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________________ ५२ ] कविवर वृन्दावन विरचित चौपाई। हूँ आतमराम शुद्ध उपयोगी । अमल आतंद्री आनंदभोगी । है तिनकी क्रिया छापकी वरनी । 'वृन्दावन' बन्दत भक्तरनी ॥२१५ ॥ (४६) संसारी और केवलीमें असमानत्व माधवी। है नदि आतम आप सुभावहिते, स्वयमेव शुभाशुभरूप न होई । है तदि तौ न चहै सब जीवनिके, जगजाल दशा चहिये नहिं कोई ॥ १ नत्र वंध नहीं तव भोग कहां. जो वैधै सोई मोगवै भोग तितोई । है यह पच्छ प्राच्छ प्रमानतें साधते. खंडन सांख्यमतीनिकी होई ।२१६॥ छन्द सवैया (सांत्यमतीका लक्षण)। है सांख्य कहै संगरवि थित, जीव शुभाशुभ करै न भाव । हैं प्रकृति करै करमनिको ताजौ, फल भुगतै चिन्मूरति-व ।। ई तहां विरोध प्रगट प्रतिभासत, विना किये कैसे फल पात्र । है जातें जो करता सो मुक्ता, यही राजमारगको न्याव ॥ २१७ ॥ (४७) सर्वज्ञपनेसे अतीन्द्रियज्ञानकी महिमा अशोक पुष्प मंजरी । वर्तमानके गुनौ समस्त पर्ज वा, मविष्य भूतकालके जिते अनंतनंत हैं। सच दबके सवंग जे विचित्रता तरंग, अंतरंग चिन्ह मिन्न मिन्न सो दिपंत हैं | एक ही समै सु एक बार ही लख्यौ तिन्हें, प्रतच्छ अंतग छेद स्वच्छता घरंत हैं।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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