुनिको दूपन कहुँ लागै । मूलोत्तरगुनमें पद पांगै । प्राच्छित देय शुद्ध करि लेही । तातें अतिप्रिय लागत तेही ॥५७|| ऐसे आचारजपै जाई। कहै नवीन मुनी शिर नाई ।
मोकों शुद्धातमको लाहू । हे प्रभु प्रापति करि अवगाहू ॥५॥ है तब आचारज कहहिं उदारा । तोको शुद्धातम अविकारा ।
ताकी लाभ करावनिहारी । यही भगवती दिच्छा प्यारी ।५९॥ । ऐसी सुनि सो मन हरपाई। मानहु रंक महानिधि पाई । वारवार गुरुको सिरनाई । तब मुनिसंग रहै सो जाई ॥६॥ (४) गाथा-२०४ यथानातरूपका धारक ।
मनहरण । मेरे चिनमूरततै मिन्न परदर्व जिते,
तिनको तो मैं न कहूं भयौ तिहूँकालमें । तेऊ परदर्व मेरे नाहिं जाते कोई दर्व,
काहूको सुभाव न गहत काहू हालमें ॥ तातें इसलोक विर्षे मेरी कछु नाहिं दिखे,
मेरो रूप मेरी ही चिदातमाकी चालमें । ऐसे करि निश्चै निज इन्द्रिनिको जीति जथा, जातरूपधारी होत ताको नावों भाल मैं ॥६१॥
दोहा । जथाजातको अर्थ अब, सुनो भविक धरि ध्यान । ग्रंथपंथ निग्रंथ जिमि, मंथन करी प्रमान || ६२ ।।
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प्रवचनसार
[ १८३
स्वयंसिद्ध जसो कछुक, है आतमको रूप । तैसो निजघरमें धेरै, अमल अचल चिद्रूप ॥६३ ॥ दूजो अर्थ प्रतच्छ जो, जैसो . मुनिपद होय । तैसी ही मुद्रा धरै, दरवलिंग है सोय ॥६४ ॥ ऐसे दोनों लिंगको, धारत धीर उदार । नथाजात ताको कहैं, बरै सोइ शिवनार ॥६५॥ (५) गाथा-२०५ अथ द्रव्यलिंग लक्षण ।
मनहरण । जथाजात दलिंग एसो होत जहां,
परमानू परमान परिगहन रहतु है । शीस और डाढ़ीके उपारि डारै केश आप,
शुद्ध निरगंथपंथ मंथके गहतु है ॥ हिंसादिक पंच जाके रंच नाहिं संचरत,
ऐसे तीनों जोग संच संच निबहतु है । देह खेह-खानके सँवारनादि क्रियासेती, - रहित विराजै जैसी आगम उकतु है ॥६६॥
(६) गाथा-२०६ अथ भावलिंग । परदर्वमाहिं मोह ममतादि भावनिको,
नहीं न अरंभ कहूँ निरारम्भ तेसो है । शुद्ध उपयोग वृन्द चेतना सुभावजुन,
तीनों जोग तसो तहां चाहियत जसो है ॥ परदर्वके अधीन वर्तत कदापि नाहि,
आतमीक ज्ञानको विधानवान वैसो है ।
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१८४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
मोखसुखकारन भवोदधि उधारनको, ___ अंतरंगभावरूप जैनलिंग ऐसो है ॥६॥
दोहा। दरवितभावितरूप इमि, जथाजातपद धार । अब आगे जो करत है, सुनो तासु विसतार ॥६८॥ (७) गाथा-२०७ साक्षात् मुनिपद ।
मनहरण । परमगुरू सो दर्वभाव मुनिमुद्रा धारि,
जथाजातरूप मनमाहिं हरसत है । गुरूको प्रनाम थुति करै तब वारवार,
जाके उर आनंदको नीर वरसत है ॥ मुनिव्रतसहित जे क्रियाको विभेद वृन्द,
तासुको श्रवनकरि हिये सरसत है । ताहीको गहनकरि ताहीमें सुथिर होत, तबै वह मुनिपद पूरो परसत है ॥६९।।
दोहा । परम-सुगुरु अरहंत जिन, तथा अचारज जान । जिनपै इन दिच्छा गही, तिनहिं नमै 'थुति ठान ॥७०॥ सुनि व्रत क्रिया गहन करे, ताहीमें थिर होय । तव मुनिपद पूरन लहै, दरवित भावित दोय ॥७१॥ रागादिक विनु आपको, लखै सिद्ध समतूल । परमसमायिककी दशा, तब सो लहै अतूल ॥७२॥
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प्रवचनसार
[१८५
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प्रतिक्रमन आलोचना, प्रत्याख्यान जितेक । जति मति श्रुति अनुसार सौ, धारै सहितविवेक ॥ ७३ ॥ तीनोंकालविर्षे सो मुनि, तीनों जोग निरोध । निज शुद्धातम अनुभवै, वरजित क्रियाविरोध ॥ ७४ ।। तब मुनिपदपूरन तिन्हें, दरवित भावित जान ।
वृन्दावन वंदन करत, सदा जोरि जुग पान ।। ७५ ॥ १ (८-९) गाथा-२०८-२०९ श्रमण कदाचित् छेदोपस्थापनके
योग्य है सो कहते हैं।
मनहरण । महाव्रत पंच पंच समिति सु संच पंच,
इन्द्रिनिको वंच केश हुँचत विराजे है । षडावश्य क्रिया दिगअम्बर गहिया जल,
हौंन त्यागि दिया भूमिसैन रैन साज है ॥ दाँतवन करै नाहिं खड़े ही अहार करे,
सोऊ एक वार प्रान धारनके काजे है । येई अठाईस मूलगुन मुनि पदवीके,
निश्चैकरि कही जिनराज महाराज है ॥७६ ॥ तेई मूलगुनविर्षे मुनि जो प्रमादी · होय,
तवै ताकै संजमको छेद भंग होत है । तहां सो अचारज पै जायके प्रनाम करि,
मुनिमंडलीके मध्य कहै दोष खोत है ॥ जाते येई गुंन सर्व निर्विकल्प सामायिक,
भावरूप मुनिपदवीके मूल जोत है ।
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१८६ ]
कवियर पन्दावन विरचित
तातें जैसे प्राछित बतावै गुरु तैसे करे,
फेरि तामें थित होत करत उदोत है ॥७७ ।। सोना अभिलापीको जितेक आभरन ताके,
सर्वही गहन जोग जाते सर्व सोना है । परजाय विना कहूं दरव रहत नाहि,
ताते दर्वगाहीको समस्त ही सलोना है ॥ तैसे मुनिपदवीके मूल अठाईस गुन,
मुनिपद धारै ताको सर्वभेद होना है । एको गुन घटै तबै मुनिपद भंग होय,
ऐसो जानि सर्वमाहिं सावधान होना है ॥७८॥ (१०) गाथा-२१० श्रमणके दीक्षादातावत् छेदोपस्थापक दूसरा भी होता है यह कथन ।
छप्पय । तिनको मुनिपद गहनविपैं, ने प्रथमाचारज । सो गुरुको है नाम, प्रवृज्यादायक आरज ॥ भरु जब संजम छेद, भंग होवै तामाहीं ।
जो फिर थापन करै, सो निरयापक कहवाहीं ॥ यों दोय मेद गुरुके तहां, दिच्छादायक एक ही । छेदोपस्थापनके सुगुरु, वाकी होहिं अनेक ही ॥७९॥
दोहा । दिच्छा गहने बाद जो, संजम होवै भंग । एकदेश वा सर्व ही, ऐसो होय प्रसंग ॥ ८० ॥
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प्रवचनसार
[ १८७
तामें फिर जो थिर करहि, जतिपथरीतिप्रमान ।
ते निर्यापक , नाम गुरु, जानो श्रमन सयान ॥ ८१ ॥ (११-१२) गाथा-२११.२१२ चिन्न संयमके प्रविसंधान
की विधि।
छप्पय । नो मुनि जतनसमेत, कायकी क्रिया अरंभत । शयनासन उठि चलन, तथा जोगासन थंभत ॥ तहँ जो संजम घात होय, तव सो मुनिराई ।
मापु अलोचनसहित, क्रियाकरि शुद्धि लहाई ॥ यह वाहिज संजम भंगको, आपुहि आप सुदण्डविधि । करि शुद्ध होहिं आचारमें, जे मुनिवृन्द विशुद्धनिधि ॥ ८२ ।
जिस मुनिका उपयोग, सुघटमें भंग भया है। रागादिक मल भाव, रतनमें लागि गया है । तिनके हेत उपाय, जो जिनमारगकेमाहीं ।
जती क्रियामें अतिप्रवीन, मुनिराज कहाहीं ॥ तिनके ढिग जाय सो आपनो, दोष प्रकाशै विनय कर । जो कहैं दंड सो करै तिमि, तब है शुद्धाचारथर ॥ ८३ ।। (१३) गाथा-२१३ परद्रव्य-प्रतिबंधका परिहार और
श्रामण्यमें वर्तन ।
मनहरण । जाके उर आतमीक ज्ञानजोति जगी वृन्द, ___ आपहीमें आपको निहारै तिहूँपनमें ।
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१८० ]
फविवर वृन्दावन विरचित
संजमके घातकी न वात जाके बाकी रहै,
____ समतासुभाव जाको आवै न कथनमें ॥ सदाकाल सर्व परदनिको त्यागें रहे,
मुनिपदमाहिं जो अखंड धीर मनमें । ऐसो जब होय तब चाहै गुरु पास रहे,
चाहै सो विहार करै जथाजोग वनमें ॥ ८४॥ (१४) गाथा-२१४ श्रामण्यकी परिपूर्णताका स्थान
होनेसे म्वद्रव्यमें ही लीनताका उपदेश । सम्यकदरशनादि अनंतगुननिजुत,
ज्ञानके सरूप जो विराजे निजातमा । ताहीमें सदैव परिवर्तत रहत और,
मूलगुनमें है सावधान वातवातमा ॥ सोई मुनि मुनिपदवीमें परिपूरन है,.
अंतरंग वहिरंग दोनों भेद भातमा । नहीं अविकारी परदर्व परिहारी वृन्द,
वरै शिवनारी जो विशुद्ध सिद्ध जातमा ।। ८५ ॥ (१५) गाश-२१५ मुनिको सूक्ष्म परद्रव्य प्रतिबंध भी
श्रामण्य के छेदका आयतन होनेसे निपेध्य हैं । भोजन उपास औ निवास जे गुफादि कहे,
अथवा विहारकर्म जहां आचरत हैं। तथा देहमात्र परिग्रह जो विराजै और,
गुरु शिष्य आदि मुनिसंग विचरत हैं ।
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प्रवचनसार
[ १८९
और पुग्गलीक वृन्द वैनकी उमंगमाहिं,
चरचा अनेक धर्मधारा वितरत हैं। येते परदर्वनिको बन्यौ सनबंव तऊ, महामुनि ममता न तासमें धरत हैं ।। ८६ ॥
दोहा। जो इनमें ममता धेरै, तजि समतारस रंग । तवही शुद्धपयोगमें, मुनिपदवी है भंग ॥ ८७ ।। तातै विगतविकार मुनि, वीतरागता धार । संगसहित वरते तऊ, निजरसलीन उदार ॥ ८८ ।। (१६) गाया-२१६ छेदका स्वरूप ।
__ मनहरण । जतनको त्यागिकै जु मुनि परमादी होय,
आचरन करै विवहार काय करनी । सैनासन बैठन चलन आदि ताकेवि,
चंचलता धारै जो अशुद्धताकी धरनी ।। तामें सर्वकाल ताको निरंतर हिंसा होत,
ऐसे सरवज्ञ वीतरागदेव वरनी । जातें निज शुद्धभावघातकी बड़ी है हिंसा, तातें सावधानहीसों शुद्धाचार चरनी ॥ ८९ ॥
दोहा । जब उपयोग अशुद्धकी, होत प्रबलता चित्त । तब ही विना जतन मुनी, क्रिया करै सुनि मित्त ।।९० ॥
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१९० ]
फवियर वृन्दावन विरचित
तहां शुद्धउपयोगको, होत निरंतर घात । हिंसा बड़ी यही कही, यातें मुनिपद घात ॥ ९१ ॥ तात जतन समेत निज, शुद्धपयोग सुधार ।
सावधान वरती सुमुनि, तो पावो भवपार ॥ ९२ ॥ (१७) गाथा-२१७ छेदके दो प्रकार अंतरंग-बहिरंग ।
छप्पय । जतन त्यागि आचरन करत, जो मुनिपदधारी । तहां जीव कोइ मरहु, तथा जीवहु सुखकारी ॥ ताकहँ निहचै लगत, निरंतर हिंसादूपन ।
वह घातत निजज्ञानप्रान, जो चिदगुनभूपन ।। अरु जो मुनिसमितिविपैं सुपरि, वरतत हैं तिनके कही । तनक्रियामाहिं हिंसा लगै, तऊ बंध नाही लही ।। ९३ ।।
दोहा । हिंसा दोय प्रकार है, अंतर वाहिजरूप । ताको भेद लिखों यहां, ज्यों भापी जिनभूप ॥९४ ।। अंतरभाव अशुद्धसुकरि, जो मुनि वरतत होय । घातत शुद्धसुभाव निज, प्रबल सुहिंसक सोय ॥९५॥ अरु बाहिज विनु जतन जो, कर आचरन आप । तहँ परजियको घात हो, वा मति होहु कदाप ।। ९६ ।। अंतर निजहिंसा करै, अजतनचारी धार । . ताको मुनिपद भंग है, यह निहचे निरधार ॥९७ ॥ जे मुनि शुद्धपयोगजुत, ज्ञानप्रान निजरूप । ताकी इच्छा करत नित, निरखत रहत सुरूप ||९८ ॥
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प्रवचनसार
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तिनकी कायक्रिया सकल, समितिसहित नित जान । तहँ पर कहूँ मेरै तऊ, करम न बँधै निदान ॥९९॥ (१८) गाथा-२१८ अंतरंग छेदका सर्वथा निषेध ।
मनहरण । नतनसमेत जाको आचरन नाहीं ऐसे,
मुनिको तो उपयोग निहचै समल है । सो तो षटकायजीव बाधाकरि बाँधै कर्म,
ऐसे जिनचंद वृन्द भाषत विमल है ॥ भौर जो मुनीश सदाकाल मुनिक्रियाविर्षे,
सावधान आचरन करत विमल है। तहाँ घात होत हू न बँधै कर्मबंध ताके,
रहै सो अलेप जथा पानीमें कमल है ॥१०॥ (१९) गाथा-२१९ परिग्रहरूप उपाधिको एकान्तिक
अंतरंग छेदत्व होनेसे उपाधि अंतरंग छेदवत्
त्याज्य है, यह उपदेश करते हैं । फायक्रियामाहिं जीवघात . होत कर्मबंध,
होहु वा न होहु यहां अनेकांत पच्छ है । पै परिग्रहसों धुवरूप कर्मबंध बँधै,
यह तो अबाधपच्छ निहचै विलच्छ है ॥ . जात अनुराग विना याको न गहन होत,
__ याहीसेती भंग होत संजमको कच्छ है । ताहीत प्रथम महामुनि सब त्याग संग,
पावै तब उभैविधि संजम जो स्वच्छ है ॥१०॥
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फविवर वृन्दावन विरचित
ARCISAAS.
अंतरके भाव विना कायहीकी क्रियाकरि,
संगको गहन नाहिं काहू भांति होत है । मरहंत आदिने प्रथम याको त्याग कीन्हों,
सोई मग मुनिनिकों चलिबो उदोत है । शुद्धभाव घानो भावै रातो परिग्रहमाहिं,
दोऊ शुद्धसंजमको घाति मूल खोत है । ऐसो निरधार तुम थोरेहीमें जानो वृन्द,
याके धारे जागै नाहिं शुद्ध ज्ञानजोत है ॥१०२॥ (२०) गाथा-२२० इस उपाधि-परिग्रहका निषेध
अंतरंग छेदका ही निपेध है। .
रूप सवैया। अंतर चाहदाह परिहरकरि, जो न तनै परिगहपरसंग । सो मुनिको मन होय न निरमल, संजम शुद्ध करत वह भंग ॥ मन विशुद्ध विनु करम कटै किमि, जे प्रसंगवश बंधे कुढंग । - तातें तिलतुप मित हु परिग्रह, तजहिं सरव मुनिवर सरवंग ॥१०३।। (२१) गाथा-२२१ उपाधि (परिग्रह) एकान्तिक अंतरंग
५RENAHASISNERATRESICOMXTStatsASERESISTRasaNERICORICIRCHCHANCHAL.CPSEATSAC
मनहरण । कैसे सो परिग्रहके होत संत अंतरमें,
ममता न होय यह कहां संभवत है । कैसे ताके हेतसों उपाय न अरंभै औ,
असंजमी अवस्थाको सो कैसे न पवत है ॥
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प्रवचनसार
[ १९३
तथा परदर्व विौं रागी. भयौ कैसे तब,
शुद्धातम साधै मुधा रस भोगवत है । यात वीतरागी होय त्यागि परिग्रह निरारंभ, होय शुद्धरूप साधो सिखवत है ॥१०॥
दोहा । परिगहनिमित्त ममत्तता, जो न हियेमहँ होय । तब ताको कैसे गहै, देखो मनमें टोय ॥१०५॥ परिगह होते होत धुव, ममता और अरंभ । सो घातत सुविशुद्धमय, जो मुनिपद परवंभ ॥१०६॥ ताते तिलतुष परिमित हु, तनौ परिग्रह मूल । इहि जुन जानों सुमुनिपद, ज्यों अकाशमें फूल ॥१०७॥ ताते शुद्धातम विषै, जो चाहो विश्राम । तो सब परिगहत्यागि मुनि, होहु लहो शिवधाम ॥१०८॥ (२२) गाथा-२२२ अनिषिद्ध भी उपाधि है।
. चौपाई। गहन-तजन-मग सेवनहारे । जे मुनि सुपरविवेक सुधारे ॥ । सो जिस परिगह धारन कीने । होय न भंग जु मुनिपद लीने ॥१०९॥ देशकालको लखिके रूपं । वरतहु जिमि भापी जिनभूपं ॥ अट्ठाईस मूलगुनमाहीं । दोष कदापि लगै जिमि नाहीं ॥११०॥
दोहा । इन शंका कोई करत, मुनिपद तो निरगंथ । तिनहिं परिग्रहगहन तुम, क्यों भाषेत हौ पंथ ॥१११॥
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फविवर वृन्दावन विरचित
मुनिमग दोय प्रकार कहि, प्रथमभेद उतसर्ग । दुतिय भेद अपवाद है, दोउ साधत अपवर्ग ॥११२॥
चौपाई। मुनि उततर्ग-मार्गकेमाहीं । सकल परिग्रह त्याग काहीं ॥ है जातें तहां एक निजआतम । सोई गहनजोग चिढगातम ॥११३॥
तासों मिन्न और पुदगलगन । तिनको तहां त्याग विधिसों भन || है शुद्धपयोगदशा सो जानौ । परमवीतरागता प्रमानौ ॥११॥ अब अपवाद सुमग सुनि भाई । जाविधिसों जिनराज बताई ॥
जब परिग्रहतजि मुनिपद धरई । जथा जतमुद्रा आदरई ॥११५|| । १ तब वह वीतरागपद शुद्धी। ततखिन दशा न लहत निशुद्धी ॥
तब सो देशकाल कह देखी । अपनी शकति सकल अवरेखी ॥११६॥ है निज शुद्धोपयोगकी धारा । जो संजम है शिवदातारा || है तासु सिद्धिके हेत पुनीती । जो शुभरागसहित मुनिरीती ॥११७॥ । गहै ताहि तब ताके हेतो। वाहिजसंजम साधन लेतो ॥
जे मुनिपदवीके हैं साधक । मुनिमुद्राके रंच न वाधक ॥११८॥ शुद्धपयोगसुधारन कारन । आगम-उकत करें सो धारन ॥ दया ज्ञान संजम हित होई । अपवादी मुनि कहिये सोई ॥११९॥ (२३) गाथा-२२३ उसका स्वरूप ।
मनहरण । नौ न परिग्रह कर्मबन्धको करत नाहि, .
असंजमवंत जाको जाँचै न कदाही है ।
SISE
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प्रवचनसार
[१९५
ममता अरंभ आदि - हिंसासों रहित होय, .
सोऊ थोरो मुनिहीके जोग ठहराही है ॥ दया ज्ञान संजमको साधक सदीव दीखे,
संजम सरागहीमें जाकी परछाही है। भपवादमारगी मुनिको उपदेश यही, ऐसो परिग्रह तुम राखो दोष नाही है ॥१२०॥
दोहा । यामें हेत यही कहत, पीछी पोथी जानु । तथा कमंडलुको गहन, यह सरधा उर आनु ॥१२१॥ शुभपरनति संजमदिौं, इनको है संसर्ग । . ताहीतें इनकों गहत, अपवादी मुनिवर्ग ॥१२२॥ (२४) गाथा-२२४. उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है अपवाद नहीं। भहो भब्यवृन्द जहां मोक्षअभिलाषी मुनि, ..
देहहूको जानत परिग्रह प्रमाना है। ताइसों ममत्तभाव त्यागि आचरन करे, ..
ऐसे सरवज्ञवीतरागने बखाना है। तहां अब कहो और कौन सो परिग्रहको,
गहन करेंगे जहां त्यागहीको वाना है। ऐसो शुद्ध आतमीक पमधर्मरूप उत-सर्गमुनि,
मारगको फहरै निशाना है ॥१२३॥ (२५) गाथा-२२५ अपंवाद कौनसा मेद है? कायाको अकार जथाजात मुनिमुद्रा घर,
एक तो परिग्रह यही कही जिनंद है।
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कविवर वृन्दावन विरचित
फेर गुरुदेव जो सुतत्व उपदेश करें,
सोऊ पुग्गलीक वैन गहत अमंद है ॥ बड़ेनिके विनैमें लगावै पुग्गलीक मन,
तथा श्रुति पढे जो सुपुग्गलको छंद है। येते उपकर्न जैनपंथमें हैं मुनिनिके, तेऊ सर्व परिग्रह जानो भविवृन्द है ॥१२४॥
दोहा । एक शुद्धनिजरूपते, जेते भिन्न प्रपंच । ते सब परिग्रह जानिये, शुद्धधर्म नहिं रंच । १२५॥ ताते इनको त्यागिके, गहो शुद्धउपयोग । सो उतसर्ग-सुमग कहो, जहँ सुभावसुखभोग ॥१२६॥ (२६) गाथा-२२६ शरीर मात्र परिग्रह ।
मनहरण । . . जैसे घटपटादि विलोकिवेको भौनमाहि,
दीपविर्षे तेल घालि वाती सुधरत है । तैसें ज्ञानजोतिसों सुरूपके निहारिवेको,
आहार-विहार जोग कायाकी करत है ॥ यहां सुखभोगकी न चाह परलोकहूके,
सुख अभिलाषसों अबंध ही रहत है । रागादि कपायनिकों त्यागे रहै आठों जाम,
ऐसो मुनि होय सो भवोदधि तरत है ॥१२७ ।।
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प्रवचनसार
[ १९७
(२७) गाथा-२२७ युक्ताहार विहारी साक्षात् अनाहार
विहारी ही है। जाको चिनमूरत सुभावहीसों काहू काल,
काहू परदर्वको न गहै सरधानसों । यही ताके अंतरमें अनसन शुद्ध तप,
निहचै विराजै वृन्द परम प्रमानसों ॥ जोग निरदोष अन्न भोजन करत तऊ,
अनाहारी जानो ताको आतमीक ज्ञानसों । तैसे ही समितिजुत करत विहार ताहि,
___अविहारी मानो महामुनि परधान सो ॥१२८॥ (२८) गाथा-२२८ मुनिके युक्ताहारित्व कैसे सिद्ध होता है ? मुनि महाराजजूके केवल शरीरमात्र,
एक परिग्रह यह ताको न निषेध है। ताहूसों ममत्त छाँरि वीतरागभाव धारि,
अजोग अहारादिको त्यागें ज्यों अमेध है । नाना तपमाहिं ताहि नितही लगाये हैं,
आतमशकतिको प्रकाशत अवेध है । सोई शिवसुन्दरी स्वयंवरी विधानमाहि,
मुनि वर होय वृन्द 'राधावेध' वेध है ॥१२९॥ • (२९) गाथा-२२९ युक्ताहारका विस्तारसे वर्णन । एक बार ही अहार निश्चै मुनिराज करें,
सोऊ पेट मेरै नाहिं ऊनोदरको गहै ।
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१९८ ]
कविवर घृन्दावन विरचित
जैसो कछू पावें तसो अंगीकार करें बन्द,
मिच्छा आचरनकरि ताहको नियोग है ॥ दिनहीमें खात रस आस न धरात मधु,
___ मांस आदि सरवथा त्यागत अजोग है। देहनेह त्यागि शुद्ध संजमके साधनको, ऐसोई अहार शुद्ध साधुनिके जोग है ॥१३०॥
चौपाई। एकै वार अहार बखाने । तासुहेत यह सुनो सयाने ॥ मुनिपदकी सहकारी काया । तासु सुथित यात दरसाया ॥१३१॥ अरु जो वारवार मुनि खाई । तबहि प्रमाददशा वढ़ि जाई । दरवभावहिंसा तब लागे। संजमशुद्ध ताहि तजि भागै ॥१३२॥
सोऊ रागभाव तजि लेई । तब सो जोग अहार कहेई ।। । तातै वीतरागताधारी । ऐसे साधु गहँ अविकारी ॥१३३ । है जो भरि उदर करै मुनिभोजन । तो है शिथिल न सधै प्रयोजन || न जोगमाहिं आलस उपजावै । हिंसा कारन सोड कहावै ॥१३॥
ताते ऊनोदर. आहारो। रागरहित · मुनिरीति विचारो ॥ । सोई जोग अहार कहा है। संजमसाधन साध गहा है ॥१३५॥
जथालाभको हेत विचारो। आपु कराय जु करें महारो || तब मनवांछित भोजन करई । इन्द्रियराग अधिक उर धरई ।।१३६।। हू हिंसा दोष लगै धुव ताके । संजमभंग होहिं सब वाके ॥ । तातै जथालाभ आहारी । मुनिकहँ जोग जानु निरधारी ॥१३७||
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प्रवचनसार
मिच्छाकरि जो असन वखानै। तहां अरंभ दोष नहिं जानै ॥
ताहूमें अनुराग न धरई । सोई जोग अहार उचरई ॥१३८॥ । दिनमें भलीभांति सब दरसत । दया पले हिंसा नहिं परसत ॥
रैन अप्सन सरवथा निषेधी । दिनमें जोग अहार अवेधी ॥१३९॥
जो रस आस धेरै मनमाहीं। तो अशुद्ध उर होय सदाही ॥ । अंतरसंजमभाव सु पाते । तातै रस इच्छा तजि खाते ॥१४०॥ । मद्य मांस अरु शहद अपावन । इत्यादिक जे वस्तु घिनावन ॥ । तिनको त्याग सरवथा होई । सोई परम पुनीत रसोई ॥१४॥ सकलदोष तजि जो उपजे है। सोई जोग अहार कहै है ॥ नीतरागता तन सो धारी । गहै ताहि मुनिवृन्द विचारी ॥१४२॥ (३०) गाथा-२३० उत्सर्ग और अपवादकी मैत्री द्वारा ___ . आचरणकी सुस्थितताका उपदेश ।
द्रुमिला। जिन वालपने मुनि भार धरे, अथवा जिनको तन वृद्ध अती । अथवा तप उग्रतें खेद जिन्हें, पुनि जो मुनिकों कोउ रोग हती ॥ तब सो मुनि आतमशक्ति प्रमान, चरो चरिया निजजोग गती ।। गुनमूल नहीं जिमि घात लहै, सो यही जतिमारग जानु जती. ॥
दोहा । अति कठोर आचरन जहँ, संजमरंग अभंग । सोई मग उततर्गजुन, शुद्धसुभाव-तरंग ॥१४४ । ऐसी चरिया आचरें, तेई मुनि पुनि मीत । कोमलमगमें पग धेरै, देखि देहकी रीत ॥१४५।
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२०० ]
फविवर वृन्दावन विरचित
निज शुद्धातमतत्त्वकी, निहि विधि जाने सिद्ध । सोई चरिया आचरे, अनेकांतके वृद्ध ॥१४६॥ अरु जे कोमल आचरन, आचरहीं अनगार ।
पुनि निज शकति लखि, करहिं कठिन आचार ॥१४७।। मभंग न होय जिमि, रहें मूलगुन -संग । रातममें थिति बढ़े, सोइ मग चलहि अभंग ।१४८ । उन क्रिया उतसर्गमग, कोमलमग अपवाद । " मग पग धारही, सुमुनि सहित मरजाद ॥१४९।। जैसी तनकी दशा, देखहिं मुनि निरग्रंथ । तैसी चरिया चरै, सहित मूलगुन पंथ ॥१५०॥ दोनों मगके विपैं, होय विरोध प्रकास । मुनिमारग नहिं चलें, समुझो वुद्धिविलाप्त ॥१५॥ । दोनों पगसों चलत, मारग कटत अमान ।
दोनों मग पग धरत, मिलत वृन्द शिवथान ॥१५२ । ..., गाथा-२३१ उत्सर्ग अपवादके विरोध (अमैत्री)से आचरणकी दुःस्थिरता होती है।
मनहरण । नानाभांति देशको सुभाव पहिचानि पुनि,
शीतग्रीषमादिरितु ताइको परखिकै । तथा कालजनित सु खेदहूको वेदि औ,
उपासकी शकति वन्द ताहूको निरखिके ।
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प्रवचनसार
[२०१
येई भेद भली भांति जानकरि अहो मुनि,
आहारविहार करो संजम सु रखिकै । जामें कर्मवन्ध अल्प बँधै ताही विघिसेती, आचरन करो अनेकांत रस चखिकै ॥१५३॥ .
चौपाई। जे उतसर्गमार्गके धारी । ते देशरु कालादि निहारी ॥
बाल वृद्ध खेदित रुजमाहीं। मुनि कोमल आचरनकराहीं ॥१५४॥ ( नामें संजम भंग न होई । करमप्रबन्ध बन्धै लघु सोई ॥
शकति लिये न मूलगुन घातै । यहु मग तिनको उचित सदातै ॥१५५॥ अरु जे अपवादिकमग ध्याता । सब विधि देशकालके ज्ञाता ॥ ते मुने चारिहु दशामँझारी । होउ सुजोग अहारविहारी ॥१५६॥ संजमरंग भंग जहँ नाहीं । ताही विधि आचरहु तहाँ ही ॥ शकति न लोपि न मूलहु घातो। अलपबंधकी क्रिया करातो ॥१५॥
दोहा। कोमल ही मगके विषै, जो इकंत बुधि धार । अनुदिन अनुरागी रहै, अरु यह करै विचार ॥१५८॥ कोमलहू मग तो कही, जिन सिद्धांत मँझार । हम याही मग चलहिंगे, यामें कहा विगार ॥१५९॥ तो वह हठयाही पुरुष, संजमविमुख सदीव । शकति लोपि करनी करत, शिथिलाचारी जीव ॥१६॥ ताको मुनिपद भंग है, अनेकांतच्युत सोय । . चाँधै करम विशेष सो, शुद्ध सिद्ध किमि होय ॥१६॥
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२०२ ]
कविवर घृन्दावन विरचित
अरु जे कठिनाचार ही, हठकरि सदा करात । कोमल मग पग धारतें, लघुता मानि लजात ॥१६२॥ देशकालवपु देखिकै, करहिं नाहिं आचार । अनेकांतसों विमुख सो, अपनो करत बिगार ॥१६३॥ वह अतिश्रमतें देह तजि, उपजै सुरपुर जाय । संजम अम्रत वमन करि, करम विशेष बँधाय ॥१६४॥ तातें करम बँधै अलप, सधै निजातम शुद्ध । . सोई मग पग धारिबो, संजम सहित विशुद्ध ॥१६५। है सरवज्ञ जिनिंदको, अनेकांत मत मीत । ताते दोनों पंथसों, हे मुनि राखो रीत ॥१६६॥ कहुँ कोमल कहुँ कठिन व्रत, कहुँ जुगजुत वरतंत । शुद्धातम जिहि विधि सधै, वह मुनिमग सिद्धंत ॥१६॥ संजमभंग बचायकै, देश काल वपु देखि । कोमल कठिन क्रिया करो, करम न बँधै विशेखि ॥१६८॥ अरु अस हठ मति राखियो, संजम रहै कि जाहि । हम इक दशा न छाँड़ि हैं, सो यह जिनमत नाहि ॥१६९॥ जैसो जिनमत है सोई, कहो तुम्हें समुझाय । जो मगमें पग धारि मुनि, पहुंचे शिवपुर जाय ॥१७०॥ कहूं अकेलो है यही, जो मारग अपवाद । कहूं अकेलो लसतु है, जो उतसर्ग अनाद ॥१७॥ कहुं उतसर्गसमेत है, यहु मारग अपवाद । कहुं अपवादसमेत है, मगउतसर्ग अवाद ॥१७२॥
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प्रवचनसार
[२०३
ज्यों संजमरच्छा बनत, त्यों ही करहिं मुनीश । देशकालवपु देखिक, साहिं शुद्ध सुईश ॥१७३॥ पूरव जे मुनिवर भये, ते निजदशा निहार । दोनों मगकी भूमिमें, गमन किये सुविचार ॥१७॥ पीछे परमुतकिष्ट पद, ताहि ध्याय मुनिराय । क्रियाकांड तैं रहित है, शुद्धातम लव लाय ॥१७५|| निज चैतन्यस्वरूप जो, है सामान्य विशेष । ताहीमें थिर होयके, भये शुद्ध सिद्धेश ॥१७६।। जो या विधिसों और मुनि, है सुरूपमें गुप्त । सो निजज्ञानानंद लहि, करै करमको लुप्त ॥१७७॥ यह आचारसुविधि परम, पूरन भयौ अमंद । मुनिमगको सो जयति जय, वंदत वृन्द जिनिंद ॥१७८॥
अधिकारान्तमंगल । मंगलदायक परमगुरु, श्रीसरवज्ञ जिनिंद । वृन्दावन वंदन करत, करो सदा आनंद ॥१७९।।
इति श्री कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारजीकी वृन्दावन अग्रवाल काशीवासीकृत भाषावि आचारविधिचारित्राधिकार नामा सातवा अधिकार सम्पूरन भया ।
मिति पौष शुक्ल अष्टमी ८ मंगलवार सं. १९०५ पांच काशीमध्ये निजहस्ते लिखितं वृन्दावनेन स्वपरोपकाराय । इहां ताई सर्वगाथा २३२ अर भाषाके सर्व छंद ९०६ नबसे छह सो जयवंत होहु । श्रीरस्तु मंगलमस्तु ।।
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.
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२०४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित LEASEANIZATHSASA ZAMASASHZASAIZATHRELESE ARS RESEASES,
ॐ नमः सिद्धेभ्यः । अथाष्टम एकाग्ररूपमोक्षमार्गाधिकारः।
मंगलाचरण-दोहा । सिद्धशिरोमनि सिद्धपद, वंदों सिद्ध महेश । सो इत नित मंगल करो, मैटो विघन कलेश ॥ १ ॥ सम्यकदरशन ज्ञान व्रत, तीनों जत्र इकत्र । सोई शिवमग नियतनय; है शुद्धातम तत्र ॥ २ ॥ तथा जिन्हें यह लाभ हुव, ऐसे जे मुनिराज । तिनहूको शिवमग कहिय, धरमी धरम समाज ॥ ३ ॥ तासु परापतिके विपैं, जिन आगमको ज्ञानि ।
अवशि चाहिये तासते, अभ्यासो जिनवानि ॥ ४ ॥ (१) गाथा-२३२ प्रथम मोक्षमार्गके मूल साधनभूत . आगममें प्रवृत्ति ।
मनहरण । सम्यकदरश ज्ञान चारितकी एकताई,
येही शुद्ध तीरथ त्रिवेनी शिवमग है । ताकी एकताई मुनि पाई जब सुपर,
पदारथको भलीभाँति जानत उमग है । ऐसो मेदज्ञान जिन-आगमहीसेती होत, .
संशय विमोहठग लागै नाहिं .लग है । ताहीते जिनागम अभ्यास परधान कयौ,
नाकी अनेकांत जोत होत जगमग है ॥ ५ ॥
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प्रवचनसार
[ २०५
।
सरवज्ञभाषित सिद्धांत विनु वस्तुनिको,
जथारथ निहचै न होत सरवथा है। विना सर्वदर्वनिको भलीभांति जान कहो,
कैसे निज आतमाको जानै श्रुति मथा है ॥ याहीत मुनिंदवृन्द शब्दब्रह्मको अभ्यासि,
आपरूप जानि तामें होहि थिर जथा है । ताते शिवमारगको मूल जिन आगम है, ताको पढ़ो सुनो गुनो यही सार कथा है ॥ ६ ॥
दोहा । जे जन जिनशासनविमुख, वहिरमुखी ते जीव ।
डांवाडोल मिथ्यातवश, भटकत रहत सदीव ॥ ७ ॥ • करता वनत त्रिलोकके, कबहुं भोगता होहि । इष्टानिष्ट विभावजुत, सुथिर न कबहूँ सोहि ॥ ८ ॥ ज्यों समुद्रमें पवन , चहुँदिशि उठत तरंग । त्यों भाकुलतासों दुखित, लहैं न समरसरंग । ९ ॥ जब अपनेको जानई, ज्ञानानंदसरूप । तब न कबहुं परदरवको, करता बनै अनूप ॥ १० ॥ जो आतम निज ज्ञानकरि, लोकालोक समस्त । प्रगट पानकरि आपमें, सुथिर रहत परशस्त ।। ११ । ऐसो जो भगवान यह, चिदानन्द निरद्वंद । सो जिनशासनत लखहिं, महामुनिनिके वृन्द ॥ १२ ।। तव ताको सरधान अरु, ज्ञान जथारथ धार । ताहीमें थिर होयके, पावै पद अविकार ॥ १३ ॥
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२०६ ]
फविवर वृन्दावन विरचित
तातें जिनआगम बड़ो, उपकारी पहिचान ।। ताको वृन्द पढ़ो सुनो, यह उपदेश प्रधान ।। १४ ।। (२) गाथा-२३३ आगम-हीनको मोक्ष नहीं।
मत्तगयन्द । जो मुनिको नहीं आगमज्ञान, सो तो निज औ परको नहिं जाने ।
आपु तथा परको न लखै तव, क्यों करि कर्म कुलाचल भान ।। है जासु उदै जगजाल विपैं, चिरकाल विहाल भयो भरमाने । . तासे पढ़ो मुनि श्रीजिनआगम, तो सुखसों पहुंचो शिवथान ॥१५||
कवित्त छन्द । जिनआगमसों दरव भाव नो, करमनिकी हो है तहकीक । तव निजभेदज्ञानवलकरिके, चूरै करम लहै शिव ठीक || । तिस :आगमतें विमुख होयकै, चहै जो शिवसुख लहों अघीक ।
सो अजान विनु तत्त्वज्ञान नित, पीटत मूढ़ सांपकी लीक ॥१६॥ आगमज्ञान रहित नित जो मुनि, कायकलेश कर तिरकाल । ताको सुपरभेद नहिं सूझत, आगम तीजा नयन विशाल | तब तह मेदज्ञान विनु कैसे, चलें शुद्ध शिवमारग चाल । सो विपरीत रीतकी धारक, गावत तान ताल विनु ख्याल ॥१७॥
दोहा । __ ज्यों ज्यों मिथ्यामग चलै, त्यो त्यों बंधै सोय ।
ज्यों व्यों भी कामरी, त्यों-त्यों भारी होय ॥१८॥ (३) गाथा-२३४ मोक्षमागीको आगम ही एक चक्षु है ।
सोरठा। मागमचक्षू साध, अक्षचक्ष जगजीव सब । देव औघडग लाध, सिद्ध सर्वचक्षू विमल ॥ १९ ॥
1 साय ।
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प्रवचनसार
[ २०७
Sooraaaaaaaaaaaaaaaaaaaaara
ताते यह उर आनि, अनेकान्त जाकी धुजा । सो आगम पहिचानि, पढ़ो सुनो भवि वृन्द नित ॥२०॥ मागम ही हैं नैन, शिवमुखइच्छुक मुनिनिके ।
यों भाषी - जिनवैन, स्वपरमेदविज्ञानप्रद ॥२१॥ (४) गाथा-२३५ आगमचक्षुसे सब कुछ दिखाई देता है।
माधवी। जिनआगममें सव दर्वनिको, गुन पर्ज विभेद भली विधि साधा । तिस आगमहीत महामुनि देखक, जानै जथारथ अर्थ अगाधा.।। तव भेदविज्ञान सुनैन प्रमान, निजातम वृन्द लहै निरबाधा । अपने पदमें थिर होकरिके, अरिको हरिके सु वर शिवराधा ॥२२॥
जिनवाणी महिमा-मनहरण । एक एक दर्वमें अनंतनंत गुन पर्ज,
नित्यानित्य लच्छनसों जुदे जुदे धर्म है । ताको जिनवानी ही अबाधरूप सिद्ध कर,
हर महा मोहतम अंतरको भर्म है ॥ताहीकी सहायतै सु भेदज्ञाननैन खोलि,
जा. महामुनि शुद्ध आतमको मर्म है । सोई जगदंवको अलम्ब करै वृन्दावन,
त्यागिके विलम्ब सदा देत पर्म शर्म है ॥२३॥ (५) गाथा-२३६ बागमज्ञान-तत्वार्थश्रद्धान-संयमभावकी
युगपतता होना ही मोक्षमार्ग है। प्रथम जिनागम अभ्यासकरि यहां जाके, .
सम्यकदरश सरधान. नाहिं भयौ है ।
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२०४]
कविवर वृन्दावन विरचित
ताके दोऊ भांतिको न संजम विराजै कहूं,
ऐसे जिनभाषित सुवेद. वरनयो है ॥ संजम सुभावसों रहित जब भयौ तब,
निहचै असंजमीकी दशा परिनयौ है । कैसे तब ताको मुनिपद सोहै वृन्दावन, सांची गैल छोडिके सोकांची गैल लयौ है ॥२४॥
दोहा। प्रथम जो आगमज्ञानतें, रहित होय सरधान । भेदज्ञान विनु किमि करें, सो निजपर पहिचान ॥२५॥ तब कषायसंमिलित जो, मोहराग परिनाम । ताके वश होकै धरौ, विषयकषाय मुदाम ॥२६॥ इन्द्रीविषयनिके विर्षे, सो परिवरत कराय । . छहों कायके जीवको, बाधक तब ठहराय ॥ २७ ॥ स्वेच्छाचारी जीव वह, ताको मुनिपद केम । सर्वत्यागको है जहां, मुनिपदवीमें नेम ॥ २८ ॥ तैसे ही पुनि तासुके, निरविकलप समभाव । परमातम निज ज्ञानधन, सोऊ नाहिं लखाव. ॥ २९ ॥ अरु जे ज्ञेयपदार्थके, हैं समूह जगमाहि । तामें ज्ञान सुछंद तसु, वरतत सदा रहाहिं ॥३०॥ याहीत निजरूपमें, होय नहीं एकत्र ।
ज्ञान वृत्त चंचल रहै, परसै सुथिर न तत्र ॥ ३१ ॥ १. रास्ता-मार्ग। २. प्रवृत्ति । ३. चारित्र ।
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प्रवचनसार
[२०९
आगमज्ञान सु पुत्र जहँ, होय नहीं सरधान । तहां न संजम संभवै, यह अबाध परमान ॥ ३२ ।। जाके संजम होय नहिं, तब मुनिपद किमि होय । शिवमग दूजो नाम जसु, देखो घटमें 'टोय ॥ ३३ ॥ तातें आगमज्ञान अरु, तत्वारथसरधान । संजम भाव इकत्र जब, तबहिं मोखमग जान ॥ ३४ ॥
माधवी । है जिन आगममें नित सात सुभंगकी, वृन्द अभंग धुजा फहरावै । जिसको लखिके मुनि भेदविज्ञानि, सुसंजमसंजुत मोच्छ सिधावै ।
तिहिको तजिके जो सुछन्दमती, अति खेद करै हठसों बहु धावै । है वह त्यागिके सीखसुधारसको, नित ओसके बून्दसों प्यास बुझावै ॥३५॥ (६) गाथा-२३७ तीनोंकी एकता नहीं है उसे मोक्षमार्ग
नहीं।
मनहरण । आगम ही जानै कहो कहा सिद्धि होत जो न, - आपापरमाहिं सरधान शुद्ध आय है । तथा सरधान हूँ पदारथमें आयौ तो,
असंजमदशासों कहो कैसे मोख पाय है ॥ याहीतैं जिनागमतें सुपरपदारथको,
___ सत्यारथ जानि सरधान दिढ़ लाय है । फेरि शुद्ध संजमसुभावमें सुथिर होय,
___ सोई चिदानन्द वृन्द मोक्षको सिधाय है ॥३६॥ १. खोजके ।
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२१० ] -
कविवर वृन्दावन विरचित
तत्त्वनिमें रुचि परतीति जो न आई तो धौं,
कहा सिद्ध होत कीन्हें आगम पठापठी । तथा परतीति प्रीति तत्त्वहूमें आई पै न,
त्यागे राग दोष तौ तो होत है गठागठी ॥ तबै मोखसुख वृन्द पाय है कदापि नाहिं,
तातें तीनों शुद्ध गहु छांडिके हठाहठी । जो तू इन तीन विन मोखसुख चाहै तौ तो,
सूत न कपास करै कोरीसों लठालठी ॥३७॥ (७) गाथा-२३८ तीनोंका युगपतपना होनेपर भी आत्मज्ञान (निर्विकल्प ज्ञान) मोक्षमार्गका साधक है। आपने सुरूपको न ज्ञान सरधान जाके,
ऐसो जो अज्ञानी ताकी दशा दरसावै है । जितने करमको सो विवहार धर्मकरि,
शत वा सहस्र कोटि जन्ममें खिपावै है ॥ तिते कर्मको सु आपरूपमें सुलीन होय,
ज्ञानी एक स्वासमात्र कालमें जलाव है । ऐसो परधान शुद्ध आतमीकज्ञान जानि,
वृन्दावन ताके हेत उद्यमी रहाँव है ॥३८॥ जाके शुद्ध सहज सुरूपको न ज्ञान भयौ,
और वह आगमको अच्छर रटतु है । ताके अनुसार सो पदारथको जाने,
सरधान औ ममत्त लिये क्रियाको अटतु है ॥
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प्रवचनसार
[२११
तहां पुन्च खिरै नित नूतन करम बंधै,
गोरखको धंधा नटबाजीसी नटतु है । आगेको वटत जात पाछे पछरू चवात,
जैसे गहीन नर जेवरी वटतु है ॥३९॥ जाने निजआतमाको जान्यो मेदज्ञानकरि,
इतनो ही आगमको सार अंश चंगा है। ताको सरधान कीनों प्रीतिसों प्रतीति भीनों,
ताहीके विशेषमें अभंग रंग रंगा है । वाहीमें विजोगको निरोधिके सुथिर होय,
तबै सर्वकर्मनिको क्षपत प्रसंगा है। आपुहीमें ऐसे तीनों साधं वृन्द सिद्धि होत,
जैसे मन चंगा तो कठौतीमाहिं गंगा है ॥४०॥ (८) गाथा-२३९ आत्मज्ञान विना तीनों एक साथ . हो तो भी, अकिंचित्कर हैं।
माधवी। जिसके तन आदि विषै ममता, वरतै परमानुहुके परमानी । तिसको न मिलै शिव शुद्धदशा, किन हो सब आगमको वह ज्ञानी ॥ अनुराग कलंक अलंकित तासु, चिईक लसै हमने यह जानी । जिमि लोक विर्षे कहनावत है, यह ताँत बजी तब राग पिछानी ॥४१॥
दोहा । ज्यों करमाहिं विमल फटिक, देख परत सब शुद्ध ।
त्यों मुनि आगम लखहिं, सकल तत्त्व अविरुद्ध ॥ ४२ ॥ १. बछड़ा। २. अंधा । ३. रस्मी मांजता है।
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२१२ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
तसु ज्ञाता चिद्रूपको, जानि करै सरधान । अरु आचार हु करत सो, जतिपथरीतिप्रमान ॥ ४३ ॥ ऐसे आगम ज्ञान अरु, तत्त्वारथ सरधान । संजम भाव इकत्रता, यह रतनत्रयवान ॥ १४ ॥ सो सूच्छिम हू राग जो, धेरै तनादिकमाहिं । तिते कलंक हित सु तो, शिवपद पावै नाहिं ॥ ४५ । तात आगमज्ञानजुत, निरविकलप सु समाधि । वीतरागतासहित है, तब सब मिटै उपाधि ॥ ४६ ॥
सोरठा। जाके होय न ज्ञान, चिदानंद चिद्रूपको । सोई जीव अयान, ममता धेरै तनादिमें ॥ १७ ॥ सो न लहै निरवान, मोह गंस तसु हंसपर । गुभ्यो गुप्त ही आन, मेदज्ञान विनु नहिं लखत ॥ ४८॥ ताते हे बुधिवान, लेहु स्वरूप निहार निज ।
चिद्विलास अमलान, तामें थिर हो सिद्ध हो । ४९ ॥ (९) गाथा-२४० वह तीनों आत्मज्ञानके युगपदपनाको
. सिद्ध करते हैं।
____ सर्वया मात्रिका ६ जाके पंचसमिति सित सोभत, तीन गुपत उर लसत उदार ।
पंचिंद्रिनिको जो संवर करि, जीत सकल कषाय विकार । हैं सम्यकदर्श ज्ञान सम्पूरन, जाके हिये वृन्द दुतिधार । है शुद्ध संजमी ताहि कहैं जिन, सो मुनि वरै विमल शिवनार ॥५०॥ ११. गांसी-फांसी । २. आत्मापर । ३. चुमा है ।
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प्रवचनसार
[२१३
(१०) गाथा-२४१ ऐसे संयतका लक्षण ।
छप्पय । जो जाने समतुल्य, शक अरु बंधुवर्ग निजु । सुखदुखको सम जानि, गहै समता सुभाव हि जु ।। थुति निंदा पुनि लोह कनक, दोनों सम जाने ।
जीवन मरन समान मानि, आकुलदल भान । सोई मुनि वृन्द प्रधान है, समतालच्छनको धेरै ॥ निज साम्यभावमें होय थिर, शुद्ध सिद्ध शिव तिय वरै ॥५१ ।।
(११) गाथा-२४२ एकाग्रता लक्षण श्रामण्य ।
मत्तगयन्द।
जो जन सम्यकदर्शन ज्ञान, चरित्र विशुद्ध सुभाविकमाहीं । एकहि वार भली विधिसों, करि उद्यम वर्ततु है तिहि ठाहीं ॥ सो निज आतममें लवलीन, इक्रारदशामहँ प्रापति आहीं । है तिनको परिपूरनरूप, मुनीश्वरको पद संशय नाहीं ॥५२॥
दोहा । ज्ञेय रु ज्ञायक तत्त्वको, जहां शुद्ध सरधान । सोई सम्यकदरश है, दूपनरहित प्रमान ॥ ५३ ।। ताहि जथावत जानिबो, सो है सम्यकज्ञान । दरशज्ञानमें सुथिरता, सो चारित्र प्रधान ॥ ५४ ।। येई तीनों भाव हैं, भावक आतम तास । आपहि आपु सुभावको, भाव थिर सुखरास ॥ ५५ ॥ इन भावनिके बढ़नकी, जहँ लगु हद्द प्रमान । तहँ लगु बढ़हिं परस्पर, सुगुनसहित गुनवान [॥ ५६ ॥
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२१४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
ये तिहूँ भाव सु अंग हैं, अंगी आतम तास । अंगी अंग सु एकता, सदा सधत सुखरास ॥ ५७ ।। इमि एकता सुभाव जो, प्रनयो भातम आप । सोई संजम भाव है, आप रूपमें व्याप ॥५८ ।। सो जद्दिप तिहुँ मेदकरि, है अनेक परकार । तदिप एक स्वरूप है, निरविकलप नय द्वार ॥ ५९॥ जैसे एकपना त्रिविधि, मधुर आमलो तीत । सुरस स्वाद तब मिलत जब, निरविकलप रसप्रीत ॥ ६० ॥ तैसे सो संजम जदपि, रतनत्रयतै भेद । तदपि सुभाविक एकरस, एक गहै अखेद । ६१ ॥ परदरवनिसों मिन्न नित, प्रगट एक निजरूप । ताहि सु मुनिपद कह हुआ, शिवमग कहो अनूप ॥१२॥ सो शिवमगको तीन विधि, परजैनयके द्वार । भाषतु हैं विवहारकरि, जाको भेद अपार ॥ ६३ ॥ अरु एकतासरूप जो, शिवमग वरनन कीन । दरवार्थिकनय द्वारतें, सो निहचै रसलीन ।। ६४ ॥ जेते भेदविकल्स हैं, सो सब हैं विवहार । अरु जो एक अभेदरस, सो निहचै निरधार ॥६५॥ ऐसो शिवमग जानिके, निज आतम हित हेत । हे भवि वृन्द करो गहन, जो अबाध सुख देत ।। ६६॥ (१२) गाथा-२४३ अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं । जिस मुनिके नहिं, सुपरमेदविज्ञान विराजै ।, अज्ञानी तसु नाम, कही जिनवर महाराज ॥
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प्रवचनसार
[ २१५
सो परदर्वहिं पाय, राग विद्वेप मोह धरि ।
विविध करमको बन्ध, करत अपनो विकारकरि ॥ निज चिदानन्दके ज्ञान विनु, शुद्ध सिद्धपद नहिं ठरत । सो पाटकीटके न्यायवत, नित नूतन बन्धन वटत ॥६७॥ (१३) गाथा-२४४ मोक्षमार्ग-उपसंहार ।
सर्वया-मानिक । जो मुनि आतमज्ञान वृन्द जुत, सो पर दरवनिके जे थम । है तिनमें मोहित होत न कबहूँ, करत न राग न दोष अरंम ।। है सो निजरूपमाहिं निहचे थिर, है इकाम संजमजुत संम । हैं. सोई विविध करम छय करिके, देहि मोखमग सनमुख बंम ॥६८।।
दोहा । इहि प्रकार निरधार करि, भापै शिवमग पर्म । ४ शुद्धपयोगमयी सुमुनि, गहैं लहैं शिवशर्म ॥ ६९ ॥
कवित्त-मात्रिक। जाके हिये मोह मिथ्यामत, हे भवि पूर रह्यौ भरपूर । कैसहुकै न तजै हठ सो सठ, ज्यों महि गहै गोह पग भूर ॥ जो कहुं सत्य सुनै तउ उरमें, धरै न सरधा अतिहि करूर । ताको यह उपदेश अफल जिमि, कूकरके मुखमाहिं कपूर ||७०॥ तातें अब इस कथन मथनको, सुनो सार भवि धरि उपयोग । सम्यक दरशन ज्ञानचरितमें, सुथिर होहु जुत शुद्धपयोग ॥ यही सुमुनिपद वृन्द अनूपम, यातें कटें करमके रोग । ताको गहो मिल्यौ यह मौसर, जैसे नदी नाव संजोग ।७१॥
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फविवर वृन्दावन विरचित
___ अधिकारान्तमंगल-दोहा । पूरन भयौ सुखद परम, शिवमग शुद्धसरूप । बन्दों श्रीजिनदेवको, जो लहि कही अनूप ।। ७२ ।।
इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारजीकी वृन्दावन अग्रवाल काशीवासीकृतभाषाविपैं एकाग्ररूप मोक्षमार्गका स्वरूप कथन ऐसा आठवाँ अधिकार पूरा भया । पौष शुद्ध पूरनमासी सोमवार संवत् १९०५ ।
___ इहां ताई सर्व गाथा २४५ अरु भाषाके छन्द नवसै__ अठहतर ९७८ । सो जयवंत होहु । मंगलमस्तु । श्रीरस्तु ।
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प्रवचनसार
[ २१७
ओं नमः सिद्धेभ्यः । अथ नवमःशुभोपयोगरूप मुनिपदाधिकारः।
मंगलाचरण-दोहा। श्रीजिनवानी मुगुरु पद,, वदों शीस नवाय । सकल विघन जात मिटें, भविक वृन्द सुखदाय ॥ १ ॥ अब वरनत शुभभावजुत, मुनि पदवीकी रीति ।
श्रुति मथि गुरु संछेपत, करो सुभवि परतीति ॥ २ ॥ (१) गाथा-२४५ शुभोपयोगी तो गौणतया श्रमण है।
दो विधिके मुनि होहिं इमि, कही जिनागममाहिं । एक शुद्धउपयोगजुत, इक शुभमगमें जाहिं ॥ ३ ॥ ने सुविशुद्धपयोगजुन, सदा निरास्रव तेह । . बाकी आलवसहित हैं, शुभ उपयोगी जेह ॥ ४ ॥
मिला । जिनमारगमें मुनि दोय प्रकार. दिगम्वररूप विराजत है । है इक शुद्धुपयोग विशुद्ध धरें, जिनतें करमानव भाजत है ॥ हैं दुतिये शुभ भाव दशा सु धेरै, तिनके करमानव छाजत है । है यह भाविक भेद सनातनतें, जिनआगम या विधि गाजत है ॥५॥ १ सवही परदर्वनिसों ममता, तजिके मुनिको व्रत धीर धेरै ।। ६ चित चंचल अंश कपाय उदै, नहिं आतम शुद्ध प्रकाश करें ।
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फविवर वृन्दावन विरचित
है मुनि शुद्धपयोगिनिके ढिगमें, पुनि जे बरतें अनुराग भैरै । फहिये अब ते मुनि है कि नहीं, इमि पूछन शिष्य विनीत वरै ॥ ६ ॥
दोहा । याको उत्तर प्रथमही, ग्रंथारम्भतमाहिं । कहि आये हम हैं भविक्र, पुने समुझो इहि ठाहिं ॥ ७ ॥
माधवी । पनिज धर्मसरूप जबै प्रनवै, यह आतम आप अध्यातम ध्याता ।
तव शुद्धुपयोगदशा गहिके, सो लहै निरवान सुखामृत ख्याता ॥ ६ अरु होत जहां शुभरूपपयोग, तहां सुरगादि विभौ मलि जाता । यह आपुहि है अपने परिनामनिको, फल भोगनिहार विधाता ॥ ८॥
दोहा । शुभपयोगसों और पुनि, शुद्धातम निजधर्म । तिनसों एक अस्थविपैं, है समवाय सुपर्म ॥ ९ ॥ एकातमहीके विपैं, दोनों भाव रहाहिं । तातें दोनों भावको, धरम कही श्रुतिमाहि ॥ १० ॥ याही नयते हे भविक, शुभ उपयोगी साध । तेऊ मुनि हैं पै तिन्हैं, आस्रव कर्म उपाध ॥ ११ ॥ शुद्धपयोगीके नहीं, करमानवको लेश ।
ते सब कर्म विनाशिक, होहिं शुद्ध सिद्धेश ॥ १२ ॥ १. यह पहले अध्यायकी ग्यारहवीं गाथाका अनुवाद है, जो किपहले अध्यायमें छप चुका है (पृष्ठ १९में ) अन्तर इतना है कि वहाँ छन्द मत्तगयन्द था, हा प्रत्येक चरणमें दो दो लघु (निज, तब, अरु, यह ) डालकर माधवी बना दिया है।
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प्रवचनसार
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(२) गाथा-२४६ शुभोपयोगी श्रमणका लक्षण ।
रूप सवैया। जो मुनिके उर अंतरमाहीं, यह परनति वरतै सुनि भव्व । अरहंतादि पंचगुरुपदमें, भगत उमंग रंग रसतम्व ॥ तथा परम आगम उपदेशक, तिनसों वच्छलता विनु गन्न । सो शुभरूप कहावत 'चरिया, यो वरनी जिनगनधर पन्च ॥१३॥
छप्पय ।
जो परिगह परिहार, सुमुनिमुद्राको धारै । - पै कपायके अंश, तासुके उदय लगारे ॥
ताते शुद्धस्वरूपमाहिं, थिरता नहिं पावै ।
तब पन शुद्धस्वरूप, सुगुरुसों प्रीति बढ़ावै ॥ अरु जे शुद्धातमधरमके, उपदेशक तिनमें हरखि । वर भक्ति सु सेवा प्रीतिजुत, बरततु है मुनिमग परखि ॥ १४ ॥
सोरठा। तिस मुनिके यह नानु, इतनहिं राग सु अंशकरि । पर दरवनिमें मानु, है प्रवृत्ति निहचैपनै ॥ १५ ॥ सो शुद्धातमरूप, ताकी थिरतासों चलित । यों भापी जिनभूप, वह शुभभावचरित्रधर ॥ १६ ॥ पंच परमगुरुमाहिं, भगत सु सेवा प्रीति जहँ । सो शुभमग कहलाहिं, शुभ उपयोगिनिके चिह ॥ १७ ॥
है १. भव्य । २. वत्सलता। ३. गर्व-अभिमान । ४. चर्या-वृत्ति ।
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फविवर वृन्दावन विरचित
(३) गाथा-२४७ उनकी प्रवृत्ति ।
मनहरण । महामुनिराजनिकी वानीसेती थुति करे, ___कायासेती नुति करै महामोद भरी है । आवत विलोकि उठि खड़े होहि विन धारि,
चाले तब पीछे चले शिण्यभाव धरी है ॥ तिनके शरीरमाहिं खेद काह भाँति देखें,
___ताको दूर करै जथाजोग विसतरी है । सराग चरित्रकी अवस्थामाहिं मुनिनिको, येती क्रिया करिवो निषेध नाहिं करी है ॥ १८ ॥
दोहा । शुभ उपयोगी साधुको, ऐसो वरतन जोग । शुद्धपयोगी सुमुनि प्रति, जहँ आतमनिधि भोग ॥ १९॥ जो श्रीमहामुनीशके, कहुँ उपसर्गवशाय । खेद होय तो सुथिर हित, वैयावृत्ति कराय ॥ २० ॥ जाते खेद मिटै बहुरि, सुथिर होय परिनाम । . तब शुद्धातम तत्त्वको, ध्यानै मुनि अभिराम ॥२१॥ शुद्धातमके लाभते, रहित जु मिथ्यातीय ।
ताकी सेवादिक सकल, यहां निषेध करीय ॥ २२ ॥ (४) गाथा-२४८ छठवें गुणस्थानमें यह प्रवृत्तियाँ हैं। सम्यकदर्शन ज्ञान दशा, उपदेश करें भविको भवतारी । शिष्य गहैं पुनि पोषहिं ताहि, भली विधिसों धरमामृतधारी ॥ है श्री जिनदेवके पूजनको, उपदेश करें महिमा विसतारी । है है यह रीति सरागदशामहँ, वृन्द मुनिंदनिको हितकारी ॥२३॥
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प्रवचनसार
[२२१
दोहा । शुद्धपयोगीके परम, वीतरागता भाव । तातै तिनके यह क्रिया, होत नाहिं दरसाव ॥ २४ ॥ (५) गाथा-२४९ यह सभी प्रवृत्तियाँ शुभोग्योगियोंके
ही होती है। मत्तगयन्द । जामहँ जीव विरोध लहै नहि, ताविधिसों नितही विधि ज्ञाता ।
चारि प्रकारके संघ मुनीशको, ताको करै उपकार विख्याता || • आपने संजमको रखिके, निहचे सबके सुखदायक ताता । ' या विधि जो वरतै मुनि सो, परधान सरागदशामहँ भ्राता ॥२५॥
दोहा । श्रावक अरु पुनि श्राविका, मुनि अरजिका प्रमान । येई चारों संघके, स्वामी सुमुनि सयान । २६ ॥ शुद्धातम अनुभूतिके, ये साधक चहुसंग । ताते नित रच्छा करहिं, इनकी सुमुनि उमंग । २७ ।। वैयावृत्तादिक क्रिया, जा विधि नै उदार । ताही विधिसों करत हैं, ते सराग अनगार ।। २८ ।। हिंसा दोष बचायके, अपनो संजम राख ।
संघानुग्रहमें रहे, सो प्रधान मुनि भाख ॥ २९ ।। (६) गाथा-२५० मुनित्व उचित प्रवृत्ति विरोधी नहीं, किन्तु अनुचित प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिये ।
कवित्त-मात्रिक । जो मुनि और मुनिनिके कारन, वैयावरत करनके हेत । छहों कायको बाधक हो करि, उद्यमवान होय वरतेत ॥
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फविवर वृन्दावन विरचित
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तो सो मुनि न होय यह जानो, है वह श्रावक मृविधि समेत ! नाते वह अरंभजुत माग्ग, श्रावक धामनाहि छवि देत ॥३०॥
कुण्डलिया। ताते जे कई मुमुनि. गहें सराग चरित्त । ते परमुनिको खेद लखि, ठानी गवृत ॥ टानी वैयावृत्त तहां, निज संजम गखो ।
परकी करो सहायः जथा जिनश्रुतिमें भाखो । पटकाया मविरोध. क्रिया गृहनध्य गर्ने ।
मुनिको मुपद वचाय, उचित पर हिन कृन तात ॥३॥ (७) गाथा-२५१ किनके प्रति उपकारकी प्रवृत्ति योग्य
है ? और फिनके प्रति नहीं:
माधवी। जिनशासनके अनुसार घरें व्रत, जे नुनिराय तथा गृहवासी । . दिनको उपकार करो सु दया घरि, त्यागि हिये फनकी अभिलासी ॥ है इहि भांति किये जदि जो तुमको शुभकर्म व कछु तो नहिं हांसी । है. यह रीति सराग चरित्र विपैं, है सनातन वृन्द जिनिंद प्रकासी ॥३२॥ (८) गाथा-२५२ शुमोपयोगी श्रमणको किस समय प्रवृत्ति करना योग्य है और किम समय नहीं :
मनहरण । कहूँ अाहू मुनिको जो रोगसों विचित देखो,
तथा भूख प्यास करि देखो जो दुचित है । तथा काहू भांतिकी परीपड़के जोगसेती,
कायमें कलेश काहू मुनिके कुचित है ॥
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प्रवचनसार
[ २२३
तहाँ तुम आफ्नी शकतिके प्रमान मुनि,
ताकी वैयावृत्ति आदि करो जो उचित है ।। जात वह साध निरुपाध होय वृन्दावन,
___ सहजसमाधमें अराधै जो सुचित है ॥ ३३ ॥ (९) गाथा-२५३ शुभोपयोगी श्रमण है वह लोगोंके साथ बातचीतको प्रवृत्ति किस निमित्तसे करे यो योग्य है। रोगी मुनि अथवा अचारज सुपूज गुरु,
तथा बाल वृद्ध मुनि ऐसे मेद वरनी । तिनकी सहाय सेवा आदि हेत मुनिनिको,
लौकिक जनहूसों सुसंभाषन करनी ॥ जामें तिन साधनके खेदको विछेद होय,
ऐसे शुभ भावनिसों वानीको उचरनी । सराग आनन्दमें अनिंद वृन्द विधि यह,
सुपरोपकारी बुधि भवोदधितरनी ॥ ३४ ॥ (१०) गाथा-२५४ शुभका मौण-मुख्य विभाग । यह जो प्रशस्त रागरूप आचरन कहो,
वैयावृत्त आदि सो तो बड़ोई धरम है । मुनिमण्डलीमें यह गौनरूप राजे जाते,
तहां रागभाव मंद रहत नरम ः है । श्रावक पुनीतके बड़ोई धरमानुराग,
तातें तहां. उतकिष्ट मुख्यता परम है ।
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१. चित्स्वरूप आत्मा ।
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२२४ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
ताहीकरि परंपरा पावै सो परम सुख,
निहचे बखानी श्रुति या ना भरम है ॥ ३५ ॥ (११) गाथा-२५५ कारणको विपरीतता-फलकी भी।
कवित्त । यह प्रशस्त जो रागभाव सो, वस्तु विशेष जो पात्रविधान । तिनको जोग पायकरि सोई, फल विपरीत फलत पहिचान || ज्यों कृपि समै विविध धरनी तह, अविधि धरनिमहँ वीज वुवान । सो विपरीत फलत फल निहचे, कारन सम कारज परमान ॥३६॥ (१२) गाथा-२५६ कारण और फलकी विपरीतता।
मनहरण । छदमस्थ बुद्धीने जो आपनी उकतिहीसों,
देव गुरु धर्मादि पदारथ थोपै है। व्रत नेम ध्यानाध्येन दानादि बखाने तहां,
तामें जो सुरत होय प्रीति करि व्यापै है ॥ तासों मोखपद तो सरवथा न पावै वै,
उपाव पुन्यरूप भाववीज यों अलापै है । ताको फल भोगै देव मानुष शरीर धरि, फेरि सो जगतहीमें तपै तीनों तापै है ॥ ३७॥
कवित्त ( ३१ मात्रा) । वीतराग सरवज्ञदेवकरि, जो भाषित है वस्तुविधान । देवधर्म गुरु ग्रंथ पदारथ, तिनमें जो प्रतीति रुचिवान ।। सो शुभरागभाव वृन्दावन, निश्चयसों कीजो सरधान । ताको फल साच्छात पुन्य है, परंपरा दे है शिवथान ॥३८॥
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प्रवचनसार
[ २२५
दोहा । तातै गहि भवि वृन्द अब, अनेकान्तको सनं । ताहीके अनुसार करि, शुभपयोग आचन ॥ ३९ ॥ ताको फल साच्छात लहि, पुन्यरूप सुखवृन्द ।
परम्परासों मोखपद, पैहै आनन्दकन्द ॥ ४० ॥ (१३) गाथा-२५७ मिथ्यादृष्टिको सर्वज्ञ कथित पदार्थों में कारणविपरीतता और फल विपरीतता ।
मनहरण । शुद्ध परमातम पदारथको जानै नाहिं,
ऐसे जे अज्ञानी जीव जगमें वखाने हैं । नाके उर विषय कपाय भूरि भरि रह्यो,
ऐसे जगजंतको जे गुरुकरि माने हैं ॥ तिन्हें भक्ति भावसेती सेवें अति प्रीति धारि,
आहारादि दान दे हरप हिय आने हैं । ताको फल भोग सो कुदेव कुमनुप होय,
सै जग जालमें सो मूरख अयाने हैं ॥४१॥ आतमीक ज्ञान वीतराग भाव जाके नाहिं,
तथा याकी कथा हू न रुचै रंच भरी है । मिथ्यामत माते नित विषय कपाय राते,
ऐसेको जो गुरू मानि सेवै प्रीति धरी है ॥ आहारादि दान है प्रधान पद माने निज,
जाने मूढ़ सही मोहि यही निसतरी है ।
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फविवर वृन्दावन विरचित
दोनों कर्म भार भरे कैसे भवसिंधु तर.
पाथरकी नाव कहूँ पानीमाहिं तरी है ॥४२॥ (१४) गाथा-२५८ कारणकी विपरीततासे सत्यार्थ फल
सिद्ध नहीं होता। इन्द्रिनिके भोगभाव विषय कहाबैं और,
क्रोबादिक भाव ते कपायरूप वरनी । इन्हैं सर्व सिद्धांतमें पाप ही मथन वरी,
तथा इन्हैं धारै सोऊ पापी उर धरनी ॥ ऐसे पाप भारकरि भरे जे पुरुष ते सु,
-भक्तनिको कसे निसतारें निरवरनी । आपु न तरेंगे औ न तारेंगे सु भक्तनिको, दोनों पाप भार भरे भोग पाप करनी ॥४३॥
दोहा । विषय कषायी जीवको, गुरुकरि सेयें मीत ।
उत्तम फल उपजै नहीं, यह दिढ़ करु परतीत ॥ १४ ॥ (१५) गाथा-२५९ यथार्थ फलका कारण ऐसा जो
अविपरीत कारण।
मत्तगयन्द । जो सब पाप क्रिया तजिक, सब धर्मविर्षे समता विस्तारै । ज्ञान गुनादि सबै गुनको, जो अराधत साधत हैं श्रुतिद्वारें ॥ होहिं सोई शिवमारगके, वर सेवनहार मुनीश उदारें । आपु त भविको भव तारहिं, पावन पूज्य त्रिलोकमझारें ॥४५॥
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प्रवचनसार
[ २२७
(१६) गाथा-२६, उसे ही विशेष समझाते हैं।
मनहरण । अशुभोपयोग जो विमोह रागदोष भाव,
तासते रहित होहि मुनी निरग्रंथ है । शुद्ध उपयोगकी दशामें केई रमैं केई,
शुभ उपयोगी मथें विवहार मंभ है । तेई भव्य जीवनिको तारें हैं भवोदधितै,
आपु शिवरूप पुन्यरूप पूज पंथ है । तिनहीकी भक्तिते भविक शुभथान लहैं,
ऐसे चित चेत वृन्द भापी जैन्ग्रंथ है ॥४६॥ (१७) गाथा-२६१ यथार्थ कारण-कार्यकी उपासनारूप प्रवृत्ति सामान्य विशेषतया करने योग्य है।
माधवी । तिहि कारन गुन उत्तपभाजन, श्रीमुनिको जव आवत देखो ।। तब ही रठि वृन्द खड़े रहिकै, पद वंदि पदांबुजकी दिशि पेखो ॥ गुनवृद्ध विशेष नेकी इहि भांति, सदी करो विनयादि विशेखो । उपदेश जिनेशको जान यही, विधिसों वरतो चहुसंघ सरेखो ॥४७॥ (१८) गाथा-२६२ श्रमों के योग्य प्रवृत्तिका निषेध नहीं है।
मनहरण । आवत विलोकि खड़े होय सनमुख जाय,
आदरसों आइये आइये ऐसे कहिक । अंगीकार करिके सु सेवा कीजै वृन्दावन,
और अन्न पानादिसों पोखिये उमहिकै ॥
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२२८ ]
कविवर वृन्दावन विरचित
बहुरि गुननिकी प्रशंसा कीजे विनयसों,
हाथ जोरे रहिये प्रनाम कीजै ठहिकै । मुनिमहागज वा गुनाधिक पुरुपनिसों,
___ याही भाँति कीजे श्रुतिसीखरीति गहिकै ॥४८॥ (१६) गाथा-२६३ श्रमणाभायोंके प्रति सर्व प्रवृत्तियोंका
निषेध ही है।
छप्पय । जे परमागम अर्थमाहिं, परवीन महामुनि । अरु संजम तप ज्ञान आदि, परिपूरित हैं पुनि ॥ तिनहिं आवतौ देखि, तबहि मुनिहूकहँ चहिये ।
खड़े होय सनमुख सुजाय, आदर निरबहिये ॥ सेवा विधि अरु परिनाम विधि, दोनों करिवो जोग है । है उत्तम मुनिमगरीति यह, जहँ सुभावसुखभोग है ॥४९॥
दोहा । दरवित जे मुनि भेष धरि, ते हैं श्रमनाभास । तिनकी विनयादिक क्रिया, जोग नहीं है भास ॥५०॥ (२०) गाथा-२६४ श्रमणाभास ।
रूपक कवित्त । संजम तप सिद्धांत सूत्र, इनहू करि जो मुनि है संजुक्त । हैं जो जिनकथित प्रधान आतमा, सुपरप्रकाशकते वर शुक्त ॥ १ तासु सहित जे सकल पदारथ, नहिं सरदहै जथा जिनउक्त । ६ तब सो मुनि न होय यह जानो, है वह श्रमनाभास अजुक्त ॥११॥
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प्रवचनसार
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(२१) गाथा-२६५ सच्चे श्रमणोंके प्रति जो द्वेप रखे, थादर न रखे उनका नष्टत्त ।
मत्तगयन्द। श्री जिनशासनके अनुसार, प्रवर्ततु हैं जे महामुनिराई । जो तिनको लखि दोष धरै, अनआदर” अपवाद कराई ॥ जे विनयादि क्रिया कही वृन्द, करै न तहां सो सुहर्ष बढ़ाई । सो मुनि चारितभ्रष्ट कहावत, यों भगवंत भनी सुनि भाई ॥५२॥ (२२) गाथा-२६६ स्वयं गुणोंमें हीन हैं फिर भी
अधिक गुणी ऐसे धमों के पास विनयको चाहना रखते हैं वह कैसा?
द्रुमिला। । अपने गुनते अधिके जे मुनी, गुन ज्ञान सु संजम आदि भरै ।
तिनसों अपनी विनयादि चहै, हम हू मुनि हैं इमि गर्व धेरै ॥ । तब सो गुनधारक होय तऊ, मुनि मारगतै विपरीत चरै । । वह मूढ़ अनन्त भवावलिमें, भटकै न कभी भवसिंधु तरै ॥५३॥ (२३) गाथा-२६७ यदि जो श्रमण, श्रमण्यसे अधिक
तो है ही फिर भी अपनेसे हीनके प्रति विनय आदि बरावरी जैसा करे तो उसका विनाश ।।
मत्तगयन्द । आपु विर्षे मुनिके पदके गुन, हैं अधिके उतकिण्ट प्रमानै । । सो गुनहीन मुनीननकी, जो करै विनयादि क्रिया मनमानै ॥
तो तिनके उरमाहि मिथ्यात, -पयोग लसै लखि लेहु सयानै । । है यह चारितभ्रष्ट मुनी, अनरीति चलै जतिरीति न जानै ॥५४॥
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कविवर वृन्दावन विरचित
दोहा । विनय भगत तो उचित है, बड़े गुनिनिक्री वृन्द । हीन गुनिनिको वंदते. चारित होत निकंद ॥ ५५ ॥ (२४) गाथा-२६८ असत्संगका निपेध ।
कवित्त मात्रिका जद्दिप जिनसिद्धांत सूत्रकरि, जानत है निहचै सब वस्त । ६ अरु कषाय उपशमकरि जो मुनि, करत तपस्या अधिक प्रशस्त ॥
जो न तजै लौकिक जनसंगति, तो न होय वह मुनि परशस्त । १ संगरंगते भंग होय व्रत, यात तजिय कुसंगत रस्त ॥५६॥
दोहा । जैसे अगिनि मिलापते, शीतल जल है गर्म । तैसे पाय कुसंगको, होय मलिन शुभ कर्म ॥ ५७ ॥ ता” तजो कुसंग मुनि, जो चाहो कुशलात । बसो सुसंगत सुमुनिके, जुतविवेक दिनरात ॥५८ ॥ कही कुसंगतकी कथा, बहुत भाँति श्रुतिमाहिं । विषम गरल सम त्यागि तिहि, चलो सुसंगति छाहिं ॥५९ ॥ (२५) गाथा-२६९ लौकिकजनका लक्षण ।
मिला। निरग्रंथ महाव्रतधारक हो करि, जो इहि भाँति करै करनी । है वरतै इस लौकिक रीतिविपैं, करै वैदक जोतिक मंतरनी ॥ है वह लौकिक नाम मुनी कहिये, परिभ्रष्ट दशा तिसकी वरनी । १ तपसंजमसंजुत होय तऊ, न तरै भवसागर दुस्तरनी ।.६०॥ है १. विष । २. वैद्यक । ३. ज्योतिष । ४. मंत्रविद्या ।
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प्रवचनसार
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दोहा । लौकिक जनमन मोदके, जेते विविध विधान । तिनमें वरतै लगनजुत, सो लौकिक मुनि जान ॥ ६१ ।। ताकी संगतिको तजहिं, उत्तम मुनि परवीन ।
जात संगति दोषत, सज्जन होय मलीन ॥६२ ॥ (२६) गाथा-२७० सत्संग (विधेय है) जो करने योग्य है ।
छप्पय । तिस कारन मुनिको कुसंग, तजिक यह चहियत । निज गुनके समतूल होहि, के अधिक सु महियत ? ॥ तिन मुनिकी सतसंगमाहि, तुम बसौ निरंतर ।
जो सब दुखते मुक्ति दशा, चाहो अमिअंतर ।। समगुन मुनिकी सतसंगरौं, होय सुगुनरच्छा परम । गुनवृद्ध मुनिनिकी संगत, बढ़े सुगुन आतमधरम ॥ ६३ ।।
दोहा । जलमें शीतल गुन निरखि, ताकी रच्छाहेत । शीत भौनके कौनमें, राखहिं सुबुध सचेत ॥६४॥ यह समान गुनकी सुखद, संगति भाषी मीत । अब भाषों गुन अधिकके, सतसंगतिकी रीत ॥६५॥ जैसे बरफ कपूर पुनि, शीत आदि संजोग । होत नीर गुन शीत अति, यह गुन अधिक नियोग |॥ ६६ ।।
___ काव्य ( माया २४) ताते जे मुनि महामोख, -सुखके अमिलाखी । तिनको यह उपदेश, सुखद है अतिकी साखी ।।
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२३२ ] कविवर वृन्दावन विरचित RIZETTERTAITENERALREZAVALERTREAzaz.saxzort
तजि कुसंग सरवथा, सुपथमें चलो बुधातम । वसो सदा सतसंगमाहिं, साधो शुद्धातम ॥६७ ॥
मनहरण ।। प्रथम दशामें शुभ उपयोगसेती,
उतपन्न जो प्रवृत्ति वृन्द ताको अंगीकार है । पीछेसों सु संजमकी उतकिष्टताई करि.
परम दशाको अवधारो बुद्धिधार है ॥ पाछे सर्व वस्तुकी प्रकाशिनी केवलज्ञाना,
-नन्दमई शास्वती अवस्था जो अपार है । ताको सरवथा पाय अपने अतिन्द्री सुख, तामें लीन होहु यह पूरो अधिकार है । ६८ ।
माधवी । तिस कारनतै समुझाय कहों, मुनि वृन्दनिको सतसंगति कीने । 1. अपने गुनके जे समान तथा, परधान मुनीनिकी संग गहीजे ॥
जदि चाहत हौ सब दुःखनिको खय, तो यह सीख सु सीस धरीजे । नित वास करो सतसंगतिमाहिं, कुसंगतिको सु जलंजलि दीजे ॥६९।।
दोहा । ज्यों जुग मुकता सम मिलत, कीमत होत महान । त्यों सम सतसंगत मिलत, बढ़त सुगुन अमलान १७०॥ ज्यों पारस संजोगते, लोह कनक है जाय ।
गरल अमिय सम गुनधरत, उत्तम संगति पाय ।।७१।। १. विष । २. अमृत ।
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प्रवचनसार
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जैसे लोहा काठ संग, पहुँचै सागर पार । तैसे अधिक गुनीनि संग. गुन लहि तजहि विकार ॥ ७२ ॥ ज्यों मलगगिरिके विपैं, बावन चंदन जान । परसि पौन तसु और तरु, चन्दन होहिं महान ॥ ७३ ।। त्यों सतसंगति जोगते, मिटै सकल अपराध । सुगुन पाय शिवमग चलै, पावै पद निरुपाध ॥ ७४ ॥ देख कुसंगति पायके, होहिं सुजन सविकार । अगिनि-जोग जिमि जल गरम, चंदन होत अँगार ॥ ७५॥ छीर जगत जन पोषिक, करत वीजदुति गात । सोई अहिमुग्व परत ही, हालाहल है जात ॥ ७६ ।। ताते वहुत कहों कहा, जे ज्ञाता परवीन । ते थोरेहीमें लखहिं, संग रंगकी बीन ॥ ७७ ॥ दुर्जनको उपदेश यह, निष्फल ऐसें जात । पाथर परको मारिबो, चोखो तीर नसात ॥ ७८॥ ताते निजहित हेतको, गहन करहिं बुधिधार । हंस पान *पयको करत, जिमि तजि वारिविकार ॥ ७९ ॥ यों मत चितमें जानियौ, मुनिकहँ यह उपदेश । श्रावकको तो नहिं कह्यो, मूल ग्रंथमें लेश ॥ ८० ॥ मुनिके मिष सबको कह्यो, न्याय रीति निरबाह । जिहि मगमें नृप पग धरै, प्रजा चलै तिहि राह ।। ८१॥ ऐसो जानि हिये सदा, जिन आगम अनुकूल । करो आचरन हे भविक, करम जलें ज्यों तूल ॥ ८२ ॥
१. पवन-हवा। २. दूध । ३ विजली जैसी कांति । ४. दूध ।
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फविवर वृन्दावन विरचित
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परम पुन्यके उदयतें, मिल्यौ सुघाट सुजोग । अब न चूक भवि वृन्द यह, नदी नाव संजोग ॥ ८३ ॥ सकल ग्रंथको मंथके, पंथ कयो यह सार । कुन्दकुन्द गुरुदेव सो, मोहि करो भव पार । ८४ ॥ जयवंतो वरती सदा, श्रीसरवज्ञ उदार । जिन भाग्यौ यह मुकतिमग, श्रीमत प्रवचनमार ॥ ८५ ॥ यह मुनि शुभ आचारको, पूर्ण भयो अधिकार । सो जयवंतो होहु जग, रविशशिकी उनिहार ॥ ८६ ॥ मंगलकारी जगत गुरु, शुद्ध सिद्ध अग्हंत । सो याही मगरौं किये, सकल करमको अंत ।। ८७ ।। ताते परम पुनीत यह, जिनशासन सुखकंद । वृन्दावन सेवत सदा, दायक सहजानन्द ॥ ८८ ॥
अथ पञ्चरत्नतत्त्वस्वरूपो लिख्यते ।
मंगलाचरण-दोहा। पंच परमपद वंदिके, पंचरतनको रूप । गाथा अरथ विलोकिक, लिखों सुखद रसकूष ।। ८९ ।। मानो इस सिद्धांतके, एई पांचों रत्न । मुकुटसरूप विराजहीं, उर धरिये जुत जन ॥ १० ॥ अनेकांत भगवंतमत, ताको जुत संक्षेप । दरसावत है रतन यह, नय प्रमान निक्षेप ॥ ९१ ॥
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प्रवचनसार
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और यही संसार थिति, मोक्षस्थिति विरतंत । प्रगट करत हैं तासुतै, होहु सदा जयवंत ।। ९२ ॥ पंचरतनको नाम अब. सुनो भविक अभिराम । डर सरधा दिढ़ धारिक, वेगि लहो शिवधाम ॥ ९३ ॥
छप्पय । प्रथम तत्व संसार, मोक्ष दुजो पुनि जानो । मोक्षतत्वमाधक तथैव. साधन उर आनो ।। सर्वमनोरथ सुखद, -थान शिष्यनिको वग्नी ।
शास्त्रश्रवणको लाभ, तुरित भवसागर तरनी ।। यह पंचरतन इस ग्रंथमें, सकल ग्रंथ मथिके धरे । वृन्दावन जो सरधा करै, सो भाव तरि शिवतिय वरे ॥१४॥ (१) गाथा-२७१ संसारतत्त्व ।
छप्पय । जो मुनिमुदा धारि, अर्थ अजथारथ पकरी । नथा गोह गहि भूमि, तथा हारिलने लकरी ॥ जो हम निश्चय किया, सोइ है तत्त्व जथारथ ।
इमि हठसों एकांत, गहै वर्जित परमारथ ॥ सो भमै अगामीकालमें, पंचपरावर्तन करत । दुखफल अनंत भोगत सदा, कबहुँ न भवसागर तरत ।। ९५॥
दोहा । मिथ्याबुद्धि विकारतें, जे जन अज्ञ अतीव । अजथारथ ही तत्व गहि, हटजुत रहत सदीव ॥ ९६ ॥
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कविवर वृन्दावन विरचित
जहिप मुनिमुद्रा धेरै, तदिप मुनि नहिं सोय । सोई संसृत तत्त्व है, इहाँ न संशय कोय ॥१७॥ ताको फल परिपूर्ण दुख, पंच परावतरूप । भमै अनन्ते काल जग, यों भाषी जिनभूप ॥ ९८ ।। और कोइ संसार नहिं, संसृत मिथ्याभाव । जिन जीवनिके होय सो, संसृनतत्त्व कहाव : ९९ ।।
(२) गाथा-२७२ मोक्षतत्व ।
अनंग शेखर-दण्डक । मिथ्या अचार टारिके जथार्थ तत्व धारिके,
विवेक दीप वारिके स्वरूप जो निहारई । प्रशांत भाव पायके विशुद्धता बढ़ाय पुत्र,
-बंध निर्जरायके अबंध रीति धारई । न सो भमै भवावली तरै सोई उतावली,
सोई मुनीशको पदस्थ पूर्णता सुसारई । यही सु मोखतत्व है त्रिलोकमें महत्त है, सोई दयानिधान भव्य वृन्दको उधाई ॥१०॥
दोहा । जो परदरवनि त्यागिकै, है स्वरूपमें लीन । सोई जीवनमुक्त है, मोक्षतत्त्व परवीन ॥१०१। (३) गाथा-२७३ उनका साधनतत्व ।
__ मनहरण । . सम्यक प्रकार जो पदारथको जानतु है,
आपा पर भेद मिन्न अनेकान्त करिकै ।
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प्रवचनसार
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इन्द्रिनिके विषमैं न पागै औ परिग्रह,
पिशाच दोनों भांति तिन्हें त्यागै धीर धरिक ॥ सहज स्वरूपमें ही लीन सुखसैन मानो,
करम कपाटको उघारै जोर भरिकै । ताहीको जिनिंद मुक्त साधक बखानतु हैं, सोई शुद्ध साध ताहि बंदों भर्म हरिकै ॥१०२॥
दोहा । ऐसे सुपरविवेकजुत, सैं शुद्ध जे साध ।
मोखतत्त्वसाधक सोई. वर्जित सकल उपाध ॥१०३॥ (४) गाथा-२७४ उन शुद्धोपयोगीको सर्व मनोरथके स्थानके रूपमें अभिनन्दन (प्रशंसा)।
मनहरण । शुद्ध वीतरागता सुभावमें जु लीन शिव,
-साधक श्रमन सोई मुनिपदधारी है । ताही सु विशुद्ध उपयोगीके दरश ज्ञान, .
भापी है जथारथपनेसों विसतारी है । फेर ताही शुद्ध मोखमारगी मुनीशहीके,
निरावाध मोखकी अवस्था अविकारी है । सोई सिद्धदशामें विराजै ज्ञानानन्दकन्द, निरद्वन्द वृन्द ताहि बंदना हमारी है ॥१०॥
दोहा। मोक्षतत्वसाधन यही, शुद्धपयोगी साध । सकलमनोरथसिद्धिप्रद, शुद्ध सिद्ध निरबाध ॥१०५॥
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फविवर वृन्दावन विरचित
(५) गाथा-२७५ अब आचार्य देव शिष्यजनोको शास्त्रफलके माथ जोड़ते हुये शास्त्र पूर्ण करते हैं।
छप्पय । जो यह शासन भलीभांति, जान भवि प्रानी । श्रावक मुनि आचार, जासुमधि सुगुरु बखानी ॥ सो थोरे ही कालमाहि, शुद्धातम पवि ।
द्वादशांगको सारभूत, जो तत्त्व कहावै ॥ मुनि कुन्दकुन्द जयवंत जिन, यह परमागम प्रगट किय । चन्दावनको भव उदधितै, दै अवलम्ब उधार लिय ॥१०६॥
द्वादशांगश्रुतिसिंधु, मथन करि रतन निकासा । सुपरभेद विज्ञान, शुद्ध चारित्र प्रकासा ॥ सो इस प्रवचनसारमाहि, गुरु वरनन कीना ।
अध्यातमको मूल, लखहिं अनुभवी प्रवीना ॥ मुनि कुन्दकुन्द कृत मूल जु सु, अमृतचन्द टीका करी । तसु हेमराजने वचनिका, रची अध्यातमरसभरी ॥१०७॥
मनहरण । दोइ सौ पछत्तर पराकृतकी गाथामाहिं,
लन्दकुन्द स्वामी रची प्रवचनसार । अध्यातमवानी स्यादवादकी निशानी जाते,
सुपरप्रकाशबोध होत निरधार है ।। निकट-सुभव्यहीके भावभौनमाहिं याकी,
दीपशिखा जगै भगै मोह अंधकार है । मुख्य फल मोख औ अमुख्य शकचक्रिपद,
वृन्दावन होत अनुक्रम भव पार है ॥१०८॥
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प्रवचनसार
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अथ कवि व्यवस्था लिख्यते ।
छप्पय । यगरवाल कुल गोल, गोत वृन्दावन धरमी । घरमचन्द जसु पिता, शिताबो माता परमी ॥ तिन निजमतिमित वाल, ख्याल सम छन्द बनाये ।
काशी नगर मंझार, सुपर हित हेत सुभाये ॥ प्रिय उदयराज उपगारतें, अब रचना पूरन भई । होनाधिक सोधि सुधारियौ, जे सज्जन समरसमई ॥१०॥
मनहरण । वाराणसी आरा ताके वीच वसै वारा,
सुरसरिके किनारा तहां जनम हमारा है । ठार अड़ताल माघ सेत चौदै सोम पुष्य,
कन्या लग्न भानुअंश सत्ताइस धारा है ॥ साठेमाहि काशी आये तहां सतमंग पाये,
जैनधर्ममर्म लहि भर्म भाव हारा है । सैली सुखदाई भाई काशीनाथ आदि जहाँ, मध्यातमवानीकी अखण्ड बहै धारा है ॥११०॥
छप्पय । प्रथमहिं आढ़तराम, दया मोपै चित लाये । सेठी श्री सुखलालजीयसों, आनि मिलाये ॥ तिनपै श्री जिनधर्ममर्म, हमने पहिचाने । पीछे वकमूलाल मिले, मोहि मित्र सयाने ॥
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कविवर वृन्दावन विरचित
अवलोके नाटकत्रयी पुनि, औरहु ग्रंथ अनेक जब । तव कविताईपर रुचि बढ़ी, रचो छन्द भवि वृन्द अब ॥१११॥
सम्वत विक्रमभृप, ठारसौ वेशठमाहीं । यह सब वानक वन्यौ, मिली सतसंगतिछाहीं ॥ तब श्री प्रवचनसार, अन्यको छन्द बनावों ।
यही आश उर रही, नासुत निजनिधि पावों ।। तव छन्द रची पूरन करी, चित न रुचि तब पुनि रची । सोऊ न रुची तब अब रची, अनेकांत रससों मची ॥११२॥
अथ ग्रन्यपरिसमाप्तिमङ्गल
दोहा । वन्दों श्रीसरवज्ञ जो, निरावरन निरदोष । विघ्नहरन मंगलकरन, मनवांछित सुख पोष ॥११३।। पंचपरमगुरुको नमो, उर धरि परम सनेह । भवदवित भवि वृन्दको, पार उतारत तेह ॥११॥ जिनवानी जिनधर्मको, वदों वारंवार । जिस प्रसादतै पाइये, ज्ञानानन्द अपार ॥११५ । सज्जनसों कर जोरके, करों वीनती मीत । भूल चूक सब सोषिक, शुद्ध कीजियौ रीत ||११६॥ यामें हीनाधिक निरखि, मूलअन्यको देखि । शुद्ध कीजियो सुजनजन, वाल्बुद्धि मम पेखि ॥११७||
१. यह दोहा छन्दगतकमें भी है।
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प्रवचनसार
[ २४१.
यह मुनि शुभचारित्रको, पूर्ण भयो अधिकार । सो जयवंत रहो सदा, शशि सूरज उनिहार ॥११८॥
अथ कविवंशावली लिख्यते।
काव्य-२४ मात्रा। मार्गशीर्ष गत दोय, और पंद्रह अनुमानो । नारायन विच चन्द्र, जानि औ सतरह जानो ॥ इसी बीच हरिवंश, लाल बाबा गृह जाये । नाम सहारूपाह, साहजूके कहलाये ॥११९॥ बाबा हीरानन्दसाह, सुन्दर सुत तिनके । पंच पुत्र धनधर्म, -वान गुनजुत थे इनके ॥ प्रथमे राजाराम, बबा फिर अभैराज सुनु । उदयराज उत्तम सुभाव, आनन्दमूर्ति गुनु ॥१२०।। भोजराज औ जोगराज पुनि, कहे जानिये । इन पितु लग काशी, निवास अस सुखद मानिये ॥ अव बाबा खुशहाल, -चन्द्र सुतका सुनु वरनन । सीताराम सु ज्ञानवान, बंदों तिन चरनन ॥१२१॥ ददा हमारे लालजीय, कुल औगुन खण्डित । तिन सुत मो पितु धर्मचन्द, सब शुभजसमंडित ॥ तिनको दास कहाय, नाम मो वृन्दावन है । एक भ्रात औ दोय, पुत्र मोकों यह जन है ॥१२२॥
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कविवर वृन्दावन विरचित
महावीर है भ्रात नाम, सो छोटा जानो । ज्येष्ठ पुत्रको नाम, अजित इमि करि परमानो ॥ मगसिर सित तिथि तेरस, काशीमें तव जानो । विक्रमाव्द गत सतरहसे, नव विदित सु मानो ॥१२३॥ *मो लघु सुत है शिखर चन्द, सुन्दर सुत ज्येष्ठको । इमि परिपाटी जानिये, ब्रह्यो नाम लघु श्रेष्ठको ||
पद्धरी। संवत चौरानमें सु आय | आरेतै परमेष्ठीसहाय ॥ अध्यातमरंग पगे प्रवीन | कवितामें मन निशिद्यौस लीन ॥१२४॥ सज्जनता गुनगरुवे गम्भीर । कुल अग्रवाल सु विशाल धीर ॥ ते मम उपगारी प्रथम पर्मे । सांचे सरधानी विगत भर्म ॥१२५|| भैरवप्रसाद कुल अग्रवाल । जैनी जाती वुधि है विशाल || सोऊ मोपै उपकार कीन । लखि भूल चूक सो शोध दीन ॥१२६॥
छप्पय।
सीताराम पुनीत तात, जसु मात हुलासो । ज्ञात लमेचू जैनधर्म, कुल विदित प्रकासो ॥ तसु कुलकमलदिनिन्द, प्रात मम उदयराज वर ।
अध्यातमरस छके, भक्त जिनवरके दिढ़तर ॥ ते उपगारी हमको मिले, जब रचनामें भावसों । तब पूरन भयो गिरंथ यह, वृन्दावनके चादसों ॥१२७॥
१. इन दो तुकामें दो २ मात्रायें अधिक हैं। और यह छन्द दोनों
प्रतियोंमें आधा है।
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प्रवचनसार
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दोहा । चार अधिक उनईससौ, संवत विक्रम भूप । जेठ महीनेमें कियो, पुनि आरंभ अनूप ॥१२८॥ पांच अधिक उनईससौ, धवल तीज वैशाख । यह रचना पूरन भई, पूनी मन अभिलाख ॥१२९॥ __ इति श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्यकृत परमागम श्रीप्रवचनसारनी मूल गाथा ताकी संस्कृतटीका श्री अमृतचन्दाचार्यने करी ताकी देशभाषा पांडे हेमराजजीने रची है, ताहीके अनुसारसों वृन्दावन अग्रवाल गोइलगोतीने भाषा छन्द रची तहां यह मुनिशुभचारित्राधिकार समाप्तं ।
सर्वगाथा २७५ दोयसौ पचहत्तर भाषाके छन्द सर्व १०९४ एक हजार चौगनवे भये सो जयवंत होहु । श्रीरस्तु मंगलमस्तु-सं. १९०५ सर्व भाषाके छन्द ११६२ अंकेय ग्यारहसै बासठ भये(इह मूल ग्रन्थकर्ताके हाथकी प्रथम प्रति लिखी है।
सो सदा जयवंत प्रवर्ती)
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समाप्त
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शुद्ध कृ ल
कृपाल (१४) पंडित मंडिन पूव
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अंतरंग दृष्टि अहै जैसे तेज प्रभा (१५)
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पर्जद्वार
पजद्वार दरवलहाही बन
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