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________________ २३६ ] कविवर वृन्दावन विरचित जहिप मुनिमुद्रा धेरै, तदिप मुनि नहिं सोय । सोई संसृत तत्त्व है, इहाँ न संशय कोय ॥१७॥ ताको फल परिपूर्ण दुख, पंच परावतरूप । भमै अनन्ते काल जग, यों भाषी जिनभूप ॥ ९८ ।। और कोइ संसार नहिं, संसृत मिथ्याभाव । जिन जीवनिके होय सो, संसृनतत्त्व कहाव : ९९ ।। (२) गाथा-२७२ मोक्षतत्व । अनंग शेखर-दण्डक । मिथ्या अचार टारिके जथार्थ तत्व धारिके, विवेक दीप वारिके स्वरूप जो निहारई । प्रशांत भाव पायके विशुद्धता बढ़ाय पुत्र, -बंध निर्जरायके अबंध रीति धारई । न सो भमै भवावली तरै सोई उतावली, सोई मुनीशको पदस्थ पूर्णता सुसारई । यही सु मोखतत्व है त्रिलोकमें महत्त है, सोई दयानिधान भव्य वृन्दको उधाई ॥१०॥ दोहा । जो परदरवनि त्यागिकै, है स्वरूपमें लीन । सोई जीवनमुक्त है, मोक्षतत्त्व परवीन ॥१०१। (३) गाथा-२७३ उनका साधनतत्व । __ मनहरण । . सम्यक प्रकार जो पदारथको जानतु है, आपा पर भेद मिन्न अनेकान्त करिकै ।
SR No.010769
Book TitlePravachansar Parmagam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherDulichand Jain Granthmala
Publication Year1974
Total Pages254
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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