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प्रवचनसार
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अस्त गभस्त विलोकते, चकवा तिय तजि देत । लखहु निमित नैमतिकको, प्रगट अनाहत हेत ॥२०५॥ तैसे पुण्यनिधानके, प्रश्न होत परमान । जिनधुनि खिरत अनच्छरी, इच्छारहित महान ॥ २०६॥ जैसे शयन दशावि0 कोड करि उठत प्रलाप । विनु इच्छा तमु वचन तहँ खिरत आपतै आप ॥२०७॥ जब इच्छाजुतको वचन, खिरत अनिच्छा येम । तब सो वचनखिग्न विपैं, इच्छाको नहिं नेम ॥ २०८ ॥ चिंतामनि सुरवृच्छतें, गुनित अनंतानंत । शक्ति सुखद जिनदेहमें, सहज सुभाव लसंत ॥२०९ ।। जैसी जिनकी भावना, तैसी तिनकों दीस । धुनि धारासों विस्तरत, इन्द्र धरत सत शीस ॥२१० ॥ अब जिहि विधि वरनातमक, होत सुधारण धार । ताको सुनि शरधा करो, ज्यों पावो भवपार ।। २११ ।। श्रीगनधर वर रिद्धिधर, सुनहिं सुधुनि अमलान । तिनहकी मतिमें सकल, बानी नाहिं समान ॥२१२ ॥ जेतो मतिभाजन तितो, 'वयन गही गनईश । वीस अंक परमान श्रुति रची ताहि नुतशीस ॥ २.१३ ॥ ताहीके अनुसार पुनि, और सुगुरु निरग्रंथ ।
रचना जिनसिद्धांतकी, रचहिं सुखद शिवपंथ ॥२१४ ॥ १. वचन ।